शनिवार, 28 दिसंबर 2019

हे बुद्ध‍ि श्रेष्ठो! ये चुप्पी आपके वज़ूद को भी म‍िटा देगी

कभी शायर व गीतकार शकील बदायूंनी ने लिखा था-
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ…
देश में सीएए और एनसीआर के व‍िरोध पर तो ये शेर ब‍िल्कुल फ‍िट बैठता ही है, साथ ही ये बुद्ध‍ि के उन मठाधीशों पर भी फ‍िट बैठता है जो बात-बात पर देश की अखंडता और गंगाजमुनी तहजीब की म‍िसालें देते रहते हैं। यही तथाकथ‍ित बुद्ध‍िजीवी प‍िछले 15 द‍िन से नागर‍िकता संशोधन कानून के व‍िरोध में देश को बंधक बना चुकी अराजकता पर चुप्पी साधे बैठे हैं।
इतने बड़े देश के क‍िसी एक कोने में मॉब ल‍िंच‍िंग की एक घटना पर अपने अवार्ड वापस करने वाले और पीएम मोदी को हर दूसरे तीसरे द‍िन गर‍ियाने वाले मुनव्वर राणा जैसे शायर हों अथवा अशोक वाजपेयी जैसे साहित्‍यकार, या अनपढ़ों की तरह नागर‍िकता संशोधन कानून का व‍िरोध करने वाली मैत्रेयी पुष्पा। इन जैसे बुद्ध‍िजीव‍ियों ने अपने मुंह से ”कागवचन” बोलकर बता द‍िया क‍ि हम ज‍िन्हें लगभग पूजते थे,ऑटोग्राफ लेते झूमते थे, उन मूर्धन्य साह‍ित्यकारों की अपनी असल‍ियत क्या है। इसे मेरी धृष्टता भी कहा जा सकता है क‍ि मैं इतने ” बड़े बड़े पुरस्कार प्राप्त व‍िभूत‍ियों” के बारे में ऐसे शब्द इस्तेमाल कर रही हूं परंतु क्या करूं समय इनके साथ-साथ हमारे मुगालतों का भी मूल्यांकन कर रहा है क‍ि अभी तक हम ”क‍िस-क‍िस” को अपना आदर्श मानते रहे।
कहां हैं वे राहत इंदौरी साहब जो कहते थे क‍ि-
नए किरदार आते जा रहे हैं,
मगर नाटक पुराना चल रहा है।
चुप क्यों हैं मुनव्वर राणा जो कहते थे क‍ि-
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना…
काश! राणा साहब उन पाक‍िस्तानी ह‍िंदुओं की बेबसी देख पाते ज‍िनकी लड़क‍ियों को उनके सामने ही अगवा कर धर्मांतरण करा द‍िया जाता है, उनके शवों को अंत‍िम संस्कार तक नहीं करने द‍िया जाता, तथाकथित अपने ही मुल्‍क में वे स‍िंदूर, ब‍िंदी नहीं लगा सकतीं…।
ये तो दो तीन मूर्धन्यों के उदाहरणभर हैं, और भी ढेरों हैं ऐसे ही शेरो शायरी के सरमाएदार… जो मानते हैं क‍ि जुल्म तो स‍िर्फ और स‍िर्फ मुसलमानों पर ही हो सकता है, मॉब ल‍िंच‍िंग स‍िर्फ मुसलमानों की हो सकती है, सरकार स‍िर्फ मुसलमानों के ख‍िलाफ ही कानून बना रही है। उन्हें देश में कोई अल्पसंख्यक द‍िखता है तो वह स‍िर्फ और स‍िर्फ मुसलमान ही है, वह भी ‘डरा हुआ मुसलमान’। गोया क‍ि मुसलमान अकेले ही अल्पसंख्यक हैं भारत में।
इत‍िहास गवाह है क‍ि आज तक ज‍ितने भी दंगे हुए, सभी में इन ”डरे हुए मुसलमानों” की कैसी-कैसी भूमिकाएं रहीं। क्यों आजादी के सत्तर साल बाद भी आज तक ये सत्ता का ”वोटबैंक तो बने” मगर आमजन का व‍िश्वास हास‍िल नहीं कर पाए। क्यों आज तक इन्हें वफादारी साब‍ित करनी पड़ती है, इन बुद्ध‍िजीवि‍यों ने कभी इस ओर सोचा है। ज़ाह‍िर है क‍ि अधिकांश मुसलमानों ने कभी देशह‍ित में नहीं सोचा, स‍िर्फ अपनी कौम का ही सोचा, इसील‍िए वफादारी पर प्रश्नच‍िन्ह इन्होंने खुद लगाया है।
उक्त बुद्ध‍िजीव‍ियों के अलावा भी जो मीड‍िया, सोशल मीड‍िया से लेकर सड़कों पर अराजकता फैला रहे हैं, वे ही कह रहे हैं क‍ि ”आज देश बड़े कठ‍िन दौर से गुजर रहा है…” । ये लफ़्ज कहने वाले वो लोग हैं, जो अभी तक ऐसे ही ना जाने क‍ितने ”कठ‍िन दौरों” को देखकर भी तमाशबीन बने रहे और 1947 से लेकर आज तक हर सांप्रदाय‍िक दंगे के चश्मदीद बने। मगर उनकी नजर में तब देश ”बड़े कठ‍िन दौर” से नहीं गुजरा।
उनकी स्वार्थी प्रवृत्त‍ि अब चरम पर है और इतनी चरम पर पहुंच गई है क‍ि ये ”डरे हुए मुसलमान” जब सरकारी संपत्त‍ि को आग लगा रहे होते हैं तब चुप्पी… और जब पुल‍िस द्वारा लठ‍ियाए जाते हैं तो ” डर का माहौल ”…। गजब आंकलन है भाई। कुल म‍िलाकर लब्बो-लुआब ये है क‍ि मुसलमान आज भी नहीं समझ रहे हैं क‍ि उन्हें क‍िस खतरनाक तरीके से ” इस्तेमाल” क‍िया जा रहा है। चाहे उन्हें देश का कानून न मानने को लेकर, जनसंख्या कानून से डरा कर, तीन तलाक पर गुमराह करके, एनसीआर व सीएए पर भ्रमित करके। आत्मावलोकन तो अब मुसलमानों को करना होगा क‍ि देश के इतर जाकर वे कथ‍ित बुद्ध‍िजीव‍ियों और स‍ियासतदानों के कहने पर अपनी कौम का क‍ितना नुकसान कर रहे हैं।
बहरहाल जाते जाते निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर –
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना।
- अलकनंदा स‍िंंह 

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

साहित्य अकादमी द्वारा 23 भाषाओं में वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा

साहित्य अकादमी ने आज 23 भाषाओं में अपने वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा कर दी है। 
सात कविता संग्रह, चार उपन्यास, छह कहानी संग्रह, तीन निबंध संग्रह, एक-एक कथेतर गद्य, आत्मकथा और जीवनी के लिए यह सम्मान दिया जाएगा।


हिंदी में नंदकिशोर आचार्य को उनके कविता-संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ के लिए यह सम्मान दिया जाएगा। 

