मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

चीन में भारत: राजन-साजन मिश्र ने भी सुनाई ”भैरव से भैरवी तक” की गजब कंपोजीशन, आप भी सुनिए

आजकल आप लोग पढ ही रहे होंगे कि भारत-चीन मैत्री के लिए विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण सहित कई अन्‍य नेता शंघाई की विजिट पर हैं, हमारे ये सभी मंत्री वहां शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन में भाग लेने गए हैं। आगामी दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व चीनी राट्रपति शीचिनफिंग की मुलाकात होनी है।
इस अवसर पर ‘भारत-चीन मैत्री में हिंदी का योगदान’ समारोह का आयोजन हुआ जिसमें उपस्थित हिंदी के चीनी अध्यापक एवं विद्यार्थियों ने कविता पाठ किया, बाबा नागार्जुन और रामधारी सिहं दिनकर की कविताओं का पाठ चीनी विद्यार्थियों ने किया , वह भी सस्‍वर । अद्भुत नज़ारा रहा।
इसी संदर्भ में एक दिन पहले बीजिंग में जो ”भैरव से भैरवी तक” कार्यक्रम हुआ उसमें प्रसिद्ध शास्‍त्रीय गायक राजन-साजन मिश्र के गाए भैरवी गान को आप भी सुनें …

ये दोनों महान कलाकार 18 नवंबर 2017 से ”भैरव से भैरवी तक” को विश्‍वभर के 50 शहरों में श्रोताओं को सुनाने निकले हैं।
”भैरव से भैरवी तक” की इसी कड़ी में साउथ ईस्‍ट एशिया में चीन भी उनका डेस्‍टीनेशन था सो उन्होंने बीजिंग के नेशनल सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स में ये कंपोजीशन सुनाई।
आप शायद जानते होंगे कि भैरव सुबह का राग है और भैरवी रात का, इन दोनों के बीच में कई सारे अन्‍य राग भी मौजूद हैं जो दोपहर के, शाम के, रात के माने जाते हैं, इन दोनों रागों के बीच दूसरे रागों का बड़ा ‘स्पेक्ट्रम’ है जिसे यहां अभी बताना जरूरी नहीं।
बनारस से अस्‍सी घाट से 18 नवंबर 2017 से शुरू करने के बाद अहमदाबाद , कोलकाता, दिल्ली, बैंगलोर, पुणे, मुंबई, भोपाल, लुधियाना, पटना में भी इस सीरीज में कार्यक्रम प्रस्तुति रही। इसके बाद विश्व दौरे का कारवां जहां मार्च 2018 में साउथ ईस्ट एशिया से शुरू हुआ जो अमेरिका से लेकर न्‍यूजीलैंड तक जाएगा।
-अलकनंदा सिंह

रविवार, 22 अप्रैल 2018

सरकार ने तो कर दिया अब समाज कब करेगा ?


...और अंतत: दुष्‍कर्मियों के लिए फांसी का प्रावधान हो ही गया, फांसी  अर्थात् अपराधशास्‍त्र और दंडनीति के अनुसार सजा का अंतिम अस्‍त्र। 
कठुआ, उन्‍नाव और सूरत में बच्‍चियों के साथ दरिंदगी करने वालों का  उदाहरण सामने रखते हुए कल केंद्र सरकार ने अपनी कैबिनेट मीटिंग  में बच्‍चियों से दुष्‍कर्म करने वालों के लिए फांसी की सज़ा के प्रावधान  वाले ''क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस 2018 '' को मंज़ूरी दी है।
इसके बाद ये कहा जा सकता है कि कम से कम कानूनी तौर पर तो  उन दुष्‍कर्मियों के खिलाफ उचित दंडनीति बन ही गई। इसमें सर्वाधिक  गौर करने वाली बात है कि अब यौन अपराधियों का डाटाबेस बनेगा  जिसका ब्‍यौरा 'एनसीआरबी' (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो) रखेगा, और ऐसा डाटाबेस बनाने वाला भारत विश्‍व का नौवां देश होगा। 
 
