''अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, 8 March 1914 को दर्शाता हुआ एक जर्मन पोस्टर; हिन्दी अनुवाद: “हम महिलाओं को मताधिकार दो। महिला दिवस, 8 मार्च 1914.
अब तक भेदभाव और प्रतिक्रियावादी नज़रिए ने उन महिलाओं को पूर्ण नागरिक अधिकार से वंचित रखा है, जिन्होंने श्रमिकों, माताओं और नागरिकों की भूमिका पूरी निष्ठा से निभाई तथा अपने कर्त्तव्य का पालन किया है एवं जिन्हें नगर पालिका के साथ-साथ राज्य के प्रति भी करों का भुगतान करना होता है। इस प्राकृतिक मानवाधिकार के लिए हर औरत को दृढ़ एवं अटूट इरादे के साथ लड़ना चाहिए। इस लड़ाई में किसी भी प्रकार के ठहराव या विश्राम करने की अनुमति नहीं है। सभी महिलाएँ और लड़कियाँ आएं, रविवार, 8 मार्च 1914 को, शाम 3 बजे, 9वीं महिला सभा में शामिल हों''।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम अपने हको-हुकूक की बातें करते हुए हमेशा उन महिलाओं को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने सबसे पहले अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर यह दिवस २८ फ़रवरी १९०९ को मनाते हुए हर साल फरवरी के आखिरी इतवार को मनाये जाने का दिन सुनिश्चित किया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में तो इसे अगले ही साल 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में मान्यता मिली।
उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था क्योंकि अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था।
अधिकार की यह यात्रा सात साल में चलते- चलते रूस तक जा पहुंची जब 1917 में रूस की महिलाओं ने महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी क्योंकि ज़ार ने सत्ता छोड़ी और उसके बाद बनी अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिया। उस समय रूस में जूलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर जबकि इन दोनों कैलेंडर्स की तारीखों में थोड़ा अन्तर होता है। जूलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 में फरवरी का आखिरी इतवार २३ तारीख को पड़ा था जब की ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन ८ मार्च थी। चूंकि पूरी दुनिया में अब, यहां तक रूस में भी ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है इसीलिये ८ मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
ये थी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाए जाने की वो यात्रा जब महिलाओं ने कामकाजी होने के साथ अपने अधिकारों के लिए आगे आने का साहस किया, और जिसके लिए आज हमें उनका आभार व्यक्त करना चाहिए कि दुनिया की आधी आबादी आवाज उठाने और उसे आगे बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता बनाए हुए है। हालांकि यह यात्रा अपने उत्तरोत्तर पड़ाव स्थापित करती जा रही है । ये पड़ाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका में महिला को राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार्यता दिलाने का हो या बोको हरम के जुल्म, यज़ीदी महिलाओं को सेक्स गुलाम बनाए जाने, होंडुरास से लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान होती हुई हमारे देश में भी ऑनर किलिंग के नाम पर महिलाओं के कत्ल जैसी गतिविधियों तक आगे बढ़ रहे हैं। भारत में इस यात्रा के और भी पड़ाव हैं।
बात निकली है महिला अधिकारों की, लिंगभेद को मिटाने की तो ऑफिस से लेकर घर तक और बाजार से लेकर मंदिरों तक हर जगह यह अपनी जद्दोजहद के साथ संकल्पबद्ध है। हर स्तर पर महिलाओं की मौजूदगी तथा उनके होने को स्वीकृति का माहौल तो बन ही चुका है, अब लड़ाई की जगह आम सहमति लेती जा रही है। आगे आने वाला समय इसके लिए और अनुकूल ही होगा क्योंकि कम से कम नई पीढ़ी के लड़के इस बात से बावस्ता हैं, वह लिंगभेद और पुरुषों की ठेकेदारी वाली सोच से आगे जाकर सोच रहे हैं।
शनि सिंगणापुर में प्रवेश, त्रयम्बकेश्वर में प्रवेश, सबरीमाला में युवा महिलाओं के प्रवेश निषिद्धि के खिलाफ उठी आवाजें जहां अपने स्त्रीत्व के कारण पूजा करने के अधिकार से वंचित कर दिए जाने को चुनौती दे रही हैं वहीं हैपी टू ब्लीड अभियान नई चेतना को टैबू बनाकर रख दिए जाने के खिलाफ है।
ये सोच में आ रहे क्रांतिकारी बदलाव ही तो हैं। 1914 से चली यह यात्रा महिला को एक इंसान के रूप में अधिकार हासिल होने तक जारी रहने वाली है। अब इतना तो सुकून है कि ढर्रे पर चलने का रिवाज जा चुका है। नई पीढ़ी की सोच लिबरल है जो साथ- साथ चलेगी मगर बराबरी के अधिकारों के साथ। लड़कियों को कमतर आंकने की कुंठाएं अब धूल में दबे कंकड़ की तरह होती जा रही हैं जो समय-समय पर चुभेंगीं तो सही, मगर वह सिर नहीं उठा सकेंगी।
निश्चित जानिए कि अब महिला अधिकारों की यह यात्रा धर्म, मजहब, राजनीति, संस्कार, शिक्षा , रोजगार आदि क्षेत्रों से आगे जाने को प्रतिबद्ध हो चुकी है, कमर कस चुकी है।
- अलकनंदा सिंह
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