शशि थरूर को अंग्रेजी भाषा में कथेतर गद्य ‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस’ के लिए दिया गया है। उर्दू में ‘शाफ़े किदवई’ को जीवनी ‘सवनेह-ए-सर-सैयद- एक बाज़दीद’ के लिए इस सम्मान की घोषणा हुई है।
बाकी भाषाओं में सम्मान पाने वाले साहित्यकार हैं 
असमिया – जय श्री गोस्वामी महंत
बाड्ला – चिन्मय गुहा
बोडो – फुकन चन्द्र
डोगरी – ओम शर्मा
गुजराती- रतिलाल बोरीसागर
कन्नड़ – विजया
कश्मीरी- अब्दुल अहद हाज़िनी
कोंकणी – निलबा खांडेकर
मैथिली – कुमार मनीष
मलयालम- मधुसूदन नायर
मणिपुरी – बेरिल
मराठी- अनुराधा पाटिल
ओड़िया – तरुण कांति
पंजाबी – किरपाल कज़ाक
राजस्थानी- रामस्वरूप किसान
संस्कृत – पेन्ना मधुसूदन
संताली – काली चरण
सिंधी – ईश्वर मूरजाणी
तमिल- धर्मन
तेलुगु – बंदि नारायणा स्वामी
नेपाली भाषा में पुरस्कार अभी घोषित नहीं किया गया है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार के रूप में एक उत्कीर्ण ताम्र फलक, शॉल और एक लाख रुपये की राशि प्रदान की जाएगी। घोषित पुरस्कार 25 फरवरी 2020 को नई दिल्ली में आयोजित विशेष साहित्योत्सव में दिए जाएंगे।

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

ये कौन लोग हैं जो देश को हर वक्त अराजक स्थ‍ित‍ि में ही देखना चाहते हैं

ज‍िस नागर‍िकता संशोधन कानून (CAA) को लेकर जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्स‍िटी (JNU), अलीगढ़ मुस्ल‍िम यूनीवर्स‍िटी(AMU), जाम‍िया म‍िल‍िया यूनीवर्स‍िटी (JMU) से लेकर कल लखनऊ यूनीवर्स‍िटी (LU) तक छात्रों द्वारा व‍िरोध प्रदर्शन को ह‍िंसक रूप दे द‍िया गया, वह अनायास हुई कोई नाराजगी या घटना नहीं है, बल्क‍ि एक षड्यंत्रकारी अराजक गठबंधन की वो अभ‍िव्यक्त‍ि है जो धारा 370, तीन तलाक और राम मंद‍िर पर कुछ ना बोल सकी इसलिए अब नागर‍िकता कानून को ”संव‍िधान व‍िरोधी” व ”मुस्ल‍िमाें पर संकट” बताकर भ्रम व अराजकता फैला रही है।
यह सही है क‍ि अभ‍िव्यक्त‍ि की आजादी के तहत व‍िरोध प्रदर्शन को लोकतंत्र में ”मौल‍िक अध‍िकार” माना गया है परंतु संव‍िधान के अनुरूप बने क‍िसी पूरे के पूरे कानून को मुस्ल‍िम व‍िरोधी बताकर देश में स‍िर्फ और स‍िर्फ अराजकता फैलाना किसी तरह उचित नहीं क्‍योंकि इसकी आड़ में असामाजिक तत्‍व छोटे छोटे बच्चों व कानून से अनजान मुस्ल‍िम मह‍िलाओं को शाम‍िल कर रहे हैं।
यह दुखद है क‍ि इस अराजकता में छात्रों के साथ वो यूनीवर्स‍िटी श‍िक्षक भी शाम‍िल हैं जि‍न पर क‍ि ज्ञान बांटने की ज‍िम्मेदारी है। कोई कम जानकार या भ्रम‍ित व्यक्त‍ि ये कहे क‍ि नागर‍िकता संशोधन कानून व‍िभाजनकारी है तो माना भी जा सकता है परंतु जब श‍िक्षक ही ऐसा कहने लगें तो समझा जा सकता है क‍ि श‍िक्षा का स्तर क्या होगा और द‍िशा क्या होगी। अब हम यह अच्छी तरह समझ सकते हैं क‍ि इन यूनीवर्स‍िटीज में ” क‍िस तरह के छात्र” तैयार क‍िए जा रहे हैं।
एक न‍िश्च‍ित प्रोपेगंडा के तहत लंबी अवध‍ि के शोधकार्य व उच्च श‍िक्षा की ड‍िग्र‍ियां दर ड‍िग्र‍ियां लेने के नाम पर श‍िक्षकों द्वारा गरीब छात्रों को छात्रसंघों के हवाले कर एक ऐसा कॉकस ”पाला-पोसा” जा रहा है जो गाहे-बगाहे ”अंधव‍िरोध और देश के ख‍िलाफ दुष्प्रचार के ल‍िए टूल की तरह ”यूज” होता है परंतु सत्य कहां छ‍िपता है।
हम देख भी चुके हैं पूर्व में क‍ि जेएनयू व एमएमयू द्वारा क‍िस तरह कश्मीर को लेकर देश की छव‍ि दुन‍िया में धूम‍िल करने की कोश‍िश की गई थी, आतंक‍ियों की मारे जाने पर यूनीर्व‍िटी कैंपस में जुलूस न‍िकाले गए, फात‍िहा पढ़े गए। इसी तरह जेएनयू के छात्रों का फीस बढ़ोत्तरी को लेकर ह‍िंसक प्रदर्शन अब भी जारी है, जबक‍ि सबने देखा क‍ि कथ‍ित ”बेचारे व गरीब प्रदर्शनकारी” छात्र आईफोन तो इस्तेमाल कर रहे हैं परंतु होस्टल की 350 रुपये महीना फीस नहीं दे सकते ।
यह क्या है, कौन सी श‍िक्षा है, कौन सी राजनीत‍ि है जो देश को हर वक्त अराजक स्थ‍ित‍ि में ही देखना चाहती है।
इसी तरह अराजक स्थ‍ित‍ि बनाए रखने और भ्रम फैलाने वाले बुद्ध‍िजीव‍ियों ने तो सोशल मीड‍िया पर प‍िछले दो द‍िन से ऐसी ऐसी पोस्ट डाली हैं जो नागर‍िकता संशोधन कानून और एनआरसी को एक जैसा ही बता रही हैं और दोनों को ही मुस्ल‍िम व‍िरोधी बताकर दुष्प्रचार कर रही हैं जबक‍ि सत्य तो यह है क‍ि नागर‍िकता संशोधन कानून, इस्लाम‍िक शासन वाले पड़ोसी देशों के धार्म‍िक आधार पर सताए हुए अल्पसंख्यकों को देश में शरण देकर उन्हें नागर‍िकता देने की बात करता है, यह किसी की नागरिकता छीनने के लिए नहीं है, फिर यह कहां से मुस्ल‍िम व‍िरोधी हो गया। इसी प्रकार एनआरसी देश के हर नागर‍िक की अपनी पहचान को रज‍िस्टर्ड करेगा, यह भी कैसे मुस्ल‍िम व‍िरोधी हुआ। हां, इतना अवश्य है क‍ि नागर‍िकता संशोधन कानून व एनआरसी के बाद देश में अवैध अप्रवास‍ियों की घुसपैठ बंद हो जाएगी। और यही बात इन अराजक तत्वों की परेशानी का कारण है परंंतु ये यह भूल रहे  हैं क‍ि षड्यंत्र क‍ितने भी गहरे हों, उनका भेद खुल ही जाता है। आज नहीं तो कल।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

