सोमवार, 24 दिसंबर 2018

सेक्स वर्कर के मानस गणिका की चौपाइयां सुनने पर आपत्‍ति क्‍यों

जिस वक्‍त सनातन धर्म, राम मंदिर तथा हिंदुत्‍व के साथ-साथ जनेऊ और गोत्र सहित अनेक अन्‍य बे-सिरपैर के 'झूठ से भरे' समाचारों के समुद्र में देश की राजनीति गोते लगा रही हो तब आपको किसी संत द्वारा अत्‍यंत निकृष्‍ट व अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली ''वेश्‍याओं'' के लिए सामान्‍यजन की भांति रामकथा सुनाने का पता लगे तो निश्‍चित ही ये राम के आदर्शों का प्रत्‍यक्ष रूप में ज़मीन पर उतरना ही माना जाएगा। 

जब से राममंदिर निर्माण का मुद्दा गहराया है तब से अयोध्‍या लाइमलाइट में है किंतु पिछले दो दिनों से मोरारी बापू द्वारा कमाठीपुरा मुंबई की वेश्‍याओं को गोस्‍वामी तुलसीदास रचित मानस गणिका सहित रामचरितमानस और धर्म का उपदेश देने की चर्चा हो रही है।

बापू द्वारा वेश्‍याओं को रामकथा सुनाना यहां के कथित धर्माचार्यों से हजम नहीं हुआ। उन्‍होंने इसका विरोध करते हुए अयोध्‍या के वातावरण को मलिन किए जाने का आरोप लगाया है। यह बिल्‍कुल उसी कहावत की तरह है कि मुंह में राम बगल में छुरी...।

शर्म आती है हिंदू...मंदिर...राम के नाम पर अपनी दुकानें चलाने वाले धर्म के उन ठेकेदारों पर जो स्‍वयं तमाम अनैतिक कृत्‍य करते हुए समाज के ऐसे वर्ग को रामकथा के अयोग्‍य बता रहे हैं, जो हमेशा से न सिर्फ समाज का हिस्‍सा रहा है बल्‍कि तथाकथित सभ्‍य समाज की ही देन है। उन्‍हीं लोगों की देन है जो दिन में नैतिकता का ढिंढोरा पीटते हैं और धर्म की रक्षा का आलाप भरते हैं लेकिन रात में इनके पास जाकर धर्म और कर्म की धज्‍जियां उड़ाते हैं।

ये धर्म का कौन सा रूप है जो स्‍वयं अपने आराध्‍य राम के आदर्शों को भी तार-तार करने पर आमादा हैं। डंडिया मंदिर के महंत भारत व्यास, ज्योतिष शोध संस्थान के प्रमुख प्रवीण शर्मा, धर्म सेना प्रमुख और बाबरी मस्जिद मामले के आरोपी संतोष दुबे जैसे लोग इसे अयोध्‍या की पवित्रता के लिए लांक्षन बताते हुए कह रहे हैं कि बापू ने अयोध्‍या को मलिन किया है जबकि ऐसा कहकर उन्‍होंने स्‍वयं की धर्मनिष्‍ठा को कठघरे में खड़ा कर लिया है क्‍योंकि ये अजामिल, गणिका- उद्धार, निश्‍छल भक्‍ति-मूर्ति शबरी की जूठन खाने और पति के अविश्‍वास की मारी अहिल्‍या का उद्धार करने वाले राम की कथा सुनने से वेश्‍याओं को दूर रखना चाहते हैं।

सच तो यह है कि इनकी सोच धर्म के बजाय उस आडंबर से ग्रस्‍त है जिसके कारण सनातन धर्म विवादित बना दिया जाता है और जिसके चलते इनकी अपनी रोजीरोटी सहित ऐशो-आराम की जुगाड़ होती रही है। ये लोग हमेशा से वंचितों को पैरों तले रखने का आदी है। इन्‍हें तो फिर उन भगवान दत्तात्रेय से भी आपत्‍ति होनी चाहिए जिनके 24 गुरुओं में एक गणिका भी थी...। तो अब ये भी जान लीजिए कि बड़ी और उदार सोच रखने वाले वैसी करनी भी करते हैं।
संकीर्ण मानसिकता वाले लोग, चाहे वह किसी भी धर्म से ताल्‍लुक क्‍यों न रखते हों...वो न धर्म को समझते हैं और न देश व समाज के प्रति अपने कर्तव्‍यों को।

शायर साहिर लुधियानवी की ये चार पंक्‍तियां उन्‍हें आइना दिखाने के लिए काफी हैं...

