बुधवार, 26 जून 2013

लाशों के ढेर पर महामंडलेश्‍वर का खिताब

उत्‍तराखंड के आपदाकाल में आंसुओं से भीगे और भूख से तड़पते लोगों को उपदेश देते हुये और स्‍वयं लाशों के ढेर पर बैठकर मुस्‍कुराते हुये उपाधि प्राप्‍त करने का कोई सीन यदि दिखाई तो क्‍या अनुमान लगायेंगे हम और आप...
क्‍या कहेंगे ऐसे धर्माचार्यों को जो इस दौरान मुस्‍कुराकर उत्‍तरीय ओढ़ रहे हैं ....
क्‍या कहेंगे ऐसे लोगों को जो उपाधि लेने के उपरांत विभिन्‍न व्‍यंजनों से रसास्‍वादन कर अपनी जीभ को तृप्‍त कर रहे हों....
किस नाम से पुकारेंगे उन लोगों को जो धर्म की उस व्‍याख्‍या को तार-तार करने में लगे हों जो सर्वप्रथम भूखे को भोजन कराने की सीख देती है...और जिसके तहत भोजन से पहले पशु-पक्षियों के लिए भी 'ग्रास' निकालने का नियम है...
जी हां, कल तमाम सनातनी श्रद्धालुओं की आस्‍था का व्‍यापार करने वाले संतों ने कल हरिद्वार में आपदा के शिकार लोगों के लगभग शवों पर बैठकर वृंदावन स्‍िथत दुर्गा भक्‍ति तंत्र साधना केन्‍द्र के महंत नवल गिरी को महामंडलेश्‍वर की उपाधि प्रदान करने के उपरांत जो उत्‍सव मनाया उसकी निंदा में जो कुछ न कहा जाये....कम ही रहेगा।
ज़रा सोचिए कि एक ओर गंगा में ऊपर पहाड़ों से बहकर आई लाशें हैं और उसी गंगा के किनारे कल दुर्गाभक्‍ति तंत्र साधना चैरिटेबल ट्रस्‍ट के संस्‍थापक नवल गिरी को एक समारोह आयोजित कर जूना अखाड़ा के संतों द्वारा महामंडलेश्‍वर बनाया जा रहा था।
यह कथित धार्मिक उत्‍सव ठीक उसी समय उल्‍लास में डूबा हुआ था जब आपदा पीड़ितों को बचाकर लाते हुये एक हैलीकॉप्‍टर गौरीकुंड में क्रैश हो गया जिसमें कुल 20 लोग मारे गये। बेशर्मी की इंतहा देखिये कि उत्‍सव में मौजूद इन संतों ने आपदा पर शोक तक जताना मुनासिब नहीं समझा, कुछ करने की बात तो बहुत दूर रही।  
यूं तो उत्‍सवधर्मी हमारे समाज में आम कुटिलजनों व राजनेताओं के एक आंख से रोने के साथ साथ एक आंख से हंसने के भी उदाहरण हर रोज कहीं न कहीं देखने को मिलते हैं मगर कथित रूप से स्‍थापित 'महान' संतों ने जिस समय और जिस तरह उत्‍सव मनाने की बेशर्मी दिखाई वह स्‍वयं इनके ही औचित्‍य पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने को काफी है।
''जैसा खाए अन्‍न वैसा रहे मन'' की परिणति अगर देखनी हो तो यह एक वाकया काफी है ये बताने को कि लाखों आमजनों को धर्म की आड़ में किस तरह बेवकूफ बना रहे हैं ये हमारे ''पूज्‍यनीय संत''। काले धन को बचाने की आड़ में दिये जा रहे ''दान'' का असर किस तरह इन 'संतों-महामंडलेश्‍वरों-शंकराचार्यों की बुद्धि नष्‍ट भ्रष्‍ट कर चुका है, यह बानगी इन्‍होंने स्‍वयं पेश कर दी।
आंखें मूंदकर इनके पैरों में ढोक देने वाले आमजन को यह समझना होगा ही कि निकम्‍मेपन को संतत्‍व का जामा पहनाकर किस तरह कुछ धार्मिक माफिया किस तरह उनकी धार्मिक भावनाओं का दोहन कर रहे हैं।
ऐसे में यह बात अगर उठती है कि शंकराचार्यों ने उत्‍तराखंड के तीर्थों और गंगा की दुर्दशा पर नेताओं और कॉरपोरेट की तरह ही रवैया बनाये रखा तो इसमें गलत क्‍या कहा गया।
शक्‍तिपीठों, अखाड़ों और आश्रमों के जमावड़े वाले ऋषिकेश-हरिद्वार में मौजूद संतों ने तो अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं वरना क्‍या ऐसा संभव था कि हजारों की तादाद में वहां मौजूद संत मिलकर पीड़ितों को राहत न दे पाते।
इसके अपवाद स्‍वरूप केंद्र सरकार की आंख की किरकिरी बने पतंजलि योगपीठ के कार्यकर्ताओं ने बाबा रामदेव के नेतृत्‍व में आपदा पीड़ितों के लिए बेहद सराहनीय काम किया और अब भी कर रहे हैं।
इस घटना से यह सबक लिया जाना चाहिये कि धर्म को आस्‍था के इन ढोंगियों के मुलम्‍मे की जरूरत नहीं। लानत है ऐसे महामंडलेश्‍वरों पर जो धर्म को आड़ और व्‍यापार बनाकर भौतिक सुखों का रसास्‍वादन कर रहे हैं।
-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 19 जून 2013

