शनिवार, 26 मई 2018

कन्नड़ लोक कथा पर बनी संस्‍कृत भाषा की पहली animated फिल्‍म ‘पुण्‍यकोटि’

आज एक कन्नड़ लोक कथा पुण्‍यकोटि का ट्रेलर आया, जन-सहयोग से बनी ये animated फिल्‍म हमें यूट्यूब पर देखने को मिली, वह भी संस्‍कृत में।
सबसे अधिक ध्‍यान देने की बात संस्‍कृत के शब्‍दों का स्‍तर कतई प्राथमिक है। ये कहानी है पुण्यकोटि गाय की जिसे हम सबसे मनोरंजक रूप अर्थात् वीडियो में तो देखेंगे ही साथ ही प्राथमिक संस्‍कृत को आसानी से समझ भी सकेंगे।
देवभाषा संस्‍कृत को इतने मनोरंजक रूप में सामने लाने के लिए इस एनीमेटेड वीडियो फिल्‍म के निर्माता सचमुच बधाई के पात्र हैं।
स्‍क्रिप्‍ट और डायरेक्‍शन रविशंकर का है, ट्रेलर का म्‍यूजिक हर्षवर्द्धन ने दिया है। संस्‍कृत परामर्श प्रोफेसर एस आर लीला द्वारा दिया गया है। चूंकि यह फिल्‍म भाषा और संस्‍कृति के लिए समर्पण के तौर पर बनाई गई है और इसके लिए निर्माता को आर्थिक सहयोग की आवश्‍यकता है इसलिए पुण्‍यकोटि टीम की ओर से रेवती,राजा व एमडी पई की ओर से सहायता मांगी गई है।

वीडियो की झलकी आप भी देखिए-


लोक कथा कुछ इस तरह है-
कलिंग नामक एक ग्वाला पहाड़ के निकट अपनी गायों के साथ बहुत सुख-सन्तोष से रहता था। उसकी गायों में पुण्यकोटि नाम की एक गाय थी, जो अपने बछड़े को बहुत प्यार करती थी। प्रतिदिन संध्या समय वह रंभाती और दौड़ती हुई घर लौट आती थी।
उसी पहाड़ में एक शेर भी रहता था। एक बार बहुत दिनों तक उसे कुछ खाने को नहीं मिला। उसने एक दिन शाम को पुण्यकोटि गाय को रोक कर कहा — ‘ मैं तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा।’
पुण्यकोटि ने शेर से विनय के साथ कहा – ‘ मुझे घर जाने दो, बछड़े को दूध पिलाने के बाद मैं स्वयं तुम्हारे सम्मुख हाजिर हो जाउंगी।’
पहले तो शेर ने उसकी बात न मानी, पर जब पुण्यकोटि ने विश्वास दिलाया कि वह निश्चय ही वापस आने का वचन दे रही है, तो शेर ने कहा — ‘अच्छा, तुम जा सकती हो, लेकिन अपना वचन निभाना न भूलना।’
गौशाला में बछड़े को दूध पिलाते समय पुण्यकोटि ने उसको वह समाचार दिया और आँखों में आँसू भर कर अपने बछड़े से विदा ली। बाहर निकलते समय उसने बछड़े से कहा — ‘ बेटा, सावधानी से और नम्र भाव से रहना।’
फिर पुण्यकोटि ने अन्य गायों से कहा — ‘बहनों, मैं तो जा रही हूँ, लेकिन मेरे बछड़े को अपना बच्चा समझकर इसका ध्यान रखना।’
फिर पुण्यकोटि ने शेर के पास जाकर कहा — ‘लो, मुझे खा लो।’
शेर ने सोचा कि इतनी अच्छी गाय को अपना आहार बना लेना तो बहुत बुरा होगा। यह सोचकर उसने उस गाय को छोड़ दिया और आगे के लिए अन्य सब गायों को भी अभयदान दे दिया।
-Legend News

