मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

होली पर सुरीले ब्रज की संपूर्ण गाथा का नाम है समाज गायन

श्री बांकेबिहारी मंदिर में समाज गायन करते गोस्‍वामी समाज के मुखिया व अन्‍य
अभी चूंकि होली का अवसर है तो मैं अपने सुरीले ब्रज की बात ना करूं, ऐसा हो नहीं सकता।

यूं भी जब आराधना और लोकोत्‍सव एक होकर किसी संस्‍कृति को समृद्ध करते हों और अनेक वर्षों से अब तक लगातार ऐसा करते आ रहे हों, वह भी बिना किसी बाधा के तो कोई ना कोई बात ऐसी अवश्‍य होगी ही जो सर्वस्‍वीकृति से सभी तारों को आपस में गूंथे रही। 

सामूहिकता ब्रज की थाती रही है, चाहे वह गोवर्द्धन पूजा हो या होली के परंपरागत आयोजनों की सर्वाधिक लंबी अवधि। इस लंबी अवधि को मनोरंजन और गायन-वादन की जिस अद्भुत परंपरा ने बांध रखा है, आज मैं उस ''समाज गायन'' की परंपरा के बारे में बात करूंगी।

जी हां, होली के इस रंगबिरंगे अवसर पर समाज गायन के पदों का अद्भुत विन्‍यास, इसे ईश्‍वर की आराधना से जोड़ने, श्रीकृष्‍ण को बीच में बैठाकर स्‍वयं होली की क्रीड़ा में मग्‍न होने का विरल आकर्षण कैसे पिरोया जाता है, यह सब समाज गायन को सुनकर ही जाना जा सकता है। 

वृंदावन में ही स्‍वामी हरिदास की साधना स्‍थली टटी स्‍थान पर समाज गायन  
ब्रज में वसंत पंचमी से 40 दिवसीय होली की शुरुआत डांढ़ा गढ़ने के साथ होती है और उसके बाद रमणरेती (महावन) बरसाना, नंदगांव और श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान पर जमकर होली खेली जाती है। आज गोकुल की छड़ीमार होली है। इसके बाद होलिका दहन वाले दिन जलती होली से फालैन में पंडे का गुजरना और इसी दिन चतुर्वेदी समाज का रंगों से सराबोर भव्‍य डोला निकलेगा। फिर दाऊजी, जाव और नंदगांव का हुरंगा, इसके बाद मुखराई के चरकुला नृत्‍य का आयोजन और फिर बठैन और गिडोह का हुरंगा अपने निश्‍चित तिथि पर संपन्‍न होगा।

इन सभी आयोजनों के तहत मंदिरों में गाया जा रहा समाज गायन हर संगीतप्रेमी को लुभा रहा है।

ऐसा ही वृंदावन की महिमा गान संबंधी श्री हरिराम व्यास का एक पद देखिए...

धनि-धनि वृन्दावन की धरनि।
अधिक कोटि वैकुंण्ठ लोक ते, सुक-नारदमुनि बरनि।।

जहाँ श्याम की बाम केलि कुल ,धाम काम मन हरनि।
ब्रम्हा मोह्यौ ग्वाल मंडली ,भेद रहित आचरनि ।।

राधा की छवि निरखत मोही, नारायन की घरनि।
और बार कीनी बनि बनिता ,प्रेम पतिहिं अनुसरनि।।

जहाँ महीरूह राज बिराजत, सदा फूल-फल फलनि।
तहाँ "व्यास' बसि ताप बुझायौ, अतंरहित की जरनि।।
धनि-धनि वृन्दावन की धरनि ......



