मंगलवार, 24 अगस्त 2021

स्‍कॉलर नहीं बना रहे, देश के संग भि‍तरघात की ट्रेन‍िंग दे रहे हैं ये


 


अकसर हम धीमी प्रगत‍ि को “कछुआ चाल” कह कर उसे न‍िकृष्‍टता का जामा पहना देते हैं, परंतु यह भूल जाते हैं क‍ि अंत में व‍िजय धीमी गत‍ि यान‍ि “सतत प्रयास” की ही होती है। हमारे देश पर ग‍िद्ध दृष्‍ट‍ि जमाए दुश्‍मन (परोक्ष व अपरोक्ष) देशों की ओर से जो कोश‍िशें होती रही हैं उस पर कार्यवाही भले ही कछुआ चाल से चलती द‍िख रही हो परंतु हो रही है, और सटीक हो रही है। इस कार्यवाही ने आस्‍तीन के सांपों को सरेआम कर द‍िया है।

कल वामपंथी यलगार पर‍िषद मामले में एनआईए ने जो अपनी ड्राफ्ट र‍िपोर्ट व‍िशेष अदालत में सौंपी हैं उसमें पर‍िषद के ज‍िन इरादों का उल्‍लेख है, उन्‍हें झुठलाया नहीं जा सकता क्‍योंक‍ि देश में जहां-जहां और जब-जब दंगों की स्‍थ‍ित‍ि बनी, वहां हर जगह वामपंथ‍ियों की मौजूदगी रही। देश को भीतर से खोखला करने के इरादों की भयावहता द‍ेख‍िए कि‍ पर‍िषद ने जहां एक ओर जेएनयू और टाटा इंस्‍टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के छात्रों का सहारा लेकर भीमा कोरेगांव, सीएए-एलआरसी और कथ‍ित क‍िसान आंदोलन तक को फाइनेंश‍ियली व मैनपॉवर के संग स्‍पॉन्‍सर क‍िया वहीं झारखंड की पत्‍थरगड़ी, नक्‍सली उग्रवाद और तम‍िलनाडु के स्‍टरलाइट कॉपर प्‍लांट के व‍िरुद्ध प्रदर्शन तक के ल‍िए वामपंथ‍ियों ने चीन द्वारा भारी भरकम फंड‍िंग के बल पर देश में अशांत‍ि, अराजकता और आर्थ‍िक चोट पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

स्‍टरलाइट कॉपर प्‍लांट बंद कराने में वामपंथी संगठनों की मुख्‍य भूम‍िका रही। ज‍िन कर्मचार‍ियों को मजदूर संगठनों का नेता बनाकर पर्यावरणव‍िद् बताया गया और फरवरी 2018 में चीन समर्थित कार्यकर्ताओं के विरोध के कारण वेदांत स्‍टरलाइट के ख‍िलाफ प्रदर्शन को कोर्ट तक ले जाया गया, क्‍या वो कोई इत्‍त‍िफाक था, नहीं बल्‍क‍ि स्टरलाइट प्लांट जो क‍ि भारत के कुल तांबे का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करता था को बंद कर दिया गया।

प्लांट के बंद हुए तीन साल से ज्यादा हो चुके हैं। वेदांत स्‍टरलाइट के उच्‍च गुणवत्‍ता वाले तांबे से चीन को भारी नुकसान हो रहा था, उसने भारत में बैठे अपने इन भाड़े के टट्टुओं को लगाकर पूरा प्‍लांट बंद करवा द‍िया क्‍योंकि‍ भारत के इस तांबे के कारण चीन के तांबे की मार्केटवैल्‍यू खत्‍म हो गई थी, अब इस प्‍लांट के बंद होने से चीन और पाक‍िस्‍तान दोनों फायदे में हैं क्‍योंक‍ि बलूच‍िस्‍तान में न‍िकाला जा रहा न‍िम्‍न कोट‍ि का तांबा अपरोक्ष रूप से पाक‍िस्‍तान को परोक्ष रूप से चीन को लाभ दे रहा है। चीन के इशारे पर काम कर रहे वामपंथ‍ियों के बारे में ज्‍यादा सुबूत ढूढ़ने की जरूरत नहीं, सोशल मीड‍िया पर इनके व‍िचार ही यह बताने के ल‍िए काफी हैं क‍ि वो क्‍या सोचते हैं और देश को कहां ले जाना चाहते हैं।