शुक्रवार, 25 मई 2018

गुलजारे दाग़, आफ्ताबे दाग़, माहतादे दाग़, यादगारे दाग़

दाग़ देहलवी: चित्र गूगल से साभार
उर्दू के प्रसिद्ध शायर दाग़ देहलवी का वास्तविक नाम नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ था, आज उनका यानि 25 मई को जन्मदिन है।उर्दू के प्रसिद्ध शायर दाग़ देहलवी का जन्म 1831 में हुआ था। दाग़  को उर्दू जगत् में एक शायर के रूप में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरियों में दिल्ली की तहज़ीब नज़र आती है। 
गुलजारे दाग, आफ्ताबे, दाग, माहतादे दाग तथा यादगारे दाग इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। 'फरियादे दाग', इनकी एक मसनबी है। इनकी शैली सारल्य और सुगमता के कारण विशेष लोकप्रिय हुई। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी कविता कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।
शरीर पर जख्म हों तो जाहिर है काफी तकलीफ होती है, जख्म भर जाने के बाद उसका दाग़ रह जाता है जो उस हादसे की याद बन जाता है। यह जख्म या दुर्घटना को याद तो दिलाता है लेकिन पर हादसे की तकलीफ नहीं देता। क्या हो गर जख्म दिल पर लगे हों? अव्वल तो ये आसानी भरते नहीं, भर भी जाएं तो इनके दाग़ जेहन से कभी मिटते नहीं और ये दाग़ ताउम्र हादसे की याद दिलाते हैं, वह भी पूरे दर्द के साथ। मशहूर शायर दाग़ देहलवी की जिंदगी कुछ ऐसे ही दागों बनी थी, भरी थी। सभी को मालूम है कि दाग़ देहलवी की शायरी इश्क़ और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।
दाग़ के हजारों लाखों मुरीद भी हैं। उनमें से कई ऐसे हैं जो ना तो शायर हैं, ना ही मशहूर हैं। उनको तमाम बड़े गज़ल गायकों ने गाया है। दाग़ का निधन 1905 में हुआ था। इनका जन्म स्थान दिल्ली के लाल किले को माना जाता था। दाग़, बहादुर शाह जफर के पोते थे। इनके पिता शम्सुद्दीन खां नवाब लोहारू के भाई थे। दाग़ के पिता का जब इंतकाल हुआ तब वह चार वर्ष के थे। बाद में दाग़ ने जौक को अपना गुरु बनाया। गुलजारे दाग़, आफ्ताबे दाग़, माहतादे दाग़, यादगारे दाग़ इनके चार दीवान हैं। फरियादे दाग़ इनकी एक मसनबी है।
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किसका था
जला के दाग़-ए-मोहब्बत ने दिल को ख़ाक किया
बहार आई मेरे बाग़ में ख़िज़ाँ की तरह
…कि बराबर आग लगती
ये मजा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे करार होता, न मुझे करार होता
कोई नामो-निशां पूछे तो ऐ कासिद बता देना
तख़ल्लुस दाग है और आशिकों के दिल में रहते हैं
गजब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात कयामत का इंतजार किया
मोहब्बत ने दिल को खाक किया
जला के दागे मोहब्बत ने दिल को खाक किया
बहार आई मेरे बाग में खिजां की तरह
खुदा रक्खे मुहब्बत ने किए आबाद घर दोनों
मैं उनके दिल में रहता हूं वो मेरे दिल में रहते हैं
आती है बात बात मुझे बार बार याद
कहता हूँ दौड़ दौड़ के क़ासिद से राह में
उठती क़यामत माजरा क्या है
इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं
डरते हैं चश्म ओ ज़ुल्फ़ ओ निगाह ओ अदा से हम
हर दम पनाह माँगते हैं हर बला से हम
कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी
ख़बर सुन कर मेरे मरने की
ख़बर सुन कर मेरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियां थीं मरने वाले में
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
याद आता है हमें हाए ज़माना दिल का
ऐश उनको ग़म भी होते हैं
फ़लक देता है जिन को ऐश उनको ग़म भी होते हैं
जहां बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं
होश आते ही हसीनों को क़यामत आई
आँख में फ़ित्नागरी दिल में शरारत आई
न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का
परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता।
खुलता नहीं है राज़
खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से
लेते हैं दिल का काम हम अपनी ज़बान से
कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी
अदा-ए-मतलब-ए-दिल हम से सीख जाए कोई
उन्हें सुना ही दिया हाल दास्ताँ की तरह। 
प्रस्‍तुति : अलकनंदा सिंह

शनिवार, 19 मई 2018

20 मई याद है ना आपको ?

आज 20 मई है, देश के अन्‍य शिक्षा बोर्ड्स की तो नहीं मालूम मगर 3 दशक पहले तक  हमारे यूपीबोर्ड के स्‍कूल और इंटर कॉलेजों में इस दिन एक अलग किस्‍म के त्‍यौहार  का नजारा होता था। परीक्षायें खत्‍म होने के बाद 20 मई घड़ी के उस कांटे की तरह होती  थी, जो हमारी और हमारे माता-पिता की प्रत्‍याशा को पेंडुलम की तरह कभी इधर तो कभी  उधर घुमाती रहती थी। कभी-कभी कोई एकादि मामला नकल का देखने-सुनने में भले ही  आ जाता था, लेकिन वह भी बड़ी शांति से समझबूझ कर निपटा लिया जाता था।

आपने भी महसूस किया होगा कि नंबरों की मारकाट तथा प्रथम और सर्वश्रेष्‍ठ आने जैसी आपाधापी तीन दशक पहले तक नहीं थी। बच्‍चों के ऊपर दिन-रात पढ़ाई करने का दबाव डालने वाले माता-पिता भी नहीं थे और ना ही बंधुआ मजदूर की भांति सर्वश्रेष्‍ठ की रेस में डिप्रेशन और एंजाइटी को मोल लेते बच्‍चे थे। शिक्षा एक ध्‍येय थी, बिजनेस और रेस नहीं। आप को भी याद होगा कि 60 प्रतिशत लाने वाला महाराजा की भांति होता था, और 45 प्रतिशत वाला भी अलग ही ठसक रखता था।

