बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

ह‍िंसक मां के वीड‍ियो से एक और सच नंगा हो गया ...

सद‍ियों से बनीं धारणायें अब अपने चोले को उतारने लगी हैं और मह‍िलाओं की मौजूदा स्थ‍ित‍ि से ज्यादा अच्छा उदाहरण और इसका क्या हो सकता है। परंतु जब चोला उतरता है और बदलाव नज़र आता है तो अच्छाई के साथ उसकी वो बुराइयां भी नज़र आने लगती हैं ज‍िनसे तंग आकर बदलाव हुआ। अध‍िकांशत: ये बुराइयां हमारी पर‍िकल्पना से भी ज्यादा भयावह होती हैं। प‍िछले दो तीन द‍िनों से चल रही द‍िल्ली ह‍िंसा ने मह‍िलाओं के इसी वीभत्स रूप को मेरे सामने ''नंगा'' कर द‍िया।

कौन कहता है क‍ि मह‍िलायें हैं-  तो जीवन है, वे हैं तो प्रेम है, उन्होंने पृथ्वी पर जीवन को संजोया, पर‍िवार , र‍िश्ते और पीढ़‍ियों को संस्कार देने में अपना ''सर्वस्व'' न‍िछावर कर द‍िया। यद‍ि ऐसा ही होता तो कल द‍िल्ली ह‍िंसा के दौरान पत्थरबाजी करती वृद्ध मह‍िला का वीड‍ियो देखकर मैं ये सोचने पर बाध्य ना होती... क‍ि जब कोई मां इतनी ह‍िंसक हो सकती है, तो उसने अपने बच्चों को क्या क्या और ना स‍िखाया होगा।

ये मह‍िला उम्र के लगभग आख‍िरी पड़ाव पर थी। पत्थरबाजी कर रहे उपद्रव‍ियों के साथ इसने न केवल स्वयं पत्थरबाजी की बल्क‍ि पत्थरबाजी करते हुए नाले में ग‍िर पड़ी और लहूलुहान हो गई
ये मह‍िला उम्र के लगभग आख‍िरी पड़ाव पर थी। पत्थरबाजी कर रहे उपद्रव‍ियों के साथ इसने न केवल स्वयं पत्थरबाजी की बल्क‍ि पत्थरबाजी करते हुए नाले में ग‍िर पड़ी और लहूलुहान हो गई, और उसी घायल अवस्था में भी फ़ख्र के साथ बता रही थी क‍ि मेरा खून बहा तो क्या हुआ, मैंने भी इतनी जोर से पत्थर मारा क‍ि वो सीधा पुल‍िस वाले के माथे पर लगा और वो (गाली देते हुए बोली ) ब‍िलब‍िला कर ग‍िर पड़ा, अभी तो और पुल‍िस वालों को ऐसे ही मारूंगी। एक वृद्ध मह‍िला से ऐसी उम्मीद हममें से कोई नहीं कर सकता,स्वप्न में भी नहीं।

देश ही नहीं ये तो पूरे व‍िश्व में ये साफ हो चुका है क‍ि द‍िल्ली सह‍ित पूरे देश में जो कुछ सीएए के नाम पर अराजकता फैलाई जा रही है, वह मात्र कानून के ल‍िए नहीं बल्क‍ि ऐसी ही कथ‍ित मांओं का सहारा लेकर उन लोगों द्वारा स्पॉंसर्ड है ज‍िन्हें देश के टुकड़े करने से गुरेज़ नहीं।

ज़रा याद कीज‍िए जेएनयू  में मामूली फीस वृद्ध‍ि का उन ''कथ‍ित छात्रों'' द्वारा व‍िरोध क‍िया गया ज‍िनके हाथों में  ''आईफोन्स'' थे, ज‍िनके ड्रग्स लेते हुए वीड‍ियो वायरल हुए, जो कन्हैया कुमार सरकारी अनुदान से जेएनयू में पढ़ाई कर रहा था , ज‍िसके मां बाप गरीबी रेखा से नीचे थे , उसके पास लाखों की संपत्त‍ि ( चुनाव के ल‍िए द‍िये गए शपथपत्र के अनुसार )  कहां से आई, जो शरजील इमाम शाहीन बाग में आसाम को भारत से काटने का सरेआम ऐलान कर रहा था, इसके सुबूत भी सामने आ रहे थे परंतु उसके मां बाप कह रहे थे क‍ि उनके बेटे को साज‍िशन फंसाया जा रहा है।