''ज़रा इस मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कूचे ये गलियां ये मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं
कहाँ है, कहाँ है, कहाँ है …'' 

मोरारी बापू ने रामचरितमानस की तरह ही इन पक्‍तियों को भी मर्मस्पर्शी राग एवं लय में पेश किया और इसके विमर्श की ओर ध्यान आकृष्ट कराया।

क्‍या वेश्‍याओं के कथाश्रवण पर आपत्‍ति करने वाले कथित धर्माधिकारी देख नहीं पा रहे कि मंच पर महंत नृत्यगोपालदास के परमहंस वृत्ति वाले युवा शिष्य से लेकर पंडाल तक के श्रद्धालु थिरक रहे थे। गणिकाएं भी अपनी दीर्घा में आसन से उठकर करबद्ध सीता- राम के माधुर्य की तान छेड़ रही थीं। वेश्‍याएं स्वीकार्यता के यज्ञ में कृतज्ञता की आहुति देती प्रतीत हो रही थीं। जिनके जीवन में दिन देखने को नहीं मिलता, जिन्हें सिर्फ केवल रात ही देखने को मिलती है, उनके लिए मोक्षदायिनी अयोध्‍या में रामकथा सुनना किसी सुनहरे स्‍वप्‍न से कम नहीं रहा होगा। भगवान राम पतित पावन तो हैं ही, चरित्र पावन भी हैं... तो देश के कोने-कोने से आईं सेक्स वर्कर मानस गणिका की चौपाइयां क्‍यों ना सुनें।

वेश्‍याओं को रामकथा सुनाने का विरोध करने वाले क्‍या बता पाएंगे कि अपनी मन की कालिख छुपाने के लिए मोरारी बापू पर कीचड़ उछालने का प्रयत्‍न करना कितना उचित है।

आपत्‍ति आखिर है किस पर ...अपने ''ना किए गए'' पर या उस ''किए गए को उजागर करने पर'' जिसके कारण हर युग में समाज कलंकति होता रहा है।  

इन जैसे समाज के विरोधियों को समझना होगा कि भगवान राम आध्यात्मिक हैं, ऐतिहासिक नहीं। वो सर्वव्‍यापी हैं और इसीलिए रामकथा सबके लिए है, उन वेश्‍याओं के लिए भी जिनके घरों में भी मंदिर होते हैं परंतु इनके यहां पूजा करने कोई नहीं आता बल्‍कि ये खुद ही पूजा करती हैं, किसी से करवाती नहीं हैं। राम के लिए सभी अपने हैं, ग्राह्य हैं, उन्‍होंने सबको स्वीकारा है यह कोई नया साहस नहीं है, राम दलित, वंचित, तिरस्कृत पावन के भी उतने ही हैं जितने किसी पंडित के। 

बहरहाल, बापू की यह  घोषणा स्‍वागतयोग्‍य है कि रामकथा के लिए साधु-संतों से राशि इकट्ठा करके वेश्‍याओं के हित में काम करने वाली संस्थाओं को दिया जाएगा क्योंकि बात वचनात्मक नहीं, रचनात्मक होनी चाहिए। इनके शरीर का सौदा तो बहुत किया, अब इनकी सेवा करनी होगी क्योंकि यह हमारे समाज के गमले की तुलसी हैं, इन्हें सींचने की जरूरत है।