नीचे के वीडियो में देखिए कि कैसे होता है समाज गायन 

वसंत पंचमी से शुरू होने वले इस 40 दिवसीय उत्‍सव के की शुरूआत करीब 445 वर्ष पुरानी बताई जाती है। प्राप्‍त जानकारी के अनुसार समाज गायन की शुरुआत श्रीकृष्‍ण की आल्‍हादनी शक्‍ति राधा के बरसाना में हुई। वृंदावन शोध संस्‍थान में सुरक्षित रखी गईं पांडुलिपियों से पता चला है कि इस गायन परंपरा को सर्वप्रथम श्रीनारायण भट्ट ने शुरू किया। दक्षिण भारत में मदुरैपट्टनम के श्रीवत्स गोत्रिय तैलंग ब्राह्मण भाष्कर भट्ट के यहां जन्मे श्रीनारायण भट्ट,   नारायण के अवतार कहे जाते हैं। संवत् 1602 में नारायण भट्ट ब्रज में आए। यहां उन्होंने ब्रज का प्राकट्य करने के साथ-साथ समाज गायन में गाए जाने वाले पदों का भी संकलन किया।

क्‍या कहते हैं इतिहासकार और पांडुलिपि विशेषज्ञ  

इतिहासकारों और प्राप्‍त पांडुलिपियों के आधार पर कहा जाता है कि ब्रज भूमि लुप्त हो चुकी थी, 16वीं सदी में ब्रज के पुनरोत्थान का दौर जारी था। स्वामी हरिदास, नारायण भट्ट, गोस्वामी हित हरिवंश, चैतन्य महाप्रभु तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य यहां आए। इन्‍होंने ब्रज की लीलाओं को प्रकाशित किया। उन्हीं में से अलग-अलग वैष्णवों के संप्रदाय के दृष्टिकोण के हिसाब से समाज गायन की पोथियां (प्रकाशित सामग्री) विकसित होती गईं।

देवालयों में विकसित हुआ समाज गायन

देवालय पद्धति के अनुसार समाज गायन के मध्य भाग में जो बैठता है, उसे समाज का मुखिया कहते हैं। समाज की पोथी में से पहले मुखिया गायन करता है, उनके पीछे अनुसरण करने वाले तान मिलाते हैं और सुरों को बांधते हुए आगे बढ़ते हैं, इन्‍हें झेला कहा जाता है, साथ ही पखावजी लोग पखावज बजाते हैं। वल्लभ कुल के वैष्णव संप्रदाय में समाज गायन को कीर्तन बोला जाता है। वैष्णव संप्रदाय की प्राप्‍त पोथियों में भगवान की बाल लीलाओं का ही वर्णन सुनने को मिलता है।

समाज की पोथी को बोलते हैं वर्षोत्सव की पोथी

वृंदावन शोध संस्थान के पांडुलिपि विशेषज्ञों के अनुसार  पहले यह पांडुलिपियां हाथों से लिखी जाती थीं। प्रिंटिंग मशीन आने के बाद यह वर्षोत्सव (समाज की पोथी) छपने लगी, लेकिन परंपरागत रूप से हाथ से लिखी जाने वाली पोथी का विशेष महत्व होता है। पोथी को वर्षोत्सव की पोथी भी कहा जाता है।

इन्‍हीं पांडुलिपियों से ज्ञात होता है कि राधाकृष्ण की कृपा से वह संवत् 1602 में ब्रज में आए। यहां उन्होंने देखा कि ब्रज मंडल के ग्राम, नगर, कुंड, तालाब व विग्रह सभी विलुप्त हो गए हैं। उन्हें यह देख कर बहुत कष्ट हुआ। उन्होंने अपने साथ आए लाडिलेय प्रभु के साथ विलुप्त स्थलों का प्राकट्य किया। इसी क्रम में बरसाना के श्रीजी के श्रीविग्रह का प्राकट्य संवत 1626 में भट्ट जी ने ही किया। भट्ट जी का तिरोभाव संवत् 1700 में हुआ।

आज भी गोस्वामी समाज के मुखिया रामभरोसी गोस्वामी के पास समाज गायन की 400 वर्ष से अधिक पुरानी पोथी मौजूद हैं।

प्रदेश सरकार द्वारा संपूर्ण ब्रज को श्रीकृष्‍ण सर्किट के तौर पर विकसित किए जाने की योजना के बाद अब संभवत: समाज गायन की इस समृद्ध विरासत को और भी समृद्ध बनाया जा सकेगा और देश-विदेश को इससे परिचित कराया जा सकेगा।

