इन कथित आरक्षणवादियों ने देश की एक बहादुर और कर्मठ जाति के गौरव को ''हाथ पसारने वाला बनाकर'' तरक्की के सामने विलेन बनाकर खड़ा कर दिया.... अब क्या कहूं... किस मुंह से कहूं...कि मैं भी तो जाट हूं ...।
J से justice, A से action और T से truth...इन तीन लफ्ज़ों से क्लासीफाई किए जाने वाली JAT जाति को अब अपनी कर्मठता के कारण नहीं, जबरन आरक्षण की मांग करने और इसकी आड़ में अपने पूर्वजों द्वारा स्थापति Justice, action और truth की परंपरा को ख़ाक कर देने जैसे कृत्य के लिए जाना जाएगा। यह सब देखकर मैं बहुत दुखी हूं क्योंकि मैं भी जाति से जाट हूं और सर्वरक्षक की श्रेणी से यूं सर्व विहीन श्रेणी में आने की आतुरता को देखकर स्तब्ध भी हूं....इसलिए भी कि जाट कभी याचक नहीं रहे।
भारतीय सेना में एक पूरी की पूरी रेजीमेंट के साथ अन्य रेजीमेंट्स में भी बाहुल्य रखने वाले और देश की रक्षा में प्राणपण से आगे रहने वाले जाट ही हैं। ओलंपिक में सर्वाधिक पदक यदि किसी जाति ने हासिल किये तो वह जाट हैं। खेती-किसानी से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को लहलहाने वाले भी जाट हैं। यही जाट जब हक़ के नाम पर आरक्षण की भीख मांगते और स्वयं को दीन-हीन बताते दिखे तो परेशान होना स्वाभाविक है क्योंकि इन 'हक़' मांगने वालों में कोई ऐसा नहीं था जो भूमिहीन हो, भूमि कम हो या ज्यादा ये अलग विषय है, इस पर चर्चा की जा सकती है। यूं भी जो कौम अपना भाग्य अपने आप लिखने का सामर्थ्य रखती हो, उसे इस तरह स्वयं को गिराकर बलवाइयों के रूप में देखना, क्या आनंद दे सकेगा ।
बढ़ते शहरीकरण से उपजे हालातों ने जाटों को राजनीति का खिलौना बना दिया और जो जाट 'अपने मालिक खुद ' थे, अब वे लगभग भीख मांगने की मुद्रा में आ गए... और गिरावट की यह यात्रा उन्हें दंगाई- बलवाई के रूप में सबके सामने ले आई।
मुझे अपने बचपन की वो घटना याद हो आई। पापा पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक कस्बे में सरकारी डॉक्टर थे, हर दो ढाई साल में उनका ट्रांसफर हो जाता था, वे उसे बहुत एंज्वॉय करते थे। पापा चूंकि बहुत मिलनसार स्वभाव के थे। उस क्षेत्र के आमजन और कर्मचारियों में एक आदत थी कि जब भी ट्रांसफर होता था तो वे पापा से कहते, साहब आप तो जा रहे हैं, कउनौ चिन्हारी दइ के जाब। पापा अपनी कई प्रिय चीजें
ऐसे ही दे चुके थे, हम अपनी प्रिय चीजों को यूं ही दे दिए जाने से जब दुखी होते तो पापा समझाते थे कि बेटा हम जाट हैं, हम देने के लिए बने हैं, हम किसी से मांगते नहीं और जो हमसे मांगता है, उसे सहर्ष दे देते हैं, कभी पीछे नहीं हटते।यही हमारा धर्म है और यही कर्म।
उन्होंने ही मुझमें अपनी जाति के प्रति गर्व का भाव भरा और समय के साथ इसमें आती जा रही बुराइयों के प्रति आगाह भी किया।
आज पापा याद बहुत याद आ रहे हैं...अगर वो इस दुनिया में होते तो मैं उनसे अवश्य पूछती कि हम जैसे ''जाट'' क्या करें। कैसे शुरूआत करें इस निकृष्टता की ओर जाती आतताई सोच को बदलने की। कैसे याद दिलायें इन्हें कि हमने ही तो गढ़ा था पहचान का यह नारा ... Justice, action और truth.।
कैसे कहें
