बुधवार, 30 मार्च 2016

''शौकीनों'' गले में पट्टा डालने जा रही है महाराष्ट्र सरकार

अदालत के आदेश के बाद महाराष्ट्र में डांस बार भले ही फिर से शुरू होने जा रहे हैं लेकिन ''शौकीनों'' गले में पट्टा भी डालने जा रही है महाराष्ट्र सरकार क्योंकि सरकार डांस बार को नए लाइसेंस देने के लिए जो नियम बना रही है, वो काफी कड़े हैं।

सरकार के ड्राफ्ट के मुताबिक अगर डांस बार के शौकीनों ने आज्ञा का पालन किया तो उन्हें इन बाधाओं को पार करना ही होगा। ये नियम देख‍िए -

1. बार बालाओं पर पैसे लुटाने वाले या फिर उन्हे छूने की कोशिश करने वालों पर 50 हजार का जुर्माना या 6        महीने की जेल हो सकती है।

2. इतना ही नहीं, बार डांसर्स की उम्र कम से कम 25 साल होनी चाहिए। अब डांस बार सिर्फ रात 11:30 तक ही खोले जा सकेंगे।
3.डांस बार में महिला सेक्यॉरिटी गार्ड और महिला वेटर रखना होगा।

4.डांस बार के गेट पर और डांस फ्लोर पर भी सीटीवीवी लगाने का प्रस्ताव ड्राफ्ट में है।

5. बार बालाओं पर पैसे लुटाने वाले या फिर उन्हे छूने की कोशिश करने वाले ग्राहकों पर 50 हजार का जुर्माना या 6 महिने की जेल या दोनों सजा हो सकती है।

6. डांस बार के परफॉर्मेंस एरिया में शराब पर भी पाबंदी होगी।

7. 25 साल से कम उम्र की लड़कियों को बार बाला के तौर पर नहीं रख सकते।

8. तीस दिनों तक सीसीटीवी की फुटेज रखनी होगी।

9. बार बालाओं का उत्पीड़न करने वाले बार मालिक पर 10 लाख का जुर्माना या 3 साल की सजा या फिर दोनों।

10. 11.30 बजे तक ही डांस बार खुले रह सकते हैं पहले 2 बजे तक डांस बार खुले रखने की इजाजत थी।

11. महिला सिक्यॉरिटी गार्ड, महिला वेटर को नियुक्त करना होगा।

12. काम करने वाले सभी बार बालाओं का रिकॉर्ड रखना होगा।

13. बार बालाओं के साथ बार मालिक को बॉन्ड साईन करना होगा इस बॉन्ड में बारबालाओं की सैलरी, उनके पीएफ सहित अन्य सुविधाएं देनी होंगी।

14. बायोमेट्रीक सिस्टम के जरिए बार बालाओं की हाजरी का रिकॉर्ड रखना होगा।

15. अवैध बार मालिक पर 25 लाख का जुर्माना और 5 साल तक की सजा हो सकती है।

16. किसी भी ग्राहक को डांस फ्लोर पर जाने की इजाजत नहीं होगी।

20. बारबाला और ग्राहक के बीच में 5 फिट की दूरी होना अनिवार्य है।

21. इस ड्राफ्ट को स्टडी करने के लिए सरकार ने 30 सदस्यों की एक कमेटी बनाई है और इस कमेटी का नेतृत्व मुख्यमंत्री फडणवीस कर रहे हैं।

22. सरकार ने कहा है की इस ड्राफ्ट को अगर कमेटी ने मंजूर कर लिया तो इसी सत्र में इस ड्राफ्ट को सदन में रखा जाएगा।

- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 19 मार्च 2016

पंडित छन्नू लाल मिश्र जी की राग काफी में गाई होली आज अपनी ओर खींच रही है

हमारे ब्रज में 40 दिन तक चलने वाले होली उत्सव का चरम है फिर भी मुझे बरसाने से उठी होली के समाज गायन की आवाज के साथ साथ बरबस ही पंडित छन्नू लाल मिश्र जी की राग काफी में गाई होली अपनी ओर खींच रही है। ये हर होली पर्व पर ही होता आया है कि मैं उनकी गाई हुई ''खेलें मसाने में होरी दिगंबर खेलैं मसाने में होरी...''  हो  या  '' रंग डारूंगी ... डारूंगी नंदलालन पै... '' हो दोनों को सुनकर भावविभोर हो जाती हूं।
पंडित जी की राग काफी में गाई एक होली है ।

https://www.youtube.com/watch?v=LPHBdIB06SU

होली पर होने वाले लोकगायन और समाज गायन से अलग अपनी शास्त्रीय उपस्थ‍िति बताने को काफी है राग काफी में गाई जाने वाली होली । होली के अध‍िकांश गीतों में  जिस राग को बहुतायत में गाया गया , वह है राग काफी।
यूं तो  भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है परंतु मनमोहक राग - काफी में होली विषयक रचनाएँ खूब मुखर हो जातीं हैं। जैसे कि फिल्म ' गोदान ' में पं. रविशंकर का संगीतबद्ध की हुई एक होली है -
बिरज में होरी खेलत नंदलाल ...
https://www.youtube.com/watch?v=S-4nRKGRRAM
 
होली, उल्लास, उत्साह और मस्ती का प्रतीक-पर्व होता है। इस अनूठे परिवेश का चित्रण भारतीय संगीत की सभी शैलियों में मिलता है। उपशास्त्रीय संगीत में तो होली गीतों का सौन्दर्य खूब निखरता है। ठुमरी-दादरा, विशेष रूप से पूरब अंग की ठुमरियों में होली का मोहक चित्रण मिलता है। उपशास्त्रीय संगीत की वरिष्ठ गायिका विदुषी गिरिजा देवी की गायी अनेक होरी हैं, जिनमे राग काफी के साथ-साथ होली के परिवेश का आनन्द भी प्राप्त होता है। बोल-बनाव से गिरिजा देवी जी गीत के शब्दों में अनूठा भाव भर देतीं हैं। आम तौर पर होली गीतों में ब्रज की होली का जीवन्त चित्रण होता है , सुनिए राग काफी में निबद्ध एक होली...

https://www.youtube.com/watch?v=cTieTuVatRY

उन्हीं की गाई राग गारा में उड़त अबीर गुलाल को भी सुनिए...

https://www.youtube.com/watch?v=CRVyFBfvku8

राग काफी की संरचना की अगर बात करें तो राग काफी, काफी थाट का आश्रय राग है और इसकी जाति है सम्पूर्ण-सम्पूर्ण, अर्थात आरोह-अवरोह में सात-सात स्वर प्रयोग किए जाते हैं।
आरोह में सा रे ग(कोमल) म प ध नि(कोमल) सां तथा अवरोह में सां नि(कोमल) ध प म ग(कोमल) रे सा स्वरों का प्रयोग किया जाता है।
इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है।
कभी-कभी वादी कोमल गांधार और संवादी कोमल निषाद का प्रयोग भी मिलता है।
हालांकि दक्षिण भारतीय संगीत का राग खरहरप्रिय राग काफी के समतुल्य राग है। राग काफी, ध्रुवपद और खयाल की अपेक्षा उपशास्त्रीय संगीत में अधिक प्रयोग किया जाता है।
ठुमरियों में प्रायः दोनों गांधार और दोनों धैवत का प्रयोग भी मिलता है। टप्पा गायन में शुद्ध गांधार और शुद्ध निषाद का प्रयोग वक्र गति से किया जाता है। इस राग का गायन-वादन रात्रि के दूसरे प्रहर में किए जाने की परम्परा है, किन्तु फाल्गुन में इसे किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है।

हमारे ब्रज में कहा जाता है कि ''फागुन ना माने जात कुजातन और ना माने उमरन कौ भान, जाई तै  सब परबन पै भारी पड़्यौ फागुन कौ मान....