औसत प्राप्तांक करके भी दुनिया जीतने की खुशी महसूस करने वाले हम और हमारे जैसे  अनेक विद्यार्थियों ने 20 मई के रोमांच को अपने दौर में जिस शिद्दत से महसूस किया है,  वो इस तारीख को क्‍या कभी भूल पाएंगे? 20 मई को रिजल्‍ट और 8 जुलाई को स्‍कूलों के  खुलने की निश्‍चित तिथि निश्‍चित ही सबके जेहन में बनी होगी। वर्तमान की आपाधापी  वाली शिक्षा और सब-कुछ पा लेने वाली अंधी दौड़ में कुछ भी महसूस न कर पाने की  शक्‍ति खोकर हम मशीनों में तब्‍दील हो गए हैं।

तभी तो अब ''गर्मियों की छुट्टियां'' नहीं  होतीं, ''समरकैम्‍प्‍स'' होते हैं। ऐसे समर कैम्‍प्‍स जिनमें ''एक्‍टिविटी-सेंटर्स' की आड़ लेकर  बच्‍चों को फिर उसी तरह कैद कर दिया जाता है जिस तरह वो स्‍कूली दड़बों में कैद रहते  हैं। रेस तो वहां भी बनी रहती है ना। शाम को पार्क में एकत्रित होने वाली इन ''एबेकसी  बच्‍चों'' की मांएं अपने अपने बच्‍चे की प्रोग्रेस रिपोर्ट के साथ ''समरकैम्‍पीय चिंताओं'' में  व्‍यस्‍त देखी जा सकती हैं।

ज़रा सोचिए कि इन एबेकसी-बच्‍चों की फैक्‍ट्री क्‍या कभी अपने रिजल्‍ट मिलने वाले दिन  का रोमांच महसूस कर पाएगी?

ऐसे अनेक प्रश्‍न और अनेक ''क्‍या-क्‍यों व कब तक'' मेरे ज़हन में घुमड़ते हैं कि इस  बेमतलब चिंता में जीने वाले लोगों की अगली तबाही कौन लिखेगा...क्‍या अब किसी और  दौड़ की तैयारी हो रही है...या फिर नए धावकों के कलपुर्जे जुटाए जा रहे हैं...एबेकस के  माध्‍यमों से। किसी एक तारीख का रोमांच महसूसने की तासीर भला इस रेस में कौन  महसूस कर सकेगा।

-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 11 मई 2018

पत्रकारिता की भाषा में 'नुक्‍़ता' लगाना अब कोई नहीं जानता

भाषा की शुद्धता का मज़ाक बनाकर रख रहे हैं हिंदी के पत्रकार 

दुनियभर में सोशल मीडिया अथवा ऐसे ही माध्‍यमों के कारण समाचारों की अधिकता हो गई है मगर इस बीच हिंदी पत्रकारिता करने वालों ने अपनी भाषा का जो मज़ाक बनाकर  रख दिया है, वह बेहद दुखद है। अब हर वर्ण, अक्षर, वाक्‍य में जो कुछ समझ आ रहा है, वही लिख दिया जा रहा है, बस लिखना है इसलिए लिखा जा रहा है। बगैर यह सोचे कि क्‍या सही है और क्‍या ग़लत।

पत्रकारिता में नुक़्ते की गैरमौजूदगी अब पूरी की पूरी भाषा को गर्त में ले जा रही है।बेहतर हो कि हर पत्रकार को अपनी बात कहने के साथ साथ भाषा को भी बचाना होगा और इसलिए ज़रूरी है कि नुक्‍ते का ज्ञान कर लिया जाए। यूं तो मूल रूप से ‘नुक़्ता’ अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब ‘बिंदु’ होता है। साधारण हिन्दी-उर्दू में इसका अर्थ ‘बिंदु’ ही होता है लेकिन अब इस बिंदु को बेेमानी बनाकर रख दिया है और फिलहाल हिंग्‍लिश मिश्रित हिंदी ही पत्रकारिता के चलन में है।

नुक़्ता क्‍या है
नुक़्ता किसी व्यंजन अक्षर के नीचे लगाए जाने वाले बिंदु को कहते हैं। इस से उस अक्षर का उच्चारण परिवर्तित होकर किसी अन्य व्यंजन का हो जाता है। मसलन 'ज' के नीचे नुक्ता लगाने से 'ज़' बन जाता है।