इसके अलावा अभी हम गलवान के वीरों को श्रद्धांजल‍ि दे ही रहे थे क‍ि चीन की स्‍थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर भारतीय वामपंथ‍ी नेताओं का उस कार्यक्रम में शाम‍िल होना क्‍या देश व‍िरोध के कोई और सुबूत भी चाहता है।

10,000 पन्‍नों की वि‍स्‍तृत चार्जशीट के बाद एनआईए की ड्राफ्ट र‍िपोर्ट के बाद व‍िशेष अदालत क्‍या फैसला सुनाती है और क‍िसको दोषी अथवा न‍िर्दोष बताती है, यह जानना तो अभी दूर है परंतु इतना अवश्‍य है कि‍ देश के भीतर बैठे दुश्‍मन देशों के ये पैरोकार हमारे बच्‍चों को अपना हथ‍ियार बना रहे हैं, हम सोच रहे हैं कि‍ बच्‍चा जेएनयू में पढ़ रहा है या ट‍िस से सोशल साइंस का व‍िद्वान बनने गया है परंतु वहां तो देशघात की ट्रेन‍िंग दी जा रही है। सरकार और उसकी इंवेस्‍टीगेट‍िव एजेंसी एनआईए जो कुछ देशह‍ित में संभव होगा करेगी ही परंतु हमें भी सचेत रहना होगा क‍ि हम अपने बच्‍चों को “स्‍कॉलर” बनाने की ज‍िम्‍मेदारी आख‍िर क‍िसके हाथों में सौंप रहे हैं। देशह‍ित में सीमापार के दुश्‍मनों से ज्‍यादा इन भीतरघात‍ियों के मंसूबे से आगाह रहने की जरूरत है।

- अलकनंदा स‍िंंह

बुधवार, 18 अगस्त 2021

ये उम्‍मीदों का वजन है… जो व‍िस्‍फोट तक जा पहुंचा है


 कोरोना के चलते टोक्‍यो ओलंप‍िक इस बार कई मायनों में खास रहा, बायोबबल, आरटीपीसीअर र‍िपोर्ट और क्‍वारंटीन जैसी स्‍थ‍ित‍ियों से जूझते ख‍िलाड़ी, एक और बड़ी समस्‍या से जूझते म‍िले और वो था ड‍िप्रेशन। हालांक‍ि इस पर चर्चा कभी व‍िस्‍तार नहीं पकड़ पाई परंतु टोक्‍यो ओलंप‍िक में अवसाद यान‍ि ड‍िप्रेशन के दो उदाहरण सामने आए। एक तो भारतीय कमलप्रीत कौर और दूसरी अमेर‍िकी ज‍िमनास्‍ट सिमोन बाइल्स। हालांक‍ि कमलप्रीत ने ड‍िप्रेशन के बावजूद 65 मीटर से ज्यादा दूर तक चक्का फेंक कर र‍िकॉर्ड बनाया मगर स‍िमोन ने तो ओलंपिक के फ़ाइनल इवेंट से ही खुद को अलग कर ल‍िया और सरेआम यह स्‍वीकार भी क‍िया क‍ि वे अपेक्षाओं के बोझ को और नहीं ढो सकतीं ।

ड‍िप्रेशन से ही जुड़ी फार्मास्युटिकल मार्केट रिसर्च संगठन AIOCD – AWACS  की एक र‍िपोर्ट आई है जो च‍िंता बढ़ाती है क‍ि भारत में एंटी-डिप्रेशन दवाइयों की ब‍िक्री ने तो इस बार र‍िकॉर्ड तोड़ा ही इन दवाइयों के खरीददारों में युवा उपभोक्‍ताओं की संख्‍या ने भी सारे र‍िकॉर्ड ध्‍वस्‍त कर द‍िए। अप्रैल 2019 में 189.3 करोड़ रुपए की एंटीडिप्रेसेंट की बिक्री, जुलाई 2020 में बढ़कर 196.9 करोड़ रुपए से अधिक थी, अक्टूबर 2020 में यह आंकड़ा 210.7 करोड़ रुपए का था, अप्रैल 2021 में 217.9 करोड़ रुपए के रिकॉर्ड के साथ शीर्ष पर पहुंच गया है।