अभी तो स्‍थिति यह है कि साहित्य-संस्कृति और प्राचीन परंपराओं की धारा को बचाए रखने वाले अपनी आजीविका तक निकालने को प्रतिदिन जूझते हैं, मंदिरों के अलावा कला और संगीत निस्तब्ध है, कलाकार विपन्न स्थिति में हैं। कला को जीवित रखने के लिए कलाकार को जीवित रखना होता है, यह सरकारों के साथ-साथ हम सभी के लिए चिंता और चिंतन का भी विषय है।

गायकों की विपन्‍नता के चलते हम समाज गायन जैसी भक्‍तिरस में पगी अद्भुत गायन परंपराओं को कैसे बचाए रख सकते हैं, अब इस पर विचार और प्रयास अति आवश्‍यक हैं।

समाज गायन की शास्‍त्रीयता के साथ-साथ लोक कलाओं जैसे कि ब्रज के रसिया, मल्हार, चिकाड़े का ढोला, परसोकले आदि के स्वर क्यों मौन होते जा रहे हैं? इस पर भी विचार करना आवश्‍यक है।

बहरहाल, श्रीकृष्‍ण सर्किट के तहत प्रदेश सरकार के प्रयासों से आशा तो बंधी है कि ब्रज की इन महान विरासतों से आप भी शीघ्र रूबरू हो सकेंगे।

- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

आज हुई मथुरा में श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान पर Holi

 आज श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान मथुरा पर हुई Holi: रंगभरनी एकादशी पर भगवान श्रीकृष्‍णजन्‍मस्‍थान की होली ने सभी दर्शकों को भी सराबोर कर दिया। इस अवसर पर ब्रज की मनभावन होली के रंगभरे उल्लास तो दिखाई ही दिया साथ ही परंपरागत ‘मयूर नृत्य’ की उमंग ने समां बांध दिया। ‘रसिया’ की तान पर नटखट गोपाल की संगीतमय आराधना ने अपनी छटा बिखेरी तो यह ब्रज की पांच हजार वर्ष पुरानी कृष्णमयी संस्कृति और लोकपरम्परा साक्षात हो गई। ब्रज की संस्‍कृति का अभिन्न अंग है श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान की ये होली।


भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि के लीला मंच पर रंगभरनी एकादशी 26 फरवरी को लठामार Holi का आयोजन किया गया। होली के लिए अयोध्या से गुलाल मंगाया गया। ब्रज की होली से जुड़े स्थलों की पवित्र रज मिश्रित गुलाल की बरसात की जाएगी। श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और जय श्रीकृष्ण लठामार होली समिति ने व्यवस्थाओं को पूरा कर लिया है।
संस्थान के सचिव कपिल शर्मा, सदस्य गोपेश्वरनाथ चतुर्वेदी ने बताया कि जन्मभूमि की अलौकिक Holi के लिए ढाल, बारह¨सगा, ढोल, नगाड़े रंग-पुत कर तैयार किए जा रहे हैं। तेल में भीगी हुरियारिनों की लाठियां भी प्रिया-प्रियतम की होली के लिए तैयार हैं। कार्यक्रम का शुभारंभ दोपहर दो बजे ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा करेंगे। महिलाओं के बैठने के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। उन्होंने बताया कि होली के लिए भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या से गुलाल मंगाया गया है। ब्रज में भगवान की होली लीला से जुड़े स्थलों की पवित्र रज मिश्रित गुलाल, पुष्प की बरसा मशीनों द्वारा की गई।
251 हुरियारे-हुरियारनों ने खेली लठामार होली
श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर इस बार रावल और श्रीकृष्ण संकीर्तन मंडल के 251 हुरियारे और हुरियारिनें लठामार होली का हिस्सा बने। लहरिया रंग के लहंगा-फरिया पहनें हुरयारिनें-हुरियारों पर लाठियों से प्रहार करतीं नजर आईं वहीं पीले और सफेद धोती-कुर्ता में सजे हुरियारे उनसे हंसी-ठिठोली करते दिखे।
श्रीकृष्ण जन्मस्थान के सचिव कपिल शर्मा ने बताया कि रंगभरनी एकादशी पर परिसर में होने वाली लठामार होली को खास बनाने के लिए मंदिर प्रबंधन ने थोड़ा बदलाव किया है। पूर्व की अपेक्षा इस बार अधिक संख्या में हुरियारे व हुरियारिनों को आमंत्रित किया गया है।
विगत वर्ष 151 हुरियारे व हुरियारिनों ने इसमें भाग लिया था, इस वर्ष इनकी संख्या में इजाफा किया गया है और 251 हुरियारे और हुरियारिनों को आमंत्रित किया गया है।
भक्त यहां प्रभु के साथ Holi खेलने आते हैं,  यहां आने वाला प्रत्येक भक्त यह अहसास करता है कि वह वास्तव में ठाकुरजी के साथ ही होली खेल रहा है।
-Legend News