नुक़्ते ऐसे व्यंजनों को बनाने के लिए प्रयोग होते हैं जो पहले से मूल लिपि में न हों, मूल हिन्दी भाषा में नुक़्ते का (या नुक्ते का?) कोई काम नहीं है। मूल भारतीय हिन्दी भाषा में ऐसे शब्द हैं ही नहीं जिन के लिए नुक़्ते का प्रयोग ज़रूरी हो, क्षमा करें, जरूरी हो। देवनागरी लिपि नुक़्ते के बिना ही हिन्दी के हर अक्षर, हर ध्वनि को लिखने में सक्षम है। हाँ इस में जब अरबी-फारसी (उर्दू के द्वारा) या अंग्रेज़ी के शब्द जोड़े गए, और उन का सही उच्चारण करने की ज़रूरत महसूस हुई तो उन के लिए नुक़्ता प्रयोग में लाया गया।। अरबी-फ़ारसी लिपि में भी अक्षरों में नुक़्तों का प्रयोग होता है, उदाहरणार्थ 'ر‎' का उच्चारण 'र' है जबकि इसी अक्षर में नुक़्ता लगाकर 'ز‎' लिखने से इसका उच्चारण 'ज़' हो जाता है।

इन भाषाओं में ज एवं ज़, दोनों ही शब्द उपलब्ध एवं प्रयोग होते हैं, इनके अलावा एक अन्य ज़ भी होता है जिनके लिये निम्न शब्द प्रयोग होते हैं: ज के लिये जीम, ज़ के लिये ज़्वाद (ض)/ज़े (ژ‬)/ ज़ाल(ذ)/ज़ोए (ظ) - ये चार अक्षर होते हैं। यहां ध्यान योग्य ये है कि चार अक्षर ज़ के लिये होने के बावजूद ज के लिये जीम (ج) होता ही है। अतः जीम का प्रयोग भी होता है, जैसे जज़्बा में ज एवं ज़ दोनों ही प्रयुक्त हैं। ऐसे ही बहुत स्थानों पर ग के लिये गाफ़ (گ) एवं ग़ (غ) के लिये ग़ैन का भी प्रयोग होता है।

मूल रूप से 'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब 'बिंदु' होता है। साधारण उर्दू में इसका अर्थ 'बिंदु' ही होता है।

हिन्दी में नुक़्ता के प्रयोग के विषय में मानक

नुक़्ता लम्बे समय से हिंदी विद्वानों के बीच विमर्श का विषय रहा है। किशोरीदास वाजपेयी (हिंदी शब्दानुशासन, नागरी प्रचारिणी सभा) जैसे व्याकरण के विद्वान हिन्दी लेखन में नुक्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब शब्द अब हिंदी के अपने हो गए हैं और हिंदी भाषी इन शब्दों का उच्चारण ऐसे ही करते हैं जैसे उनमें नुक्ता नहीं लगा हो। बहुत कम लोगों को उर्दू के नुक्ते वाले सही उच्चारण का ज्ञान है।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी मानक हिन्दी वर्तनी के अनुसार उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो (जैसे उर्दू कविता को मूल रूप में उद्दृत करते समय) , वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक़्ता लगाए जाएँ, जैसे कि खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न ।

कुलमिलाकर बात इतनी सी है कि जब भाषा या ज़बान एक बहते पानी की तरह है। जो जहां से भी गुज़रती है वहां की दूसरी चीज़ों को अपने साथ समेटते हुए आगे बढ़ती है। एक ही धारा से ना जाने और कितनी धाराएं निकल पड़ती हैं। इसी तरह एक ही भाषा से ना जाने कितनी भाषाओं का जन्म होता है। जैसे संस्कृत से हिंदी और दूसरी ज़बानें वजूद में आईं।

इस पूरी यात्रा में भाषाओं की लिपि को सही अर्थों में लिखने की पद्धतियां ही भाषा को उच्‍चारण की शुद्धता तक ले गई परंतु आजकल पत्रकारिता में लिपि की जो दुर्गति हो रही है वह यह सोचने को अवश्‍य बाध्‍य कर देती है कि नुक्‍़ते की गैरमौज़ूदगी पूरी की पूरीखड़ी बोली का सत्‍यानाश करके छोड़ेगी।   