यूं तो इस अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस में हर उम्र की महिलाओं के दुष्‍कर्मियों  को सजा के नए सिरे से प्रावधान किये गये हैं मगर 12 साल या उसे कम उम्र की बच्‍चियों के साथ बर्बरता करने वालों को 'फांसी' दिये जाने के प्रावधान की चौतरफा तारीफ हो रही है, और होनी भी चाहिए क्‍योंकि इस उम्र में बच्‍चियां दुर्व्‍यहार का किसी भी प्रकार (शारीरिक व  मानसिक) से प्रतिरोध नहीं कर सकती।   

दुष्‍कर्म के खिलाफ पॉक्‍सो एक्‍ट के बाद ये दंडनीति का आखिरी कदम  है, सरकार की ओर से दंडनीति का सर्वोच्‍च उपाय भी ये ही है मगर  अन्‍य कानूनों और दंडविधानों का जो हश्र अब तक हम देखते आ रहे  हैं, उसी तरह इसके भी बेजां इस्‍तेमाल को रोका जा सकेगा, इस पर  संशय बराबर उभरता है। हालांकि सरकार की ओर से पूरे बंदोबस्‍त किए गए हैं जिनमें अदालती कार्यवाही को ''समयबद्ध'' किया जाना और अग्रिम ज़मानत पर रोक सबसे खास है। कानून के भय के इस बंदोबस्‍त के बाद हम आशा कर सकते हैं कि अब दुष्‍कर्म की घटनाओं में कमी आएगी। 

परंतु जितने सवाल कानून के दुरुपयोग को लेकर उठ रहे हैं उतने ही  फांसी पर भी। जिन देशों में भी फांसी आमचलन में है, उनमें भी इस  तरह के अपराधों का आंकड़ा कम नहीं हुआ है।

अपराधशास्‍त्र के इतिहास में एक किस्‍सा सदैव सुनाया जाता है कि जब  फ्रांस में जेबकतरों से लोग ज्‍यादा परेशान होने लगे तो जेबकतरों को सरेआम फांसी का नियम बना लिया गया लेकिन फांसी देखने के लिए जो भीड़ जमा होती थी उसमें भी जेबें कटती थीं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्‍या ये सज़ा उन वहशियों के लिए किसी भय को व्‍याप्‍त कर पाएगी क्‍योंकि अन्‍य अपराधों से हटकर कोई 'दुष्‍कर्मी' सिर्फ एक अपराधी नहीं होता, वह मनोरोगी भी होता है।

अपराधशास्‍त्र में सजा देने के जो 5 मकसद बताए गए हैं उनमें फांसी  को दूसरे नंबर पर यानि deterance की श्रेणी में रखा गया है। इसका  अर्थ ही प्रतिरोध है यानि ऐसा दंड देना कि वह व्यक्ति दोबारा अपराध  न करे और उसे सजा मिलती देख दूसरे भी अपराध न करें।

हालांकि सजा देने इसके आगे के मकसदों को दंडोपचार पद्धति कहा जाता है,क्‍योंकि इसमें अपराधी को expiation यानी प्रायश्चित करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक नैतिक दंड है जिसे अपराधी खुद ही अपने लिए तय करता है। प्रायश्चित करवाने के लिए सरकारें, अपराधी को प्रायश्चित करने लायक स्थितियां बना कर दे सकती हैं।

सजा देने का चौथा मकसद अपराधी का Reformation यानी सुधार और पांचवा Rehabilitation यानी उसका पुनर्वास परंतु पुनर्वास आदि का कार्य तो दंडप्रक्रिया को पूरा करने के बाद ही अमल में लाया जा सकता है, फिलहाल हालात ऐसे हैं कि दुष्‍कर्मियों से निपटना सरकार की ही नहीं, समाज की भी प्राथमिकता बन गया है।

अपराधशास्‍त्र के तमाम प्राविधानों को अब तक जिस ढीले-ढाले तरीके से इस्‍तेमाल किया जाता रहा है, उसने ही जघन्‍य अपराधों में बेहिसाब वृद्धि की परंतु अब सरकार द्वारा दो महीने की समयबद्धता निर्धारित कर देने से कुछ भय तो अवश्‍य पैदा होगा अपराधियों में। हां, कानून का दुरुपयोग रोक पाना एक बड़ी चुनौती होगी, वो भी इसलिए क्‍योंकि बच्‍चियां ही नहीं हर उम्र में की महिलायें भी समाज में और यहां तक कि अपने घरों तक में ''कथित इज्‍ज़त वाले मानदंडों'' का आसान शिकार होती हैं।

