बुधवार, 20 दिसंबर 2017

सुनिए मंत्री जी! गले नहीं उतरने वाले ये बचकाना तर्क

किसी भी उच्‍च पदस्‍थ व्‍यक्‍ति की मन: स्‍थिति को समझने के लिए उसके भाव काफी होते हैं। उच्‍चपदासीन होने का यह मतलब यह नहीं कि पद प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्‍ति द्वारा पद पर आसीन होने से पहले जो कुछ पढ़ा हो, वह पद की योग्‍यता के अनुरूप हो ही। किताबें पढ़कर अगर ''उच्‍च'' हुआ जा सकता तो बेचारे कबीर, तुलसी, जायसी, रसखान, पद्माकर, बिहारी जैसे कवि हमारी थाती ना बने होते।

एक वाकया कल हुआ और आज अखबारों की सुर्खियां बन गया ।
कल ऋषिकेश-हरिद्वार के एक आयुर्वेद कॉलेज में अपने संबोधन में केंद्रीय जलसंसाधन राज्‍य मंत्री सत्‍यपाल सिंह( पूर्व आईपीएस) ने गंगाप्रदूषण को लेकर अपनी सोच को जिस तरह पेश किया, वह न केवल उनके नाकारा प्रयासों को दर्शाती है बल्‍कि उन्‍हीं के कहे शब्‍दों से ज्ञात होता है कि ''नमामिगंगे-योजना'' को केंद्रीय मंत्रियों ने किसतरह मज़ाक का विषय बना दिया है।

केंद्र इस योजना के अपार धन की बात करता है मगर गंगा-प्रदूषण पर पहले उमाभारती और अब सत्‍यपालसिंह जैसे मंत्रियों के रहते न यह धन काम आने वाला है और ना ही गंगा का दम घुटने से रोका जा सकता है। उन्‍होंने कहा कि ''गंगा में अस्‍थि विसर्जन और फूल के दोने प्रवाहित करने से, संतों को भी जलसमाधि देने के कारण अधिक प्रदूषण होता है। ऐसा करना किसी भी शास्‍त्र में नहीं लिखा। गंगा में प्रवाहित करने के बजाय अस्थियों को किसी जमीन पर एक स्थान पर इकट्ठा के उसके ऊपर पौधे लगाए जाएं। ताकि आने वाली पीढ़ी उस पौधे में अपने पूर्वजों की छवि देख सकें।''

ये सही है कि पूर्वजों को याद करने का ये बेहतर तरीका हो सकता है मगर अस्‍थिवसर्जन को गंगा प्रदूषण का कारक फिर भी नहीं माना जा सकता।

मुंबई के पुलिस कमिश्‍नर रह चुके मंत्री सत्‍यपाल सिंह के बयान पर आक्रोषित संतों की भांति हम सभी सनातनधर्मी ये भलीभांति जानते हैं कि स्‍कंद पुराण, वायु पुराण, मत्‍स्‍य पुराण, नारद पुराण और विष्‍णु पुराण में गंगा में अस्‍थिविसर्जन और संतों-साधुओं की जलसमाधि का उल्‍लेख है। यूं भी राख हुई अस्‍थियां कितना जलप्रदूषित करेंगी, ये तो कोई बच्‍चा भी बता सकता है।

कौन नहीं जानता कि गंगा समेत सभी नदियां सदैव से ऐसी नहीं थी, सर्वप्रथम अंग्रेजों के शासनकाल में शहरों का सीवेज हमारी नदियों में छोड़े जाने के बाद से इसकी शुरुआत हुई जो अब सीवरेज से होते हुए प्‍लास्‍टिक कचरे और उद्योगों के तेजाबयुक्‍त प्रदूषक तत्वों तक को ढो रही हैं। इसी तेजाब ने गंगा के जलचरों को लगभग खत्‍म ही कर दिया है। इन जलचरों का जीवन ही फूल-दोनों, गंगा में प्रवाहित खाद्यसामिग्री, जलसमाधि प्राप्‍त मृत शरीरों के अवशेषों पर निर्भर हुआ करता था परंतु उद्योगों व सीवरेज के घातक अपशिष्‍ट जलचरों को खत्‍म करता गया और नतीजा यह कि अब नदियां न सदानीरा रहीं और न ही सलिला।