मंगलवार, 8 मई 2018

जीवन की प्रमेय में रत्‍नीबाई

हमने 10वीं कक्षा के गणित में पाइथागोरस प्रमेय को पढ़ा था। पढ़ा क्‍या था, बल्‍कि यूं कहिए…अपने गणित के अध्‍यापकों पर खिन्‍न होते-होते ‘बमुश्‍किल’ रटा था कि यदि किसी त्रिभुज की दो भुजाओं की लंबाई और उसके कोण ज्ञात हों तो तीसरी भुजा की माप ज्ञात की जा सकती है। 
देखिए नीचे चित्र में ------- 
तब उसे हम महज गणित की एक विधि मात्र जानकर रटते थे। तब उस उम्र में ये पता भी कहां था कि ये प्रमेय सिर्फ गणित के सवाल हल करने की विधिमात्र नहीं, जीवन के समकोणों की परस्‍पर विरोधी भुजाओं के एक निश्‍चित बिंदु पर मिलने का दर्शन बताने का रास्‍ता है। वो रास्‍ता जिसके आज बहुत गहरे मायने हैं। जी हां, तमाम विरोधाभासों, उलझनों को सुलझाने का सरल सा तरीका है ये, कि यदि हमें अपनी सोच का कोण पता हो और कोई एक ”विकल्‍प” भी समाने हो तो समस्‍या सुलझाने में देर नहीं लगती।
पिछले कई दिनों से कर्नाटक चुनाव, चीफ जस्‍टिस के खिलाफ महाभियोग का प्रस्‍ताव, जिन्‍ना की फोटो हटाए जाने से आहत एएमयू के छात्रों द्वारा की गई कथित आज़ादी की मांग, कश्‍मीर में समाजशास्‍त्र के एक असिस्‍टेंट प्रोफेसर का आतंकी बनते ही मारा जाना तथा पत्‍थरबाजों द्वारा एक पर्यटक की हत्‍या कर देना और रेप की अनगिनित खबरें सामने आईं जो देश के भीतर ”असहमतियों से उपजे युद्ध” सरीखी थीं।
ये खबरें हमारे सहिष्‍णु देश के कई वैचारिक व सहमति-असहमतियों के ‘समकोणों’ को दर्शाती हुई हमारे सामने आईं मगर इस सबके बीच एक खबर और भी थी जिस पर शायद ही किसी का ध्‍यान गया हो।
खबर यह थी कि रत्‍नीबाई अपनी चप्‍पलों को अलमारी में ताला लगाकर रखती हैं।
वही रत्‍नीबाई जो तेंदूपत्‍ता संग्राहक हैं, जो गोंडी बोली बोलती हैं, जिन्‍हें बीजापुर, छत्तीसगढ़ के जांगला कस्बे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हाथों से चप्‍पल पहनाई थीं, जिन्‍होंने चप्‍पल पहने बिना उम्र के लगभग साढ़े 6 दशक गुजार दिये (ये उन्‍होंने ही अनुमान से बताये), जिन्‍होंने किसी भी तरह के सम्‍मान का कोई मुगालता नहीं पाला, उन्‍हें पहली बार सम्‍मान मिला और वो भी स्‍वयं देश के प्रधानमंत्री के हाथों चप्‍पल पहनने का…उनके लिए सोचिए उन चप्‍पलों का महत्‍व और उस क्षण का रोमांच जो वो शायद ही अभिव्‍यक्‍त कर पायें। बुजुर्ग रत्नीबाई घर से खेत और खेत से जंगल तक अब भी नंगे पांव ही घूमती हैं, चप्पलों को तो उन्होंने अपने झोपड़ेनुमा घर के इकलौते कमरे में धान के बोरे में सहेजकर रख दिया है।
इतना ही नहीं, कमरे का ताला बंद …और चाबी रत्नीबाई के गले में। प्रधानमंत्री के हाथों मिली चप्पल को रत्नीबाई बेहद खास मौकों पर ही निकालती हैं, निहारती हैं, अपने तरीके से पोंछती हैं और इसके बाद उसे यूं पहनती हैं मानों पांव में चप्पल नहीं, किसी बादशाह ने सिर पर ताज धारण किया हो।
बीजापुर के ही ब्लॉक मुख्यालय भैरमगढ़ से सटे बंडपाल गांव में रत्नीबाई का भरा पूरा परिवार है, लेकिन संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं। मिट्टी के घर के बाहर महुआ सुखाती रत्नीबाई ने गले में सूत की डोरी से बंधी कमरे की चाबी दिखाते हुए गोंडी बोलती हैं ”मैं अपनी चप्‍पलों को ताला लगाकर रखती हूं, इसे मोदी ने दिया है, बाहर क्यों निकालूं भला। हर जगह पहनने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह बहुत खास चीज है, खास मौके के लिए ही है।”
सोचकर देखिए जहां देश में पढ़े लिखे लोग एक विभाजनकारी की तस्‍वीर को हटाने पर इतने पगलाए जा रहे हैं कि स्‍वयं विभाजनकारी सोच के तहत अपने ही देश में ही देश से आज़ादी की मांग कर रहे हैं, हमारे ही टैक्‍स पर पल कर हमसे ही द्रोह पाले बैठे हैं, मीडिया भी उन्‍हें ही खास तवज्‍जो देता है और कई कई घंटों की बहस कर डालता है, वहीं रत्‍नीबाई जैसे लोग भी हैं जिनकी सारी दुनिया उन बहुमूल्‍य ”चप्‍पलों” तक सिमटी है, जिन्‍हें खुद प्रधानमंत्री ने उनके पैरों में पहनाया था।
कितने सरल, कितने सहज भावों से युक्‍त रत्‍नीबाई देश के विभाजनकारियों और उनकी जैसी सोच रखने वाले कथित सेक्‍यूलरिस्‍ट्स के लिए एक सबक हैं कि आमजन की तरह सोचकर देखिए तो सही, अपनी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगेगी।
देश के दो टुकड़े करने वाले द्रोहकारी व्‍यक्‍ति की तस्‍वीर को छाती से लगाकर कुछ भी ना मिलेगा सिवाय घृणा के। मन में द्रोह पालकर कभी किसी का भला नहीं हुआ।
रत्‍नीबाई बन कर देखिए…देश के विकास के हर कोण, देश में फैली सारी भुजाऐं अपने आप पाइथागोरस प्रमेय की तरह उस तीसरी भुजा को सामने ले आऐंगी जो विपरीत सोचों को जोड़कर एक भावमय और प्राणवान देश बनाती हैं। जीवन की प्रमेय में रत्‍नीबाई हमारी हीरो हैं ना कि पत्‍थरबाज और जिन्‍ना समर्थक।
-अलकनंदा सिंह 