68 साल के बुजुर्ग ने लिख डाले विश्‍व के सबसे बड़े 3 धार्मिक ग्रंथ

कहते हैं कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो उसे पूरा करने के लिए उम्र की नहीं हौसले की जरूरत होती है. इसी हौसले को अपनी ताकत बनाकर हिसार निवासी एक 68 साल के बुजुर्ग ने दुनिया के सबसे बड़े 3 धार्मिक ग्रंथ लिख डाले हैं.
यह बुजुर्ग हैं जैकब हरमीत सिंह. जैकब ने दुनिया की सबसे बड़ी हस्त लिखित बाइबल लिखी, इसके बाद भगवद गीता और रामचरित मानस भी लिखा. जैकब के लिखे तीनों धार्मिक ग्रंथों की बनावट भी अपने आप में खास है. तीनों ग्रंथों का पहला कवर पेज स्टील की चादर से बना है. तीनों पर दरवाजों पर लगने वाले कब्जे हैं. इसमें नट बोल्ट लगाकर इसे बंद किया जाता है. बाइबल की बात हो, रामचरित मानस की या फिर भगवद गीता की, यह तीनों ग्रंथ दुनिया में वजन और आकार में सबसे बड़े हैं.
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम से ली प्रेरणा
लक्ष्य उंचा रखो, छोटा लक्ष्य तो अपराध है. पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की यह बात जैकब हरमीत सिंह को ऐसी पंसद आई कि बस कुछ हट के करने की सोच ली. जैकब बताते हैं कि जिंदगी तो हर कोई जीता है लेकिन असल जिदंगी वह होती है जिसमें खुद के नाम की पहचान हो. डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की लक्ष्य उंचा रखने वाली बात मुझे हमेशा याद आती थी, बस फिर एक रोज सोचा कि आखिर ऐसा क्या करूं, बस लगा क्यों न धार्मिक ग्रंथ ही हाथ से लिखूं. उम्र की परवाह किए बिना जैकब इस काम में जुट गए और आज ऐसा कर दिया कि अब वह मिसाल बन गए हैं.
हरमीत सिंह ने बताया कि राम चरित मानस यानि रामायण 109 किलोग्राम 600 ग्राम वजनी की है. इसके लिखने में साढ़े 11 महीने लगे, इसमें 1700 पेज हैं. इसे लिखने में स्याही के अंदर गंगा जल भी मिलाया गया ताकि इसकी पवित्रता बनी रहे. वहीं बाइबल की अगर बात की जाएं तो इसमें 1950 पेज हैं. वजन 120 किलोग्राम हैं और इसे लिखने में जैकब ने ढाई साल लगा दिए. भगवद गीता के 225 पेज करीब पौने दो महीनों में लिखे गए. गीता ग्रंथ का वजन 25 किलोग्राम है. तीनों ग्रंथ वजनी हैं, इन्हें एक आदमी तो आसानी से उठा भी नहीं सकता. हर रोज 12 से 14 घंटे की मेहनत कर जैकब ने इन्हें लिखा, जैकब बताते है कि आंखों के चश्मे का नंबर भी बढ़ गया लेकिन उन्होंने परवाह नहीं की. रामचरित मानस की रचना 3 भाषाओं में है.
अब कुरान लिखने की तैयारी
अब जैकब हरमीत सिंह का सपना कुरान लिखने का है. इससे पहले जैकब हरमीत सिंह के नाम इंडिया बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे बड़ी बाइबल हाथ से लिखने का रिकॉर्ड दर्ज है. इस मुकाम तक पहंचने वाले जैकब ने बताया कि शुरूआत में कुछ लोग यहां तक की उन्हें घर वाले भी पागल समझते थे. लेकिन अब उन लोगों की धारणाएं भी बदली हैं. जैकब की उसके साथी भी प्रशंसा करते हैं. जैकब के साथी श्याम लाल से बातचीत की, उन्होंने बताया कि शुरूआत में जैकब ने जब यह करने की सोची, तो उन्हें अजीब लगा. लेकिन अब खुशी भी होती है कि उनका हमउम्र इतना नाम कमा रहा है. हाल ही में जैकब उत्तर प्रदेश एरिया में लगे पुस्तक मेले में भी अपनी तीनों रचनाओं को लेकर गए थे, जहां उनकी सराहना की गई.
60 लाख लग चुकी कीमत, लेकिन दी नहीं
जैकरब ने बताया कुछ साल पहले एक विदेशी खरीददार ने उनकी लिखी बाइबल की 6 0 लाख रुपये कीमत लगाई थी. लेकिन उन्होंने इसे दिया नहीं, वह चाहते हैं कि विदेश में बोली के जरिए इसकी बिक्री हो, उससे मिलने वाले रुपये को जैकब बेसहारा बच्चों के सहारा बनने के रूप में लगाना चाहते हैं.
वह चाहते हैं कि हिसार में बच्चों का एक हॉस्टल बने, जिसमें बेसहारा बच्चे रह सकें, पढ़ लिख कर आगे बढ़ सकें.
अयोध्या में बनने वाले राम मंदिर में भी रख सकते हैं रामचरित मानस
इन तीन भारी-भरकम ग्रंथ लिखने वाले बुजुर्ग से बातचीत के दौरान अयोध्या राम मंदिर का जिक्र भी किया गया. इस दौरान उन्होंने कहा कि रामचरित मानस को अयोध्या में बनने वाले भव्य राममंदिर में भी रखा जा सकता है.
ऐसा ही सरकार चाहे तो कुरुक्षेत्र में गीता को भी रखवा सकती है. उनका तो उद्देश्य समाज का भला होने से है.