बेशक गंगा और उसकी सहयोगी नदियां सदानीरा रहें इसकी सभी कामना करते हैं मगर जब गंगा मंत्रालय संभाल रहे मंत्री ही ऐसी बचकाना बातें कहेंगे और उसपर जनसहयोग न होने का रोना भी रोएंगे तो आखिर कौन लेगा गंगा को प्रदूषणमुक्‍त करने के जिम्‍मेदारी।

अखाड़ा परिषद सहित संतों और हमारे जैसे आमजन को भी मंत्री की ये बात गले नहीं उतर रही। उन्‍हें संतों ने करारा जवाब देते हुए कहा है कि पहले शास्‍त्र पढ़ें मंत्री जी और जहां तक बात है जलसमाधि की तो हम तो सरकार से पहले ही भूसमाधि हेतु जमीन मांग रहे हैं, अकेले उत्‍तराखंड में ही हजारों उद्योगों का अपशिष्‍ट गंगा में ना बहाने को संतों ने कितनी बार फरियाद की, मगर आज तक उसपर तो कोई विचार भी नहीं हुआ, मंत्री बतायें कि आखिर वे गंगा प्रदूषण पर इन मांगों को क्‍यों नहीं मान रहे। क्‍या सिर्फ अस्‍थिविसर्जन और फूल के दोने ही प्रदूषण फैलाते हैं, मंत्री की दृष्‍टि में इंडस्‍ट्रियल पॉल्‍यूटेंट 
क्‍या हैं। संतों की ही बात करें तो अस्‍थिविसर्जन को पौराणिक व धार्मिक तौर पर ही सही नहीं माना गया बल्‍कि पर्यावरणीय, वैज्ञानिक, सामाजिक और भूमि के उपयोग को लेकर भी यह सर्वोत्‍तम संस्‍कार प्रक्रिया मानी गई है। अच्‍छा खासा वजनी से वजनी व्‍यक्‍ति भी सिमट कर एक लोटे में आ जाता है, क्‍या इससे फैल रहा है प्रदूषण?

फिलहाल तो गंगा-प्रदूषण पर स्‍वयं गंगा की ही हालत ऐसी हो गई है जैसी कि महाभारत के रचयिता वेद व्यास की थी, जो धर्म पालन के संदर्भ में यह कह रहे थे कि मैं अपनी बाहें उठा-उठाकर चिल्लाता हूं लेकिन मेरी कोई सुनता ही नहीं। ऐसा लगता है कि जिस महान संस्कृति को गंगा ने जीवन दिया उसका सबसे विकसित रूप देखने तक गंगा का ही जीवन नहीं बचेगा।

मंत्री सत्‍यपाल सिंह को ज्ञात होना चाहिए कि -
गंगा को ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।
प्रसिद्ध नदीसूक्त में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋग्वेद में ‘गंगय’ शब्द आया है जिसका सम्भवत: अर्थ है ‘गंगा पर वृद्धि करता हुआ।’ 
शतपथ ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यंति की विजयों एवं यज्ञों का उल्लेख हुआ है। 
महाभारत एवं पुराणों में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं। 
स्कन्द पुराण में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है।

सत्‍यपाल सिंह के बचकाना तर्क और गंगा के प्रति बेहद सतही टिप्‍पणी के बाद गंगा के लिए कवि केदारनाथ अग्रवाल की ''गंगा पर कुछ पंक्‍तियां'' पढ़िए-

आज नदी बिलकुल उदास थी/
सोयी थी अपने पानी में/
उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था/
मैंने उसे नहीं जगाया/
दबे पांव घर वापस आया।’

न जाने वह कौन सी नदी थी, जिसकी उदास और सोयी हुई लहरों पर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने इतना सुंदर बिम्ब रचा था। कवि को उस रोज नदी उदास दिखी, उदासी दिल में उतर गई।

-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

चंबल की ये स्‍त्रियां- feminism से आगे की बात हैं

राजनैतिक रूप से लगातार उद्भव-पराभव वाले हमारे देश में कुछ  निर्धारित हॉट टॉपिक्स हैं चर्चाओं के लिए। देश के सभी प्रदेशों में  ''महिलाओं की स्‍थिति'' पर लगातार चर्चा इन हॉटटॉपिक्स में से एक  है। यूं तो फेमिनिस्‍ट इनकी सतत तलाश में जुटे रहते हैं मगर  उनका उद्देश्‍य हो-हल्‍ला-चर्चाएं-डिस्‍कोर्स-कॉफी मीटिंग्‍स से आगे जा ही  नहीं पाता इसीलिए आज भी ऐसी खबरें सुनने को मिल जातीं हैं जो  हमारे प्रगति आख्‍यान के लिए धब्‍बा ही कही जाऐंगी। ये फेमिनिस्‍ट  ग्रामीण भारत की ओर देखना भी नहीं चाहते और सुधार जहां से  होना चाहिए, वही पीछे रह जाता है।