रविवार, 6 मई 2018

रवीन्द्रनाथ टैगोर जयंती विशेष

भारतीय राष्ट्रगान के रचयिता और काव्य, कथा, संगीत, नाटक, निबंध जैसी साहित्यिक विधाओं में अपना सर्वश्रेष्ठ देने वाले और चित्रकला के क्षेत्र में भी कलाकार के रूप में अपनी पहचान कायम करने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को जोड़ासांको में हुआ था।
साहित्य, संगीत, कला और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी अनूठी प्रतिभा का परिचय देने वाले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे मानवतावादी विचारक थे जिन्हें प्रकृति का सान्निध्य काफी पसंद था। उनका मानना था कि छात्रों को प्रकृति के सान्निध्य में शिक्षा हासिल करनी चाहिए। अपनी इसी सोच को ध्यान में रखकर उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की थी।
टैगोर दुनिया के संभवत: एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो देशों ने अपना राष्ट्रगान बनाया। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रवींद्रनाथ ने देश और विदेशी साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि को अपने अंदर समाहित कर लिया था और वह मानवता को विशेष महत्व देते थे। इसकी झलक उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है।
साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अपूर्व योगदान दिया और उनकी रचना ‘गीतांजलि’ के लिए उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। समीक्षकों के अनुसार उनकी कृति ‘गोरा’ कई मायनों में अद्भुत रचना है। इस उपन्यास में ब्रिटिश कालीन भारत का जिक्र है। राष्ट्रीयता और मानवता की चर्चा के साथ पारंपरिक हिन्दू समाज और ब्रह्म समाज पर बहस के साथ विभिन्न प्रचलित समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है।
चर्चित रचनाकार महीप सिंह के अनुसार ‘गोरा’ बेहतरीन कृति है जिसमें अंग्रेज दंपत्ति की संतान हिन्दू परिवार में पलती है। उसके माता-पिता नहीं हैं और उसे नहीं मालूम है कि वह ईसाई है। वास्तविकता की जानकारी मिलने पर वह परेशान हो जाता है और इसके साथ ही उसके विचार में व्यापक बदलाव आ जाता है।
भारत पाकिस्तान विभाजन पर केंद्रित ‘पानी और पुल’ जैसी चर्चित कहानी लिखने वाले महीप सिंह के अनुसार यह अपने समय को दर्शाने वाली बेहतरीन कृति है जिसमें धर्म, समाज जैसे मुद्दों से ज्यादा मानवीय संबंधों पर जोर दिया गया है। गोरा हिंदू, ईसाई आदि बातों को व्यर्थ मानते हुए मानवीय संबंधों को महत्वपूर्ण मानने लगता है।
गुरुदेव सही मायनों में विश्व कवि होने की योग्यता रखते हैं। उनके काव्य के मानवतावाद ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई। टैगोर की रचनाएँ बांग्ला साहित्य में नई बहार लेकर आई। उन्होंने एक दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे। इन रचनाओं में ‘चोखेर बाली, घरे बाहिरे, गोरा’ आदि शामिल हैं। उनके उपन्यासों में मध्यम वर्गीय समाज विशेष रूप से उभर कर सामने आया है।
रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं में उनकी रचनात्मक प्रतिभा मुखर हुई है। उनकी कविताओं में प्रकृति से अध्यात्मवाद तक के विभिन्न विषयों को बखूबी उकेरा गया है। साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जिनमें उनकी रचना नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी में अपने सशक्त लेखन का परिचय दिया। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ।
रवींद्रनाथ के नाटक भी अनोखे हैं। वे नाटक सांकेतिक हैं। बचपन से ही रवींद्रनाथ की विलक्षण प्रतिभा का आभास लोगों को होने लगा था। उन्होंने पहली कविता सिर्फ आठ साल में लिखी और केवल 16 साल की उम्र में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई थी। उन्होंने दो हजार से अधिक गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित उनके गीत मानवीय भावनाओं के विभिन्न रंग पेश करते हैं। गुरुदेव बाद के दिनों में चित्र भी बनाने लगे थे। रवींद्रनाथ ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित दर्जनों देशों की यात्राएं की थी। सात अगस्त 1941 को उनका देहावसान हो गया।


- Legend News

मंगलवार, 1 मई 2018

अभी और कितना गिरना बाकी है...