मैं तो शायर दुष्‍यंत के शब्‍दों में इतना ही कहूंगी कि  ''सिर्फ हंगामा करना मेरा मकसद नहीं बल्कि मकसद है सूरत बदलनी चाहिए। 
और यदि बात रामकथा की है तो मोरारी बापू का विरोध करने वालों को श्रीराम रक्षास्तोत्रम् की इन दो पक्‍तियों का सार समझना चाहिए, शायद फिर उनके मन का क्‍लेश समाप्‍त हो जाएगा-

''राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे, सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने''

- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

अंग्रेजी के जाने-माने साहित्यकार अमिताव घोष को वर्ष 2018 के लिए 54वां ज्ञानपीठ पुरस्कार


अंग्रेजी के जाने-माने साहित्यकार अमिताव घोष को वर्ष 2018 के लिए 54वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया जाएगा. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वह अंग्रेजी के पहले लेखक हैं.
ज्ञानपीठ द्वारा जारी विज्ञप्ति में बताया गया कि यहां शुक्रवार को प्रतिभा रॉय की अध्यक्षता में आयोजित ज्ञानपीठ चयन समिति की बैठक में अंग्रेजी के लेखक अमिताव घोष को वर्ष 2018 के लिए 54वां ज्ञानपीठ पुरस्कार देने का निर्णय लिया गया.
देश के सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में अमिताव घोष को पुरस्कार स्वरूप 11 लाख रुपये की राशि, वाग्देवी की प्रतिमा और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाएगा.
तीन साल पहले अंग्रेजी को पुरस्कार भाषा के रूप में शामिल किया गया था
ज्ञानपीठ के सूत्रों ने बताया कि अंग्रेजी को तीन साल पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार की भाषा के रूप में शामिल किया गया था और अमिताव घोष देश के सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार से सम्मानित होने वाले अंग्रेजी के पहले लेखक हैं.
पश्चिम बंगाल के कोलकाता में 1956 को जन्में अमिताव घोष को लीक से हटकर काम करने वाले रचनाकार के तौर पर जाना जाता है. वह इतिहास के ताने बाने को बड़ी कुशलता के साथ वर्तमान के धागों में पिरोने का हुनर जानते हैं. घोष साहित्य अकादमी और पद्मश्री सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं.
उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘द सर्किल ऑफ रीजन’, ‘दे शेडो लाइन’, ‘द कलकत्ता क्रोमोसोम’, ‘द ग्लास पैलेस’, ‘द हंगरी टाइड’, ‘रिवर ऑफ स्मोक’ और ‘फ्लड ऑफ फायर प्रमुख हैं.
पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार 1965 में मलयालम लेखक जी शंकर कुरूप को प्रदान किया गया था.

रविवार, 9 दिसंबर 2018

कुटिल व्‍यक्‍ति का धर्मोपदेश ही हैं विचाराधीन कैदियों पर कोर्ट की चिंता

दो दिन पहले जागरण फोरम में देश की न्‍याय व्‍यवस्‍था से जुडी ''महान-विभूतियों'' ने न्‍याय व्‍यवस्‍था की पेचीदगियों और देरी से न्‍याय होने पर बात तो की परंतु ये बिल्‍कुल ऐसा ही लगा जैसे कोई साहूकार कह रहा हो कि वह ब्‍याज नहीं लेगा। इन विभूतियों में पूर्व मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्‍टिस दीपक मिश्रा थे तो रिटायर्ड जस्‍टिस ज्ञानसुधा मिश्रा व पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी भी थे।

सच तो यह है कि कोलेजियम की बात पर सरकार को नाकों चने चबवाने वाले और मात्र रोस्‍टर पर अपनी साख को सरेआम उछालने वाले इन ''माननीयों'' के मुंह से अब ये बातें शोभा नहीं देतीं। उनके मुंह से न्‍याय व्‍यवस्था में सुधार, अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता या तीन तलाक व सबरीमाला पर निर्णयों को लेकर कही गई बातें ऐसी लगती हैं जैसे कोई कुटिल व्‍यक्‍ति धर्मोपदेश दे रहा हो।