सोमवार, 25 नवंबर 2019

Rung जनजाति,वह पहली जनजात‍ि होगी जो मनाने जा रही है अपना साहित्य उत्सव

Rung tribe is going to celebrate its literature festival
पीएम मोदी ने ‘ मन की बात’ कार्यक्रम में अपनी भाषा ‘रंगलो’ को संरक्षित करने के प्रयासों के लिए जो उत्तराखंड के धारचूला की ज‍िस Rung जनजाति की प्रशंसा की गई, वह अब जनवरी में अपना एक साहित्य उत्सव आयोजित करने जा रही है।
हिमालय में Rung नाम का एक स्‍थानीय समुदाय अपनी भाषा रंगलो को फिर से जीवित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस काम में उसकी मदद आधुनिक तकनीक और सोशल म‍ीडिया कर रहे हैं।
‘रंग’ Rung नामके इस समुदाय की मातृभाषा ‘रंगलो’ कहलाती है। इस प्राचीन भाषा की कोई लिपि नहीं है, यह सिर्फ बोलने के जरिए ही चलन में है। जेएनयू में भाषा की प्रोफेसर संदेशा रायापा गर्ब्‍याल भी इस समस्‍या से परेशान हैं। वह भी रंग समुदाय की हैं, लेकिन रंग समुदाय पर छपे एक लेख को पढ़ने के बाद वह इतनी व्‍याकुल हुईं कि उन्‍होंने इस भाषा को फिर से जीवित करने का बीड़ा उठा लिया।
वॉट्सऐप ग्रुप और सोशल मीडिया पर आए लोग
संदेशा कहती हैं, ‘उस लेख में रंग समुदाय और उनकी संस्‍कृति के बारे में गलत तथ्‍य दिए हुए थे। ऐसे पलों में हमें दस्‍तावेजों की अहमियत का अहसास होता है।’ इसके बाद संदेशा ने समुदाय के दूसरे लोगों से आपस में जुड़ने की अपील की। जल्‍द ही कई वॉट्सऐप ग्रुप बन गए जहां लोग लोग रंगलो भाषा में ऑडियो रिकॉर्डिंग पोस्‍ट करने लगे। कुछ लोग ट्विटर और फेसबुक पर रंगलो में पोस्‍ट लिखने लगे।
कहानियां, कविताएं, गाने होते हैं पोस्‍ट
धारचूला के एक व्‍यवसायी हैं कृष्‍ण गर्ब्‍याल, वह चार वॉट्सऐप ग्रुप चलाते हैं जिनमें कुल मिलाकर 1,000 सदस्‍य हैं। ये लोग रंगलो में कहानियां, कविताएं और गाने पोस्‍ट करते हैं। कृष्‍ण कहते हैं, ‘हम भाषा सिखाने की कोशिश कर रहे हैं। सोशल मीडिया के जरिए इसका अभ्‍यास तो होता ही है कोई संदेह भी हो तो वह भी दूर हो जाता है। यह एक ऐसी कक्षा की तरह है जहां हर व्‍यक्ति शिक्षक और छात्र दोनों है।’
एक और वॉट्सऐप ग्रुप की संस्‍थापक हैं वैशाली गर्ब्‍याल (22)। वैशाली को पता है कि यह कितना मुश्किल काम है। वह कहती हैं, ‘मेरे 16 साल के भाई को रंगलो बिल्‍कुल नहीं आती। अगर इन ग्रुपों की कोशिश से कुछ लोगों में ही सही पर रंगलो सीखने की चाह पैदा होती है तो हमारा मकसद पूरा हो जाएगा।’
कुल 10,000 सदस्‍य बचे हैं इस समुदाय में
रंग कल्‍याण संस्‍थान के अध्‍यक्ष बीएस बोनल कहते हैं, ‘रंग समुदाय में करीब 10, 000 सदस्‍य हैं जिनमें से अधिकांश उत्‍तराखंड के पिथौरागढ़ जिले और नेपाल के कुछ हिस्‍सों में रहते हैं।’ भारत में रंग को भोटिया जनजाति की उप जाति के रूप में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। बोनल रंग जनजाति की उत्‍पत्ति को एक किंवदंती से जोड़ते हुए बताते हैं, ‘जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तो वे कुटी गांव पहुंचे जहां रंग कबीले ने उनका स्‍वागत किया था। उनकी मां कुंती के नाम पर ही गांव का नाम कुटी पड़ा।’
कोई लिपि न होना बड़ी चुनौती
साल 2018 में ओएनजीसी ने रंगलो के संरक्षण के लिए रायापा के प्रोजेक्‍ट को फंड दिया था। किसी भी भाषा के संरक्षण में सबसे बड़ी समस्‍या होती है उसका लिपिबद्ध न होना। लेकिन लिपि तैयार करना भी आसान नहीं है। रायापा कहती हैं, ‘पहली चुनौती है इस भाषा के लिए लिपि का चुनाव। इसके बाद समुदाय के लोगों से बात करके इसका शब्‍दकोश तैयार करना है। युवा लोग इसे रोमन में लिखने की मांग कर रहे हैं जबकि बुजुर्ग इसे देवनागरी लिपि में तैयार करने पर जोर दे रहे हैं। लेकिन लोग फिलहाल दोनों तरीकों का इस्‍तेमाल कर रहे हैं।’
कई मायनों में श्रेष्ठतम है रंग समाज
पिथौरागढ़ जिले के जौलजीवी से लेकर कुटी, सीपू, मार्छा तक निवास करने वाले रंग समाज की संस्कृति की अलग पहचान है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता आज के दौर में भी महिला सम्मान है। कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में कुछ दशकों पूर्व तक शादी में दहेज नहीं के बराबर था परंतु विगत तीन दशकों के दौरान जहां अन्य समाजों में दहेज एक बीमारी की तरह फैल चुका है, वहीं रंग समाज में आज भी इसे एक दानव की ही संज्ञा है। दहेज के बारे में बात तक नहीं होती है। आज भी युवती का हाथ मांगने के लिए वर पक्ष के लोग जब बात करने जाते हैं तो इसे निवेदन की संज्ञा दी जाती है। लड़की से शादी के लिए उसके पिता या रिश्तेदार से निवेदन किया जाता है। इस निवेदन को स्वीकार करने का अधिकार लड़की को ही है। यदि लड़की निवेदन अस्वीकार कर दे तो इस मामले में आगे कुछ भी नहीं होता है। निवेदन स्वीकार करने के लिए लड़की पर परिजन दबाव भी नहीं बना सकते।
धार्मिक अनुष्ठान में बराबरी का हक
इसी तरह हर धार्मिक से लेकर सामाजिक अनुष्ठान में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार हैं। यही कारण है कि इस समाज में होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में देवी नमतिसिया की पूजा कर संदेश दिया जाता है कि नारी का सम्मान सबसे पहले होना है। कुछ मामलों में महिलाओं के अधिकार अधिक हैं।
बेटा-बेटियों में समानता
रंग समाज में बेटा और बेटी के अधिकार बराबर हैं। यहां पर व्यवहार में भी किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है। बेटा या बेटी के जन्म से लेकर शिक्षा, दीक्षा तक जीवनभर समान व्यवहार रहता है। यही कारण है कि आज भी इस समाज में लिंगानुपात में कोई संकट नहीं आया है। इसी समानता का असर है कि जहां इस समाज की दर्जनों महिलाएं उच्च पदों पर आसीन हैं, वहीं कई बेटियों ने एवरेस्ट शिखर को भी फतह किया है। चंद्रप्रभा एतवाल, सुमन कुटियाल, कविता बूढ़ाथौकी दुनिया की इस सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहरा चुकी हैं।
भारत और नेपाल के इन गांवो में रहते हैं रंग समाज के लोग
व्यास घाटी : बूंदी, गब्र्याग, गुंजी, नाबी, रौंककोंग, नपलच्यू और कुटी।
दारमा घाटी : सीपू, तिदांग, गो, मार्छा, ढाकर, दुग्तू, दांतू, चल, नागलिंग, बालिंग, सौन, बौगंिलंग, दर, विदांग।
चौदास : पांगू, हिमखोला, रौतों, दैको, रिमझिम, सौसा, रुंग, सिर्खा, सिर्दाग, जयकोट, पांगला।
नेपाल : छांगरु, टिंकर, रापला और स्यंकंग।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