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

देह तक सिमटे ''कथित फरिश्‍ते''


देह तक सिमटे ''कथित फरिश्‍ते''
हम जिस आदि धर्म को ''सनातन'' कहते हैं, आज उसी के नाम पर  किस तरह गंदगी फैलाई जा रही है, उसकी बानगी हैं आध्यात्मिक  गुरू होने का दावा करने वाले दुराचारी वीरेंद्र देव दीक्षित। जी हां,  मामला कोर्ट में होने और उनके अपराधी घोषित होने से पूर्व ही उन्‍हें  शत-प्रतिशत दुराचारी कहा जा सकता है। कहते हैं ना कि आंखों के  सामने दूध में गिरी मक्‍खी को भी नहीं निगला जा सकता, ठीक उसी  तरह दीक्षित के वकील ने कल जो कुछ कोर्ट में कहा, वह उनकी  ''कुत्‍सित सोच वाली बिरादरी'' के बारे में सब-कुछ बता गया कि  उन्‍होंने बच्‍चियों के साथ ''क्‍या क्‍या न किया होगा'' और इस सोच के  आधार पर ही इन्‍हें बख्‍शा नहीं जा सकता।

आध्यात्मिक गुरू होने का दावा करने वाले वीरेंद्र देव दीक्षित के  वकील ने कल सोमवार को दिल्‍ली हाईकोर्ट में विवादास्पद बयान देते  हुए कहा कि ‘नारी नर्क का द्वार है’ और इसलिए हम लड़कियों को  आश्रम में कैद करके रखते हैं।
हालांकि कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल व न्यायमूर्ति सी.  हरि. शंकर की पीठ ने दीक्षित के वकील के इस बयान पर कड़ा  एतराज जताते हुए उसे तत्काल कोर्ट से बाहर निकलवा दिया।
इससे पहले मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली सरकार की ओर से  पेश अधिवक्ता ने कहा कि ‘दीक्षित न सिर्फ खुद को सबसे ऊपर  मानते हैं, बल्कि खुद को भगवान भी समझते हैं। तो इस पर भी  आश्रम के वकील ने कहा कि हम न तो कोई सोसायटी हैं और न ही  हमारे ऊपर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या किसी अन्य संस्था  का आदेश मानने के लिए बाध्य हैं क्योंकि हम कोई डिग्री या  डिप्लोमा नहीं देते हैं।

हाईकोर्ट ने जब पूछा कि आखिर यह विश्वविद्यालय कैसे कहलाता  है तो इसके जवाब में आश्रम के वकील ने कहा कि आश्रम इस  लिहाज से विश्वविद्यालय कहलाता है क्योंकि इसका संचालन खुद  भगवान कर रहे हैं। वकील ने दीक्षित को भगवान बताते हुए कहा  कि जब भगवान खुद ज्ञान दे रहे हैं तो कोई हमको विश्वविद्यालय  कहने से मना कैसे कर सकता है। इस पर हाईकोर्ट ने कहा कि  आश्रम विश्वविद्यालय शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकता क्योंकि  इसका गठन नियमों के तहत नहीं हुआ है और न ही विश्वविद्यालय  अनुदान आयोग से मान्यता प्राप्त है।