हम सब भ्रष्‍टाचार और असमानता आदि के लिए यूं ही राजनेताओं को गरियाते रहते हैं जबकि  कौन नहीं जानता कि लाखों में तनख्वाह पाने और आलीशान सुविधाभोगी न्‍यायाधीशों को न तो करोडों मुकद्दमों के बोझ से लदी अदालतों की फिक्र है और ना ही उन बेचारों की जो इनकी कुटिलताओं का खामियाज़ा विचाराधीन कैदियों के रूप में भुगत रहे हैं। 

इसी हफ्ते खुद सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों की भारी-भरकम संख्या को लेकर चिंता जताई। इनके मामलों का जल्द निपटारा करने के लिए जरूरी कदम उठाने को कहा। जेलों की अमानवीय स्थितियों के लिए क्षमता से अधिक विचाराधीन कैदियों का होना बताया किंतु यह नहीं बताया कि ऐसा होगा किस तरह। किसी ठोस योजना के बिना क्‍या सुप्रीम कोर्ट अपनी मंशा को पूरा करा पाएगा। 

एक आंकड़े के अनुसार जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्‍या कुल कैदियों का करीब 67 प्रतिशत है। तो अब कौन यह बताएगा कि हुजूर आप ही तो हैं इस कुव्‍यवस्‍था को जन्‍म देने और इसे आगे बढ़ाने वाले। कौन बताए सुप्रीम कोर्ट को कि विचाराधीन कैदियों का ये अपार प्रतिशत आपकी इस ''न्याय प्रक्रिया'' से ही उपजा है।

निश्‍चित ही अब ऐसे विचाराधीन कैदियों को रिहा करने के बारे में कोई ठोस फैसला लिया जाना चाहिए जो छोटे-छोटे अपराधों के लिए सालों से सलाखों के पीछे हैं। जो जमानत राशि नहीं  चुका पाने अथवा जमानती का इंतजाम न कर पाने के कारण संभावित सजा की अवधि से भी अधिक समय अंदर गुजार चुके हैं। एक गणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड में विचाराधीन कैदियों की संख्या सर्वाधिक है। तो सवाल किस पर उठना चाहिए ?

किसी आतंकी की फांसी पर रोक के लिए एक रात में केस निपटाने वाले इन्‍हीं माननीय न्‍यायाधीशों ने इस बारे में समीक्षा समितियों को अगले छह महीने तक सिर्फ मासिक बैठक कर राहत के उपाय खोजने को कहा है।

क्‍या अब समय नहीं आ गया कि अब उच्‍चतम न्‍यायालय, उच्‍च न्‍यायालयों या जिला अदालतों से भी सवाल किये जाएं और मुकद्दमों के निपटारे की समयसीमा तय की जाये। चूंकि अब सोशल मीडिया पर हर घटना-अपराध का क्षीर-नीर देर सबेर सामने आ ही जाता है और दोषी कौन, सुबूत किसके पक्ष में हैं या किसके खिलाफ साजिश हुई, यह तक चर्चा का विषय बनता है लिहाजा न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगना स्‍वाभाविक है।

रही बात अवमानना के डंडे की तो उसका भी डर अब लोगों के मन से निकलता जा रहा है। इसके ज्‍वलंत उदाहरण हैं सबरीमाला मंदिर पर दिया गया निर्णय और अयोध्‍या के मंदिर-मस्‍जिद मामले पर की गई गैरजरूरी टिप्‍पणी।

न्‍यायपालिका को अब समझना होगा कि धन और रसूख के बल पर तारीखों में अटकाने वाली कुव्‍यवस्‍था को दूर करने के लिए स्‍वयं उसे अपने लिए मानदंड स्‍थापित करने होंगे क्‍योंकि समय की कसौटी पर अब तो स्‍वयं न्‍यायाधीश और पूरी की पूरी न्‍यायप्रक्रिया भी है। न्‍यायप्रक्रिया को साबित करना है कि वह किस तरह निष्‍पक्ष रहकर समय रहते उचित फैसला सुना सकती है।