करवाचौथ का बाजारयुग…ऐसे किस देवता की उपासना करें हम

श्‍याम बेनेगल के धारावाहिक भारत एक खोज की वे पंक्‍तियां आज तक याद हैं मुझे… ”ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर…”।
भारत एक खोज में इस प्रारंभ-गीत को ऋग्‍वेद के जिस नासदीय सूक्‍त से अनूदित कर वसंत देव द्वारा हिंदी में लिखा गया था, वह नासदीय सूक्‍त का ये श्‍लोक इस तरह है –
नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम॥
पूरे श्‍लोक में देवता की उपासना के संग-संग जीवन पद्धति की स्‍थापना को लेकर कई प्रश्‍नोत्‍तर हैं जिसमें संतुलित जीवन जीने के लिए ही स्‍थापित की गई ”जीवन पद्धति” सनातन धर्म का आधार बनी। और यही धर्म धीरे धीरे जड़ परंपराओं, अशिक्षा से ग्रस्‍त रीति रिवाजों की धमनियों से बहता हुआ आज हमारे सामने अपने सबसे सतही और हल्‍के रूप में उपस्‍थित है। धर्म के इस बाजारी रूप को यहां तक लाने में धर्म के कारोबारियों का बड़ा हाथ है जिनके ऊपर आमजन ने आंख मूंदकर विश्‍वास किया।
इसी ”विश्‍वास” के ”बाजार’ का कल हम करवा चौथ के आधुनिक रूप में दीदार करेंगे। करवा चौथ यानि सुहागिनों का ” निर्जल व्रत” वाला त्‍यौहार। पति की लंबी उम्र मांगने का ‘अहसान’ उन्‍हीं की जेब पर उतारा जाता है। इस बार यह त्‍यौहार अपने अब तक के सबसे वीभत्‍स रूप में हमारे सामने है। गहनों, कपड़ों, ब्‍यूटी पार्लर्स से आगे बढ़ता हुआ बाजार अब डिजायनर करवों, पूजा की थालियों, सरगी की सामिग्री के 500 रुपये से लेकर हजारों के पैकेजों सहित उपलब्‍ध है जो शोशेबाजी और शारीरिक साजसज्‍जा तक सिमट कर रह गया है।
दरअसल करवा चौथ भगवान गणेश की आराधना का पर्व है जिसमें सिर्फ पति ही नहीं, संतान व परिवार के प्रत्‍येक सदस्‍य के लिए सद्बुद्धि की आराधना की जाती है परंतु इसे सिर्फ पति तक सीमित कर दिया गया। ये क्‍यों और कब हुआ, इसका तो नहीं पता परंतु इतना अवश्‍य है कि ”कुछ लोगों” तक सिमटी शिक्षा के चलते ये अपभ्रंशित तस्‍वीर ही करवा चौथ बनकर रह गई है। जिन व्रतों को जीवनपद्धति के लिए स्‍थापित किया गया था, उन्‍हें बाजार ने निगल लिया और गिफ्ट के लेनदेन ने इसे ”व्‍यवहार” बनाकर रख दिया। करोड़ों रूपये के सौंदर्य प्रसाधन, जूलरी व कपड़ों की खरीदफरोख्‍़त से बाजार में तब्‍दील ये ”व्रत” सोचने को बाध्‍य करता है कि आखिर यह किस तरह की परंपरा और कैसी जीवन पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं हम।
तो नासदीय सूक्‍त की भांति हम भी आखिर ऐसे किस देवता की उपासना करें जो हमें इस कुचक्र से निकाल सके और टूटते बिखरते रिश्‍तों के इस कठिन समय में परिवार और समाज के काम आ सके। बाजार पर आधारित परंपरा हो या धर्म, या फिर जीवन पद्धति ही क्‍यों न हो वो तो अंतत: क्षोभ ही उत्‍पन्‍न करेगा, संतुष्‍टि नहीं। ये समझना इस दौर की सबसे बड़ी जरूरत है।
इसी के साथ नासदीय सूक्‍त का वसंत देव द्वारा ये हिंदी अनुवाद पढ़िए-
सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ
किसने ढका था
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहां था
सृष्टि का कौन है कर्ता?
कर्ता है या विकर्ता?
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
नहीं पता
नहीं है पता
नहीं है पता
वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगा जो देवों का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऊँ! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशायें बाहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर…
गीत बेशक बड़ा है परंतु आज के संदर्भ में इसे न केवल पढ़ना बल्‍कि इसका मनन करना भी बेहद आवश्‍यक हो गया है क्‍योंकि रुढ़िवादी परंपराएं धर्म धारण करने और धर्म के मार्ग से भटकाने का काम बड़ी तेजी से करती हैं।
-अलकनंदा सिंह

शनिवार, 28 सितंबर 2019

प्रदेश की मेधाशक्‍ति के हित में आदेश, जिस पर राजनीति होना तय है

देशभर में शैक्षिक गुणवत्‍ता के गिरते स्‍तर वाले समाचारों के बीच उत्‍तर प्रदेश सरकार की ओर से एक खबर अच्‍छी आई है जिसमें प्राइवेट तकनीकी संस्‍थानों में प्रोफेशनल कोर्स करने वाले दलित छात्रों को इंटरमीडिएट में कम से कम 60 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य होगा तभी वे छात्रवृत्‍ति व शुल्क प्रतिपूर्ति ले सकेंगे। इंटरमीडिएट में 60 प्रतिशत से कम अंक पर निजी क्षेत्र के कॉलेजों में प्रवेश लेने पर कोई छात्रवृत्ति या फीस प्रतिपूर्ति नहीं मिलेगी। ये आदेश ऐसे मान्यता प्राप्त प्रोफेशनल कोर्स के लिए है जिनमें प्रवेश की न्यूनतम अर्हता 12वीं है हालांकि प्रोफेशनल कोर्स में बीए, बीकॉम, बीएससी और बीएससी-एजी छोड़ दिया गया है।
इस एक आदेश से योगी सरकार ने कई निशाने साधे हैं। एक तो इससे तकनीकी संस्‍थानों की शैक्षिक गुणवत्‍ता में सुधार आएगा, दूसरे इन्‍हीं संस्‍थानों द्वारा सरकारी अधिकारियों से मिलीभगत कर छात्रवृत्‍ति के नाम पर वृहद स्‍तर पर किये जा रहे घोटालों पर लगाम लगाई जा सकेगी। चूंकि अभीतक कम प्राप्‍तांक कोई बाधा नहीं थे इसलिए छात्रवृत्‍ति घोटाले के लिए फर्जी छात्रों की संख्‍या भी आसानी से बढ़ा ली जाती थी परंतु अब इसकी संभावना कम रहेगी।
दरअसल अभी तक एससी-एसटी छात्रों को छात्रवृत्‍ति और शुल्‍क प्रतिपूर्ति के नाम पर जो धन केंद्र सरकार राज्‍य सरकारों को मुहैया कराती आई है, उसे भ्रष्‍ट अधिकारियों और तकनीकी संस्‍थानों के प्रबंध तंत्रों द्वारा बिना किसी बाधा के हजम कर लिया जाता रहा और इसीलिए तकनीकी संस्‍थान खोलना फायदे का सौदा बन गया। हकीकत तो ये है कि लगभग हर प्रदेश में छात्रवृत्‍ति घोटाला हो रहा है और कई प्रदेश सरकारें इससे जूझ भी रही हैं, कुछ कड़े कदम भी उठाए हैं परंतु घोटालेबाजों की तू डाल डाल मैं पात पात वाली गति ना तो जरूरतमंदों को मदद लेने दे रही है और ना ही मेधा को आगे आने दे रही है।
अभी तक होता ये आया है कि प्राप्‍तांकों की शर्त ना होने के कारण एससीएसटी वर्ग के अधिकाधिक छात्रों की एडमीशन लिस्‍ट सरकारों के पास भेजकर भारी छात्रवृत्‍ति का जुगाड़ किया जाता रहा। काउंसलिंग के लिए आए छात्रों से शैक्षिक प्रमाणपत्रों के साथ उनके आधार कार्ड की कॉपी भी जमा करा ली जाती थी। चूंकि तकनीकी प्रवेश परीक्षा में पास हुए सभी छात्र काउंसलिंग के लिए तो कई संस्थानों में जाते हैं परंतु एडमीशन किसी एक में ही लेते हैं। ऐसे में छात्र के एडमीशन न लेने पर भी संस्‍थान छात्र के ”आधार कार्ड की कॉपी” का इस्‍तेमाल समाज कल्‍याण विभाग की मिलीभगत से उस छात्र के नाम पर छात्रवृत्‍ति व शुल्‍क प्रतिपूर्ति हासिल करने के लिए करता रहता और हद तो ये कि ये प्रक्रिया सालोंसाल ”उस छात्र” के नाम पर लगातार चलती रही जिसने सिर्फ काउंसलिंग में हिस्‍सा लिया, एडमीशन नहीं। पूरा का पूरा एक कॉकस इसी तरह काम करता रहा।
बहरहाल अब यूपी सरकार के इस फैसले से प्रदेश के निजी क्षेत्र के कॉलेजों में 70 से 80 फीसदी दलित छात्र, छात्रवृत्ति एवं फीस प्रतिपूर्ति के दायरे से बाहर हो जाएंगे और संस्‍थान इस 80 फीसदी की बदौलत जो ” कमा रहे” थे वह बंद हो जाएगा। इसीलिए उत्तर प्रदेश के अनुसचिव सतीश कुमार का उक्त आदेश पहुंचते ही निजी कॉलेजों में हड़कंप मच गया है।
चूंकि यह आदेश पूरी तरह से एससी-एसटी के लिए है इसलिए पर्याप्‍त राजनीति करने का एक और मुद्दा विपक्ष को मिल गया है और वो राजनीति करेंगे भी, बिना ये सोचे समझे कि इससे प्रदेश के होशियार एससीएसटी छात्रों को भी अब ”रिजर्वेशन से आया है” का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। एक बात और कि इस आदेश के बाद घोटालेबाजों की ”ताकतवर लॉबी” इसे निरस्‍त कराने को एड़ी चोटी का जोर लगा देगी परंतु सरकार यदि अपने इस आदेश को मनवा पाई तो नकल माफिया पर नकेल की तरह यह भी शिक्षा और खासकर उत्‍तरप्रदेश की मेधाशक्‍ति के लिए अहम कदम माना जाएगा।