बहरहाल, यह बात तो हम सभी जानते हैं कि फांसी की सजा भले ही  भय उत्‍पन्‍न कर सकती हो मगर यह किसी मनोविकार को दूर नहीं  कर सकती। मनोविकार तभी दूर किया जा सकता है जब स्‍वस्‍थ तन  के साथ-साथ स्‍वस्‍थ मन तैयार करने की जिम्‍मेदारी समाज अपने  ऊपर ले।

नि:संदेह सख्‍त दंड के प्राविधान की जिम्‍मेदारी सरकार की है
और इसीलिए बेटियों के प्रति इस क्रूर एवं जघन्‍य कृत्‍य करने वालों  को मौत तक ले जाने वाला कदम सरकार ने उठाया है मगर इसे  आखिरी कदम नहीं माना जा सकता क्‍योंकि अधिकांश मामलों में देखा  गया है कि कानून की प्रक्रिया चाहे कितनी भी सख्‍त क्‍यों न हो किंतु  उसके अंदर निहित मूल भावना का लाभ अपराधी ही उठा ले जाते हैं।  इसलिए मुकम्‍मल इंतजाम तभी संभव है जब समाज आगे बढकर इस  कलंक को मिटाने का संकल्‍प ले।

यूं भी बच्‍चियां सिर्फ सरकार की जिम्‍मेदारी नहीं हैं, वह समाज का भविष्‍य भी हैं।

स्‍वस्‍थ समाज के लिए स्‍वस्‍थ मन-मस्‍तिष्‍क वाले लोगों का होना उतना  ही जरूरी है जितना कि कठोर दंड प्रक्रिया के अनुपालन के लिए उसके  दुरुपयोग को रोकने का इंतजाम किया जाना।

आज तमाम ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें सख्‍त कानून का  अत्‍यधिक दुरुपयोग हुआ और अंतत: न्‍यायपालिकाओं को हस्‍तक्षेप  करना पड़ा। बात चाहे दहेज एक्‍ट की हो अथवा एससी/एसटी एक्‍ट की।
इसलिए बेहतर होगा कि सरकार के साथ-साथ समाज का हर वर्ग बिना  राजनीति किए इसमें अपनी सहभागिता निभाए और एक ऐसा  वातावरण तैयार करे जिसमें बच्‍चियों बेखौफ होकर अपने अरमान पूरे  कर सकें। 

-अलकनंदा

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

देश को बेइज्‍ज़त करने के कुत्‍सित-अभियान... क्‍या ये देशद्रोह नहीं

सूचनाओं की बेलगाम आवाजाही एक ओर जहां कानून-व्‍यवस्‍था और  शासन-प्रशासन पर सवालिया निशान लगाती है वहीं दूसरी ओर समाज  को भी संवेदनाहीन बनाने का काम करती है। पिछले लगभग तीन चार  साल से मैं देख रही हूं कि 'यूं ही' तैरती भ्रामक सूचनाओं के आधार  पर अर्धसत्‍य और यहां तक कि अफवाहों को भी सत्‍य सिद्ध करने की  कोशिश में लोग 'किसी भी हद तक' चले जाते हैं। दु:ख की बात यह है  कि इस झूठ को कोई अन्‍य नहीं, बल्‍कि मीडिया ही जनजन तक पहुंचा  रहा है और सिलसिलेवार ढंग से कुछ गैरसरकारी संगठन इसे प्रदर्शनों  के जरिए देश से लेकर विदेशों तक पहुंचाने में मदद करते हैं। जिससे  देश और समाज की छवि बिगड़ रही है।

यूं तो इस नकारात्‍मकता को समय-समय पर मुंहतोड़ जवाब भी मिला  है, मगर बुरी तरह लताड़े जाने के बावजूद विध्‍वंसकारी सोच इतनी  आसानी से कहां रुकती हैं।

पिछले तीन दिनों में तीन घटनाओं का जो सच सामने आया है, वह  यह बताने के लिए काफी है कि देश की छवि को ध्‍वस्‍त करने के लिए  किस तरह बाकायदा ''कुत्‍सित-अभियान'' चलाए गए और देश-विदेशों में  इस आशय का विभ्रम फैलाया गया कि भारत में एक खास किस्‍म के  लोग, एक खास पार्टी तथा एक खास विचारधारा द्वारा ''कितने जघन्‍य  अपराध'' किए जा रहे हैं।