इसी पर पंडित छन्नू लाल मिश्र जी ने गाया है ... रंग डारूंगी ... डारूंगी नंदलालन पै... सुनिए

https://www.youtube.com/watch?v=bgyrScI3T5c

इसके अलावा कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें हैं ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग काफी के अलावा भी कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं, जैसे कि बसंत, बहार, हिंडोल। कुछ तो ये होली का पर्व ऐसा कि बसंत की खुमारी और मादकता के कारण गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है, उस पर ऐसी बंदिशें कि मन झूम उठे सुनकर ही । और ऐसे में यदि पंडित छन्नूलाल मिश्र  की आवाज हो तो क्यों ना रंग छाए ... बरबस रंग छाने ही लगता है।
उपशास्त्रीय संगीत विधा में भी चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली पड़ गया जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन , स्थान , इतिहास व  धार्मिक महत्व छुपा मिलता है।

ब्रज की होली के बारे में यदि मैं कुछ ना कहूं तो कुछ अधूरा सा लगता है होली का आनंद ...फाग खेलन मतवारे आए हैं , नटवर नंद किशोर ... हो या होरी खेलन आयौ स्याम आजु जाय रंग में बोरौ री... के साथ श्री कृष्ण जन्मस्थान से होरी के गीतों और ढप तथा बम की धमक यहां तक सुनाई दे रही है..... ।

चलिए होली के इन शास्त्रीय रंगों को पंडित छन्नूलाल मिश्र की ही चैती से आगे बढ़ाते हैं ... सुनिए...

https://www.youtube.com/watch?v=kOiVPLw0rKI&ebc=ANyPxKpa8QdbRGPb1CCGdEuodj7YUBOKBIvJC0BRv6-cpon8ONTH-Scl8wN4cdJ-xiXtBOfVmdpRDc_7Ggn88v1LMckc4nO30w
- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 8 मार्च 2016

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: थैक्यू 8 March 1914


आज सर्च इंजिन गूगल ने #OnedayIwill लिंक के साथ एक वीडियो-डूडल बनाया है जिसमें दुनिया भर की महिलाओं की इच्छा, कार्य और उसकी प्रगति के साथ जुड़ी यात्रा को दिखाया गया है। कुल एक मिनट चौबीस सेंकेंड का ये वीडियो-डूडल 8 मार्च को मनाए जाने वाले उस पोस्टर का फॉलोअप है जो सबसे पहले 8 March 1914 को लिंगभेद विरोध दिवस के रूप में  दुनिया के सामने आया। जिसका मजमून था-
''अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, 8 March 1914 को दर्शाता हुआ एक जर्मन पोस्टर; हिन्दी अनुवाद: “हम महिलाओं को मताधिकार दो। महिला दिवस, 8 मार्च 1914.
अब तक भेदभाव और प्रतिक्रियावादी नज़रिए ने उन महिलाओं को पूर्ण नागरिक अधिकार से वंचित रखा है, जिन्होंने श्रमिकों, माताओं और नागरिकों की भूमिका पूरी निष्ठा से निभाई तथा अपने कर्त्तव्य का पालन किया है एवं जिन्हें नगर पालिका के साथ-साथ राज्य के प्रति भी करों का भुगतान करना होता है। इस प्राकृतिक मानवाधिकार के लिए हर औरत को दृढ़ एवं अटूट इरादे के साथ लड़ना चाहिए। इस लड़ाई में किसी भी प्रकार के ठहराव या विश्राम करने की अनुमति नहीं है। सभी महिलाएँ और लड़कियाँ आएं, रविवार, 8 मार्च 1914 को, शाम 3 बजे, 9वीं महिला सभा में शामिल हों''।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम अपने हको-हुकूक की बातें करते हुए हमेशा उन महिलाओं को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने सबसे पहले अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर यह दिवस २८ फ़रवरी १९०९ को मनाते हुए हर साल फरवरी के आखि‍री इतवार को मनाये जाने का दिन सुनिश्चित किया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में तो इसे अगले ही साल 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में मान्यता मिली।
उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था क्योंकि अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था।
अध‍िकार की यह यात्रा सात साल में चलते- चलते रूस तक जा पहुंची जब 1917 में रूस की महिलाओं ने महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी क्योंकि ज़ार ने सत्ता छोड़ी और उसके बाद बनी अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिया। उस समय रूस में जूलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर जबकि इन दोनों कैलेंडर्स की तारीखों में थोड़ा अन्तर होता है। जूलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 में फरवरी का आखि‍री इतवार २३ तारीख को पड़ा था जब की ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन ८ मार्च थी। चूंकि पूरी दुनिया में अब, यहां तक रूस में भी ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है इसीलिये ८ मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
ये थी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाए जाने की वो यात्रा जब महिलाओं ने कामकाजी होने के साथ अपने अध‍िकारों के लिए आगे आने का साहस किया, और जिसके लिए आज हमें उनका आभार व्यक्त करना चाहिए कि दुनिया की आधी आबादी आवाज उठाने और उसे आगे बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता बनाए हुए है। हालांकि यह यात्रा अपने उत्तरोत्तर पड़ाव स्थापित करती जा रही है । ये पड़ाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका में महिला को राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार्यता दिलाने का हो या बोको हरम के जुल्म, यज़ीदी महिलाओं को सेक्स गुलाम बनाए जाने, होंडुरास से लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान होती हुई हमारे देश में भी ऑनर किलिंग के नाम पर महिलाओं के कत्ल जैसी गतिविध‍ियों तक आगे बढ़ रहे हैं। भारत में इस यात्रा के और भी पड़ाव हैं।
बात निकली है महिला अध‍िकारों की, लिंगभेद को मिटाने की तो ऑफिस से लेकर घर तक और बाजार से लेकर मंदिरों तक हर जगह यह अपनी जद्दोजहद के साथ संकल्पबद्ध है। हर स्तर पर महिलाओं की मौजूदगी तथा उनके होने को स्वीकृति का माहौल तो बन ही चुका है, अब लड़ाई की जगह आम सहमति लेती जा रही है। आगे आने वाला समय इसके लिए और अनुकूल ही होगा क्योंकि कम से कम नई पीढ़ी के लड़के इस बात से बावस्ता हैं, वह लिंगभेद और पुरुषों की ठेकेदारी वाली सोच से आगे जाकर सोच रहे हैं।
शनि सिंगणापुर में प्रवेश, त्रयम्बकेश्वर में प्रवेश, सबरीमाला में युवा महिलाओं के प्रवेश निषिद्धि के ख‍िलाफ उठी आवाजें जहां अपने स्त्रीत्व के कारण पूजा करने के अध‍िकार से वंचित कर दिए जाने को चुनौती दे रही हैं वहीं हैपी टू ब्लीड अभ‍ियान नई चेतना को टैबू बनाकर रख दिए जाने के ख‍िलाफ है।
ये सोच में आ रहे क्रांतिकारी बदलाव ही तो हैं। 1914 से चली यह यात्रा महिला को एक इंसान के रूप में अध‍िकार हासिल होने तक जारी रहने वाली है। अब इतना तो सुकून है कि ढर्रे पर चलने का रिवाज जा चुका है। नई पीढ़ी की सोच लिबरल है जो साथ- साथ चलेगी मगर बराबरी के अध‍िकारों के साथ। लड़कियों को कमतर आंकने की कुंठाएं अब धूल में दबे कंकड़ की तरह होती जा रही हैं जो समय-समय पर चुभेंगीं तो सही, मगर वह सिर नहीं उठा सकेंगी।
निश्चित जानिए कि अब महिला अध‍िकारों की यह यात्रा धर्म, मजहब, राजनीति, संस्कार, श‍िक्षा , रोजगार आदि क्षेत्रों से आगे जाने को प्रतिबद्ध हो चुकी है, कमर कस चुकी है।   

 - अलकनंदा सिंह

सोमवार, 7 मार्च 2016

एक टूल बन गया है ''ऊं नम: श‍िवाय''

आज महाशिवरात्री है... मंदिरों में रुद्राभिषेक और ''ऊं नम: शिवाय'' मंत्र के जाप तथा बेल पत्र ,फल-फूल, धतूरे व अन्य पूजा सामग्री से श‍िवलिंगों की पूजा-अर्चना हो रही है। इसी गहमागहमी के बीच भीड़ का एक रेला कांवड़‍ियों का भी है जो श‍िवभक्ति के खुमार में न तो रास्ते जाम करने से बाज आता  है और ना ही राहगीरों से बदसलूकी करने से।
अजीब सी स्थ‍िति है , समझ में नहीं आ रहा कि इस पूरे के पूरे माहौल को भक्ति के किस एंगिल से देखा जाए...।