आज जिसे देख-सुनकर मैं व्‍यथित हूं, निश्‍चित ही आप भी होंगे,  दिनभर में कई घटनाओं से हम सभी पत्रकार रूबरू होते हैं मगर  इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो रात को भी सोने नहीं देतीं। जो  अपनी ही सांस से भी डराती हैं कि अगली बारी किसकी...? खासकर  गांव-गिरांव से आ रही खबरें इतनी वीभत्‍स होती हैं कि गांवों की  निश्‍छलता के सारे मापदंड ध्‍वस्‍त होते दिखते हैं। अब किसी एक की  बेटी ये मानकर निश्‍चिंत नहीं हो सकती कि वह पूरे गांव की बेटी  है। शहरों में रिश्‍तों के तार तो पहले ही ध्‍वस्‍त हो रहे थे और अब  इनकी चिंगारी गांव तक जा पहुंची है। यौन हिंसा करना और इसका  वीडियो वायरल कर देना जैसे अब गांव के बच्‍चों का मुंह लगा  अपराध होता जा रहा है।

हर दूसरे रोज बलात्‍कार और यौन हिंसकों की खबरों के बीच कल  बिहार के जहानाबाद से एक और वायरल हुए वीडियो की खबर ने  एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया। आखिर ऐसा क्‍या है जो  किशोरवय के बच्‍चे भी इतने हैवान, इतनी घिनौनी सोच वाले होते  जा रहे हैं कि उन्‍हें न किसी कानून का भय है और ना ही रिश्‍तों का  लिहाज।

घटना के अनुसार  28 अप्रैल की रात जहानाबाद पुलिस को एक  वीडियो मिला जिसमें दिख रहा था कि आधा दर्जन लड़कों ने एक  नाबालिग लड़की को घेर रखा है। ये आवारा लड़के उस लड़की के  साथ न सिर्फ अश्लील हरकत करते दिख रहे हैं बल्‍कि उसके शरीर  से खेल रहे थे। वीडियो में लड़की करीब 5-6 हैवान लड़कों से इज्जत  की गुहार लगाती रही। वीडियो में लड़की को भइया मेरी इज्जत मत  लो, मेहरबानी करो भइया, प्लीज कहते साफ सुना जा सकता है।  वीडियो में लड़के उस युवती की पिटाई भी कर रहे हैं और उसे  अपशब्द भी कहते दिख रहे हैं। वीडियो में लड़की के कपड़े फटे दिख  रहे हैं। हालांकि कुछ लड़के उन हैवान लड़कों को रोकते भी दिखाई  दिए किंतु उनकी कोई सुन नहीं रहा था। वीडियो में ज्यादातर कम  उम्र के लड़के हैं। ये हैवान उस लड़की से छेड़छाड़ के दौरान उसके  मां-बाप का नाम भी पूछ रहे थे। हालांकि तारीफ करनी होगी पुलिस  तत्‍परता की कि जिसने उस फोन को जल्‍द बरामद कर लिया  जिससे वह वीडियो बनाया गया था। वीडियो में दिख रहे दो  आरोपियों के चेहरों का मिलान हो गया है, जबकि वीडियो क्लिप  बनाने वालों की पहचान नहीं हो सकी है। आरोपियों से पूछताछ में  4-5 अन्य लोगों के नाम मालूम हुए हैं और उनकी तलाश के लिए  सर्च ऑपरेशन जारी है। ये तो रही पुलिस की कार्यवाही, और वह  पूरी मुस्‍तैदी से की जा रही है।