ग्रामीण भारत की कई कुप्रथाएं-बेड़ियां ऐसी हैं जो महिलाओं को  इंसान ही नहीं मानना चाहतीं। इनमें से एक के बारे में शायद  आपने भी सुना होगा कि मध्यप्रदेश के चंबल इलाके में कराहल  अंचल के गांव आमेठ की महिलाएं ''पुरुषों के सामने चप्पल उतार  कर नंगे पैर चलती हैं।''

हालांकि किसानी के तौर पर यह इलाका वहां के लोगों की कर्मठता  बयान करता है। वह बताता है कि किस तरह यहां आदिवासी व  भिलाला जाति के किसानों ने आमेठ, पिपराना, झरन्या, बाड़ी,  चिलवानी सहित आस-पास के इलाकों में कंकड़-पत्थर से पटी पड़त  पड़ी भूमि को उपजाऊ बनाया है, मगर कर्मठता की इस बानगी को  पेश करने वालों ने अपनी महिलाओं की दशा को अनदेखा कर  दिया।

पता चला है कि गांव की कुल आबादी 1200 में से महिलाओं की  संख्‍या लगभग 500 है, परिवार के लिए पानी की व्‍यवस्‍था अब भी  महिलाएं ही संभालती हैं। आपको सूर्योदय से पूर्व ही गांव की  महिलाएं पानी के बर्तनों के साथ डेढ़ किलोमीटर दूर स्‍थित  झरने  की तरफ़ जाती दिख जाऐंगी। डेढ़ किमी जाने-आने का मतलब है  कि दिन के कुल मिलाकर करीब 7-8 घंटे परिवार के लिए पानी के  इंतजाम करने में बिता देना।ये महिलाऐं त्रस्‍त हैं कि उन्‍हें पुरुषों के  सामने आते ही चप्‍पल उतारनी पड़ती हैं और यह कुप्रथा उनके  आत्‍मसम्‍मान को भी चकनाचूर कर रही है।

ज़रा सोचिए कि जो महिला सिर और कमर पर पानी का बर्तन  लादकर आ रही हो, वह किसी पुरुष को सामने देखते ही अपनी  चप्‍पल उतारने लग जाए तो कैसा महसूस होगा। काफी मशक्‍कत के  बाद लाए गए पानी के गिरने की चिंता छोड़कर जब वह झुककर  पैरों से चप्‍पल निकालेगी तो निश्‍चित ही उसके मन में पुरुषों के  प्रति सम्‍मान तो नहीं रह जाएगा।

परिवार के सुख के लिए 'सम्‍मान पाने की इच्‍छा' को पीछे धकेलती  ये महिलाएं बताती हैं कि "सिर पर पानी या घास का बोझ लिए  जब हम गांव में घुसते हैं तो चबूतरे पर बैठे बुज़ुर्गों के सामने से  निकलने के लिए हमें अपनी चप्पलें उतारनी पड़ती हैं, एक हाथ से  चप्पल उतारने और दूसरे हाथ से सामान पकड़ने के कारण कई बार  वह ख़ुद को संभाल नहीं पातीं। अब ऐसा रिवाज सालों से चला आ  रहा है तो हम इसे कैसे बदलें, अगर हम बदलें भी तो सास-ससुर  या देवर, पति कहते हैं कि कैसी बहुएँ आई हैं, बिना लक्षन, बिना  दिमाग़ के, बड़ों की इज़्ज़त नहीं करतीं, चप्पल पहन कर उड़ने चली  हैं।"

इन बेड़ियों को तोड़ने की बजाय अधिकांश अधेड़ उम्र के पुरुष इस  रिवाज को अपने 'पुरखों की परंपरा' बताते हैं और इस बात पर ज़ोर  देते हैं कि 'स्‍त्रियों को पुरुषों की इज़्ज़त की ख़ातिर उनके सामने  चप्पल पहन कर नहीं चलना चाहिए। सभी स्‍त्रियां राज़ी-खुशी से  परंपरा निभाती हैं, हम उन पर कोई ज़बरदस्ती नहीं करते। आज  भी हमारे घर की स्‍त्रियां हमें देखकर दूर से ही चप्पल उतार लेती  हैं, कभी रास्ते में मिल जाती हैं तो चप्पल उतार दूर खड़ी हो जाती  हैं।

हकीकतन स्‍त्रियों को गुलामों के बतौर पेश आने वाला यह रिवाज  हर मौसम में एकसा रहता है। इस गांव सहित आसपास के कई  गांवों में ये रिवाज पहले सिर्फ 'निचली' जाति की महिलाओं के लिए  ही था लेकिन जब 'निचली' जाति की महिलाओं में कानाफूसी होने  लगी तो फिर ये 'ऊपरी' जातियों के महिलाओं के लिए भी ज़रूरी  कर दिया गया। और अब हाल ये कि इन गांवों में ज्‍यादार समय  सभी महिलाएं नंगेपांव ही दिखती हैं।

बहरहाल, इन गांवों की नई पीढ़ी की सोच एक उम्‍मीद जगाती है।  तभी तो शहर में नौकरी कर रहे युवा अब प्रश्‍न करने लगे हैं-
जैसे कि "मंदिरों के आगे से जब कोई औरत चप्पल पहन के  निकल जाए तो सारा गांव कहने लगता है कि फलाने की बहू  अपमान कर गई लेकिन गांव के मर्द तो चप्पल-जूते पहनकर ही  मंदिर के चौपाल पर जुआ खेलते रहते हैं, तब क्या भगवान का  अपमान नहीं होता."

कुछ लोग मुझे यह भी कहते मिले कि महिलाओं के प्रति ऐसे  रिवाजों के खिलाफ स्‍वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा, मगर  यह सब इतना आसान नहीं होता जब घर के ही पुरुष महिलाओं पर  इन बंदिशों के हक में हों।

इस कुत्‍सित मानसिकता को दूर करने में शिक्षा, जागरूकता, नई  पीढ़ी में सोच के स्‍तर पर आ रहा बदलाव सहायक हो सकता है  किंतु उसमें समय लगेगा।

रही बात फेमिनिस्‍ट्स द्वारा इस तरह की कुरीतियों पर चर्चाओं की  तो वे कॉफी-हाउसों से बाहर नहीं आने वाले, इसलिए किसी भी  सकारात्‍मक बदलाव की अपेक्षा नई सोच पर टिकी है और अब जब  इस कुरीति पर बात निकली है तो दूर तलक जानी भी चाहिए।
इस क्षेत्र के किसानों को ऐसी कुरीति के विरुद्ध भी उसी शिद्दत से  खड़ा होना होगा जिस शिद्दत से वह कंकड़-पत्‍थर वाली ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए उठ खड़े हुए थे ताकि वह एकसाथ प्रगति और मेहनतकशी की मिसाल बन सकें। पांवों में चप्‍पलों का न होना एक बात है और पुरुषों द्वारा अपनी छाती चौड़ी करने को महिलाओं से चप्‍पलें उतरवा देना दूसरी बात बल्‍कि यूं कहें कि यह तो फेमिनिज्‍म से आगे की बात है तो गलत ना होगा।

और अब चलते चलते ये दो लाइनें इसी जद्दोजहद पर पढ़िए- 

तूने अखबार में उड़ानों का इश्तिहार देकर,
तराशे गए मेरे बाजुओं का सच बेपर्दा कर दिया।
-अलकनंदा सिंह

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

हम पैदाइशी संन्यासी हैं, हमें तो सूतक भी नहीं लगता


हमें न अखाड़ा परिषद से मान्यता की जरूरत है, न उनके सहयोग की। अपने अधिकार व सम्मान की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, क्योंकि जनता हमारे साथ है। वैसे भी हम पैदाइशी संन्यासी हैं, हमें तो सूतक भी नहीं लगता,ये कहना है किन्‍नर अखाड़े की आचार्य पीठाधीश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी का क्‍योंकि  माघ में होने वाले कुंभ मेले में विवाद से बचने के लिए मेला प्रशासन ने किन्नरों को अभी तक जमीन व सुविधाएं नहीं दी है।