महाशिवरात्रि को श‍िव और शक्ति के मिलन स्वरूप मनाए जाने के पीछे भौतिक कारण कम और आध्यात्मिक कारण ज्यादा हैं, ऐसे में कांवड़ियों की तथाकथति भक्ति के रूप को देखकर चिंति‍त होना स्वाभावि‍क है कि क्या महाशिवरात्रि जैसे पर्व को एक बेलगाम भीड़ द्वारा विकृत नहीं कर दिया गया। कांवडि़ये स्वयं को सर्वश्रेष्ठ श‍िवभक्त मानकर कुछ भी करने पर आमादा है... कुछ भी यानि कुछ भी जो अराजक... ।  भीड़ सिर्फ कांवडि़यों की ही नहीं बल्कि मंदिरों में तो पुरुष , स्त्री , बच्चे, नवयुवतियां, नवयुवक एक दूसरे को लगभग धकियाये जा रहे हैं।   

''ऊं नम: शिवाय'' मंत्र का जाप करते जा रहे हैं मगर सारी भक्ति... सब सतही.. . आडंबर । इस भीड़ में कोई नहीं जानना चाहता कि इस महामंत्र ''ऊं नम: शिवाय'' के आख‍िर मायने क्या हैं।

इस भीड़ में कोई नहीं जानना चाहता कि बीज यदि पृथ्वी की सतह पर डाल दिया जाए तो उसके उगने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं मगर यही बीज यदि पृथ्वी को थोड़ा कुरेद कर उसमें दबा दिया जाये तो वह ज़रा सी नमी पाकर ही उग आता है। 

ठीक यही बात महामंत्र ''ऊं नम: श‍िवाय'' के जप को लेकर भी है। आज श‍िवरात्रि पर इस महामंत्र की मालाएं जपी जा रही हैं, काउंटिंग की जा रही है, पंडित बता रहे हैं कि फलां को इतने हजार मंत्र की इतनी मालाएं जपने का इतना लाभ हुआ। भीड़ के बीच से कराह- कराह कर दर्शन करके निकल रहे भक्त भी सुमरनी में माला दर माला तो घुमाए जा रहे हैं किंतु उनका ध्यान महामंत्र से होने वाले लाभ पर टिका हुआ है।

इन बगुला भक्तों और माला जपाऊ सिद्ध लोगों को कौन बताए कि यह महामंत्र इसलिए कहा गया क्योंकि इसके साथ कोई मांग नहीं जुड़ी केवल आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय जुड़ा है।

आत्मा की शुद्धता तभी संभव है जब आप प्रकृति के साथ तालमेल कर सकें। आत्म जागरण परमात्मा स्वरूप प्रकृति के विनाश में कम से कम सहभागी ना बनें।

इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है-केवल चैतन्य का जागरण। सोया हुआ चैतन्य जाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए और यह तभी संभव होगा जब हम अपनी अनुभूतियों को जड़ ना होने दें। मनोकामनाएं हावी होगीं तो स्वार्थ पनपेगा और स्वार्थ से अहंकार , फिर यही अहंकार 'मैं' की राह पर चलता हुआ दूसरों को नीचा दिखाता कब श‍िव के इस महामंत्र से दूर ले जाएगा, पता ही नहीं चलेगा।
कम से कम '' ऊं नम: श‍िवाय ''महामंत्र का ऐसा प्रयोग हममें से कोई नहीं चाहेगा।

आध्यात्मिक दृष्ट‍ि से देखा जाए तो शब्द को ब्रह्म माना गया है, उसमें अचिंत्य शक्ति होती है इसीलिए शब्दात्मक होने के कारण मंत्र को शक्तिपुंज माना गया है। और यही शक्तिपुंज मन के तीनों कार्य- स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन को अपनी क्षमता के अनुसार संचालित करता है।

मन इतिहास की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है  किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन हो पाता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन 'शब्द' के माध्यम से चलते हैं। हम जब किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं।

इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बनाया वही बिम्ब हमारे लिए सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है और इसीलिए '' ऊं नम: श‍िवाय '' महामंत्र के माध्यम से हम श‍िव को अपने जैसा मानकर उनसे अपनी कामनाओं को पूरा करने की बात कहते हैं, मगर अब ये प्रवृत्त‍ि अपने विकृत रूप में हमारे सामने है।
मंदिरों का भी अब व्यवसायीकरण हो गया है और यह एक ऐसी आड़ भी बन गया है जो एक विशेष काउंटिंग की माला जपने और उनके नंबरों से प्राप्त फल का हिसाब किताब लगा रहा है। महाश‍िवरात्र‍ि को बेलपत्रों के बोझ के बीच दबे श‍िवलिंग को बताया जा रहा है कि इतनी माला कर ली हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है, कामनाऐं पूरी करने की। शेष रहा '' ऊं नम: श‍िवाय'', तो यह एक टूल है जिसे जब चाहे तब वह इस्तेमाल कर ही लेगा।

- अलकनंदा सिंह







गुरुवार, 3 मार्च 2016

आख‍िर एक अनपढ़ मां ...और कहे भी क्या

Mother advice: Betrayals are avoiding Kanhaiya

आख‍िर एक अनपढ़ मां ...और कहे भी क्या। सच में जिन मांओं के बच्चे दूरदराज के गांवों से निकल कर मेट्रो सिटीज में अपनी श‍िक्षा पूरी करने आते हैं और लक्ष्य प्राप्ति से पहले ही राजनीति के ग्लैमर में फंस जाते हैं , उनकी मांऐं और कहें भी क्या अपने बच्चों से ....।
आज जेएनयूएसयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की रिहाई पर उसकी मां मीना देवी ने कहा, “मैं उन्हें सलाह दूँगी ग़द्दारों से बचकर रहो. दोस्त भी ग़द्दारी करता है, उससे बचकर रहो.” वे पूछती हैं, “इसके सिवाय मां और क्या सलाह दे सकती है.” मां का हृदय उस राजनीति को नहीं समझ सकता जो उच्च श‍िक्षण संस्थानों में छात्रों-छात्रों के बीच, छात्रों. श‍िक्षकों के बीच और राजनैतिक पार्टियों के हाथों खेली जाती है।
कल शाम को कन्हैया को पटियाला हाउस कोर्ट ने सशर्त ज़मानत दे दी। ज़मानत देने की शर्त में कोर्ट को हिदायत देनी पड़ी कि ...........
कोर्ट ने अंतरिम जमानत देने के साथ ही कन्हैया से कहा कि वह ऐसी किसी गतिविधि में सक्रिय रूप से हिस्सा नहीं लेंगे, जिसे राष्ट्रविरोधी कहा जाए।

हाईकोर्ट ने उनके जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष होने के नाते आदेश दिया कि वह कैंपस में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए अपने सभी अधिकार के तहत प्रयास करेंगे।    

न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने कहा, तथ्य और हालात को देखते हुए मैं याचिकाकर्ता को छह महीने की अवधि के लिए अंतरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश देती हूं। साथ ही स्पष्ट किया कि उन्हें जांच में सहयोग करना होगा और जरूरत होने पर जांचकर्ताओं के सामने खुद पेश होना पड़ेगा।
   
न्यायाधीश ने कन्हैया की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी विचार किया। उनकी मां आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर महज 3000 रुपए कमाती हैं और परिवार में अकेली कमाने वाली हैं। कन्हैया को राहत देते हुए उन्हें 10,000 रुपए की जमानत राशि और इतनी राशि का ही मुचलका भरने को कहा गया।
   
न्यायाधीश ने निर्देश दिया कि आरोपी का जमानतदार संकाय के सदस्य या उनसे जुड़े हुए ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो उन पर न सिर्फ अदालत में पेशी के मामले में नियंत्रण रखता हो बल्कि यह भी सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए जो उनकी सोच और ऊर्जा सकारात्मक चीजों में लगाना सुनिश्चित करे।
   
जमानत के लिए राशि जमा करने में वित्तीय छूट देते हुए कोर्ट ने कहा कि कन्हैया को इस संबंध में एक शपथ पत्र देना होगा कि वह ऐसी किसी गतिविधि में सक्रिय या निक्रिय रूप से ऐसी किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे, जिसे राष्ट्रविरोधी कहा जाए।