अब यदि नैतिकता की धज्‍जियां उड़ाते इस वीडियो को लेकर  ''जिम्‍मेदारी तय'' करने के लिए किसी बौद्धिक जन से पूछें तो वह  पुलिस को, सिस्‍टम को गरियाते हुए यही कहेगा कि लोगों में कानून  का भय नहीं रह गया है, सरकारें अपनी राजनीति करती हैं, यौन  हिंसा को धर्म-जाति-क्षेत्र आदि में बांटकर देखती हैं आदि आदि।
किसी सोशल वर्कर से पूछिए तो वह इसे बच्‍चों को सोशल मीडिया  की लत या यौन विषयों की अधकचरी जानकारी होने पर टाल देगा।  और तो और फेमिनिस्‍ट इसे महिलाओं पर अत्‍याचार कहकर उनकी  ''और अधिक स्‍वतंत्रता'' के लिए झंडे उठाकर चल देंगे।
मनोचिकित्‍सक से पूछ कर देखेंगे तो वह अपने कैमिकल इक्‍वेशन  से समझाने लगेगा कि आखिर क्‍यों यौन हिंसा बढ़ रही है। किसी  धार्मिक जन से पूछें तो वह ईश्‍वर का प्रकोप और अधर्म बढ़ने को  जिम्‍मेदार मानेगा तथा पूजा-पाठ, संतों की सेवा, चढ़ावा आदि तक  इसके उपाय बता देगा। पर इस पूरी अपराधिक मनोवृत्‍ति की  संक्रामकता का ना तो कोई सटीक जवाब है और ना ही मिल सकता  हैं।
दरअसल यह कोई रोग नहीं, यह मानसिकता है जिसकी शुरुआत घर  से ही होती है, हम यानि मांएं इसकी भयंकरता और इसकी  संक्रामकता के लिए जिम्‍मेदार हैं। जी हां, पूर्णरूपेण हम ही  जिम्‍मेदार हैं। अपनी जिम्‍मेदारी हम ना तो आर्थिक हालातों,  सामाजिक दबावों और ऐसी अन्‍य मजबूरियों पर थोप सकते हैं और  ना ही इसके लिए किसी और दोषी बता सकते हैं क्‍योंकि बच्‍चे का  जन्‍म हमारी कोख से होता है। हम ही उसे पालते हैं, हम ही उसे  पहला ग्रास देते हैं। हम ही उसे रिश्‍ते-नाते, सम्‍मान, नैतिकता,  रहन-सहन तथा तमीज़ सिखाते हैं। मैं ये मानने को तैयार ही नहीं  कि किसी भी स्‍तर, किसी भी परिवेश की मां अपने बच्‍चे को ''ये  सब नहीं सिखा सकती'', ना सिखा पाने के लिए कोई बहाना उसकी  निकृष्‍टता को कम नहीं कर सकता। 
यह अब किसी से छुपा नहीं है कि समाज में फैली अधिकांश  कुरीतियों के लिए तो महिलाएं ही जिम्‍मेदार होती हैं, चाहे वह दहेज  प्रथा हो, विधवाओं की दुर्दशा हो, कन्‍या भ्रूण हत्‍या हो, बच्‍चियों की  अशिक्षा अथवा उनके कुपोषण का मामला ही क्‍यों न हो। हालांकि  इस सबके लिए टारगेट हमेशा पुरुषों को किया गया और महिलाएं  विक्‍टिम बनीं रहीं।
मगर अब महिलाओं का यही विक्‍टिमाइजेशन अपने दुष्‍प्रभाव दिखाने  लगा है। अब वे अपने बच्‍चों को संस्‍कार तथा नैतिक-अनैतिक न  सिखा पाने की अपनी नाकामी को यह कहकर कि ''हम कर ही क्‍या  सकते हैं, समय ही खराब है, मोबाइल फोन ने बच्‍चों का दिमाग  खराब कर दिया है।'' जैसे जुमले गढ़कर बच नहीं सकतीं। यहां वो  कहावत एकदम फिट बैठती है कि चोर को नहीं, चोर की मां को  मारो...। ये तो हम मांओं को सोचना होगा कि हम क्‍या बनना  चाहती हैं। आधुनिक राक्षसों की मां या कौशल्‍या और सुमित्रा सरीखी  मांओं का उदाहरण प्रस्‍तुत करने वाली मा। एक रास्‍ता चुनने का  समय आ गया है क्‍योंकि अब हम अपने बच्‍चों को इससे भी ज्‍यादा  गर्त में नहीं गिरा सकते।
दुनिया का हर धर्म और प्रत्‍येक संस्‍कृति इस बात से सहमत है कि  बच्‍चे की सबसे पहली शिक्षक व गुरू उसकी मां ही होती है। बच्‍चे  को संस्‍कारित करने में मां का बड़ा योगदान होता है और इसीलिए  मां को ईश्‍वर का दर्जा प्राप्‍त है।
जाहिर है कि जब बच्‍चे का ईश्‍वर ही उसे घुट्टी में संस्‍कार देने की  जिम्‍मेदारी नहीं निभाएगा और अपनी प्रमुख जिम्‍मेदारी से विमुख  होगा तो दुनिया की कोई पाठशाला उसे इंसान नहीं बना पाएगी।
हो सकता कि चंद किताबें पढ़कर वह क्‍वालीफाइड भी बन जाए  किंतु एजुकेटेड अर्थात शिक्षित कभी नहीं बन सकता।
दिन-प्रतिदिन तेजी के साथ बढ़ रही यौन हिंसा को यदि रोकना है तो  सबसे पहले ईश्‍वर की संज्ञा प्राप्‍त मां के किरदार पर ध्‍यान केंद्रित  करना होगा क्‍योंकि अच्‍छे संस्कारों से युक्‍त बच्‍चा चाहे उच्‍च शिक्षा  प्राप्‍त कर पाए अथवा न कर पाए किंतु वह बलात्‍कारी कभी नहीं  होगा।
कानून अपनी जगह है किंतु कर्म नि:संदेह सबसे ऊपर है। कर्म की  फल का कारण बनता है। बेहतर होगा कि हम मांओं को उनकी  भूमिका का अहसास कराएं और बताएं कि हर बलात्‍कारी किसी न  किसी औरत की केाख से जन्‍मता है और वह औरत भी एक मां  होती है।     

-अलकनंदा सिंह