राजा और रंक के लिए कानून की अलग-अलग परिभाषाएं अब ज्‍यादा दिनों तक नहीं चल पाएंगी। विचाराधीन कैदियों पर ठोस उपाय के लिए समीक्षा समितियों को 6 महीने का समय देना बताता है कि न्‍यायव्‍यवस्था कितनी संवेदनशील है। यदि यही संवेदनशीलता है तो विधायिका और न्‍यायपालिका में फर्क कहां रह जाता है।

कुल मिलकर देखा जाए तो न्‍यायपालिका पर अब दोहरी जिम्‍मेदारी है। एक ओर उसे जहां विधायिका के दिन-प्रतिदिन गिरते स्‍तर को संभालना है वहीं दूसरी ओर आम आदमी में न्‍यायिक प्रक्रिया का भरोसा कायम रखना है, क्‍योंकि यदि देश के आम इंसान को यह आखिरी उम्‍मीद भी टूटती नजर आई तो तय जानिए कि लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का जुमला सार्थक सिद्ध होने में ज्‍यादा समय नहीं लगेगा।

इस व्‍यवस्‍था पर न्‍यायाधीशों के चिंतन को कवि संजय पटवा जी के शब्‍दों में कुछ यूं कहा जा सकता है...

बंद कर दिया सांपों को सपेरे ने यह कहकर,
अब इंसान ही इंसान को डसने के काम आ रहा है।

-सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी

बुधवार, 5 दिसंबर 2018

गधातंत्र, उल्‍लूतंत्र, गिद्धतंत्र और भीड़तंत्र

हम सब उस 'गधातंत्र' की बानगी बन गए हैं जो किसी एक शब्‍द, घटना या किसी एक बयान पर अपनी दबी हुई इच्‍छाओं की खोह से बाहर निकलते हैं और एक ऐसे 'उल्‍लूतंत्र' में तब्‍दील हो जाते हैं जो किसी की बात नहीं सुनते...बस एक हुजूम होता है...डरावना हुजूम। फिर यही उल्‍लूतंत्र, कुछ स्‍वार्थी तत्‍वों से जुड़कर एक 'गिद्धतंत्र' के रूप में हमें  निचोड़ता जाता है, वो भी इस तरह कि लोकतंत्र तो छोड़िए इंसानियत भी नहीं बचती।

यह तंत्र फिर 'भीड़तंत्र' में तब्‍दील होकर अपनी मनमानी करता हुआ वो सारी जायज़-नाजायज़ मांगें मनवाता जाता है जिसे अराजकता को पनपने का एक और मौका मिलता है और हम कठपुतलियों की भांति उनके पंजों में भिंचे तमाशाई बनकर रह जाते हैं।

इस मिले-जुले पूरे तंत्र को उजागर करती हैं दो घटनाएं जो कि मुआवजा मांगने से जुड़ी हैं। कल एक ओर जहां बुलंदशहर बवाल में मारे गएइंस्‍पेक्‍टर के परिजनों ने मुआवज़ा घोषित हो जाने के बावजूद ढेर सारी मांगें सरकार के सामने रख दीं तो दूसरी ओर इसी बवाल में मारे गए स्‍थानीय युवक के परिजनों ने भी मुआवजे के रूप में 50 लाख रुपये की मांग की। विरोध प्रदर्शन में शामिल मृतक युवक के पिता का कहना है कि निर्दोष युवक पुलिस की गोली से मरा इसलिए उसे भी मुआवजा चाहिए।