तिनका कबहुं ना निंदिए...

संस्‍कृत में एक लघुसूक्‍त है- ''अति सर्वत्र वर्जय्ते''। मॉडर्न साइंटिफिक
समय में तरक्‍की के सारे सोपानों को आज भी धता बताने के लिए
संस्‍कृत भाषा का उक्‍त लघुसूक्‍त काफी है।
हजारों साल पहले लिखे गये इस सूक्‍त वाक्‍य की महत्‍ता हमें पल-पल दिखाई देती है मगर कभी कभी बतौर जुमला पेश करके इसे हम परे हटाते रहते हैं।
अब देखिए ना पूरे उत्‍तर भारत में इसी 'अति' ने अपनी 'वर्जना' के
स्‍वरूप हमें दिखाये। इसी अति के चलते विकास के नाम पर प्रकृति का
किया गया अपमान हमें कितना भारी पड़ रहा है, जान व माल का जो
नुकसान हुआ सो अलग। हमने वन संपदा भी भारी मात्रा में पानी में
बहते देखी, विकास के दावों की प्रकृति ने किस बेरहमी से हवा
निकाली...इस पर अब डिस्‍कशन की जरूरत ही नहीं रह गई । फिलहाल
तो पूरा उत्‍तर भारत इसी ''अति सर्वत्र वर्जय्ते'' का दंश झेलने को विवश
है।
हमारी सनातनी परंपरा में जिस शिव तत्‍व और प्रकृति का उल्‍लेख
जीवनशैली और इसे जीने की कला से जोड़ा गया है उसे कुछ मूर्तियों में
समेटकर यदि हम यह सोचते हैं कि बस हो गया कर्तव्‍य निर्वाह.. हो गई
शिवाराधना और सहेज लिया देवी प्रकृति को... तो प्राकृतिक तबाही का
मौजूदा रूप हमें इसे अब तो शायद ही भूलने दे। गाद और सिल्‍ट से
भरा पूरा उत्‍तर भारत इनसे उठने वाले प्रश्‍नों को मरने ही नहीं देगा।
यूं तो एक बात और गौर करने वाली ये है कि आस्‍तिक और नास्‍तिकों
में ईश्‍वर के रूप और अस्‍तित्‍व को लेकर कितनी भी बहस चले मगर
प्रकृति के द्वारा बार-बार दिये जा रहे संदेश सभी बहसों से ऊपर हैं। तभी
तो कहीं केदारनाथ मंदिर इतने बड़े कहर में भी शेष रह जाता है और
कहीं हरिद्वार में गंगा के बीच बनी शिवमूर्ति बह जाती है।
कबीरदास ने प्रकृति के कण-कण में और तिनके-तिनके में व्‍याप्‍त ईश्‍वर तत्‍व को ठीक से पहचानते हुए ही तो कहा था-
तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए।
कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥
यानि हमें प्रकृति के एक-एक तिनके का आदर करना चाहिये और अगर
इससे चूके तो यही तिनका कब आंखों में पड़कर पीड़ा दे जाये, कहा नहीं
जा सकता। कबीर का ये दोहा तो महज एक तिनके के बारे में
था...हमने तो अपनी व्‍यवस्‍था के जरिये पूरी प्रकृति को ही प्रतिस्‍थापित
करने का पाप किया है। इसका भुगतान कोई तो करेगा ही।
नतीजा हमारे सामने है मौजूदा कहर के रूप में...कि हमारी औकात
बताते हुए न तो उसने विकास परियाजनाओं को बख्‍शा और न ही
इसका लाभ लेने वालों को...
क्‍या अब विकास के मॉडल की समीक्षा नहीं की जानी चाहिये। उसे नए
सिरे से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। हमने, हमारे समाज ने,
हमारी सरकारों ने विकास के वर्तमान मॉडल को तरक्‍की का नया पैमाना बनाकर पेश करते हुए ये तो ध्‍यान में ही नहीं रखा कि जिनके लिए ये तरक्‍की के सोपान रचे जा रहे हैं वो ही नहीं होंगे तो....इसे भोगेगा कौन।
बहरहाल उत्‍तराखंड, हिमांचल और पड़ोसी देश नेपाल में नदियों की
विकरालता हमारी ही रची हुई है और इसे संभालना भी हमें ही होगा,
चिंतन और मनन तो बहुत हो चुका अब कुछ मिल-जुलकर करने की
बारी है। हर मसले के लिए सरकारों पर निर्भरता अच्‍छी नहीं। कुछ
समाज, जनता और प्रबुद्धों को भी आगे आकर इस तरक्‍की की सही
दिशा के लिए कदम उठाने होंगे। देखते हैं इस बार की आपदा अपने
साथ महज तबाही ही लाई या कुछ सबक भी...जो पुनरावृत्‍ति न होने दें।
यह याद रखने के लिए काफी होगा कि हम और हमारा वजूद प्रकृति से
है, न कि प्रकृति हमसे...नुमाया है।
- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 10 जून 2013