इन बलवाइयों से कि जाट आबादियों को मिटाने का नहीं, वीराने को भी जगमगा देने वाला टैग होता है। जाटों ने तो अपनी हिम्मत और मेहनतकशी से रेगिस्तानों और ऊसरों को भी उपजाऊ बनाने का साहस दिखाया है। जो पोषक और रक्षक बनने का सामर्थ्य रखता है उसमें इतनी हताशा, निराशा और अपराधिक सोच को कैसे आ गई।
आरक्षण की मांग के नाम पर जो कुछ हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हुआ तथा जाम, आगजनी, लूटपाट करके बसें फूंकी गई और महिला यात्रियों से गैंगरेप भी किए गए, निश्चित ही यह केवल नौकरियों में आरक्षण के लिए किसी कौम का प्रदर्शन तो नहीं ही कहा जा सकता।
खालिस अपराधियों को मैं कैसे कह दूं कि ये ''जाट'' हैं... आतताइयों और बलवाइयों को कैसे कह दूं कि ये जाट हैं...। ये तो जाट हो ही नहीं सकते... किसी कीमत पर नहीं...। वे तो हक मांगने की आड़ में सिर्फ और सिर्फ देश, समाज और मानवता के दुश्मन हैं...कानूनन अपराधी हैं।
इसके अलावा मेरे दिल में और भी बहुत कुछ चल रहा है। मजाक के तौर पर जाटों को ''हनुमान'' कहा जाता है जो दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हैं, मगर हम जाट तो इसे भी अपने लिए अवसर मानते हैं कि मां सीता की रक्षा के लिए, राम का साथ देने के वचन को पूरा करने के लिए अपनी पूंछ में आग लगवाने से भी पीछे नहीं हटते और सीना चौड़ा कर देने वाली ये संज्ञा हमारी वचनबद्धता, कर्मठता दूसरों की बेशर्त मदद के तौर पर हमारा टैग बन गई। फिर आज ये सब क्यों....।
इन कथित आरक्षणवादियों ने देश की एक बहादुर और कर्मठ जाति के गौरव को ''हाथ पसारने वाला बनाकर'' तरक्की के सामने विलेन बनाकर खड़ा कर दिया.... अब क्या कहूं... किस मुंह से कहूं...।
J.A.T. का अर्थ बताने वाले पापा को साक्षी मानकर सोचती हूं कि मैं कम से कम शब्दों के द्वारा तो जाटों को बदनाम होने से रोकने की एक कोशिश कर ही सकती हूं ताकि अपने बच्चों के सामने मैं यह कहने से सकुचाऊं नहीं कि मैं भी तो जाट हूं।
आज ये आह निकली ही इसलिए है कि मैं भी तो जाट हूं और बलवाइयों के कृत्यों को लेकर शर्मसार भी।
- अलकनंदा सिंह
भारतीय सेना में एक पूरी की पूरी रेजीमेंट के साथ अन्य रेजीमेंट्स में भी बाहुल्य रखने वाले और देश की रक्षा में प्राणपण से आगे रहने वाले जाट ही हैं। ओलंपिक में सर्वाधिक पदक यदि किसी जाति ने हासिल किये तो वह जाट हैं। खेती-किसानी से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को लहलहाने वाले भी जाट हैं। यही जाट जब हक़ के नाम पर आरक्षण की भीख मांगते और स्वयं को दीन-हीन बताते दिखे तो परेशान होना स्वाभाविक है क्योंकि इन 'हक़' मांगने वालों में कोई ऐसा नहीं था जो भूमिहीन हो, भूमि कम हो या ज्यादा ये अलग विषय है, इस पर चर्चा की जा सकती है। यूं भी जो कौम अपना भाग्य अपने आप लिखने का सामर्थ्य रखती हो, उसे इस तरह स्वयं को गिराकर बलवाइयों के रूप में देखना, क्या आनंद दे सकेगा ।
बढ़ते शहरीकरण से उपजे हालातों ने जाटों को राजनीति का खिलौना बना दिया और जो जाट 'अपने मालिक खुद ' थे, अब वे लगभग भीख मांगने की मुद्रा में आ गए... और गिरावट की यह यात्रा उन्हें दंगाई- बलवाई के रूप में सबके सामने ले आई।