पहली घटना का सच

गत दिनों ''हिंदू आतंकवाद'' जैसे शब्‍द को फैलाए जाने का सच तब  सामने आना जब एनआईए कोर्ट ने 2007 में हुए हैदराबाद की मक्का  मस्जिद ब्लास्ट केस के मुख्‍य आरोपी स्वामी असीमानंद सहित सभी 5  सह आरोपियों को 11 साल बाद कुल 226 गवाहों के बयान और 411  कागजाती सुबूत पेश किए जाने के बावजूद बरी कर दिया। कोर्ट के  आदेश ने परोक्ष रूप से तत्‍कालीन रॉ अधिकारी आरवीएस मणि की  उस निजी तहकीकात को भी सच साबित किया जिसके अनुसार घटना  के लिए दोषी पाए गए पाकिस्‍तान के हूजी आतंकियों  को बाकायदा  रचे गए एक षड्यंत्र के तहत रिहा करते हुए निर्दोष लोगों को फंसाकर  हिंदू आतंकवाद अथवा भगवा आतंकवाद का नाम दिया गया। खैर ''हिंदू  आतंकवाद'' के नाम पर प्‍लांट की गई इस स्‍टोरी का ''द एंड'' तो कोर्ट  के निर्णय से गत 16 तारीख को हो ही गया, साथ ही वह इस हकीकत  से भी परिचित करा गया कि किस तरह हिंदू अब तक खास  राजनीतिक पार्टियों का सॉफ्ट टारगेट रहा है।

दूसरी घटना का सच

पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने कल बताया कि ट्रेन में सफर कर रहे  जुनैद की हत्‍या बीफ के कारण नहीं, बल्‍कि सीट को लेकर हुए झगड़े  के कारण हुई। इसी जुनैद को लेकर असहिष्‍णुता का ढिंढोरा पीटने वाले  गिरोह ने किस तरह बैनरों सहित देश-विदेश तक प्रदर्शन किया था,  यह आपको भी जरूर याद होगा।

अब सुनिए तीसरी घटना का सच

मुझे लगता है कि ये सर्वाधिक घिनौनी घटना है। होली के अवसर पर  दिल्‍ली यूनीवर्सिटी के रामजस कॉलेज की एक छात्रा ने अपने ऊपर  सीमेन से भरा गुब्‍बारा फेंके जाने की बात कही थी। कथित पीड़िता ने  इसके लिए सोशल मीडिया को हथियार बनाया और उसके बाद सक्रिय  हुए तथाकथित हिमायती तख्‍तियां लेकर निकल पड़े थे।इस घिनौने  लेकिन आधारहीन दुष्‍प्रचार की हवा भी कल आई फोरेंसिक रिपोर्ट ने  निकाल दी और बता दिया कि गुब्‍बारों में सीमेन नहीं था।

इन तीनों घटनाओं का सच सामने आने के बाद आप क्‍या सोच रहे हैं?  यही ना कि कोई सोच के इतने निचले स्‍तर तक कैसे जा सकता है।  कोई भी संगठन, पार्टी, व्‍यक्‍ति या मीडिया हाउस अपने समाज और  अपने देश का सिर इस तरह शर्म से झुकाने पर आमादा क्‍यों हो जाता  है, और वह भी विदेशों तक में।
दरअसल, ये वही तत्‍व हैं जो गांव-खेतों में, आदिवासी लिबास में,  अपनी गृहस्‍थी चला रही महिलाओं में, मां-बाप की सेवा करते बच्‍चों   में देश के पिछड़ेपन को खोजते हैं। ये वही तत्‍व हैं जो अब तक  देश-विदेश से ''मिल रहे'' धन में कमी आने पर बिलबिला रहे हैं। गोया  कि समाजसेवा सिर्फ प्‍लेकार्ड्स और प्रदर्शनों से ही चलती हो।

उक्‍त तीनों घटनाओं को लेकर प्रोपेगंडा खड़ा करने में कई तो मीडिया  हाउसेज चलाने वाले वो ''तथाकथित सेक्‍यूलर शामिल हैं, जो ''बेचारे'' व ''सत्‍यान्‍वेषी'' होने का ठेका लिए हुए हैं''।