ये और इन जैसे तमाम उदाहरण हैं जो मांओं की ''झूठ स‍िखाती और ह‍िंसा को जायज ठहराती'' परवर‍िश ही नहीं, स्वयं उनकी ''मानवीय मंशा'' पर भी सवाल उठाते हैं, ये बदलाव समाज के ल‍िए तो घातक हैं ही, स्वयं मह‍िलाओं के ल‍िए भी आत्मघाती हैं। अपने बच्चों, भाइयों और साथ‍ियों को ह‍िंसा के उकसाने वाली मह‍िलायें यह भूल रही हैं क‍ि वे भी इसी आग से झुलसेंगीं , ये न‍िश्च‍ित है।

अब ये तो हमें सोचना है क‍ि हम क‍िस तरह का समाज चाहते हैं, नई पीढ़ी से अच्छाई की अपेक्षा तभी रखी जा सकती है जब हम स्वयं अपने घर से... अपने बच्चों से इसकी शुरुआत करें।  समाज के क‍िसी भी अपराध, पतन या भ्रष्टाचार का पह‍िया घर और घर की मह‍िलाओं पर आकर ही ट‍िकता है। सोचकर देख‍िए ... और आज से ही अपने घर आपने बच्चों से इसकी शुरुआत कीज‍िये। 

- अलकनंदा स‍िंंह 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

संतई को स्वयं ही त‍िरस्कृत करते 'नाराज़ संत'

व्यक्त‍ि साधारण हो या संत, उसमें ये एक आम सी प्रवृत्त‍ि होती है क‍ि जो वह स्वयं है, वैसा द‍िखना नहीं चाहता और जो वह नहीं है उसी का प्रचार व प्रसार करने में पूरे का पूरा जीवन खपा देता है। और इसी व‍िरोधाभास में वह अपना जीवन तो जी ही नहीं पाता, कुछ अनुच‍ित करने से भी बाज नहीं आता।

कबीर दास ने इसी प्रवृत्ति पर कहा था-
नद‍िया व‍िच मीन प्यासी रे, मोह‍ि सुन सुन आवत हांसी रे। 

मंद‍िर में बैठकर भी व्यक्त‍ि की मानस‍िकता मैली हो सकती, वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से 'धर्म' और 'मोक्ष' को छोड़कर 'अर्थ' और 'काम' में ल‍िप्त हो सकता है और वह मरघटों में भी स्वयं को पव‍ित्र रख सकता है। इसी पव‍ित्रता के सबसे बड़े उदाहरण कबीरदास और रैदास हमारे सामने हैं। नदी के बीच रह कर भी यद‍ि मछली प्यासी रहे तो इससे बड़ी बात क्या होगी , संत की 'घोष‍ित प्रवृत्त‍ि' वाले भी यद‍ि लालच, नाम, पद प्रत‍िष्ठा पाने के ल‍िए अनुच‍ित हथकंडे अपनायें तो इसे भी उक्त मछली की श्रेणी में ही रखा जाएगा ना। 

5 फरवरी को संसद में प्रधानमंत्री ने जब से राम मंद‍िर तीर्थ ट्रस्ट की घोषणा की है तब से हमारे कुछ संतों के क्र‍ियाकलापों ने जीवन और धर्म की इसी पव‍ित्रता को कठघरे में खड़ा करने का काम कि‍या है।

इन्हीं 'नाराज़' संतों ने ट्रस्ट में स्वयं को स्थान ना द‍िए जाने पर 'रूठ जाने' का जो नाटक क‍िया , वह उन्हीं की गर‍िमा को कम कर गया। हालांक‍ि गृहमंत्री द्वारा उन्हें मना ल‍िया गया परंतु इससे एक बात तो न‍िश्च‍ित हो गई क‍ि राम मंद‍िर के ल‍िए लड़ी गई सैकड़ों साल की कानूनी लड़ाई को ये 'नाराज़ संत' अपने अपने तरीके से कैश करना चाहते हैं। और अपने इस एक '' अनुच‍ित कर्म '' से इन्होंने संतत्व की पर‍िभाषा को ठेस ही पहुंचाई है। धर्मानुसार नाम और पद की लालसाओं में घ‍िरे व्यक्त‍ि को संत कहना ही ठीक नहीं है, चाहे वह क‍ितनी ही पोथ‍ियां क्यों ना पढ़ा हो, क‍ितना ही उसने धार्म‍िक व्याख्यान क्यों ना द‍िए हों। धर्म की स्थापना के ल‍िए मंद‍िर न‍िर्माण एक पव‍ित्र उद्देश्य है परंतु इनकी लालसा न‍िश्च‍ित ही एक न‍िकृष्ट कर्म है।

मैं अंधभक्तों की बात तो नहीं कह सकती परंतु जो भी धर्म का सही अर्थ जानता होगा वह संतों की इस नाराज़गी को धर्मव‍िरुद्ध के साथ राम व‍िरुद्ध भी मानेगा।