मुझे अपने बचपन की वो घटना याद हो आई। पापा पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक कस्बे में सरकारी डॉक्टर थे, हर दो ढाई साल में उनका ट्रांसफर हो जाता था, वे उसे बहुत एंज्वॉय करते थे। पापा चूंकि बहुत मिलनसार स्वभाव के थे। उस क्षेत्र के आमजन और कर्मचारियों में एक आदत थी कि जब भी ट्रांसफर होता था तो वे पापा से कहते, साहब आप तो जा रहे हैं, कउनौ चिन्हारी दइ के जाब। पापा अपनी कई प्रिय चीजें
ऐसे ही दे चुके थे, हम अपनी प्रिय चीजों को यूं ही दे दिए जाने से जब दुखी होते तो पापा समझाते थे कि बेटा हम जाट हैं, हम देने के लिए बने हैं, हम किसी से मांगते नहीं और जो हमसे मांगता है, उसे सहर्ष दे देते हैं, कभी पीछे नहीं हटते।यही हमारा धर्म है और यही कर्म।
उन्होंने ही मुझमें अपनी जाति के प्रति गर्व का भाव भरा और समय के साथ इसमें आती जा रही बुराइयों के प्रति आगाह भी किया।
आज पापा याद बहुत याद आ रहे हैं...अगर वो इस दुनिया में होते तो मैं उनसे अवश्य पूछती कि हम जैसे ''जाट'' क्या करें। कैसे शुरूआत करें इस निकृष्टता की ओर जाती आतताई सोच को बदलने की। कैसे याद दिलायें इन्हें कि हमने ही तो गढ़ा था पहचान का यह नारा ... Justice, action और truth.।
कैसे कहें
इन बलवाइयों से कि जाट आबादियों को मिटाने का नहीं, वीराने को भी जगमगा देने वाला टैग होता है। जाटों ने तो अपनी हिम्मत और मेहनतकशी से रेगिस्तानों और ऊसरों को भी उपजाऊ बनाने का साहस दिखाया है। जो पोषक और रक्षक बनने का सामर्थ्य रखता है उसमें इतनी हताशा, निराशा और अपराधिक सोच को कैसे आ गई।
आरक्षण की मांग के नाम पर जो कुछ हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हुआ तथा जाम, आगजनी, लूटपाट करके बसें फूंकी गई और महिला यात्रियों से गैंगरेप भी किए गए, निश्चित ही यह केवल नौकरियों में आरक्षण के लिए किसी कौम का प्रदर्शन तो नहीं ही कहा जा सकता।
खालिस अपराधियों को मैं कैसे कह दूं कि ये ''जाट'' हैं... आतताइयों और बलवाइयों को कैसे कह दूं कि ये जाट हैं...। ये तो जाट हो ही नहीं सकते... किसी कीमत पर नहीं...। वे तो हक मांगने की आड़ में सिर्फ और सिर्फ देश, समाज और मानवता के दुश्मन हैं...कानूनन अपराधी हैं।
इसके अलावा मेरे दिल में और भी बहुत कुछ चल रहा है। मजाक के तौर पर जाटों को ''हनुमान'' कहा जाता है जो दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हैं, मगर हम जाट तो इसे भी अपने लिए अवसर मानते हैं कि मां सीता की रक्षा के लिए, राम का साथ देने के वचन को पूरा करने के लिए अपनी पूंछ में आग लगवाने से भी पीछे नहीं हटते और सीना चौड़ा कर देने वाली ये संज्ञा हमारी वचनबद्धता, कर्मठता दूसरों की बेशर्त मदद के तौर पर हमारा टैग बन गई। फिर आज ये सब क्यों....।
इन कथित आरक्षणवादियों ने देश की एक बहादुर और कर्मठ जाति के गौरव को ''हाथ पसारने वाला बनाकर'' तरक्की के सामने विलेन बनाकर खड़ा कर दिया.... अब क्या कहूं... किस मुंह से कहूं...।
J.A.T. का अर्थ बताने वाले पापा को साक्षी मानकर सोचती हूं कि मैं कम से कम शब्दों के द्वारा तो जाटों को बदनाम होने से रोकने की एक कोशिश कर ही सकती हूं ताकि अपने बच्चों के सामने मैं यह कहने से सकुचाऊं नहीं कि मैं भी तो जाट हूं।
आज ये आह निकली ही इसलिए है कि मैं भी तो जाट हूं और बलवाइयों के कृत्यों को लेकर शर्मसार भी।
- अलकनंदा सिंह
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