प्‍लीज ! भीष्‍म पितामह को बदनाम मत करो

सनातन धर्म के अनुसार जीवन को सम्‍मानित तरीके से जीने के लिए उसके हर पड़ाव का स्‍वागत करना चाहिए। बीते हुये की याद असंतुष्‍टि का भाव लाती है और यही भाव जीवन के अंतिम क्षणों में भी व्‍यक्‍ति के शरीर व मन को जकड़े रहता है।
विगत को छोड़ न पाने और आगत का स्‍वागत न कर पाने का प्रत्‍यक्ष उदाहरण बने भारतीय जनता पार्टी के भीष्‍म पितामह कहे जा रहे लालकृष्‍ण आडवाणी आजकल सुर्खियों में हैं। उन्‍होंने भी अपने ब्‍लॉग में भीष्‍म पितामह को याद किया है।
प्रश्‍न उठता है कि भीष्‍म पितामह ही क्‍यों?
इसकी भी वजह हैं... व्‍यक्‍ति उम्र की दो ही अवस्‍थाओं के दौरान अपनी मूल प्रवृत्‍ति में दिखाई देता है..एक तो जब वह शिशु होता है और दूसरा तब जब वह बूढ़ा होता है।
बूढ़े व्‍यक्‍ति में चिड़चिड़ापन उसकी उम्र की वजह से नहीं बल्‍कि अपनी नाकामियों से उभरता है, और यह नाकामी शारीरिक से ज्‍यादा मानसिक होती है। तभी तो इस उम्र में ही वानप्रस्‍थ का प्रावधान सनातनी व्‍यवस्‍था में किया गया था ताकि बूढ़ा व्‍यक्‍ति विगत को जितना हो सके भुला सके। यदि भुला नहीं सकता तो कम से कम आगत पर अपनी नाकामियों को थोप तो नहीं सकेगा।
इसीलिए आडवाणी जी ने जो कुछ अपनी जवानी से, राजनीति से, फिल्‍मों से और 'इन वेटिंग' के जुमलों से सीखा वह अपने ब्‍लॉग में उद्धृत कर दिया और देखिए ना इतने सालों का अनुभव नरेंद्र मोदी के सिर ठीकरा फोड़ने में काम आया। भीष्‍म पितामह तो बेवजह बीच में आ गये। भीष्‍म पितामह कहलाने के लिए उम्रभर किसी पार्टी से जुड़ा रहना ही योग्‍यता नहीं हो सकती, भीष्‍म ने देवव्रत से लेकर सरशैया तक के सफर में सिर्फ त्‍यागा ही त्‍यागा...और इसके ठीक विपरीत आडवाणी जी सब-कुछ पाने को लालायित रहे मगर उन्‍हें मिल न सका। तो ''पाने की लालसा'' और ''न मिल पाने का क्षोभ'' दोनों के बीच का फ़र्क समझ लिया जाये तो आडवाणी जी के इस्‍तीफे को भी सहजता से लिया जा सकता है।
रही बात उनके इस इस्‍तीफे से पार्टी को होने वाले नुकसान की, तो वक्‍त को कभी एक ही कंधे पर नहीं ढोया जाता। वह तो नित नये कंधों पर चलकर अपनी यात्रा के पड़ावों को पार करता जाता है ... कल अटल जी थे..आज आडवाणी जी हैं और कल हो सकता है कि मोदी हों...तो इस अनवरत बहने को रोका नहीं जाना चाहिए...।
लोकसभा चुनावों में क्‍या होगा क्‍या नहीं होगा इसके लिए बेहतर होगा कि भारतीय जनता पार्टी अपने उठे हुये कदमों में विगत की बेड़ियां न डाले। इससे उसके युवा जनाधार पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। कम से कम ''नाकाम राजनेता'' के लिए भीष्‍म पितामह जैसे महान व ऐतिहासिक व्‍यक्‍तित्‍वों को इस तरह न घसीटा जाये तो अच्‍छा होगा।
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 9 जून 2013

....नज़रों से गिरा देते हैं

मशहूर शायर अहमद फ़राज़ साहब का ये शेर आईपीएल क्रिकेट के मौजूदा हालातों और हश्र की ओर बखूबी इशारा करता है कि-

''हम दुश्मनों को भी पाकीज़ा सजा देते हैं ''फ़राज़ ''
हाथ उठाते नहीं ...............नज़रों से गिरा देते हैं ''

3 w यानि wealth..women..wine..की मंशा के साथ शुरू किये गये आईपीएल में महज एक स्‍पॉट फिक्‍सिंग के उजागर होने ने प्‍याज के छिलकों की तरह सारी कहानियों को परत दर परत उतार कर दिया रख दिया है ।
वो हकीकतें भी सरेआम कर दीं जो कथित 'बड़े' लोगों की रंगीनियों को आसमान पर बैठा रही थीं।
आईपीएल टीमों के उन खरीददारों की मंशा भी उजागर कर गई ये स्‍पॉट फिक्‍सिंग से लोगों के जज्‍़बातों को कौड़ियों में तोलने की हिमाकत कर गये।
सचमुच 'इंक्रेडिबिल' है इंडिया की यह तस्‍वीर कि एक ओर भुखमरी मिटाने के लिए मां बाप अपने बच्‍चों को बीड़ी बनाये जाने वाले तेंदू पत्‍तों को उबालकर पिला रहे हैं ताकि बच्‍चों को नशा बना रहे और वे भोजन की मांग ना करें। 
इतना ही नहीं भोजन के बंदोबस्‍त में वे खुद को भी बंधुआ बनाने से नहीं हिचकिचा रहे...ये तो रही मजबूरी की बंधुआगिरी मगर जो खुद की बोली लगाने से लेकर देश के सबसे ज्‍यादा देखे जाने वाले खेल की धज्‍जियां उड़ा रहे हैं, वे जो अपने प्रशंसकों और खेल की भावना को तहस नहस करने में जुटे रहे, वे जो बुकीज के इशारों पर बंधुआ बने रहे...वे जो देश की इज्‍़जत को कोई कसर नहीं छोड़ रहे...ये तो वो हैं जो पकड़े गये अभी कितने ऐसे कथित खिलाड़ी होंगे जो बंधुआगिरी का फ़र्ज निभा रहे होंगे। उनके ऊपर तो तरस भी नहीं खाया जा सकता।
आज भले ही बीसीसीआई और सरकार व कोर्ट मिलकर इस मामले की जड़ों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं मगर क्रिकेट प्रेमियों की भावनाओं के साथ जो कुछ हुआ उसे तो फ़राज़ साहब का उक्‍त शेर बखूबी उकेरता है कि .....नज़रों से गिरा देते हैं ।
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 2 जून 2013

तो फिर वनमानुष क्‍या बुरे हैं

ग्‍लोबलाइजेशन के इस दौर में जिस्‍म की नुमाइश को ही खुलेपन और आधुनिकता का पैमाना बना दिया गया है और इसके लिये मीडिया भी उतना ही दोषी है।
कुछ दिन पहले की बात है जब अलीगढ़ मुस्‍लिम यूनीवर्सिटी में कल कुलपति ने सभ्‍य दायरे में रह कर छात्राओं व छात्रों को यूनीवर्सिटी की रवायत के अनुसार लिबास पहनने हेतु एक खुला पत्र लिखा।
उन्‍हें यह इसलिए लिखना पड़ा क्‍यों कि छात्रायें खुलेपन की आड़ में मात्र अपनी नुमाइश करने लगीं थीं, अराजकत तत्‍वों ने आयेदिन बवाल करना शुरू कर दिया। दु:ख तो इस बात का था कि इस अनुशासनात्‍मक पत्र की खबर पर स्‍थानीय अखबार चिल्‍लाने लगे कि ड्रेस कोड... ड्रेस कोड...लड़कियों की आज़ादी पर प्रश्‍नचिन्‍ह... आदि आदि ....।
अब बताइये आखिर हम किस सभ्‍यता और किस तरक्‍की की बात कर रहे हैं।  हम चांद पर जाने का उदाहरण  देते रहते हैं मगर संस्‍कारों की कब्र खोदते  जा रहे हैं । खयालातों  की तरक्‍की के इतर अगर कम कपड़े पहनना ही आधुनिकता का मापदंड है तो फिर वनमानुष क्‍या बुरे हैं।  
इसी विषय पर बकौल शायर.....
मंज़िल उन्‍हें ही मिलती है जिनके सपनों में जान होती है
परों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है।
एएमयू के कुलपति के आदेशों को देखते हुये इस शेर के संदर्भ में ये कहा जा सकता है कि बस इन परों के हौसलों का डायरेक्‍शन सही करना होगा।
- अलकनंदा सिंह