पहले से ही धर्म की आड़ में अनेक कुप्रवृत्त‍ियों ने संत समाज को लज्ज‍ित कर रखा है और उस पर ट्रस्ट में स्थान पाने की ''लालसा'' वाली संतों की यह स्वार्थी सोच ने रामभक्ति और सनातन धर्म की श्रेष्ठता को आघात पहुंचाया है।

इन 'नाराज़' संतों से पूछा जाना चाह‍िए क‍ि क्या जो ट्रस्ट में नहीं हैं, उन्होंने राम मंद‍िर न‍िर्माण के ल‍िए प्रार्थनाऐं नहीं कीं या अपनी आहुत‍ियां नहीं दीं, क्या ट्रस्ट भगवान राम की व‍िशालता से भी अध‍िक महत्वपूर्ण है । ये कैसी भक्त‍ि है इनकी, जो प्रत‍िदान मांग रही है। संतई के नाम पर भक्त‍ि का उनका मुखौटा उतर गया है और स‍िर्फ अयोध्या के ही क्यों, ब्रज के संत भी अपनी प्रत‍िष्ठा को इसी तरह धूम‍िल करने में जुटे हैं। अपने आराध्य के ल‍िए प्रत‍िदान मांगने वाले इन संतों की नाराज़गी न‍िंदनीय है।

दो द‍िन से चल रहे इस रुठने मनाने के खेल ने संतों की संतई पर ही प्रश्नच‍िन्ह नहीं लगाया बल्क‍ि यह भी बता द‍िया क‍ि मुखौटे व्यक्त‍ि का पीछा कभी नहीं छोड़ते, वह जब भी असली चेहरे से उतरते है तो व्यक्त‍ि अपनी सारी प्रत‍िष्ठा गंवा चुका होता है।

अंतत: बुधकौशिक ऋषि द्वारा रच‍ित श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के 38वें स्तोत्र में भगवान श्रीराम की स्तुति-

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥  के माध्यम से मैं तो अब भी यही प्रार्थना करती हूं क‍ि घोर असंतई वाली लालसा के बाद भी राम इन्हें सद्बुद्ध‍ि दें ।

- अलकनंदा स‍िंह

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद का निधन

हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद का आज निधन हो गया। हिन्दी के आधुनिक गद्य-साहित्य में सब से महत्वपूर्ण लेखकों में गिने जाने वाले कृष्ण बलदेव वैद ने डायरी लेखन, कहानी और उपन्यास विधाओं के अलावा नाटक और अनुवाद के क्षेत्र में भी अप्रतिम योगदान दिया है। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदा नए से नए और मौलिक-भाषाई प्रयोग किये हैं जो पाठक को 'चमत्कृत' करने के अलावा हिन्दी के आधुनिक-लेखन में एक खास शैली के मौलिक-आविष्कार की दृष्टि से विशेष अर्थपूर्ण हैं।


Related image

 इनका जन्म डिंगा, (पंजाब (पाकिस्तान)) में २७ जुलाई १९२७ को हुआ। दक्षिण दिल्ली के 'वसंत कुंज' के निवासी वैद लम्बे अरसे से अमरीका में अपनी लेखिका पत्नी चंपा वैद और दो विवाहित बेटियों के साथ रह रहे थे ।

कृष्ण बलदेव वैद अपने दो कालजयी उपन्यासों- उसका बचपन और विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ के लिए सर्वाधिक चर्चित हुए हैं। एक मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं 82 का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।"

वैदजी का रचना-संसार बहुत बड़ा है- विपुल और विविध अनुभवों से भरा। इसमें हिन्दी के लिए भाषा और शैली के अनेकानेक नए, अनूठे, निहायत मौलिक और बिलकुल ताज़ा प्रयोग हैं। हमारे समय के एक ज़रूरी और बड़े लेखकों में से एक वैद जी नैतिकता, शील अश्लील और भाषा जैसे प्रश्नों को ले कर केवल अपने चिंतन ही नहीं बल्कि अपने समूचे लेखन में एक ऐसे मूर्तिभंजक रचनाशिल्पी हैं, जो विधाओं की सरहदों को बेहद यत्नपूर्वक तोड़ता है। हिन्दी के हित में यह अराजक तोड़फोड़ नहीं, एक सुव्यवस्थित सोची-समझी पहल है- रचनात्मक आत्म-विश्वास से भरी। अस्वीकृतियों का खतरा उठा कर भी जिन थोड़े से लेखकों ने अपने शिल्प, कथ्य और कहने के अंदाज़ को हर कृति में प्रायः नयेपन से संवारा है वैसों में वैदजी बहुधा अप्रत्याशित ढब-ढंग से अपनी रचनाओं में एक अलग विवादी-स्वर सा नज़र आते हैं। विनोद और विट, उर्दूदां लयात्मकता, अनुप्रासी छटा, तुक, निरर्थकता के भीतर संगति, आधुनिकता- ये सब वैद जी की भाषा में मिलते हैं। निर्भीक प्रयोग-पर्युत्सुकता वैद जी को मनुष्य के भीतर के अंधेरों-उजालों, जीवन-मृत्यु, सुखों-दुखों, आशंकाओं, डर, संशय, अनास्था, ऊब, उकताहट, वासनाओं, सपनों, आशंकाओं; सब के भीतर अंतरंगता झाँकने का अवकाश देती है। मनुष्य की आत्मा के अन्धकार में किसी अनदेखे उजाले की खोज करते वह अपनी राह के अकेले हमसफ़र हैं- अनूठे और मूल्यवान।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