न्यायाधीश ने 23 पन्ने के आदेश में कहा कि बिना निचली अदालत की अनुमति के कन्हैया देश से बाहर नहीं जा सकते और उनके जमानतदार को भी आरोपी की तरह का शपथपत्र देना होगा।
   
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि न्यायिक हिरासत में याचिकाकर्ता के गुजारे हुए वक्त में उसे घटनाक्रमों के बारे में आत्मनिरीक्षण का मौका मिला होगा। उसे मुख्यधारा में बने रहने के लिए उपचार का रूढि़वादी तरीका प्रदान करने के लिए मैं तैयार हूं।
   
न्यायाधीश ने कहा, अंतरिम जमानत पर याचिकाकर्ता को रिहा करने का फैसला हो जाने पर अब सवाल उठता है कि जमानत की राशि कितनी होनी चाहिए। याचिकाकर्ता ने 11 फरवरी 2016 के अपने भाषण में दावा किया था कि उसकी मां आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं और 3,000 रुपए कमाती हैं और परिवार का गुजारा उन्हीं से होता है।
   
न्यायाधीश ने कहा, अगर इस पहलू पर विचार किया जाए तो जमानत राशि और मुचलका इतना नहीं होना चाहिए कि उसे जमानत ही नहीं मिल पाए।
   
उन्होंने कहा, वक्त की मांग है कि जमानत देने के मकसद से याचिकाकर्ता को वित्तीय पहलू में कुछ ढील देने के लिए उसे शपथपत्र देना होगा कि वह ऐसी किसी गतिविधि में सक्रिय या निक्रिय रूप से हिस्सा नहीं लेगा जो कि राष्ट्रविरोधी हो सकता है।

न्यायाधीश ने कहा, इसके अलावा जेएनयूएसयू अध्यक्ष होने के नाते उन्हें कैंपस में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को काबू में करने की पूरी कोशिश करनी होगी।
   
कन्हैया की अंतरिम जमानत के लिए शर्तें निर्धारित करते हुए कोर्ट ने कहा कि 10,000 रुपए की जमानत राशि और जमानतदार जो कि जेएनयू के संकाय के सदस्य हो सकते है, उन्हें संबंधित मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या लिंक मजिस्ट्रेट को इस शर्त से संतुष्ट करना होगा कि वह अदालत की अनुमति के बिना देश नहीं छोड़ेंगे।

अब ये तो समय और स्वयं कन्हैया का अपना रुख बतायेगा कि वह मां की कितनी बात सुनेगा , हालांकि इसकी संभावना कम ही है, फिर भी मां है तो न तो हिदायत देना भूलेगी और ना ही मुश्किलों से अपने बेटे को आगाह करते रहना और बचाते रहना ।
 बहरहाल  मीना देवी का कहना है कि उनका बेटा निर्दोष है और उसका बरी होना पहली जीत है. उन्हें संविधान पर पूरा भरोसा है और झूठ-सच का यह जो मामला फँसाया गया था इस पर आए फ़ैसले के बाद वे खुश हैं.

जिंदगी की जद्दोजहद पर पहले एक सूत्र वाक्य जो आज के हालातों पर फिट बैठता है...

Lessons of Life : For all those moments that you should have said no, but could not muster the courage, remember, its not over yet.

- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

अभ‍िव्यक्ति की आजादी: यद‍ि मैथलीशरण गुप्त जिंदा होते तो ....


जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है। वह नर नहीं, पशु निरा है और मृतक सामान है। राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त द्वारा रचित ये कविता आज बेहद प्रासंगिक हो गई है क्योंकि संसद, जेएनयू और महिषासुर दिवस से लेकर जो चर्चा मां दुर्गा के लिए आपत्त‍िजनक शब्दों तक पहुंच गई है, वह काफी कुछ बयान करती है।
संसद सत्र की शुरुआत जिस तरह के ज्वलंत मुद्दे से हुई, वह उक्त कविता की प्रासंगिकता को और पुष्ट करती है।
पहले दिन ही केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जिस तरह ''जेएनयू के छात्रों द्वारा राष्ट्र विरोधी नारों को अभ‍िव्यक्ति की आजादी ''बताए जाने पर प्रश्नचिन्ह लगाया, फिर इसी अभ‍िव्यक्ति की आजादी के बहाने उन्होंने महिषासुर दिवस मनाये जाने व मां दुर्गा के चरित्र को लेकर आपत्तजिनक पैंपलेट बांटे जाने की घटना पर उपस्थ‍ित सभी नेताओं से पूछा कि क्या यही अभ‍िव्यक्ति की आजादी है।
सचमुच अभ‍िव्यक्ति की आजादी को लेकर अभी तक जितने भी ढोंग रचे गए, स्मृति ने उन सभी ढोंगों को तार-तार कर दिया और कम से कम पहले दिन तो किसी नेता या दल की हिम्मत नहीं हुई कि वह अचानक हुए इस अकाट्य वार से स्वयं को बचा पाता।
अभ‍िव्यक्ति की आजादी को राजनेताओं ने अभी तक अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए यूज किया था और विचारों की कथ‍ित स्वतंत्रता के नाम पर उनकी सोच घातक खेल खेलकर देश के साथ विश्वासघात करती रही। अभ‍िव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश की एकता व अखंडता का मजाक उड़ाया जाता रहा।
भारतीय संविधान में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता धारा 19 के तहत छह स्वतंत्रता के अधिकारों में से एक है। किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (freedom of expression) कहलाती है परंतु इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हर जगह कुछ न कुछ सीमा अवश्य होती है।
रोहित वेमुला की खुदकुशी और जेएनयू में लगे देशद्रोही नारों को लेकर बुधवार को सदन में स्मृति ईरानी अपने तल्ख तेवर में दिखीं और वामपंथी विचारधारा पर करारा प्रहार किया। जेएनयू में कुछ छात्रों की ओर से महिषासुर दिवस मनाए जाने पर सवाल खड़े करते हुए स्मृति ईरानी ने कहा कि ये छात्र महिषासुर को पूर्वज (ऐतिहासिक) मानते हैं लेकिन मां दुर्गा का अपमान करते हैं।
स्मृति ईरानी ने महिषासुर दिवस के आयोजन का एक पर्चा पढ़कर सुनाते हुए कहा कि ' मुझे ईश्वर माफ करें इस बात को पढ़ने के लिए। इसमें लिखा है कि दुर्गा पूजा सबसे ज्यादा विवादास्पद और नस्लवादी त्योहार है। जहां प्रतिमा में खूबसूरत दुर्गा मां द्वारा काले रंग के स्थानीय निवासी महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। महिषासुर दिवस मनाने वालों के अनुसार महिषासुर एक बहादुर, स्वाभिमानी नेता था, जिसे आर्यों द्वारा शादी के झांसे में फंसाया गया। आर्यों ने एक सेक्स वर्कर का सहारा लिया, जिसका नाम दुर्गा था। दुर्गा ने महिषासुर को शादी के लिए आकर्षित किया और 9 दिनों तक सुहागरात मनाने के बाद उसकी हत्या कर दी।" स्मृति ने गुस्से से तमतमाते हुए सवाल किया कि क्या ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? कौन मुझसे इस मुद्दे पर बहस करना चाहता है?
स्मृति ईरानी के सदन में दिए इस बयान से एक बार फिर कई सालों बाद फिर ये मुद्दा गर्म हो गया है। बीजेपी समेत कई दलों ने देवी-देवताओं के अपमान के मुद्दे पर आपत्ति जताई है।
कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने कहा कि आपकी आस्था महिषासुर में हो सकती है लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि आप दूसरों की भावनाओं का अपमान करें।
 बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि ये एक बड़ी साजिश है। इसे आर्यों और द्रविड़ों की फिलॉसफी फैलाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, जो कि अंग्रेजों की थ्योरी थी।
वीएचपी नेता विनोद बंसल ने कहा कि इस देश की मूल विचारधारा इसी धर्म की है लेकिन उसके बावजूद ये सब क्यों होता है। जेएनयू में सालों से ये हो रहा है और मैं इसके खिलाफ लगातार FIR दर्ज करवाता रहा हूं लेकिन कोई कार्यवाही नहीं होती क्योंकि अगर कार्यवाही होगी तो CPI बिलबिला जाती। हालांकि अब भी सीपीआई नेता दिनेश वार्ष्णेय ने कहा कि ये मामला राजनीति से प्रेरित होकर उठाया जा रहा है क्योंकि बंगाल में चुनाव आने वाले हैं और वहां दुर्गा पूजा का बहुत ज्यादा महत्व है।
कितने आश्चर्य की बात है कि यह जहरीला विचार उसी बंगाल की धरती से उपजा जहां दशकों तक वामपंथ‍ियों का शासन रहा और दुर्गापूजा भी होती रही मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झुनझुना इस कदर आम जन के गले में घंटी की तरह लटका दिया गया कि कोई इसके औचित्य तक पर सवाल नहीं उठा पाया और जिसने उठाया भी तो तत्काल उसे रूढ़‍िवादी और मनुवादी करार दे दिया गया।
आज भी राज्यसभा में कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा स्मृति ईरानी से इस बात पर तो इस्तीफा मांग रहे हैं कि उन्होंने मां दुर्गा को लेकर आपत्त‍िजनक पर्चा संसद में सार्वजनिक रूप से पढ़कर सुनाया जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती थीं मगर उस हकीकत पर वे कुछ नहीं बोले कि जेएनयू में आख‍िर ये सब घटित होता रहा और वे चुप क्यों बैठे रहे ?
गौरतलब है कि साल 2012 में जेएनयू के भीतर वामपंथी छात्र संगठनों ने महिषासुर को भारत के आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों का पूर्वज बताते हुए शरद पूर्णिमा को उसकी शहादत मनाने की घोषणा की थी और जगह-जगह कैंपस में पोस्टर भी लगाए गए थे। उस वक्त जमकर बवाल मचा था। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार असुरों के राजा महिषासुर का देवी दुर्गा ने वध किया था लेकिन वामपंथी फोरम से जुड़े स्टूडेंट्स मानते हैं कि महिषासुर देश के जनजातीय, दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के पूर्वज थे, जिन्हें देवी दुर्गा का इस्तेमाल कर आर्यों ने मारा था। बात इतने पर रुक जाती तो भी ठीक था, लेकिन जिस तरह से देवी दुर्गा और महिषासुर के संबंधों के बारे में कहा गया था वो शर्मनाक है।
देश ने कई दशक गुजार दिये इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली ऊहापोह में । अब समय आ गया है कि राजनेता देश के सामने जहरीली मानसिकताओं को प्राश्रय देने से बाज आ जायें।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अभी तक जो घ‍िनौना खेल खेला जाता रहा है, उसकी बख‍िया उधड़ने लगी है और उनकी सोच सरेआम हो गई है कि वे देश के लिया कितना कुत्स‍ित सोचते रहे हैं... करते रहे हैं।
और फिर... मैथिलीशरण गुप्त की ही कविता ''आर्य'' के अंश जिस पर हर भारतीय को अभि‍मान होगा ....
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा
संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में
वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे।