बुधवार, 25 सितंबर 2019

Sonakshi: दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं,
जान परत है काक प‍िक र‍ितु बसंत के मांह‍ि…
रहीम दास जी का ये दोहा Sonakshi Sinha पर एकदम फ‍िट बैठता है। उसने बता द‍िया क‍ि अच्छी शक्लोसूरत , पैसा और रसूख, बुद्ध‍िमत्ता की बानगी नहीं हुआ करते इसील‍िए मामूली से सवाल पर सारी द‍िमागी असल‍ियत सामने आ सकती है। रहीम दास जी ने ऐसे ही लोगों के ल‍िए संभवत: ये दोहा रचा होगा, कौआ और कोयल तो मात्र उदाहरण के बतौर बताए थे ।
ह‍िंंदीबेल्ट की राजनीत‍ि करने वाले प‍िता शत्रुघ्न स‍िन्हा की बेटी और ह‍िंंदूघर में जन्मने वाली  बॉलीवुड अभ‍िनेत्री Sonakshi Sinha द्वारा जब केबीसी में पूछे गए प्रश्‍न ” हनुमान क‍िसके ल‍िए संजीवनी लाए थे” का जवाब नहीं द‍िया जा सका और वो बगलें झांकने लगीं, फिर लाइफलाइन भी ले डाली तो मीड‍िया ने तो उनके इस ”ज्ञान” को लेकर ख‍िंचाई की, उसके फॉलोवर्स ने भी अपना माथा ठोंक ल‍िया। सोनाक्षी के इस ” ज्ञान ” ने उसकी परवर‍िश, उसके पर‍िवार और उन मूल्यों का सच भी उगल द‍िया जो गाहे-बगाहे उसके प‍िता हांकते रहते हैं। 
इस सबके बाद हद तो तब हो गई जब सोनाक्षी स‍िन्हा ने आलोचना करने वालों से उल्टे यह कहा क‍ि मुझे तो पाइथागोरस प्रमेय, मर्चेंट ऑफ वेन‍िस , पीर‍ियोड‍िक टेबल , मुगल साम्राज्य और ना जाने क्या क्या याद नहीं तो क्या हुआ।
मतलब साफ है क‍ि सोनाक्षी को ये बात बेहद मामूली लगी और इससे ज्यादा की अपेक्षा उनसे नहीं की जानी चाह‍िए वरना मुंह खोलते ही वे अपने और ”ज्ञान” से हमारे द‍िमागों को प्रदूष‍ित ही करेंगी, हम कम से कम उससे तो बच जायेंगे। ”अल्पज्ञानी” और ”धृष्ट” व्यक्त‍ि से तो कोई भी बहस बेमानी होती है, वो रहम का पात्र होता है। अत: सोनाक्षी पर बस रहम ही क‍िया जा सकता है क‍ि राम कथा के पात्रों को लेकर इतना अल्पज्ञान, वह भी तब जबक‍ि उनके घर का नाम ही रामायण है… पिता का नाम शत्रुघ्न और भाइयों का नाम लव और कुश है।
सोनाक्षी के बहाने ही सही, हमने तस्वीर का वो रुख भी देख ल‍िया जो सही परवर‍िश के मायने खोजने को बाध्य कर रहा है। इस संदर्भ में प्रस‍ि‍द्ध गाय‍िका माल‍िनी अवस्थी का कहना सही है क‍ि अब वक्त है क‍ि हम थोड़ा ठहरें, ये सोचें क‍ि अब कितने परिवारों में बच्चों को हमारे पूर्वजों की कथाएँ सुनाई जाती हैं? यूं भी राम व कृष्ण की कथाएँ कहना सुनना जिस शिक्षित समाज में आज भी पुरातनपंथी होने का द्योतक हो, वहां सोनाक्षी सिन्हा जैसा उत्तर ही मिलेगा। अपने धर्म प्रतीकों संस्कृति के प्रति उपहास /उदासीनता में पली पीढ़ी का यह कटु सत्य है। तो फ‍िर सोनाक्षी के जवाब पर हो हल्ला क्यों।
जब अपने बच्चों में संस्कारों का रास्ता हमने ही बदला है तो फिर इस पीढ़ी द्वारा आराध्य राम की और इनकी लीला भुला देने वाली पीढ़ी से कैसी शिकायत? कथ‍ित प्रगत‍िवाद के नाम पर स्कूलों के सिलेबस से जानबूझकर राम और कृष्ण की कथायें हटाई गईं, चाणक्य कौन थे, इस पीढ़ी के 70 प्रत‍िशत बच्चों को नहीं पता , फ‍िर स्वामी व‍िवेकानंद , रामकृष्ण परमहंस, आद‍ि शंकराचार्य की बात ही छोड़ दीज‍िए… परंतु इस पर हमने कभी बहस की ? कभी नहीं ।
हम डरते रहे क‍ि यद‍ि अपने बच्चों को धर्म, संस्कृत‍ि, परंपरा और उनमें समाह‍ित शिक्षाओं, उनके वैज्ञान‍िक पक्षों पर बात करेंगे तो हमें प‍िछड़ा बता द‍िया जाएगा। इस डर ने ही हमारे आसपास ना जाने क‍ितने सोनाक्षी-संस्करण खड़े कर द‍िए।
हर बुराई के पीछे अच्छाई छ‍िपी होती है, इस एक वाक्य से हमें संकट में भी सकारात्मक सोचने की सलाह दी गई ताक‍ि हम बुराई से न‍िकले सबक को लेकर सचेत हो जायें और ये सोचें क‍ि आख‍िर ये स्थ‍ित‍ि आई ही क्यों। अब वक्त ट्रोल करने से पहले स्वयं से पूछने का है क‍ि हमारी परवर‍िश की द‍िशा कौन सी है।
- अलकनंदा स‍िंंह 