कौन हैं कवि ‘दीनानाथ नादिम’, जिनकी कविता लोकसभा में पढ़ी गई

बजट पेश करने के दौरान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कश्मीरी भाषा में कवि‘दीनानाथ नादिम’ की कविता पढ़ी। वित्त मंत्री ने हिंदी में इसका अनुवाद करके बताया कि-


हमारा वतन खिलते हुए शालीमार बाग़ जैसा
हमारा वतन डल लेक में खिलते हुए कमल जैसा
हमारा वतन नौजवानों के गरम खून जैसा
मेरा वतन, तेरा वतन, हमारा वतन
दुनिया का सबसे प्यारा वतन


आगे वित्त मंत्री ने बताया कि इस कविता को साहित्य अकादमी से सम्मानित कश्मीरी कवि दीनानाथ नादिम ने लिखा है। जानते हैं कौन हैं दीनानाथ नादिम जिनकी कविता से लोकसभा गूंज उठी।
18 मार्च 1916 को श्रीनगर में पैदा हुए दीनानाथ नादिम ने कश्मीरी कविताओं को नई दिशा दी और उनकी गिनती जल्द ही 20वीं सदी के अग्रणी कवियों में हो गयी। उहोंने कश्मीर में प्रगतिशील लेखक संघ की अगुवाई भी की। न सिर्फ़ उनकी कविताएं कश्मीरी भाषा में कश्मीर की मिट्टी से जुड़ी हुई हैं बल्कि उन्होंने हिंदी और उर्दू में भी काव्य कहा है। एक बड़ी संख्या में युवा उनकी कविताओं से प्रभावित थे।
दीनानाथ नादिम अपने बारे में कहते हैं कि
“मैं श्रीनगर में पैदा हुआ। बहुत कम उम्र में ही मुझमें कविता के प्रति रुचि पैदा हो गई थी लेकिन शुरुआत में मैं अपनी कविताएं किसी को दिखाने या उन्हें प्रकाशित करवाने के मामले में बेहद संकोची था। मेरी अनेक कविताएं तो इस कारण भी नष्ट हो गईं, क्योंकि वे सिगरेट के पैकेट पर लिखी गई थीं लेकिन कम छपने का मुझे कोई मलाल नहीं है।
एक पीढ़ी पहले तक कश्मीरी के कवि प्रकृति और प्रेम पर ही लिखते थे। मैंने जब लेखन शुरू किया था, तब कश्मीर अशांत था। मैंने ठोस यथार्थ को अपनी कविताओं का विषय बनाया। इस मामले में महजूर और आज़ाद जैसे वरिष्ठ कवियों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
शेख अब्दुल्ला के स्वागत में एक जनसभा में पढ़ी गई एक कविता से अचानक मैं मशहूर हो गया। जब मुझे सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार देने का फैसला हुआ, तब तक मेरे पास एक भी किताब नहीं थी। तब आयोजकों को मजबूरन यह घोषित करना पड़ा कि मुझे यह पुरस्कार किसी किताब पर नहीं, बल्कि मेरी समग्र रचनाओं पर दिया जा रहा है। मैंने कश्मीर में प्रगतिशील लेखकों को एकजुट करने का काम किया क्योंकि मुझे यह बेहद ज़रूरी काम लगा।
हरिवंश राय बच्चन ने मेरी कुछ कविताओं का अनुवाद किया है जबकि कमलेश्वर मुझे कश्मीरी साहित्य के देवदार कह चुके हैं लेकिन मुझे सबसे ज्यादा खुशी मिलती है, जब मंच पर कविता पढ़ते समय दर्शक हाथ उठा-उठाकर मेरा स्वागत करते हैं। मेरे हिसाब से वही साहित्य महत्वपूर्ण है, जो समाज की बेहतरी के लिए काम करता है।”