अंत में इतना कहना पर्याप्त होगा क‍ि आज यद‍ि मैथलीशरण गुप्त जिंदा होते तो कुछ नेता न केवल उनसे उनकी राष्ट्रकवि की उपमा छीन लेते बल्क‍ि निज गौरव और निज देश पर अभमिान न होने वाले को पशुतुल्य व मृतप्राय: बताए जाने पर कन्हैया, उमर खालिद जैसों के साथ जेल भेजने का कोई न कोई बंदोबस्त भी जरूर कर देते।

 - अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

JAT : बलवाई बनती एक पूरी की पूरी कौम

इन कथ‍ित आरक्षणवादियों ने देश की एक बहादुर और कर्मठ जाति के गौरव को ''हाथ पसारने वाला बनाकर'' तरक्की के सामने विलेन बनाकर खड़ा कर दिया.... अब क्या कहूं... किस मुंह से कहूं...कि मैं भी तो जाट हूं ...। J से justice, A से action और T से truth...इन तीन लफ्ज़ों से क्लासीफाई किए जाने वाली JAT जाति को अब अपनी कर्मठता के कारण नहीं, जबरन आरक्षण की मांग करने और इसकी आड़ में अपने पूर्वजों द्वारा स्थापति Justice, action और truth की परंपरा को ख़ाक कर देने जैसे कृत्य के लिए जाना जाएगा। यह सब देखकर मैं बहुत दुखी हूं क्योंकि मैं भी जात‍ि से जाट हूं और सर्वरक्षक की श्रेणी से यूं सर्व विहीन श्रेणी में आने की आतुरता को देखकर स्तब्ध भी हूं....इसलिए भी कि जाट कभी याचक नहीं रहे।

भारतीय सेना में एक पूरी की पूरी रेजीमेंट के साथ अन्य रेजीमेंट्स में भी बाहुल्य रखने वाले और देश की रक्षा में प्राणपण से आगे रहने वाले जाट ही हैं। ओलंपिक में सर्वाध‍िक पदक यदि किसी जाति ने हासिल किये तो वह जाट हैं। खेती-किसानी से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को लहलहाने वाले भी जाट हैं। यही जाट जब हक़ के नाम पर आरक्षण की भीख मांगते और स्वयं को दीन-हीन बताते दिखे तो परेशान होना स्वाभाविक है क्योंकि इन 'हक़' मांगने वालों में कोई ऐसा नहीं था जो भूमिहीन हो, भूमि कम हो या ज्यादा ये अलग विषय है, इस पर चर्चा की जा सकती है। यूं भी जो कौम अपना भाग्य अपने आप लिखने का सामर्थ्य रखती हो, उसे इस तरह स्वयं को गिराकर बलवाइयों के रूप में देखना,  क्या आनंद दे सकेगा ।

बढ़ते शहरीकरण से उपजे हालातों ने जाटों  को राजनीति का ख‍िलौना बना दिया और जो जाट 'अपने  मालिक खुद ' थे, अब वे लगभग भीख मांगने की मुद्रा में आ गए... और गिरावट की यह यात्रा उन्हें दंगाई- बलवाई के रूप में सबके सामने ले आई।

मुझे अपने बचपन की वो घटना याद हो आई। पापा पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक कस्बे में सरकारी डॉक्टर थे, हर दो ढाई साल में उनका ट्रांसफर हो जाता था, वे उसे बहुत एंज्वॉय करते थे। पापा चूंकि बहुत मिलनसार स्वभाव के थे। उस क्षेत्र के आमजन और कर्मचारियों में एक आदत थी कि जब भी ट्रांसफर होता था तो वे पापा से कहते, साहब आप तो जा रहे हैं, कउनौ चिन्हारी दइ के जाब। पापा अपनी कई प्र‍िय चीजें
ऐसे ही दे चुके थे, हम अपनी प्र‍िय चीजों को यूं ही दे दिए जाने से जब दुखी होते तो पापा समझाते थे कि बेटा हम जाट हैं, हम देने के लिए बने हैं, हम किसी से मांगते नहीं और जो हमसे मांगता है, उसे सहर्ष दे देते हैं, कभी पीछे नहीं हटते।यही हमारा धर्म है और यही कर्म।
उन्होंने ही मुझमें अपनी जाति के प्रति गर्व का भाव भरा और समय के साथ इसमें आती जा रही बुराइयों के प्रति आगाह भी किया।

आज पापा याद बहुत याद आ रहे हैं...अगर वो इस दुनिया में होते तो मैं उनसे अवश्य पूछती कि हम जैसे ''जाट'' क्या करें। कैसे शुरूआत करें इस निकृष्टता की ओर जाती आतताई सोच को बदलने की। कैसे याद दिलायें इन्हें कि हमने ही तो गढ़ा था पहचान का यह नारा ... Justice, action और truth.।
कैसे कहें
इन बलवाइयों से कि जाट आबादियों को मिटाने का नहीं, वीराने को भी जगमगा देने वाला टैग होता है। जाटों ने तो अपनी हिम्मत और मेहनतकशी से रेग‍िस्तानों और ऊसरों को भी उपजाऊ  बनाने का साहस दिखाया है। जो पोषक और रक्षक बनने का सामर्थ्य रखता है उसमें इतनी हताशा, निराशा और अपराध‍िक सोच को कैसे आ गई। 