बहरहाल, दीक्षित के वकील ने बता दिया कि वह और उसका क्‍लाइंट  ''कथित भगवान'' उसी लाइन में लग गए हैं जिस लाइन को अब  तक पकड़े गए एक दर्जन से अधिक ''दुराचारी बाबाओं'' ने तैयार  किया, जो ''कथित बाबा'' अभी तक सार्वजनिक नहीं हुए, यहां उनकी  कोई गिनती नहीं हुई है ।

निश्‍चित ही हम मानते हैं कि समाज की सोच में गिरावट आई है  और इसका फायदा ऐसे ही दुराचारी उठा रहे हैं तथा वासनापूर्ति के  साथ संपत्‍तियां अर्जित कर रहे हैं। ये सब हुआ ही इसलिए कि हम  अपने मूलधर्म और उसकी अवधारणा से दूर होते गए। जिस सनातन  धर्म की नींव वेदों की ऋचाओं के अनुसार रखी गई, उनमें भी कहीं  ये जिक्र नहीं है कि ''नारी नर्क का द्वार'' है।

इसी संदर्भ में ऋग्वेद के एक मंत्र का मैं उल्‍लेख करना चाहूंगी। 
जिस मंत्र का मैं उल्‍लेख कर रही हूं, उसके तीसरे मंडल के 18वें  श्‍लोक के पहले मंत्र में कहा गया है कि- 

''यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा  हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यो, आप अपने उत्पन्न होने की  आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें।'- (ऋग्वेद-3-18-1)

इस मंत्र में ना तो माता को स्‍त्री माना गया है और ना ही देहमात्र,  बल्‍कि माता को प्रकृति, धरती अथवा जन्‍मदात्री माना है और तीनों  के संदर्भ में यह मंत्र अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। परंतु स्‍त्री को  मात्र देह भर समझाने वाले इसके औचित्‍य तक नहीं पहुंच सकते  और इन्‍हीं में शामिल हैं ऐसे ''दुराचारी बाबा''।

यूं भी जो लोग अपनी मानसिक चेतना को सिर्फ देह तक ही सीमित  रखते आए हैं, उन्‍हें फिर से ऋग्वेद की ओर ले जाने की खुशफहमी  हमें नहीं पालनी चाहिए क्‍योंकि जो व्‍यक्‍ति विकृत मानसिकता का  है, वह इस ज्ञान का दुरुपयोग ही करेगा।

ऋग्वेद ने हमें माता के जिस रूप को सहेजने का ज्ञान दिया, वह  नरक के द्वार में कब और कैसे तब्‍दील हुई और इसे तब्‍दील किसने  किया, यह अब कोई पहेली नहीं रह गई।

सनातन धर्म को ऐसे ही लोगों द्वारा विकृतरूप में पेश किया जाता  रहा है और यही कारण है कि आज देश की ही विराट विरासत को  गरियाने वालों की कमी नहीं हैं। ना मूलभाव समझा, ना ही मूलरूप।  आधे-अधूरे सच के रूप में कोई मनुस्‍मृति लेकर चौराहे पर खड़ा हो  जाता है तो कोई बाबा बनकर अपना धन-वासना का साम्राज्‍य  स्‍थापित कर ''लोगों को बेवकूफ बनाने'' में मशगूल। सनातन धर्म को  अपभ्रंशित रूप में आमजन के सामने पेश करने का ही नतीजा है कि  आज कहीं ''बाबाओं'' का घिनौना रूप सामने आ रहा है तो कहीं  उनके कुत्‍सित विचार।

देह तक सिमटे ये ''कथित फरिश्‍ते'' हमारे सनातन धर्म का कितना  नुकसान कर चुके हैं और अभी कितना करेंगे, यह दिल्‍ली हाई कोर्ट  में दीक्षित के वकील ने अपनी घिनौनी सोच से बता दिया। इस पर  यदि गौर नहीं किया गया और हम हर बाबा को धर्मरक्षक अथवा  संत-महात्‍मा मानकर पूजते रहेंगे और उन्‍हीं में से उपजते रहेंगे राम  रहीम- वीरेंद्र दीक्षित-आसाराम आदि आदि....।

- अलकनंदा सिंह