बहरहाल, अच्‍छी खबर यह है कि कल दिल्‍ली हाईकोर्ट ने कठुआ  मामले में बच्‍ची की तस्‍वीर ज़ाहिर करने पर मीडिया घरानों को ऐसी  ही गैरजिम्‍मेदारी पर दंडित करते हुए 10-10 लाख का ज़ुर्माना लगाया  है और आइंदा के लिए ताक़ीद भी किया है कि वे 'सनसनी' और  'ब्रेकिंग न्‍यूज' के लिए नियमों के विपरीत जाकर कोई ऐसी सूचना  समाज के सामने पेश ना करें जो घृणा और विद्वेष फैलाती हो अथवा  किसी की प्रतिष्‍ठा को ध्‍वस्‍त करती हो।

भले ही हाईकोर्ट ने कठुआ गैंगरेप व हत्‍या के मामले में बच्‍ची की  फोटो ज़ाहिर करने पर ये ज़ुर्माना लगाया है परंतु बात ''इतनी सी ही''  नहीं है। अब समय आ गया है कि हम स्‍वयं किसी भी घटना पर जस  का तस विश्‍वास ना करें, देश की छवि को बिगाड़ने वाले कोई भी हों,  उनका सच जानने के लिए हमें स्‍वयं सब्र के साथ रियेलिटी चेक  अवश्‍य कर लेना चाहिए।

सोशल मीडिया और खबरों के इस भयावह बवंडर में देश की नकारात्‍मक छवि पेश करने वालों की ये हरकतें क्‍या किसी देशद्रोही कृत्‍य से कम हैं...और क्‍या अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी के नाम पर देश के खिलाफ षड्यंत्र रचने की छूट दी जा सकती है। किसी खबर को प्‍लांट करना और उसे चरणबद्ध तरीके से ''खास मकदस'' पाने  तक प्रसारित करते रहना भी देशद्रोह है। देशद्रोह सिर्फ तभी नहीं होता  जब हम देश के दुश्‍मनों का पक्ष लेकर बोलें...देशद्रोह तब भी होता है  कि जब हम अपने देश को बेइज्‍ज़त करने के लिए साजिश के तहत  किसी भी हद तक चले जायें।

शायद वह समय आ गया है कि अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का दायरा निर्धारित किया जाए और यह भी तय किया जाए कि अभिव्‍यक्‍ति की  स्‍वतंत्रा का मतलब देश की अस्‍मिता से खिलवाड़ करना कभी नहीं  हो सकता।
दलगत राजनीति की निकृष्‍टता वहां तक तो सहन की जा सकती है  जहां तक उससे मात्र 'दल' ही प्रभावित हो रहे हैं किंतु जब देश को  उसकी ''दलदल'' में घसीटा जाने लगे तो निश्‍चित ही वह अक्षम्‍य  अपराध बन जाता है। 
- अलकनंदा सिंह     

सोमवार, 16 अप्रैल 2018

बूढ़े बरगद को बचाने के लिए लगाई गई है सलाइन ड्रिप

















अकसर हम नेगेटिव खबरों को ही अपनी चर्चा का केंद्रबिंदु मानकर समाचार सूत्रों को गरियाते रहते हैं और साथ ही वही समाचार देखते भी रहते हैं मगर  जबकुछ करने की बात आती है तो अपना पल्‍ला झाड़ने से भी गुरेज नहीं करते। आज आपको एक ऐसे ही अद्भुत समाचार से परिचित करवा रही हूं, जो हमारे भीतर  कुछ करने का जज्‍़बा तो भरेगा ही साथ दूसरों को गरियाने से पहले स्‍वयं की ओर देखने को भी बाध्‍य करेगा। समाचार  हैदराबाद के तेलंगाना के महबूबनगर जिले से आया है। 

