बुधवार, 17 अप्रैल 2019

बदजुबानियों का ये युद्ध

उत्‍तर प्रदेश की रामपुर लोकसभा सीट आजकल चर्चा में है, एक ओर आजम खान  हैं जो अपनी विरोधी प्रत्‍याशी जयाप्रदा के अंडरवियर का रंग बता रहे हैं तो दूसरी  ओर जयाप्रदा हैं जो हमलावर होकर कह रही हैं कि क्‍या आज़म खान के  बहू-बेटी-मां नहीं हैं, क्‍या वे उनके लिए भी ऐसा ही बोलते हैं। मगर जया जी, बात  तो यही है कि मां ने ही यदि संस्‍कार दिये होते तो आज़म खान बदजुबानी करते  ही नहीं। इसलिए चोर से ज्‍यादा चोर की मां ही दोषी है।

आमलोग इसे राजनीतिक गिरावट के रूप में देख रहे हैं, चुनाव आयोग ने भी  आज़म खान पर प्रतिबंध लगा दिया है, कानपुर की मेयर ने आज़म खान के  खिलाफ मुकद्दमा दर्ज़ करा दिया है, महिला आयोग ने भी संज्ञान लिया है...आदि  आदि वे प्रक्रिया हैं जो संस्थागत रूप से अपनी-अपनी प्रक्रियात्‍मक कार्यवाही बढ़ाती  रहेंगी।

परंतु...परंतु सवाल तो यह है कि क्‍या ये सब पहली बार है, क्‍या आज़म पहले  व्‍यक्‍ति हैं ऐसा कहने वाले, क्‍या जयाप्रदा अकेली हैं ऐसा सुनने वाली, सड़क से  लेकर घरों तक क्‍या हममें से अधिकांश ऐसे वाकियातों से रोजबरोज रूबरू नहीं  होते। क्‍या हम नहीं जानते कि पुरुष जब भी स्‍वयं को कमजोर और कमतर  समझता है तो महिला के शरीर और उसकी स्‍वतंत्रता को ही भिन्‍न-भिन्‍न लांक्षनों  से शिकार बनाता है। इसीलिए आखिरी हथियार के रूप में सारी गालियों का  शब्‍दांकन महिला के अंगों से चलकर उसी के चरित्र पर जाकर ठहरता है।

ये अलग बात है कि पुरुषों के डॉमिनेट करने के ये अंदाज़ उन्‍हीं को कठघरे में भी  खड़ा करते रहे हैं। दरअसल गालियां उन कुसंस्‍कारों का आइना होती हैं जो बच्‍चे  की परवरिश, मनोविकार और कमजोरी को ढकने के लिए बचपन में ही पिरो दिए  जाते हैं।

हालांकि ये भी दुखद है कि गालियों द्वारा शक्‍ति प्रदर्शन की इस अनोखी विधा पर  महिलाओं ने भी सरेआम जोर-आजमाइश शुरू कर दी है, बदजुबानी का संक्रामक  पक्ष अब उन्‍हें भी जद में ले रहा है।

अब लड़कियों को भी इस ''गालीगिरी'' में फंसकर लड़कों की भांति मां-बहन की  छूछ गाली बकते सुना जा सकता है। स्‍वतंत्रता का ये विध्‍वंसक रूप अभी नया है  परंतु इसके आफ्टर इफेक्‍ट्स आने वाली पीढ़ियों के लिए भयावह हो सकते हैं  क्‍योंकि अब चोर की मां ही स्‍वयं चोर को सही ठहराने चल पड़ी है।

फिलहाल आज़म खान के ज़रिए ही सही, अब इतने ऊंचे मंचों से टपकते ''समाज  के कोढ़'' को कार्यवाही की ज़द में लाया तो गया। वरना इससे पहले ऐसे कई  उदाहरण हैं जब बड़े-बड़े नेता अपनी ''रसिया प्रवृत्‍ति'' का सरेआम प्रदर्शन चुके हैं।  सैफई महोत्‍सव की ''उत्‍सवी रातों'' के बारे में कौन नहीं जानता।

आज़म खान के इसी मंच पर बैठे अखिलेश यादव की जयाप्रदा संबंधी इस  लज्‍जाजनक बयान को लेकर चुप्‍पी, महिलाओं पर अत्‍याचारों के बावत महिला  पत्रकार से उल्‍टा प्रश्‍न करना कि आपके साथ तो नहीं हुई ना छेड़खानी, मुलायम  सिंह का बलात्‍कार पर ये कहना कि लौंडों से गलती हो जाती है, तमाम ऐसे वाकये  हैं जिनकी मानसिकता कोई आज़म खान से अलग नहीं है। सोचकर देखिए इनके  संपर्क में आने वाली महिलायें किस वीभत्‍स माहौल में जीती होंगी।