आरक्षण की मांग के नाम पर जो कुछ हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हुआ तथा जाम, आगजनी, लूटपाट करके बसें फूंकी गई और महिला यात्र‍ियों से गैंगरेप भी किए गए, निश्चित ही यह केवल नौकरियों में आरक्षण के लिए किसी कौम का प्रदर्शन तो नहीं ही कहा जा सकता।

खालिस अपराध‍ियों को मैं कैसे कह दूं कि ये ''जाट'' हैं... आतताइयों और बलवाइयों को कैसे कह दूं कि ये जाट हैं...। ये तो जाट हो ही नहीं सकते... किसी कीमत पर नहीं...। वे तो हक मांगने की आड़ में सिर्फ और सिर्फ देश, समाज और मानवता के दुश्मन हैं...कानूनन अपराधी हैं।

इसके अलावा मेरे दिल में और भी बहुत कुछ चल रहा है। मजाक के तौर पर जाटों को ''हनुमान'' कहा जाता है जो दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हैं, मगर हम जाट तो इसे भी अपने लिए अवसर मानते हैं कि मां सीता की रक्षा के लिए, राम का साथ देने के वचन को पूरा करने के लिए अपनी पूंछ में आग लगवाने से भी पीछे नहीं हटते और सीना चौड़ा कर देने वाली ये संज्ञा हमारी वचनबद्धता, कर्मठता दूसरों की बेशर्त मदद के तौर पर हमारा टैग बन गई। फ‍िर आज ये सब क्यों....।

इन कथ‍ित आरक्षणवादियों ने देश की एक बहादुर और कर्मठ जाति के गौरव को ''हाथ पसारने वाला बनाकर'' तरक्की के सामने विलेन बनाकर खड़ा कर दिया.... अब क्या कहूं... किस मुंह से कहूं...।

J.A.T. का अर्थ बताने वाले पापा को साक्षी मानकर सोचती हूं कि मैं कम से कम शब्दों के द्वारा तो जाटों को बदनाम होने से रोकने की एक कोश‍िश कर ही सकती हूं ताकि अपने बच्चों के सामने मैं यह कहने से सकुचाऊं नहीं कि मैं भी तो जाट हूं।
आज ये आह निकली ही इसलिए है कि मैं भी तो जाट हूं और बलवाइयों के कृत्यों को लेकर शर्मसार भी। 

- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

# Tag और Viral होने के बीच पनपते और खत्म होते शब्दों की दुनिया


सोशल मीडिया में तैरते हुए शब्द ... देश विदेश की खबरों में तैरते हुए छा जाने वाले शब्द...जिन शब्दों से मीडिया ना जाने कितनी खबरें डेस्क पर बैठे-बैठे गढ़ लेता है, वो उम्र में बेहद कम और मौसमी बुखार की तरह जीवन लिए होते हैं। सोशल मीडिया में छाने के बाद ये अपना मकसद पूरा कर ऐसे विलोपित हो जाते हैं जैसे कि कोई फैशन था...आया...और गुजर गया...किसी एक और शब्द की तलाश में ...उसके चलन के इंतज़ार में।

इन तैरते शब्दों की उम्र इतनी छोटी होती है कि विलोपित होने के बाद इन्हें स्मृति पटल पर वापस लाने में बड़ी दिक्कत होती है। स्मृति के समुद्र में ज्वार की भंति ऊपर जाना फिर भाटे की भांति नीचे उतर जाना इनकी नियति बन गई है।

 # Tag और Viral होने के बीच अब पनपने वाले शब्दों ने ना जाने कितने गुदड़ी के लालों को चमकता सितारा बना दिया और ना जाने कितने सितारों को धूल चटा दी। ये सोशल मीडिया पर तैरते शब्दों का ही कमाल था कि ''असहिष्णुता'' के नाम पर पूरी की पूरी राजनीतिक बिसातें बिछीं, चुनाव जीते और हारे गए और  साहित्यकारों की कथ‍ित धर्मनिरपेक्षता और उनकी खुद की अस‍हिष्णुता का नंगा सच भी सबके सामने आ गया। इसी एक ''असहिष्णुता' शब्द ने अच्छी- अच्छी मार्केटिंग कंपनियों को इस कदर ब्लैंकथॉट कर दिया क‍ि उनके सामने अपने ब्राण्ड एंबेसेडर्स को रि‍प्लेस करने के सिवा कोई चारा ना बचा।

नेशनल ही नहीं, इंटरनेशनल लेवल पर भी इन # Tag शब्दों में गैंगरेप, रेप, आईएसआईएस के वीभत्स वीडियो, यज़ीदी महिलाओं के सेक्स गुलाम बनने की दास्तां, शरणार्थ‍ियों से भरी नौका डूबने और मृत बच्चे की समुद्र तट पर ली गई तस्वीर, हाल ही में नन्हें अफगानी मुर्तजा को फुटबॉलर मेसी की जर्सी मिलना और बलूचिस्तान के लोगों पर पाकिस्तानी सरकार के जुल्म जैसे विषयों ने सुर्ख‍ियां बटोरीं।

हालांकि कभी कभी # Tag के शब्द निर्णयों को भी बाधि‍त करते हैं, जैसे कि नोबेल पुरस्कार के लिए चल रहे नॉमिनेशंस में हो रहा है जहां एक सेक्स गुलाम नादिया मुराद के बच निकलने की तुलना उस बहादुरी से की जा रही है जो अफगानिस्तान की पूरी की पूरी साइकिलिस्ट टीम ने तालिबानियों के ख‍िलाफ दिखाई थी जबकि दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती।

# Tag सोशल मीडिया पर सिर्फ अफवाह को वायरल करने के ही काम नहीं आता, वह सच को यथावत सामने रखने के भी काम आता है। जैसे कि ये  # Tag  का ही कमाल था कि हैदराबाद यूनीवर्स‍िटी के आत्महत्या करने वाले जिस रोहित वेमुला को राजनीतिज्ञों ने दलित कहकर शोर मचाये रखा और केंद्र की सरकार को घेरने की कोशिश की, उसकी जाति का यह सच # Tag सामने ले आया  कि वो वढेरा जाति का था जोकि ओबीसी में आती है।

# Tag ही था जिसने सबरीमाला की हकीकत और नई पीढ़ी की इन रूढ़‍ियों व रिवाजों के ख‍िलाफ उभरती अकुलाहट को #HappytoBleed के रूप में सामने रखा। # Tag ने प्रौढ़ हो रही पीढ़ी को बताया कि बंदिशों और कथ‍ित शुचिता के नाम पर जो कुछ होता आ रहा है, अब वह यथावत मंजूर नहीं किया जा सकता।
# Tag ने ही भारतीय समाज को बीफ खाने और ना खाने के खेमों में बांट दिया और बीफ पर असहिष्णु तरीके से खेली गई राजनीति को भी। ये # Tag ही था जो बताता रहा कि भोजन, भजन, पहनावे और विचारों पर समाज खुलकर बहस करने की मुद्रा में है।
इस बीच देश में नकरात्मकता भी जमकर परोसी गई,  बात- बात पर सरकार और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख‍िलाफ अभ‍ियान चलाने में # Tag की बढ़ी भूमिका रही। # Tag के जरिये एक परंपरा सी बना दी गई कि किसी के किचन में हींग का छौंक भी अगर जल जाए तो बहुमत से चुनी गई सरकार के मुखिया को ही उत्तरदायी ठहराया जाए।
बहरहाल, मुद्दे बहुत हैं # Tag के बहाने सोशल मीडिया पर छाने वाले मगर जो सुर्ख‍ियां बने उन्होंने हवा का रुख तय किया और इनके चलन को फिलहाल तो समाज, राजनीति, संस्कार, विचार के विकास की तरह देखा जाना चाहिए। # Tag का सफर और कितने परिवर्तनों से हमें रूबरू कराता है, इंतज़ार कीजिए अगले # Tag परिवर्तन का।
हर चीज का एक समय होता है, एक दौर होता है। बेशक यह  # Tag का दौर है लेकिन समय  # Tag को भी  Tag कर सकता है और किसी नई चीज को  # Tag। देखना यह है क‍ि  # Tag और कि‍तने समय तक प्रभावी रह पाता है। तो इंतजार कीजिए अब  # Tag के भी Tag होने का।  

- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 18 जनवरी 2016

AICOG-2016: Stem cell के ज़रिये त्वचा से बने Sperm से जन्मेंगे बच्चे

जानवरों के क्लोन और लगभग आधा दर्जन जानलेवा बीमारियों का इलाज Stem cell Therapy से सफलतापूर्वक ढूंढ़ने लेने के बाद अब गाइनिकॉलॉजिस्ट्स एक और सफल प्रयोग करने में सफल हुए हैं। जी हां, अब Stem cell के ज़रिए त्वचा से स्पर्म तैयार होगा और बच्चा पैदा हो जाएगा।
आगरा में आज देश विदेश के गाइनोकोलॉजिस्ट की “नेशनल कांफ्रेंस आईकोग-2016” में 59th All India Congress of Obstetrics & Gynaecology के कलाकृति ग्राउंड में चल रहे सम्मेलन में ये सच सबके सामने आया, हालांकि जो कुछ दिखाया गया , वह अपने प्रायोगिक दौर से अभी तक आगे नहीं आया मगर बहुत जल्द ही इससे हम बच्चों की पैदाइश का उपहार उन दंपत्त‍ियों को दे पाऐंगे जो किन्हीं शारीरिक कारणों से नि:संतान हैं।
चिकित्सा जगत में स्टेम सेल से कई बीमारियों का तोड़ खोजने के बाद अब बच्चे को जन्म दिए जाने की तैयारी कर चुके स्टेम सेल में ही कई बीमारियों की खोज करने वाले अमेरिका के विश्वविख्यात डॉ. स्कैटेन गैराल्ड दुनिया को यह तोहफा देने वाले हैं जिसका खुलासा उन्होंने आगरा में किया।
उनकी रिसर्च लगभग पूरी हो चुकी है, जिसे जल्द ही विश्व पटल पर प्रकाशित किया जाएगा। ताज नगरी में चल रही नेशनल कॉन्फ्रेंस ‘आईकोग-2016’ के अंतिम दिन आज रविवार को इस आधुनिक रिसर्च से डॉ. गैराल्ड ने कई देशों से आए डॉक्टरों को रू-ब-रू कराया।
आम लोगों की जानकारी के लिए बता दूं कि स्टेम सेल मूलत: ऐसे अविकसित सेल होते हैं जो इविकसित होते हुए भी एक विकसित कोशिका के रूप में सारी विशिष्टता रखते हैं।
बायो टेक्नोलॉजी ने क्लोनिंग जैसे आधुनिक चिकित्सा प्रयोगों के साथ एक और चिकित्सा-क्षेत्र को जन्म दिया है, जिसका नाम है कोशिका चिकित्सा यानि Cell therapy। इसके अंतर्गत ऐसी कोशिकाओं Cells का अध्ययन किया जाता है, जिसमें वृद्धि, विभाजन और विभेदन कर नए Tissues बनाने की क्षमता होती है।
सर्वप्रथम  Blood cells बनाने वाले Tissues से इस चिकित्सा का विचार व प्रयोग शुरु हुआ था जिसमें अस्थि-मज्जा( bone marrow) से प्राप्त ये कोशिकाएं, आजीवन शरीर में रक्त का उत्पादन करतीं हैं और कैंसर आदि रोगों में इनका प्रत्यारोपण कर पूरी रक्त प्रणाली को, पुनर्संचित किया जा सकता है। ऐसी कोशिकाओं को ही स्टेम कोशिका कहते हैं।
डॉ. गैराल्ड स्कैटेन ने अब तक दुनिया को Stem cell Therapy के जरिए स्त्री रोग से जुड़ी कई बीमारियों पर आविष्कार कर नई खोज दी हैं। अब वह Stem cell के जरिए Sperms ( शुक्राणु ) तैयार कर बच्चे का जन्म कराने वाली रिसर्च का तोहफा देने वाले हैं।
Nobel पुरस्कार के लिए भी डॉ. गैराल्ड स्कैटेन का नाम चल रहा है। कलाकृति ग्राउंड में चल रही नेशनल कॉन्फ्रेंस ‘ऑल इंडिया कांग्रेस आब्सटेट्रिक एंड गायनेकोलॉजी-2016’ में भाग लेने आए डॉ. गैराल्ड पूरी तरह आश्वस्त हैं कि जल्द ही Stem cell से बच्चे का जन्म भी हो सकेगा। ऐसे प्रयोगों को आगे बढ़ाने के पीछे उन्होंने मुख्य कारण बताया कि महिला और पुरुषों में फर्टिलिटी रेट लगातार गिरता जा रहा है। इसी के कारण IVF का चलन बढ़ा है, मगर अब बच्चे को जन्म देने के लिए Stem cell Therapy दुनिया के लिए एक बेहतरीन तोहफा होगी।
डॉ. गैराल्ड बताते हैं कि पुरुष में Sperm काउंट पूरी तरह खत्म होने और फर्टिलिटी भी खत्म हो जाने की स्थिति में त्वचा से Stem cell विकसित किए जाएंगे। इससे उसी व्यक्ति का Sperm तैयार किया जाएगा। इसके बाद उनकी महिला पार्टनर की ओवरी में IVF पद्धति से स्पर्म इंजेक्ट कर बच्चे का जन्म कराया जा सकेगा। उन्होंने बताया कि बंदर व अन्य जानवरों पर शोध कर लिया गया है।
– अलकनंदा सिंह

शनिवार, 9 जनवरी 2016

Inauguration of New Delhi World Book Fair 2016

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में अपर सचिव श्री जे. एस. माथुर, 09 जनवरी, 2016 को प्रगति मैदान, नई दिल्‍ली में विश्‍व पुस्‍तक मेले में प्रकाशन विभाग की प्रदर्शनी का उद्घाटन अवसर पर

The Additional Secretary, Ministry of Information & Broadcasting, Shri J.S. Mathur visiting after inaugurating the Publications Division Display, at World Book Fair, Pragati Maidan, in New Delhi on January 09, 2016.




रवींद्र कालिया नहीं रहे

नई दिल्‍ली। वरिष्ठ साहित्यकार रवींद्र कालिया अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्हें लीवर में शिकायत के बाद पिछले दिनों राजधानी दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
पिछले बुधवार को उनकी हालत में सुधार के बाद उन्हें वेंटिलेटर से बाहर कर दिया गया था लेकिन आज सुबह एक बार फिर उनकी तबीयत बिगड़ गई।
उनके निधन के समाचार से पूरे साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई है। उनकी पत्नी ममता कालिया भी एक प्रख्यात साहित्यकार हैं। उनकी बीमारी के दौरान उनके पुत्र मनु कालिया उनके साथ थे।
हिंदी साहित्य में रवींद्र कालिया की ख्याति उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक ऐसे बेहतरीन संपादक के रूप में थी जो मृतप्राय: पत्रिकाओं में भी जान फूंक देते थे।
रवींद्र कालिया हिंदी के उन गिने-चुने संपादकों में से एक थे, जिन्हें पाठकों की नब्ज़ और बाज़ार का खेल दोनों का पता था।
रवींद्र कालिया के प्रमुख कथा संग्रह और उपन्यासों पर एक नजर…
कथा संग्रह
नौ साल छोटी पत्नी
गरीबी हटाओ
गली कूंचे
चकैया नीम
सत्ताइस साल की उमर तक
ज़रा सी रोशनी
उपन्यास
खुदा सही सलामत है
ए.बी.सी.डी.
17 रानडे रोड
संस्मरण
स्मृतियों की जन्मपत्री
कामरेड मोनालिसा
सृजन के सहयात्री
गालिब छुटी शराब
व्यंग्य संग्रह
नींद क्यों रात भर नहीं आती
राग मिलावट माल कौंस
कहानियाँ
दस प्रतिनिधि कहानियाँ
इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ
रवींद्र कालिया को मिले सम्मान
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद स्मृति सम्मान
मध्यप्रदेश साहित्य अकादेमी द्वारा पदुमलाल बक्शी सम्मान
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्था न द्वारा साहित्यनभूषण सम्मान
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान
पंजाब सरकार द्वारा शिरोमणि साहित्य सम्मान