आख‍िर इन आंकड़ों का क्‍या अर्थ है, न्यूरो-कॉग्नेटिव इंहेंसर केतौर पर इस्‍तेमाल की जाने वाली एंटीड्रिप्रेसेंट्स दवा की बिक्री और खपत में 20 प्रतिशत की वृद्धि क्‍यों हुई। इस बार हमें भले ही कोरोना और लॉकडाउन आड़ म‍िल जाए परंतु पहले भी इनकी ब‍िक्री कोई कम तो ना थी। जब एंटी डिप्रेसेंट दवाएं सबसे पहले 1950 में बनी तो पाया गया कि इनका असर तो तुरंत दिखाई देता है, लेकिन साइडइफेक्ट धीरे-धीरे नजर आते हैं, एंटी डिप्रेसेंट्स दिमाग की संरचना बदल रही हैं, न्यूरोट्रांसमीटर में बदलाव आ रहा है। न्यूरोट्रांसमीटर जो न्यूरॉन्स (दिमाग की कोशिका) के बीच रासायनिक संदेशवाहक बनकर संपर्क बनाते हैं और संदेश भेजते हैं, उन्हें अगले न्यूरॉन में लगे रेसेप्टर ग्रहण कर तो लेते हैं परंतु कुछ रेसेप्टर खास न्यूरोट्रांसमीटर के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं या फिर असंवेदनशील भी। एंटी डिप्रेसेंट्स, मूड बदलने वाले न्यूरोट्रांसमीटर्स का स्तर धीरे-धीरे बढ़ाते हैं। असर होने पर समय के साथ मरीज डिप्रेशन से बाहर आने लगता है।

ओलंप‍िक हो या आम युवा, ड‍िप्रेशन का इतना अध‍िक आंकड़ा और उसे ट्रीट करने के ल‍िए दवाओं का सहारा, यह सोचने के ल‍िए काफ़ी है क‍ि आख‍िर हम जा क‍िधर रहे हैं।

मेरा स्‍पष्‍ट मत है क‍ि आज “अपेक्षाओं के भार” से लदी इस पीढ़ी का पहला मनोरोग है- फ्रीडम और प्राइवेसी और दूसरा है क‍िसी अन्‍य की आकांक्षाओं को सामने रख स्‍वयं को स‍िद्ध करने का दबाव। बस , यही वो “रेत पर बनी नींव” है जो अकेलापन, स्‍वार्थी दोस्त, घर-परिवार से आत्मीयता न होना सहन नहीं कर पाती और छटपटाहट में इसका दलदल इन्‍हें इनके ही भीतर की ओर धकेलता जाता है, नतीजा होता है ड‍िप्रेशन यान‍ि क‍ि जीवन की सच्‍चाइयों से पलायन। और इस आग में घी का काम करती है संवादहीनता।

दरअसल जब आप संवाद रखते हैं, थोड़ा झुकना, सुनना-सहना सीखते हैं तो आप में संयम, क्षमता, बल आता है। हममें से हर एक अपने भीतर चुपचाप “सुख के नीर” की खोज में कुआँ खोदता एक मजदूर हैं ज‍िसके भीतर की ज़मीन कभी कभी लाख कोशिशों के बाद भी पानी नहीं उलीचती। कुआँ खोदने वाले को एक रोज़ यही प्यास “ड‍िप्रेशन” बनकर निगल जाती है।
तो ये ड‍िप्रेशन कोई रोग नहीं बस, स्‍वयं से स्‍वयं के ऊपर लादा हुआ वो बोझ है ज‍िसे एंटीड‍िप्रेशेंट नहीं बल्‍क‍ि स्‍वयं की इच्‍छाशक्‍त‍ि से ही कम कर करके हटाया जा सकता है जैसे क‍ि स‍िमोन बाइल्स ने क‍िया तभी तो उनके प्रत‍ियोग‍िता से हटने का सभी ने स्‍वागत कि‍या।

क‍िसी युवा कव‍ि ने क्‍या खूब कहा है क‍ि —-

इस नगर में,
लोग या तो पागलों की तरह
उत्तेजित होते हैं
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं।
जब वे गुमसुम होते हैं
तब अकेले होते हैं
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं
तब और भी अकेले हो जाते हैं।

- अलकनंदा स‍िंंह