महबूबनगर में स्थित बरगद का पेड़ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बरगद का पेड़ है। इसका अस्तित्व संकट में है, इसे बचाने के लिए अब इसे सलाइन ड्रिप चढ़ाई जा रही है। इसे फिर से जीवित करने के लिए यह कोशिश की जा रही है।
दुनिया भर में मशहूर पिल्लामर्री स्थित 700 साल पुराना यह पेड़ खत्म होने की कगार पर आ गया है। पेड़ पर दीमक का प्रकोप इतना है कि वह इसे खोखला किए जा रहे हैं। इसी कारण पेड़ का कुछ हिस्सा भी गिर चुका है। दिसंबर 2017 के बाद से यहां पर्यटकों का आना-जाना प्रतिबंधित किया जा चुका है। ऐसे में पेड़ का इलाज किया जा रहा है। इंजेक्शन से डाल्यूटेड केमिकल्स लगाए जा रहे हैं ताकि दीमक खत्म किया जा सके।
तने से केमिकल डालने पर नहीं मिली सफलता 
पेड़ का इलाज करने के लिए पहले इसके तने में केमिकल डाला गया लेकिन यह नाकामयाब रहा। फिर वन विभाग ने फैसला लिया कि जिस तरह अस्पताल में मरीज को सलाइन में दवा मिलाकर बूंद-बूंद चढ़ाई जाती है वैसे ही पेड़ में बूंद-बूंद करके सलाइन की बोतल से केमिकल चढ़ाया जाए।
बूंद-बूंद चढ़ाई जा रही ड्रिप 
अधिकारियों ने सलाइन ड्रिप में केमिकल मिलाया। इस तरह से सैकड़ों बोतलें तैयार की गईं। इन बोतलों को पेड़ में हर दो मीटर की दूरी पर लटकाया गया। उसके बाद पेड़ में बूंद-बूंद करके यह ड्रिप चढ़ाई जा रही है।
तीन एकड़ में फैला है यह विशाल पेड़
महबूबनगर जिला वन अधिकारी चुक्का गंगा रेड्डी ने बताया कि पेड़ इतना बड़ा है कि लगभग तीन एकड़ जमीन पर फैला है। पेड़ को बचाने के लिए उन लोगों ने विशेषज्ञ और आईएफएस ऑफिसर रहे मनोरंजन भंजा की सलाह ली। पेड़ को बचाने के लिए तीन तरह से इलाज और संरक्षण शुरू किया गया। पेड़ में बने छेदों में केमिकल डाला गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बाद में सलाइन ड्रिप से केमिकल चढ़ाया जाना शुरू किया गया। अब यह फॉर्म्युला काम कर रहा है।
तीन तरीकों से हो रहा इलाज
पहले तरीके से संरक्षण करने के लिए पेड़ में सलाइन चढ़ाया जा रहा है। दूसरा पेड़ के जड़ों में केमिकल डायल्यूटेड पानी डाला जा रहा है। वहीं तीसरा तरीका पेड़ को सपॉर्ट के लिए अपनाया गया है। उसके आस-पास से कंक्रीट का स्ट्रक्चर बनाया गया है ताकि उसके भारी शाखाएं गिरने से बच सकें। पेड़ के तने को बचाने के लिए उसे पाइप्स और पिलर्स से सपॉर्ट दिया गया है।
अधिकारी खुद कर रहे निगरानी 
दिसंबर के महीने तक यह पेड़ पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र था। यहां दूर-दूर से पर्यटक पेड़ को देखने आते थे। तब इसकी देखभाल का जिम्मा पर्यटन विभाग को था। पर्यटन विभाग का करना है कि उन्होंने पेड़ के संरक्षण के लिए तमाम प्रयास किए लेकिन कोई भी प्रयोग उसे दीमकों से बचाने में सफल नहीं रहा।
वन विभाग ने इस पेड़ के संरक्षण की जिम्मेदारी वापस ले ली और अब इसके जीर्णोद्धार के लिए काम हो रहा है। जिलाधिकारी रोनाल्ड रॉस ने बताया कि वह व्यक्तिगत तौर पर इस संरक्षित पेड़ के इलाज की निगरानी कर रहे हैं। अब पेड़ की हालत स्थिर है। उम्मीद है कि उसे कुछ ही दिनों में सामान्य कर लिया जाएगा। उच्चाधिकारियों से बात के बाद यहां पर्यटकों का आना फिर से शुरू किया जाएगा।

अब बताइये ये प्रयास हमारे व आपके भीतर कितनी सकारात्‍मकता भर गया, अगर भर गया है तो आज से ही नकारात्‍मक समाचारों से दूरी बनाकर देखिये, कितना सुकून मिलता है।


- Legend News/ Agency

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

… ये मील के पत्‍थरों से आगे का सफर है

मशहूर शायर बशीर बद्र साहब का एक शेर है- 

जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है

आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा...