इंस्‍पेक्‍टर के परिजनों को मुआवजे की धनराशि के अलावा ज़मीन, इंटर कॉलेज, मुफ्त शिक्षा, पत्नी को नौकरी और चाहिए जबकि सब जानते हैं कि मारे गए इंस्‍पेक्‍टर सुबोध सिंह करोड़ों रुपए मूल्‍य की चल-अचल संपत्ति के मालिक थे। ये संपत्ति उन्‍होंने महज वेतन से तो एकत्र नहीं की होगी। इन्‍हीं इंस्‍पेक्‍टर के परिजनों को विभागीय पुलिसकर्मियों द्वारा एकदिन का वेतन देने की घोषणा अलग से की गई है। आगे और कहां कहां से धन इकठ्ठा होगा, अभी कहा नहीं जा सकता।

मुआवजे की इस रससाकशी के बीच दोषी कौन, निर्दोष कौन, यह बहस पीछे खिसक जाती है। पुलिस भी निर्दोष नहीं कही जा सकती क्‍योंकि उसने न तो उक्त संवेदनशील क्षेत्र में मुस्‍लिमों के इज्‍तिमा के लिए हुई गौकशी की शिकायतों को गंभीरता से लिया और ना ही मौके की नजाकत को भांपकर कदम उठाने की जरूरत समझी।

दूसरी ओर विरोध प्रदर्शन कर रहे युवकों ने हथियारों का प्रयोग करके अपना पक्ष कमजोर कर दिया। कुल मिलाकर क्षेत्र में पुलिस और गौ तस्‍करों के बीच पनपे संबंधों ने अराजक स्‍थिति बनाई और घटना इस भयावह रूप में बदल गई। इस तरह तो मुआवजे का हकदार कोई नहीं। न वो पुलिस जिसने समय रहते शिकायत पर गौर किया और न प्रदर्शनरी जिन्‍होंने कानून हाथ में लेकर सही-गलत का फैसला खुद कर लिया।

किसी मृतक के परिजनों की नियम विरुद्ध मांगों को किसी तरह उचित नहीं कहा जा सकता और उन मांगों को सरकारी धन की वर्षा करके पूरा करना भी जायज नहीं ठहराया जा सकता क्‍योंकि सरकारी पैसा किसी राजनीतिक दल की संपत्ति नहीं होती, वह अंतत: वह जनता का ही पैसा होता है। मृतक के प्रति सहानुभूति को उसके परिजन किस तरह भुनाते हैं, इसके अब एक आदि नहीं अनेक उदाहरण सामने आ रहे हैं। सरकारी खजाने को मुआवजे की रेवड़ियां बांटने वाली प्रवृत्‍ति से बचाना ही होगा।
ज़रा सोचिए कि यदि इसी धन का प्रयोग हम समाज को शिक्षित, सभ्‍य और सुसंस्‍कृत बनाने के लिए करें तो...क्‍या भीड़तंत्र से मुक्‍ति नहीं पा सकते। क्‍या लाश का सौदा करने या मुआवजे लेने व देने की राजनीति से छुटकारा नहीं पा सकते...जरूर पा सकते हैं और तब संभवत: कोई किसी को गधातंत्र, उल्‍लूतंत्र, गिद्धतंत्र और भीड़तंत्र में नहीं बदल पाएगा।
समाज शिक्षित होगा तो निश्‍चित ही वह अपने अधिकारों को तो समझेगा ही, साथ ही कर्तव्‍यों के प्रति भी जागरूक होगा। सभ्‍य, शिक्षित व सुसंस्‍कृत समाज किसी के बहकावे में नहीं आएगा तो भीड़तंत्र का हिस्‍सा नहीं बनेगा और समाज भीड़तंत्र का हिस्‍सा नहीं बनेगा तो बुलंदशहर जैसी अराजकता भी पैदा नहीं होगी।

-अलकनंदा सिंह

रविवार, 2 दिसंबर 2018

2 December: तीन दशक कम नहीं होते एक अभिशाप के साथ जीने के लिए

आज 2 दिसंबर पर राष्‍ट्रीय प्रदूषण दिवस मनाया जा रहा है, ये एक सिर्फ तारीख  भर नहीं है, बल्‍कि आज तीन दशक पहले घटे उस मंजर की भयावहता है जो तीन  पीढ़ियां गुजरने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ रही। जी हां, भोपाल गैस त्रासदी के  बाद तीन तीन पीढ़ियां अपंगता के साथ साथ आज भी अपना अस्‍तित्‍व खोज रही  हैं। तीन दशक कम नहीं होते एक अभिशाप के साथ जीने के लिए या यूं कहें कि  जिंदा दिखते रहने के लिए।