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

Ruskin Bond का ‘रस्टी’ वापस आया

जाने-माने लेखक Ruskin Bond लगभग एक दशक बाद अपने चरित्र ‘रस्टी’ के नए कारनामों के साथ वापस आए हैं। इस कहानी में अनाथ एंग्लो-भारतीय ‘रस्टी’ अपने दोस्तों के साथ रहस्यमय पहाड़ों की खोज में जाता है।देहरादून में अपने दादा-दादी के साथ रहने वाला रस्टी समय के साथ बड़ा होता है और लंदन जाकर एक लेखक बनता है और इस दौरान वह कई सारे रोमांचकारी कारनामों को अंजाम देता है, इनकी कारनामों की संख्या इतनी है कि किसी और के लिए उनकी कल्पना करना भी असंभव सा होता।
‘रस्टी एंड द मैजिक माउंटेन’ में रस्टी और उसके दोस्त पितांबर और पोपट एक रहस्यमयी पहाड़ की चढ़ाई करते हैं और इस यात्रा में उनका सामना समय के साथ वहां पनपे कई अंधविश्वासों और कई उत्कृष्ट कथाओं से होता है।
इस यात्रा में वह एक भूतिया घर में पड़ाव डालते हैं, एक बाघ से भिड़ते हैं और खच्चर की सवारी की एक ऐसी यात्रा करते हैं जिससे हंसहंस कर पेट में मरोड़ पड़ जाएं। खच्चर की सवारी उन्हें एक पागल रानी के महल में ले जाती है जहां रानी कौवों की हत्या के मामले की अध्यक्षता करती है। इसके अलावा एक रहस्यमयी राजकुमारी, बौनों की एक कॉलोनी और एक अनोखा संगीत पत्थर भी उनकी इस यात्रा का हिस्सा होते हैं।
इस पुस्तक का प्रकाशन पफिन बुक्स ने किया है।

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

रक्तबीज का Clone कोई कपोलकल्पना नहीं

श्री दुर्गा सप्तशती के आठवें अध्याय में देवी दुर्गा रक्तबीज नाम के जिस राक्षस से युद्ध कर रही थीं उसके रक्त की एक-एक बूंद से हर बार नया राक्षस पैदा होने का वर्णन श्लोकों में आता है। उस राक्षस का अंत करने के लिए देवी को अपनी अन्य शक्तियों का आव्हान करना पड़ता है, तब सारी शक्तियां मिलकर रक्तबीज के रक्त की एक- एक बूंद को पृथ्वी पर गिरने से रोकते हुए राक्षस का अंत करती हैं। 
अभी तक आधुनिक युग के शोधकर्ताओं व बुद्धिजीवियों द्वारा श्री दुर्गा सप्तशती में वर्ण‍ित यह वृत्तांत पुराणों की कपोल कल्पना और अतिशयोक्ति का एक उदाहरण माना जाता रहा है। अब जबकि यह साबित होने जा रहा है कि आधुनिक विज्ञान जहां आज पहुंचा है, भारतीय सभ्यता अपने उस उत्कर्ष को पहले ही प्राप्त कर चुकी थी, तब यह भी जानना आश्चर्य में नहीं डालता कि रक्त की मात्र एक ही बूंद से व्यक्ति का Clone बनाया जा सकता है और तो और उसे म्यूटेशंस के जरिए थोड़े ही समय में कई गुना तक किया जा सकता है, विशाल आकार भी दिया जा सकता है।
हाल ही में मेरठ के छात्र प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी द्वारा तैयार एक शोधपत्र को चीन के अंतर्राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी सम्मेलन के लिए चुना गया है। और यह शोध अमेरिका की इनोवेटिव जर्नल ऑफ मेडीकल साइंस के आगामी अंक में छपने जा रहा है। प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी ने अपने प्रयोग में रक्तबीज को कपोल कल्पना मानने से इंकार करते हुए बताया है कि रक्तबीज कोई चमत्कार नहीं बल्कि अति विकसित विज्ञान का एक उदाहरण था जो सबसे पहला Clone कहा जाता है।
भारतीय पौराण‍िक कथानकों की सत्यता सिद्ध करते हुए इन शोध छात्रों ने अपने प्रयोग के माध्यम से  बायोटेक्नोलॉजिकली दावा किया है कि रक्त एवं शुक्राणुओं के बीच 95 प्रतिशत समानता पाई जाती है। ऐसे में रक्त से भी जीवन की उत्पत्त‍ि संभव है। रक्त और वीर्य के न्यूक्लियस प्रोटीन समान होते हैं। यही प्रोटीन्स डीएनए संजाल के जरिए वंशानुगत गुण-दोषों के साथ बच्चों में स्थानांतरित होते हैं।
किसी व्यक्ति के उभयलिंगी होने पर यह संभावना और बढ़ जाती है कि वह शुक्राणु और अंडाणु बनाने की समान क्षमता रखता है। रक्तबीज का रक्त जब जमीन पर गिरा तो सफेद रक्त कोश‍िकाओं का न्यूक्लियस उसी के अंडे से फ्यूज कर नया भ्रूण बनाता रहा।
नई क्लोनिंग साइंस पद्धति इसी सिद्धांत पर काम करती है। रक्तबीज के रक्त से तैयार भ्रूण को जमीन से कार्बन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर और ऑक्सीजन समेत तमाम पोषक तत्व मिलते रहे।
जापान में रक्त की एक बूंद से 600 चूहे पैदा करने का कुछ दिनों पहले एक रिकॉर्ड बनाया गया था।
बायोटेक्नोलॉजी का यह प्रयोग क्लोनिंग में काफी समय ये उपयोग होता रहा है मगर भारतीय शोधकर्ताओं का यह पहला उत्साहजनक प्रयास है जो हमारी ही सभ्यता और विज्ञान से हमें पुन: परिचित करवा रहा है। प्र‍ियांक भारती और गरिमा त्यागी का यह प्रयास सनातन (हिंदू) धर्म के उस कथन की पुष्ट‍ि करता है जिसमें धर्म और विज्ञान को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया गया है।      
दुर्गा सप्तशती या अन्य पौराणि‍क उदाहरणों से असहज होने वालों के लिए यह पचा पाना असंभव है कि ऋ‍िष‍ि दधीचि की वज्र जैसी हड्ड‍ियां हों या उनसे वज्रास्त्र बनाने के लिए उनका त्याग, राक्षसों का आसमान की ओर उड़ना और युद्ध करते हुए जमीन पर आना, रावण के एक मस्तिष्क का दस सिरों की भांति द्रुत गति से काम लेना, पुष्पक विमान, सीता का भूमि से उपजना, एक ही भ्रूण के सौ हिस्से होकर कौरवों के रूप में हमारे सामने आना, बिना शारीरिक संपर्क के ही कुंती के पांच पुत्र और उभयलिंगी व्यक्ति होना या ऋिष‍ियों के शरीर से किसी बच्चे का जन्म या फ‍िर कृष्ण जन्म के समय योगमाया का भ्रूण प्रत्यारोपण जैसी घटनायें सिर्फ कहानियांभर नहीं हैं।
यह उस समय में आनुवांशिकी विज्ञान का चरमोत्कर्ष था जिसमें बाकायदा स्टेम सेल्स, वीर्य, रक्त, मज्जा, हारमोन्स, आईवीएफ तकनीक, म्यूटेशंस और  हाइब्र‍िड तकनीक का बेहतरीन उपयोग था।
किसी भी सभ्यता के चरमोत्कर्ष के बाद उसे प्रकृति के नियमानुसार नीचे आना ही होता है और यही नीयति हमारी इस पौराण‍िक सभ्यता की भी रही, नतीजा य‍ह है कि आज हजारों साल बाद यदि कोई कहता है कि कभी हमारी सभ्यता इतनी विकसित थी तो यकायक विश्वास नहीं होता और ज्यादातर लोग इसे अंधविश्वास की अतिवादिता कहकर स्वयं अपने ही धर्म को संशय से देखने लगते हैं। वे तभी विश्वास करते हैं जब क्लोनिंग व म्यूटेशंस का उदाहरण एक्स मैन और हल्क जैसी हॉलीवुड फिल्में पेश करती हैं ।

- अलकनंदा सिंह