ये फ़कत एक शेर नहीं, उस जज्‍़बे का अक्‍स है जिसे आजकल हम रेसलिंग मैट्रेस, बॉक्‍सिंग रिंग्‍स, बैडमिंटन कोर्ट्स, शूटिंग रेंज नापते और मंजिलों की ओर बढ़ते कदमों के रूप में देख रहे हैं।
यूं भी जब मंजिलों पर नज़र हो तो बीच का रास्‍ता कितना लंबा है, कितना मुश्‍किलों भरा है, दुश्‍वारियों से कैसे लड़ना है, कौन इसमें साथ देता है और कौन पैर पकड़कर नीचे ले आने की कोशिश करता है, यह सब मायने तो रखता है मगर एक सबक की तरह। इन्‍हीं तमाम सबकों से जूझते-पार पाते हुए मिली मंज़िल के रूप में पोडियम पर मेडल लहराते हुए चेहरे कहीं भुलाए जा सकते हैं भला।

गांव की गली, पहाड़ों, दर्रों, जंगलों से पोडियम तक की राह कितनी कठिन रही होगी, यह तो हम सिर्फ कल्‍पना ही कर सकते हैं। इस सफ़र में आगे बढ़ने की खुशी कई गुना तब और बढ़ जाती है जब इन बच्‍चियों के सपनों को मां-बाप की आंखें देखती हैं।

हमारे खिलाड़ी लड़कों के साथ-साथ एक से बढ़कर एक मील के पत्‍थरों को नापती लड़कियां जब पोडियम पर खड़ी होती हैं तो उनके घर, गांव, मां-बाप, सब सातवें आसमान पर होते हैं। ऑस्‍ट्रलिया के गोल्‍डकोस्‍ट में चल रहे कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में अब ये नज़ारा आम सा हो गया है कि कौन कितने मेडल लेगा। सिर्फ लड़कियों का हौसला ही क्‍यों, तारीफ के हकदार हमारे लड़के भी हैं ।

मैं इसलिए कह रही हूं कि किसी एक की हौसलाअफज़ाई के फेर में हम दूसरों को कमतर नहीं आंक सकते। कोई भी विभेदकारी सोच खेलों में उच्‍चतर परिणाम नहीं दे सकती। लड़कियां अभी तक इसी विभेदकारी सोच के कारण ही तो पीछे बनीं रहीं, हालांकि अब भी उनकी गति कम ही है मगर खुशी है कि सफर शुरू हो चुका है।

इसलिए खेलों को हर हाल में जेंडरन्‍यूट्रल रखना ही होगा क्‍योंकि मेहनत लड़के भी कर रहे हैं और लड़कियां भी, मगर लड़कियां ज्‍यादा तारीफ की हकदार इसलिए हैं क्‍योंकि उन्‍हें खेल में आगे बढ़ने के लिए सिर्फ संसाधनों की ही ज़रूरत नहीं थी, उन्‍हें  वो हौसला भी चाहिए था जो खेल को महारत हासिल करने तक के रास्‍ते को पार करने के लिए जरूरी होता है।

बशीर बद्र साहब के शेर की रौशनी में कहूं तो ये हौसले ही वो मील के पत्‍थर थे जो मंज़िल पाने का वायस बने। यही वो मंज़िलें हैं जिन्‍हें पाने के लिए बच्‍चियों ने अपनी जान हथेली पर रखी और उनके मां-बापों ने अपने घर व मवेशियों को भी बेचने में गुरेज़ नहीं किया। हां, इनमें से कुछ बेटियां संपन्‍न और मध्‍यम वर्ग से भी आईं मगर जो हासिल किया, वह स्‍वर्णिम है। 

बहरहाल, मीराबाई चानू, संजीता चानू, पूनम यादव, मनु भाकर, हीना सिद्धू , श्रेयसी सिंह, मनिका बत्रा, निक्की प्रधान ने एक ऐसी श्रृंखला बनाई है जिसे लगातार आगे ले जाने की चुनौतियां सबके सामने होंगी।

हम तो इस कामयाबी पर बहज़ाद लखनवी के लफ्ज़ों में इन बच्‍चियों को आगे बढ़ते देखना चाहेंगे कि- 

''ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए

मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए''।
-अलकनंदा 

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

घुमक्‍कड़ी के कारण ही केदारनाथ पांडेय से राहुल सांकृत्‍यायन तक का सफर कर गए वो

9 अप्रैल, 1893 को जन्‍मे केदारनाथ पांडेय कब और कैसे राहुल सांकृत्‍यायन बन गए, इसके पीछे उनकी हजारों मील लंबी यात्रायें रहीं। दूर पहाड़ों और नदियों के बीच दुर्लभ ग्रंथों की खोज में भटकने के बाद, उन ग्रंथों को खच्चरों पर लाद कर अपने देश में लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही थे। उनका निधन भी अप्रैल माह में ही 14 तारीख 1963 को हो गया।

हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच दुर्लभ ग्रंथों की खोज में भटकने के बाद, उन ग्रंथों को खच्चरों पर लाद कर अपने देश में लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही थे। घुमक्कड़ी को वे धर्म मानते थे। घुमक्कड़ी उनके जीवन का मूल मंत्र रही। आज दुनिया उन्हें एक यायावर, इतिहासविद, तत्त्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के रूप में जानती है। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में सराहनीय है।
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गांव में 9 अप्रैल, 1893 को जन्मे राहुल सांकृत्यायन के बचपन का नाम केदारनाथ पांडेय था। उनके पिता गोवर्धन पांडेय किसान थे। उनके बचपन में ही माता कुलवंती का देहांत गया। उनका पालन-पोषण उनके नाना-नानी ने किया था। प्राथमिक शिक्षा के लिए उन्हें गांव के ही एक मदरसे में भेजा गया। उनका विवाह बचपन में ही कर दिया गया था, पर राहुल ने गृहस्थी बसाने के बजाय कुछ और ही सोच रखा था। वे किशोरावस्था में घर छोड़ कर चले गए और एक मठ में साधु बन गए। बाद में कलकत्ता चले गए। सन 1937 में उन्होंने रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में संस्कृत अध्यापक की नौकरी की और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली।
’सन 1930 में श्रीलंका जाकर उन्होंने बौद्ध धर्म पर शोध किया और तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गए। सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाए। उनके ज्ञान भंडार के कारण काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी और इस तरह वे केदारनाथ पांडे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गए।
साहित्य के प्रति रुझान
राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी साहित्य ही नहीं, भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी शोध कार्य किया। उन्होंने धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रा साहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोष, प्राचीन ग्रंथों का संपादन कर विविध क्षेत्रों में अहम काम किया।
राजनीतिक जीवन
राहुल सांकृत्यायन ने कई सामाजिक कुरीतियों को भी तोड़ा। एक बार उन्होंने बलि प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के पुरोहित की हिंसा का शिकार होना पड़ा। जब वे तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में गए तो सत्ता के लोभी सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की। वे सत्य का साथ देते थे और इसी का उदाहरण सन 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में दिया उनका भाषण है। उस समय उन्होंने जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति और भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजतन उन्हें पार्टी की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ और ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में मार्क्सवाद पर प्रकाश डाला है।
पटना संग्रहालय स्थित बिहार रिसर्च सोसाइटी में इन ग्रंथों को सहेजकर रखा गया है। इनका डिजिटलाइजेशन भी हो चुका है। मगर इनका अनुवाद अभी होना बाकी है
प्रमुख कृतियां
’अलग-अलग देशों की यात्रा के कारण वे बहुभाषी बने। उन्होंने हिंदी, संस्कृत, पालि, भोजपुरी, उर्दू, पर्शियन, अरबी, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, फ्रेंच और रूसी आदि भाषाओं में कई किताबें लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं-
कहानी संग्रह : सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा। उपन्यास : जीने के लिए, बाईसवीं सदी, जय यौधेय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, विस्मृत यात्री, दिवोदास।
आत्मकथा : मेरी जीवन यात्रा
जीवनी : बचपन की स्मृतियां, सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, अतीत से वर्तमान, लेनिन, स्तालिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल, महामानव बुद्ध और सिंहल के वीर पुरुष।
यात्रा साहित्य : मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी लद्दाख यात्रा, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, घुमक्कड़-शास्त्र
सम्मान
साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पद्म भूषण, त्रिपिटिकाचार्य
निधन : दार्जिलिंग में 14 अप्रैल 1963 को उनका निधन हो गया।
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह