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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

संतई को स्वयं ही त‍िरस्कृत करते 'नाराज़ संत'

व्यक्त‍ि साधारण हो या संत, उसमें ये एक आम सी प्रवृत्त‍ि होती है क‍ि जो वह स्वयं है, वैसा द‍िखना नहीं चाहता और जो वह नहीं है उसी का प्रचार व प्रसार करने में पूरे का पूरा जीवन खपा देता है। और इसी व‍िरोधाभास में वह अपना जीवन तो जी ही नहीं पाता, कुछ अनुच‍ित करने से भी बाज नहीं आता।

कबीर दास ने इसी प्रवृत्ति पर कहा था-
नद‍िया व‍िच मीन प्यासी रे, मोह‍ि सुन सुन आवत हांसी रे। 

मंद‍िर में बैठकर भी व्यक्त‍ि की मानस‍िकता मैली हो सकती, वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से 'धर्म' और 'मोक्ष' को छोड़कर 'अर्थ' और 'काम' में ल‍िप्त हो सकता है और वह मरघटों में भी स्वयं को पव‍ित्र रख सकता है। इसी पव‍ित्रता के सबसे बड़े उदाहरण कबीरदास और रैदास हमारे सामने हैं। नदी के बीच रह कर भी यद‍ि मछली प्यासी रहे तो इससे बड़ी बात क्या होगी , संत की 'घोष‍ित प्रवृत्त‍ि' वाले भी यद‍ि लालच, नाम, पद प्रत‍िष्ठा पाने के ल‍िए अनुच‍ित हथकंडे अपनायें तो इसे भी उक्त मछली की श्रेणी में ही रखा जाएगा ना। 

5 फरवरी को संसद में प्रधानमंत्री ने जब से राम मंद‍िर तीर्थ ट्रस्ट की घोषणा की है तब से हमारे कुछ संतों के क्र‍ियाकलापों ने जीवन और धर्म की इसी पव‍ित्रता को कठघरे में खड़ा करने का काम कि‍या है।

इन्हीं 'नाराज़' संतों ने ट्रस्ट में स्वयं को स्थान ना द‍िए जाने पर 'रूठ जाने' का जो नाटक क‍िया , वह उन्हीं की गर‍िमा को कम कर गया। हालांक‍ि गृहमंत्री द्वारा उन्हें मना ल‍िया गया परंतु इससे एक बात तो न‍िश्च‍ित हो गई क‍ि राम मंद‍िर के ल‍िए लड़ी गई सैकड़ों साल की कानूनी लड़ाई को ये 'नाराज़ संत' अपने अपने तरीके से कैश करना चाहते हैं। और अपने इस एक '' अनुच‍ित कर्म '' से इन्होंने संतत्व की पर‍िभाषा को ठेस ही पहुंचाई है। धर्मानुसार नाम और पद की लालसाओं में घ‍िरे व्यक्त‍ि को संत कहना ही ठीक नहीं है, चाहे वह क‍ितनी ही पोथ‍ियां क्यों ना पढ़ा हो, क‍ितना ही उसने धार्म‍िक व्याख्यान क्यों ना द‍िए हों। धर्म की स्थापना के ल‍िए मंद‍िर न‍िर्माण एक पव‍ित्र उद्देश्य है परंतु इनकी लालसा न‍िश्च‍ित ही एक न‍िकृष्ट कर्म है।

मैं अंधभक्तों की बात तो नहीं कह सकती परंतु जो भी धर्म का सही अर्थ जानता होगा वह संतों की इस नाराज़गी को धर्मव‍िरुद्ध के साथ राम व‍िरुद्ध भी मानेगा।

पहले से ही धर्म की आड़ में अनेक कुप्रवृत्त‍ियों ने संत समाज को लज्ज‍ित कर रखा है और उस पर ट्रस्ट में स्थान पाने की ''लालसा'' वाली संतों की यह स्वार्थी सोच ने रामभक्ति और सनातन धर्म की श्रेष्ठता को आघात पहुंचाया है।

इन 'नाराज़' संतों से पूछा जाना चाह‍िए क‍ि क्या जो ट्रस्ट में नहीं हैं, उन्होंने राम मंद‍िर न‍िर्माण के ल‍िए प्रार्थनाऐं नहीं कीं या अपनी आहुत‍ियां नहीं दीं, क्या ट्रस्ट भगवान राम की व‍िशालता से भी अध‍िक महत्वपूर्ण है । ये कैसी भक्त‍ि है इनकी, जो प्रत‍िदान मांग रही है। संतई के नाम पर भक्त‍ि का उनका मुखौटा उतर गया है और स‍िर्फ अयोध्या के ही क्यों, ब्रज के संत भी अपनी प्रत‍िष्ठा को इसी तरह धूम‍िल करने में जुटे हैं। अपने आराध्य के ल‍िए प्रत‍िदान मांगने वाले इन संतों की नाराज़गी न‍िंदनीय है।

दो द‍िन से चल रहे इस रुठने मनाने के खेल ने संतों की संतई पर ही प्रश्नच‍िन्ह नहीं लगाया बल्क‍ि यह भी बता द‍िया क‍ि मुखौटे व्यक्त‍ि का पीछा कभी नहीं छोड़ते, वह जब भी असली चेहरे से उतरते है तो व्यक्त‍ि अपनी सारी प्रत‍िष्ठा गंवा चुका होता है।

अंतत: बुधकौशिक ऋषि द्वारा रच‍ित श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के 38वें स्तोत्र में भगवान श्रीराम की स्तुति-

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥  के माध्यम से मैं तो अब भी यही प्रार्थना करती हूं क‍ि घोर असंतई वाली लालसा के बाद भी राम इन्हें सद्बुद्ध‍ि दें ।

- अलकनंदा स‍िंह