शनिवार, 21 सितंबर 2019

रिफ्रेशर कोर्स ‘अर्पित’ ने खोली उच्च श‍िक्षा के गुरुओं की पोल

उच्‍च शिक्षण संस्‍थानों में शिक्षा की हकीकत बताने पर एक रिपोर्ट आई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा उच्‍च शिक्षण संस्‍थानों में कार्यरत शिक्षकों के लिए पिछले वर्ष एक रिफ्रेशर कोर्स ज्‍वॉइन करने हेतु जो परीक्षा आयोजित की गई थी, उसमें 40 प्रतिशत शिक्षक फेल हो गए।
दरअसल मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्‍च शिक्षण संस्‍थानों की गुणवत्‍ता व यहां के शिक्षकों के ज्ञान को परखने को एक ऑनलाइन रिफ्रेशर कोर्स ‘ARPIT‘ (ऐनुअल रिफ्रेशर प्रोग्राम इन टीचिंग) जारी किया। इसमें शामिल होने के लिए एक शुरुआती टेस्‍ट होना था। अकर्मण्‍यता का इससे बड़ा नमूना और क्‍या हो सकता है कि इस रिफ्रेशर कोर्स ‘अर्पित’ को लेकर उच्‍च शिक्षण संस्‍थानों में पढ़ा रहे लगभग 15 लाख शिक्षकों में से सिर्फ 51000 शिक्षकों ने ही रजिस्‍ट्रेशन कराया और उनमें से भी सिर्फ 6,411 शिक्षक ही शामिल हुए जिसमें से भी 40 प्रतिशत शिक्षक फेल हो गए।
यूं इस कोर्स को करना अनिवार्य नहीं था परंतु इसे पदोन्‍नति से जोड़ा गया था, बावजूद इसके इतनी बड़ी संख्‍या में शिक्षकों का ‘रिफ्रेशर कोर्स टेस्‍ट’ में फेल होना ये बताता है कि उच्‍च शिक्षा में बदहाली और शिक्षकों की जो ‘दयनीय’ दशा है, वह दरअसल इकतरफा है, जानबूझकर प्लान्ट की गई है । इस इकतरफा ‘स्‍थापित की गई तस्‍वीर’ में कहीं भी ना तो शिक्षकों की अकर्मण्‍यता का जि़क्र आता है और न ही शैक्षिक माफियागिरी का। निश्‍चित जानिए ना तो इन फेल हुए 40 प्रतिशत का उल्‍लेख होगा और ना ही उन 14 लाख 40 हजार का जिन्‍होंने परीक्षा केलिए रजिस्‍ट्रेशन ही नहीं कराया।
बहरहाल शिक्षक संघों द्वारा हमारे सामने बनाई गई तस्‍वीर में शिक्षकों को सदैव बेचारा बताकर सरकारों को कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है जबकि तस्‍वीर का दूसरा रुख जो आज हमारे सामने 40 % के रूप में आया, वह उच्‍च शिक्षा के इन कमजोर कंधों की हकीकत बयान करता है। वह यह भी बताता है कि देश के करदाताओं का पैसा इन जैसे ना जाने कितने अकर्मण्‍यों पर बरबाद किया जा रहा है। कम तनख्‍वाह, अतिरिक्‍त कार्य के अलावा बात बात पर जिंदाबाद मुर्दाबाद करते शिक्षक संघों, यूनीवर्सिटी यूनियनों के जरिए संस्‍थानों पर हावी रहने की निकम्‍मी-प्रवृत्‍ति ने शिक्षण कार्य की गुणवत्‍ता को तो प्रभावित किया ही है, साथ ही उन्‍हें परजीवी की भांति गैरजिम्‍मेदार भी बना दिया और नतीजा हमारे-आपके सबके सामने है कि हम अपने बच्‍चों के भविष्‍य को आखिर किसके हाथों सौंपते चले आ रहे हैं।
नियम तो ये होना चाहिए कि जो देश के भविष्‍य का निर्माण करने को नियुक्‍त ऐसे सभी लोग अपनी योग्‍यता समय-समय पर सिद्ध करने को बाध्‍य हों क्‍योंकि तभी उच्‍च शिक्षा में आगे बढ़ा जा सकता वरना अभी तक तो हम सरकार पर शिक्षाबजट कम होने का आरोप लगाकर कबूतर की भांति असल समस्‍या को देखकर आंखें ही बंद करते आए हैं।