बदजुबानियों का ये युद्ध, हमारे ( पुरुष व महिला दोनों ही के) लिए सबक भी है  और सुधरने के लिए चेतावनी भी, जिसे सिर्फ बेहतर संस्‍कारों से ही सकारात्‍मकता  की ओर मोड़ा जा सकता है ताकि राजनीति ही क्‍यों बल्‍कि सड़कों व घरों में भी  हम इस आतंक से बचे रह सकें। तो ''चोर की मां'' बनने से पहले हम ''सिर्फ मां''  बनें जिससे कोई आज़म फिर किसी महिला के अंडरवियर का रंग बताने की  हिम्‍मत ना कर सके और ना ही हमारी बेटियां गालियों के दलदल में खुद की  स्‍वतंत्रता ढूंढ़ने पर मजबूर हों। 

- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

राम की शक्‍ति पूजा और स्‍वशक्‍ति जागरण

चैत्र नवरात्रि की विदाई व रामनवमी का त्‍यौहार हो और ”राम की शक्‍ति पूजा” की बात ना हो, तो चर्चा कुछ अधूरी ही लगती है।
शक्‍तिपूजा अर्थात् नकारात्‍मकता से लड़ने को स्‍वशक्‍ति का जागरण। और इसी स्‍वशक्‍ति जागरण पर पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने रचा था ३१२ पंक्तियों का छंद काव्‍य ” राम की शक्‍तिपूजा”। यह स्‍वशक्‍ति के जागरण का ही प्रभाव था कि मर्यादा पुरुषोत्‍तम श्रीराम ने शक्‍तिपूजा के समय एक कमलपुष्‍प कम पड़ने पर अपने नेत्र को अर्पण करने का साहस किया।
और इस तरह अधर्म पर धर्म की विजय को शक्‍ति आराधना के लिए एक कमल पुष्‍प की कमी पूरी करने को अपने नेत्र देने हेतु तत्‍पर हुआ पुरुष महानायकत्‍व का सर्वोत्‍कृष्‍ट उदाहरण बन गया। अपने नेत्र देवी को समर्पित करने के लिए तूणीर उठा लिया था, सहर्ष समर्पण की ये मिसाल ही श्रीराम को भगवान और महानायक बनाती है। वो महानायक जो सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के लिए प्रतिपल जुटा रहा, इसीलिए तो आज भी श्रीराम जनजन के हैं, संभवत: इसीलिए वे भगवान हैं।
निराला की पंक्‍तियों के अनुसार-
“यह है उपाय”, कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”
शक्‍ति की आराधना और महानायकत्‍व की स्‍थापना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसके लिए आज का दिन हम सनातनधर्मियों के लिए विशेष महत्‍व रखता है। जहां हम अपनी आंतरिक शक्‍तियों को जगाकर महानायकत्‍व की यात्रा की ओर कदम बढ़ाते हैं।
इस यात्रा में जो कुछ ”किंतु-परंतु” हैं भी तो वे हमारे स्‍वजागरण के बाद ही पूरे हो सकते हैं। निश्‍चित ही ना तो ये समय त्रेता युग के श्री राम का है और ना ही तूणीर उठाकर संकल्‍प सिद्धि का परंतु छोटे छोटे कदमों से ही लंबी यात्रा पूरी की जा सकती है, तो क्‍यों ना वैचारिक स्‍वतंत्रता, समाज व राष्‍ट्र को श्रेष्‍ठ, संपन्‍न व सुरक्षित बनाने के कुछ संकल्‍प स्‍वयं से किए जायें जिसमें व्‍यक्‍तिगत स्‍वतंत्रता तो हो परंतु उच्‍छृंखलता ना हो, अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी हो परंतु देश व व्‍यक्‍ति की अस्‍मिता से खिलवाड़ ना हो।
निश्‍चितत: समाज की प्रथम इकाई अर्थात् स्‍वयं हम और हमारे विकास के लिए भी स्‍वशक्‍ति का जागरण अब समय की अनिवार्यता है क्‍योंकि स्‍वशक्‍ति को जाग्रत किये बिना हम वंचित कहलायेंगे और वंचित बने रहना, दयनीय दिखते या दिखाते रहना रुग्‍णता है, और रुग्‍णता ना तो व्‍यक्‍ति को शक्‍तिवान बनाती है ना ही समाज को।
हालांकि स्‍वशक्‍ति जागरण की इस यात्रा को कुछ अतिक्रमणों से भी गुजरना पड़ रहा है जिसमें शामिल है- रात रात भर आवाजों के सारे डेसीबल तोड़ती देवीजागरण, जहां ”लाउडस्‍पीकर का शक्‍तिजागरण” तो होता है परंतु व्‍यक्‍तियों की सारी शक्‍ति इन आवाजों की भयंकरता से जूझते ही बीत जाती है।
बहरहाल समाज में मूल्‍यों की स्‍थापना के लिए महानायक अथवा महानायिका कहीं अलग से उतर कर नहीं आते, यह तो आमजन के बीच से ही निकलते हैं। शक्‍ति की आराधना के बाद भगवान राम की भांति ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए कार्य करना ही आज के इस पर्व का अभीष्‍ट होना चाहिए।
- अलकनंदा सिंह