सोशल मीडिया में तैरते हुए शब्द ... देश विदेश की खबरों में तैरते हुए छा जाने वाले शब्द...जिन शब्दों से मीडिया ना जाने कितनी खबरें डेस्क पर बैठे-बैठे गढ़ लेता है, वो उम्र में बेहद कम और मौसमी बुखार की तरह जीवन लिए होते हैं। सोशल मीडिया में छाने के बाद ये अपना मकसद पूरा कर ऐसे विलोपित हो जाते हैं जैसे कि कोई फैशन था...आया...और गुजर गया...किसी एक और शब्द की तलाश में ...उसके चलन के इंतज़ार में।
इन तैरते शब्दों की उम्र इतनी छोटी होती है कि विलोपित होने के बाद इन्हें स्मृति पटल पर वापस लाने में बड़ी दिक्कत होती है। स्मृति के समुद्र में ज्वार की भंति ऊपर जाना फिर भाटे की भांति नीचे उतर जाना इनकी नियति बन गई है।
# Tag और Viral होने के बीच अब पनपने वाले शब्दों ने ना जाने कितने गुदड़ी के लालों को चमकता सितारा बना दिया और ना जाने कितने सितारों को धूल चटा दी। ये सोशल मीडिया पर तैरते शब्दों का ही कमाल था कि ''असहिष्णुता'' के नाम पर पूरी की पूरी राजनीतिक बिसातें बिछीं, चुनाव जीते और हारे गए और साहित्यकारों की कथित धर्मनिरपेक्षता और उनकी खुद की असहिष्णुता का नंगा सच भी सबके सामने आ गया। इसी एक ''असहिष्णुता' शब्द ने अच्छी- अच्छी मार्केटिंग कंपनियों को इस कदर ब्लैंकथॉट कर दिया कि उनके सामने अपने ब्राण्ड एंबेसेडर्स को रिप्लेस करने के सिवा कोई चारा ना बचा।
नेशनल ही नहीं, इंटरनेशनल लेवल पर भी इन # Tag शब्दों में गैंगरेप, रेप, आईएसआईएस के वीभत्स वीडियो, यज़ीदी महिलाओं के सेक्स गुलाम बनने की दास्तां, शरणार्थियों से भरी नौका डूबने और मृत बच्चे की समुद्र तट पर ली गई तस्वीर, हाल ही में नन्हें अफगानी मुर्तजा को फुटबॉलर मेसी की जर्सी मिलना और बलूचिस्तान के लोगों पर पाकिस्तानी सरकार के जुल्म जैसे विषयों ने सुर्खियां बटोरीं।
हालांकि कभी कभी # Tag के शब्द निर्णयों को भी बाधित करते हैं, जैसे कि नोबेल पुरस्कार के लिए चल रहे नॉमिनेशंस में हो रहा है जहां एक सेक्स गुलाम नादिया मुराद के बच निकलने की तुलना उस बहादुरी से की जा रही है जो अफगानिस्तान की पूरी की पूरी साइकिलिस्ट टीम ने तालिबानियों के खिलाफ दिखाई थी जबकि दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती।
# Tag सोशल मीडिया पर सिर्फ अफवाह को वायरल करने के ही काम नहीं आता, वह सच को यथावत सामने रखने के भी काम आता है। जैसे कि ये # Tag का ही कमाल था कि हैदराबाद यूनीवर्सिटी के आत्महत्या करने वाले जिस रोहित वेमुला को राजनीतिज्ञों ने दलित कहकर शोर मचाये रखा और केंद्र की सरकार को घेरने की कोशिश की, उसकी जाति का यह सच # Tag सामने ले आया कि वो वढेरा जाति का था जोकि ओबीसी में आती है।
# Tag ही था जिसने सबरीमाला की हकीकत और नई पीढ़ी की इन रूढ़ियों व रिवाजों के खिलाफ उभरती अकुलाहट को #HappytoBleed के रूप में सामने रखा। # Tag ने प्रौढ़ हो रही पीढ़ी को बताया कि बंदिशों और कथित शुचिता के नाम पर जो कुछ होता आ रहा है, अब वह यथावत मंजूर नहीं किया जा सकता।
# Tag ने ही भारतीय समाज को बीफ खाने और ना खाने के खेमों में बांट दिया और बीफ पर असहिष्णु तरीके से खेली गई राजनीति को भी। ये # Tag ही था जो बताता रहा कि भोजन, भजन, पहनावे और विचारों पर समाज खुलकर बहस करने की मुद्रा में है।
इस बीच देश में नकरात्मकता भी जमकर परोसी गई, बात- बात पर सरकार और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान चलाने में # Tag की बढ़ी भूमिका रही। # Tag के जरिये एक परंपरा सी बना दी गई कि किसी के किचन में हींग का छौंक भी अगर जल जाए तो बहुमत से चुनी गई सरकार के मुखिया को ही उत्तरदायी ठहराया जाए।
बहरहाल, मुद्दे बहुत हैं # Tag के बहाने सोशल मीडिया पर छाने वाले मगर जो सुर्खियां बने उन्होंने हवा का रुख तय किया और इनके चलन को फिलहाल तो समाज, राजनीति, संस्कार, विचार के विकास की तरह देखा जाना चाहिए। # Tag का सफर और कितने परिवर्तनों से हमें रूबरू कराता है, इंतज़ार कीजिए अगले # Tag परिवर्तन का।
हर चीज का एक समय होता है, एक दौर होता है। बेशक यह # Tag का दौर है लेकिन समय # Tag को भी Tag कर सकता है और किसी नई चीज को # Tag। देखना यह है कि # Tag और कितने समय तक प्रभावी रह पाता है। तो इंतजार कीजिए अब # Tag के भी Tag होने का।
- अलकनंदा सिंह
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