जब जब भोपाल गैस त्रासदी की बात होगी तो सरकारी गैरजिम्‍मेदारी के साथ-साथ  समाजसेवी संगठनों की गालबजाऊ संस्कृति की भी बात होगी ही। क्‍योंकि राष्‍ट्रीय  व अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर इस त्रासदी को भुनाने के लिए तमाम समाजसेवी संगठन  वजूद में आ गए जिन्‍हें सिर्फ ''विचार विमर्श'' करने के नाम पर भारी अनुदान  मिला और तमाम देशी-विदेशी चिंतक अपनी चिंता से इस ''त्रासदी'' को भुनाने  लगे। इन्‍होंने गैस कांड के प्रभावित लोगों पर आई आंच को साल दर साल भुनाने,  और हर 2 दिसंबर को गोष्‍ठियां कर सत्‍तारूढ़ सरकार को गरियाने के अलावा कुछ  भी ऐसा नहीं किया जो प्रभावितों को सामान्‍य जीवन का अनुभव करा सके।

हर विषय को राजनीति और खांचों में बांट देने वाले हमारे देश की मौजूदा  स्‍थितियों में कम से कम अब तो लोगों को समझ लेना चाहिए कि अपनी लड़ाई  सदैव स्‍वयं ही लड़नी होती है। जो इस मुगालते में रहते हैं कि कोई कथित  सामाजिक संगठन उनका हित करेगा, वह अपना समय नष्‍ट करते हैं। तो यह  भ्रांति कम से कम अब उन्‍हें अपने दिमाग से निकाल देनी चाहिए क्‍योंकि इन  संगठनों के मुंह अनुदानों की हड्डी लगी हुई है। 

इस संदर्भ में सुभषितरत्नाकर का एक श्‍लोक मुझे बेहद सटीक जान पड़ रहा है ...

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि  न मनोरथैः  |
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे  मृगाः ||

अर्थात् परिश्रम करने से ही सारे कार्य सिद्ध हो सकते हैं, केवल सोचने से नहीं।  जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुँह में हिरण कभी अपने आप प्रवेश नहीं करता।  कहने का आशय यह है कि शेर के मुँह में अपने आप ही शिकार नहीं आता, उसे  शिकार करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। इस सुभाषित में उद्यमिता  के  महत्व को प्रतिपादित किया गया है...।

इसी तरह गैस त्रासदी की पीड़ित पीढ़ियों को सरकारों व एनजीओ की ओर देखना  छोड़ अब अपने लिए और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने ही स्‍तर पर  चौतरफा प्रयास करने होंगे। चाहे वो ज़मीन में घुसे प्रदूषणकारी कैमिकल्‍स को दूर  करने की बात हो, गलते शरीरों को संभालना हो या आर्थिक स्‍थिति की बात हो,  अब निर्भरता नहीं स्‍वयं का उद्यम करना होगा। देशी विधाओं के ज़रिए अपना  इलाज़ स्‍वयं करने के साथ साथ अपनी भावी पीढ़ियों को स्‍वयं उद्यम करके खड़ा  होने की ओर जाना होगा। बेचारगी को भुनाने वालों से सावधान रहना होगा।

आज तीन दशक बाद भी भोपाल गैस कांड पर प्रभावितों को समझना होगा कि जो  स्‍वयं अपनी सोच नहीं रखते अथवा अपने प्रयास नहीं करते, वे मोहरे तो बन  सकते हैं, स्‍वयंसिद्ध नहीं बन सकते। अपने अधिकार और  रहम के बीच जितना  फंसेंगे, उतना ही उबरने में देर लगेगी।

- अलकनंदा सिंह