सोमवार, 9 सितंबर 2019

वेदों का मजाक उड़ाने वालों को जवाब है प्रो. पेनरोज, Dr. Hammeroff का शोध

जो व्‍यक्‍ति अथवा समाज अपने अतीत को विस्‍मृत कर देता है वह अपने वर्तमान का ध्‍वंस तो करता ही है, भविष्‍य का भी अपराधी होता है। हम वेदों द्वारा सौंपे गए ज्ञान को भुलाकर यही अपराध लगातार करते रहे परंतु अब ये तस्‍वीर उलट रही है और इस पर गर्व करने की बारी हमारी है, वह भी प्रमाणों के साथ। अब भौतिकी के क्वाटंम सिद्धांत पर आधारित शोधों के बाद वैज्ञानिक ये सिद्ध करने में सफल हुए हैं कि आत्‍मा अजर व अमर है।
आधुनिक विज्ञान की आधारशिला बने ब्रह्मांडीय अध्‍ययन के साथ साथ शरीर विज्ञान के अध्‍ययन ये बताने को काफी हैं कि जो कुछ हमारे ऋषि-मुनि अपने ज्ञान से बताकर गए वह न केवल सत्‍य है बल्‍कि प्रमाणिक भी था और सदैव रहेगा।
हाल ही में ऑक्‍सफोर्ड यूनीवर्सिटी के गणित व भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर सर रोगर पेनरोज तथा यूनीवर्सिटी ऑफ एरीजाना के भौतिक वैज्ञानिक Dr. Stuart Hameroff ने 20 साल तक किए अनेक शोधों के बाद निष्‍कर्ष निकाला कि आत्‍मा अजर अमर है। इस बारे में इन्‍होंने कुल 6 शोधपत्र प्रकाशित किए हैं और इसपर अमेरिकी साइंस चैनल में डॉक्‍युमेंटरी भी जल्‍द ही दिखाई जाएगी।
शोधकर्ता प्रोफेसर सर रोगर पेनरोज तथा डा. स्‍टुअर्ट Hammeroff का कहना है कि मानव मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की भांति है। इस जैविक कंप्यूटर का प्रोग्राम चेतना या आत्मा है जो मस्तिष्क के अंदर मौजूद एक क्वांटम कंप्यूटर के जरिये संचालित होती है। क्वांटम कंप्यूटर से तात्पर्य मस्तिष्क की कोशिकाओं में स्थित सूक्ष्म नलिकाओं से है जो प्रोटीन आधारित अणुओं से निर्मित हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के ये सूक्ष्म स्रोत अणु मिलकर एक क्वाटंम स्टेट तैयार करते हैं जो वास्तव में चेतना या आत्मा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, जब व्यक्ति दिमागी रूप से मृत होने लगता है तब ये सूक्ष्म नलिकाएं क्वांटम स्टेट खोने लगती हैं। सूक्ष्म ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलिकाओं से निकल ब्रह्मांड में चले जाते हैं। कभी मरता इंसान जिंदा हो उठता है, तब ये कण वापस सूक्ष्म नलिकाओं में लौट जाते हैं। आत्मा चेतन दिमाग की कोशिकाओं में प्रोटीन से बनी नलिकाओं में ऊर्जा के सूक्ष्म स्रोत अणुओं एवं उपअणुओं के रूप में रहती है। सूचनाएं इन्हीं सूक्ष्म कणों में संग्रहित रहती हैं।
शोध के अनुसार सूक्ष्म ऊर्जा कणों के ब्रह्मांड में जाने के बावजूद उनमें निहित सूचनाएं नष्ट नहीं होती। क्वाटंम सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले वैज्ञानिक मैक्स प्लंक के नाम पर म्यूनिख में प्लंक इंस्टीट्यूट है, वहां के वैज्ञानिक हेंस पीटर टुर ने भी इसकी पुष्टि की है।
भारतीय वैदिक ज्ञान परंपरा पर सवाल उठाने वालों और इसे पोंगापंथी बताने वालों के लिए भौतिकी के क्वाटंम सिद्धांत पर आधारित यह शोध एक सबक है क्‍योंकि वाे भारतीय ज्ञान परंपरा में हुए ब्रह्मांडीय प्रयोगों को कमतर आंकते रहे और हर तथ्‍य को पोंगापंथ कहकर परे धकेलते रहे। वेदों के ज्ञान से भरे हुए हमारे अतीत को आज फिर से उसी प्रतिष्‍ठा के लिए याद करने का समय है।
जैसे कि पुरुषसूक्‍त, ऋग्वेद. 10.90.2 में कहा गया है-
पुरुष एव इदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम्।
उतामृतत्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति।।
अर्थात्
इस सृष्टि में जो कुछ भी इस समय विद्यमान है, जो अब तक हो चुका है और आगे जो भविष्य में होगा, वह सब पुरुष (परमात्मा) ही है। वह पुरुष उस अमरत्व का भी स्वामी है, जो इस दृश्यमान भौतिक जगत के ऊपर है।
आज का विज्ञान भी मानता है कि इस दृश्यमान जगत के अंदर की सच्चाई इसके ऊपर से दिखने वाले रूप से सर्वथा भिन्न है। ऋग्‍वेद का संदेश आत्‍मा निरंतरता व अमरता को समझने के लिए काफी था जिसे अब प्रोफेसर सर रोगर पेनरोज व डा. स्‍टुअर्ट हैमरॉफ द्वारा क्‍वांटम कंप्‍यूटिंग व मैकेनिज्‍म से प्रमाणित किया जा रहा है।
– अलकनंंदा सिंह

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

शिक्षक दिवस: ‘नौकरी की सोच’ से आगे की बात

The point beyond 'job thinking'
यूं तो आज शिक्षक दिवस है और शिक्षा व शिक्षकों को लेकर कसीदे पढ़े जायेंगे, उनकी समस्यायें गिनाईं जाएंगी, सरकारों से उनके लिए क्‍या करें क्‍या ना करें, आदि आदि समाधान बताए जाऐंगे, जो स्‍वयं कुछ नहीं कर सके वे दूसरों को उपदेश देंगे कि शिक्षक दिवस पर ये करें, वो ना करें… आदि आदि। निश्‍चित जानिए कि आज का दिन शिक्षकों की ”बेचारगी” का रोना रोने में जाएगा। गुरुकुल की महान परंपरा वाले देश में इस तरह का रुदाली-रुदन अच्‍छा नहीं, ये तो शिक्षकों का डिमॉरलेजाइशन ही हुआ ना।
बहरहाल मैं अपनी बात यहीं से शुरू करती हूं कि आखिर क्‍यों ‘गुरू को पूजने वाले हम’ स्‍वयं का विक्‍टिमाइजेशन करने के आदी होते गए, गरीब और गरीबी को कथित रूप से महिमामंडित करते रहे। इस बेचारगी के रोने में कब स्‍वाभिमान तिल तिल कर समाप्‍त होता गया, पता ही नहीं चला।
शिक्षकों को लेकर हम इतना रोए कि ये विक्‍टिमाइजेशन की प्रवृत्‍ति रग रग में समाती चली गई, नतीजा यह रहा कि पूरे समाज को शिक्षित करने वाला शिक्षक ही अपने स्‍वाभिमान और कर्तव्‍य को ‘नौकरी’ के लबादे में लपेटकर स्‍वयं को हद दर्जे तक लगातार गिराता गया। स्‍तर यहां तक गिरा कि नौकरी के लिए शिक्षक हिंसक विरोध प्रदर्शनों पर उतर आए।
अकर्मण्‍यता, राजनीति, विरोध-प्रदर्शनों का पर्याय क्‍यों होते गए शिक्षक। शिक्षा देने वाले ही जब हिंसा पर उतारू हो जाऐंगे तो शिक्षा देगा कौन और कैसी होगी वह शिक्षा, आज के दिन ये भी सोचना जरूरी है। शिक्षादान को नौकरी में समेटकर हमने जो भूल कीं, अब उसे सुधारने का समय आ गया है।
सम्‍मान पाने के लिए सम्‍मान देना भी जरूरी है, और जो अपने कर्म को ही सम्‍मान नहीं दे सकता वह सम्‍मान पाने का अधिकार खो देता है। ये सम्‍मान किसी सरकार या संस्‍था से लिए जाने वाला सम्‍मान नहीं, बल्‍कि अपनी ही नज़रों में अपने सम्‍मान की बात है। तभी तो उन्‍हें ही श्रेष्‍ठ शिक्षक कहा जाता है जो नि:स्‍वार्थ शिक्षा देने में यकीं रखते हैं। संपन्‍नता नहीं, सुख खोजेंगे…अधिकार से पहले कर्तव्‍य को अंजाम देंगे तो ही समझ आएगा कि शिक्षक दिवस पर अब शिक्षकों को अपनी यात्रा का रुख किस ओर करना चाहिए।