नये डेमोक्रेटिक कलेवर को अपनाने की मजबूरी

संसद भवन तक पहुंचने वाले सारे नेशनल हाइवे अपनी आखिरी मंज़िल अर्थात राष्‍ट्रीय पर्व 'लोकसभा चुनाव-2014' की तैयारियों के साथ अचानक तमाम सरोकारी बातें करने लगे हैं। राजनैतिक संवादों की ही मज़बूरी है कि देश का प्रत्‍येक राजनैतिक व उसके अनुषांगिक-सामाजिक, सांगठनिक दल सरोकारों से लिपटा नजर आ रहा है। इसे कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि एक श्रृंखला सी बन गई है ऐसे उपदेशकों की जिनमें कोई समाजवाद, कोई धर्मनिरपेक्षता तो कोई राष्‍ट्रवाद की वंशी बजा रहा है और प्रत्‍येक अपनी अलग व्‍याख्‍या गढ़ रहा है लेकिन इस सबके दरम्‍यान
एक कॉमन टारगेट बन कर उभरी है देश की 'युवाशक्‍ति'।
आश्‍चर्य होता है कि जिस जनलोकपाल आंदोलन की अपने अपने तरीके से बखिया उधेड़ने में राजनैतिक दलों ने खूब ज़ोरआजमाइश कर ली वही दल अन्‍ना के आंदोलन से उपजी 'आशा' को भुनाने की आपाधापी में  लगे हैं। जो भी हो इन्‍होंने युवाओं की शक्‍ति को केंद्र में ला दिया है।
इसी शक्‍ति के बूते नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी, ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक सभी एक दूसरे के घोर राजनैतिक विरोधी होते हुये भी युवाओं के ज़रिये ही अपने भविष्‍य को संवारने का तानाबाना बुन रहे हैं।
ये युवा शक्‍ति पर राजनैतिक प्रयोग का लालच ही तो है कि विगत दिनों वृंदावन में राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ के विश्‍व विभाग के सम्‍मेलन में युवाओं की सोच उनके दृष्‍टिकोण को लेकर ही मंथन चला। तीन दिवसीय इस सम्‍मेलन में अमेरिका, इंग्‍लैंड, श्रीलंका, मॉरीशस, मलेशिया, ऑस्‍ट्रेलिया, सिंगापुर, हांगकांग सहित 25 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
बदलाव की आंधी और इस आंधी में बह रहे संघ के विश्‍व स्‍तरीय अनुषांगिक संगठन 'हिंदू स्‍वयं सेवक संघ' के प्रतिनिधियों ने एक सुर से मांग उठाई कि अब समय आ गया है कि 90 के दशक की ओढ़ी हुई सोच को उतार फेंका जाये।
ये संभवत: पहला ही मौका है जब संघ में एक सुर से हिंदुत्‍व की 'स्‍थापित सोच' को वैश्‍विक सोच में तब्‍दील किया गया। विकास की अवधारणा व आधुनिक सोच के साथ बड़ी हो रही युवा पीढ़ी को और गुरु गोलवलकर द्वारा पहली बार स्‍वामी विवेकानंद का अनुसरण कर राष्‍ट्रवाद की परिभाषा को फिर से नये कलेवर में युवाओं के समक्ष प्रस्‍तुत करने की पुरजोर मांग उठी।
इसी वैश्‍विक सोच ने पुरातन सोच को संदेश दिया है कि अब बस बहुत हो चुका हिंदू-हिंदू...मंदिर-मंदिर..का अलाप बंद किया जाये। 25 देशों से आये प्रतिनिधियों द्वारा रखे  गये अलग-अलग मंतव्‍यों का लब्‍बो-लुआब बस इतना था कि संघ को अपना 'औरा' बढ़ाने के लिए युवाओं की सोच से तालमेल बैठाना होगा, अभिभावक की भूमिका में नहीं, मित्र की भूमिका में उतरना होगा ।
साथ ही सम्‍मेलन में जो अभूतपूर्व घटा, वह यह था...कि सम्‍मेलन था राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ का और हावी रही इस्‍लाम को नज़दीक से जानने की पैरोकारी... । सहज विश्‍वास नहीं हुआ। अगर ये मशक्‍कत है चाल, चेहरा और चरित्र को विश्‍वस्‍तरीय बनाने की तो यकीनन संघी दिमागों में इस नई नई उगी धर्मनिरपेक्षता के सकारात्‍मक परिणाम होंगे।
अब संघ को महज हिंदुत्‍व की ही बात न करके इस्‍लाम को भी जानना होगा..कुरान का ज्ञान भी बांचना होगा।
अब इसी बदली हुई सोच को मजबूरी कहें या दूसरे धर्म को समझने की ये जरूरत समय की मांग भी है। यूं भी धार्मिक समभाव और वैश्‍विक स्‍तर पर अपनी कट्टरवादी छवि को बदलने और नई पीढ़ी को राष्‍ट्रवाद का महत्‍व समझाने का ये धर्मनिरपेक्ष तरीका यूं ही आसमान से नहीं टपका। नरेंद्र मोदी को केंद्र में रखकर चल रहे संघ की ये रणनीति चुनावी भी है और मोदी की अहमियत को आमजन व युवाओं के समक्ष जताने की भी। देखते हैं अभी तो संघ की ये नई धर्मनिरपेक्षतावादी पैकेजिंग विरोधियों के लिए ही नहीं स्‍वयं मुस्‍लिम कट्टरवादियों को भी सोचने के लिए विवश तो कर ही देगी।
बहरहाल देर आयद दुरुस्‍त आयद...।
-अलकनंदा सिंह