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद व माघ मेला प्रशासन से अखाड़ा के रूप में मान्यता नहीं मिलने से बेफिक्र किन्नर संन्यासी इस बार भी माघ मेला में डेरा जमाने की तैयारी कर रहे हैं। खुद को पैदाइशी संन्यासी बताते हुए उनका कहना है कि हमें किसी से मान्यता की जरूरत नहीं है।
हम सबसे ज्यादा त्याग भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें प्रयाग में लगने वाले माघ मेले में भजन-पूजन से कोई नहीं रोक सकता। यह बात दीगर है कि अभी तक मेला प्रशासन से उन्हें जमीन व सुविधा नहीं मिली है। प्रशासन का कहना है कि किन्नर अखाड़ा के नाम पर किसी को जमीन व सुविधा नहीं मिलेगी, हां संस्था के नाम पर सब कुछ उपलब्ध होगा।
संगमनगरी इलाहाबाद के संगम तट पर इस बार दो जनवरी से माघ मेला आरंभ हो रहा है। तंबुओं की नगरी में मोक्ष की आस में संत-महात्माओं के साथ लाखों श्रद्धालु रेती में धूनी रमाएंगे। इस बार किन्नर संन्यासी भी डेरा जमाने की तैयारी कर रहे हैं। पहली बार वह यहां अपना शिविर लगाएंगे। किन्नर अखाड़े ने मेला प्रशासन से जमीन व सुविधाएं मांगी हैं। किन्नर अखाड़ा की मांग है कि माघ मेला क्षेत्र में त्रिवेणी मार्ग पर स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के शिविर के पास उसे जमीन व सुविधाएं दी जाएं।
अखाड़े की तरफ से 1500 बाई 1500 वर्ग गज जमीन, सौ तम्बू डबल प्लाई, तीन दर्जन स्विस कॉटेज, 50 नल, 50 शौचालय, 50 सोफा, 200 कुर्सियां एवं सुरक्षा को पुलिस-पीएसी के जवान मांगे हैं। इधर मेला प्रशासन का कहना है कि किन्नर अखाड़ा के नाम पर किसी को सुविधा नहीं दी जाएगी। यह निर्णय अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के विरोध के चलते लेना पड़ा है।
दरअसल, अखाड़ा परिषद ने सिर्फ 13 अखाड़ों को अखाड़े के नाम पर भूमि व सुविधाएं देने की मांग मुख्यमंत्री से की है, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया है। विवाद से बचने के लिए मेला प्रशासन ने किन्नरों को अभी तक जमीन व सुविधाएं नहीं दी है।
इससे बेपरवाह किन्नर अखाड़ा के आचार्य पीठाधीश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी कहते हैं कि हमें न अखाड़ा परिषद से मान्यता की जरूरत है, न उनके सहयोग की। अपने अधिकार व सम्मान की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, क्योंकि जनता हमारे साथ है। वैसे भी हम पैदाइशी संन्यासी हैं, हमें तो सूतक भी नहीं लगता।
चर्चित एक्टिविस्ट के तौर पर भी ख्यात लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी यह भी कहते हैं कि 13 अखाड़े और उनके संन्यासी हमारे लिए सम्मानीय हैं, हम सबका हृदय से सम्मान करते हैं और आगे भी करेंगे। अखाड़े कुंभ और अद्र्धकुंभ में पेशवाई निकालते हैं जबकि हम देवत्व यात्रा निकालते हैं। उन्होंने कहा कि हम अपनी तुलना किसी अखाड़ा से करते ही नहीं। हम तो जन्मजात उपेक्षित हैं। पहले जन्म देने वालों ने उपेक्षित किया, बाद में समाज ने।
इसके बावजूद हमने सबको आशीर्वाद के सिवाय कुछ नहीं दिया, हमेशा सबका भला चाहा, आगे भी ऐसा ही होगा। उनका कहना है कि किन्नर अखाड़े का लक्ष्य किन्नरों को धार्मिक अधिकार व सम्मान दिलाने के साथ समाज के हर वर्ग के लोगों को धर्म के सही स्वरूप से जोड़ना है।
2016 के माघ मेले में भी किन्नर संन्यासियों के शिविर लगने की चर्चा थी। उचित सुविधा न मिलने पर किन्नर यहां नहीं आए। इस बार किन्नर अखाड़े की पहल पर मेलाधिकारी राजीव राय का कहना है कि किसी नए संगठन को अखाड़े के नाम पर सुविधा नहीं दे सकते।
अखाड़ा सिर्फ 13 हैं, हम किसी 14 वें अखाड़े को जमीन व सुविधा नहीं देंगे। हां, संस्था के नाम पर सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी।