सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

मतभेद या राष्‍ट्रभेद ?

''भारत तेरे टुकड़े होंगे, हम क्‍या चाहें- आज़ादी'' जैसे नारों ने पिछले साल तो बवाल मचाया ही, अब इस साल भी दिल्‍ली यूनीवर्सिटी के रामजस कॉलेज से जो कुछ शुरू हुआ है, उसे सिर्फ और सिर्फ देश में अस्‍थिरता लाने व सेना के खिलाफ एक ''खास सोच वाले'' तबके की शरारती सोच ही कहा जाएगा जो किसी ना किसी तरह खबरों में रहना चाहता है।
कोई एक कारण गिनायें ये कि इन्‍हें देशविरोधी मानसिकता का क्‍यों ना कहा जाए। कश्‍मीर में सालों पूर्व हुए रेपकांड को सेना के विरोधस्‍वरूप और कश्‍मीर की आजादी की बात करते हुए 22 फरवरी को कॉलेज में आइसा के छात्र सेमीनार के आयोजन का आखिर औचित्‍य क्‍या था। पत्‍थरबाजों के खिलाफ इनका मुंह क्‍यों नहीं खुलता, कश्‍मीरी पंडितों के लिए ये कोई अभियान क्‍यों नहीं चलाते। क्‍यों अफजल गुरू को अपना आदर्श मानते हैं।
तो क्‍या संविधान, संसद और न्‍यायपालिका से भी इनका विरोध है। क्‍यों नहीं ये लोग नक्‍सल प्रभावित क्षेत्रों में जाकर सरकार के साथ आदिवासियों के पुनर्वास का काम करते हैं। नक्‍सल समस्‍या के जड़ में गरीबी नहीं है, वह प्रवृत्‍ति है जो धन और हथियारों से पोषित होती है, ठीक कश्‍मीर की तरह। नोटबंदी ने काफी सच उगल भी दिया है, अब और क्‍या सच बाकी है कहने को।

उमर खालिद को बाकायदा बुलाया जाना, गुरमेहर से एबीवीपी के खिलाफ कहलवाया जाना कोई इत्‍तिफाक नहीं है, रणनीति के तह में वही हैं जो लाइमलाइट पसंद हैं। सवाल का जवाब तो हम जैसे आमजन भी जानना चाहते हैं कि क्‍यों रामजस जैसे ऐतिहासिक कॉलेज की फैकल्‍टी ने उमर खालिद को बुलाया। जो एबीवीपी ने किया उसे तो स्‍वयं फैकल्‍टी ने ही सामने परोसा ताकि असहिष्‍णुता, अवार्ड वापसी और जेएनयू, कन्‍हैया कुमार या नजीब अहमद के बाद जो खामोशी ''उनकी प्रोपेगंडा राजनीति'' में छा गई थी, वह फिर से चमके। जिस वामपंथ को पूरे देश में लगभग (केरल, त्रिपुरा को छोड़कर) नकारा जा चुका है और जो आउटडेटेड हो चुका है, उसे फिर प्रकाश में लाया जाये।

यदि ऐसा ना होता तो सिमी के एक्‍टिव मेंबर रहे पिता की औलाद व जेएनयू में छात्र नेता उमर खालिद ने बाकायदा कश्‍मीर के एक आतंकवादियों के हित में और सेना के विरोध में जो अभियान चलाया हुआ है, उसका प्रसार रामजस कॉलेज तक इस तरह ना पहुंचता।

ज़ाहिर है छात्र राजनीति होनी ही थी। बवाल हुआ, मारपीट हुई, पुलिसिया कार्यवाही भी हुई मगर इसी बीच रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली कारिगल शहीद मंदीप सिंह की बेटी गुरमेहर ने सोशल मीडिया पर "I love this country and I am not frightened of anyone. I have got these threats many times. No one can threaten women, I will take a bullet for my country. This is not about politics, this is about students. No matter who you are, one cannot threaten women." लिखा जिसने सही जगह चोट की, अचानक जो उमर खालिद खबरों में नहीं था, जो अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता खबरों में नहीं थी, वह खबरों में आ गई। गुरमेहर का एक वाक्‍य तो सही है कि मैं किसी से नहीं डरती। सही बात है, आखिर कोई भी किसी से क्यों डरे? गुरमेहर से मेरा सवाल यह है कि उसे या उस जैसे अन्‍य छात्रों को एबीवीपी से डर क्यों लगता है?
रामजस के बवाल को शांत करने की बजाय इसकी आग में घी गुरमेहर ने एक बार और डाला। गुरमेहर ने आज फिर एक पोस्‍ट अपनी फेसबुक पर लिखी, हाथ में प्‍लकार्ड लिए हुए वही स्‍टाइल, एक जिस पर  लिखा था "Pakistan did not kill my dad, war killed him"। कितना वहियात सा वाक्‍य था यह, करगिल के शहीदों का अपमान है यह। सोशल मीडिया और तिस पर वो इलेक्‍ट्रानिक मीडिया जिसके सभी धुरंधर इस ताक में बैठे रहते हैं कि कब अपनी भड़ास निकालने का मौका मिले, उन्‍होंने प्राइम टाइम इसी के नाम कर दिया।
प्रश्‍न उठना लाजिमी है कि युद्ध के लिए हरवक्‍त जो सेना अपनी जान हथेली पर लिए सीमा पर मुस्तैद रहती है, देश के हर भूभाग को बचाने के लिए दिनरात एक किए रहती है यदि उसके अपने बच्‍चे ही उसकी राष्‍ट्रभक्‍ति पर सवाल उठाने लगेंगे तो देश की अखंडता किसी न किसी स्‍तर पर शर्मिंदा जरूर होती है। कहीं नक्‍सली, कहीं आतंकी, कहीं अलगाववादी, तो कहीं भारत से आजादी चाहने वाले सिर उठाते रहेंगे। अफजल गुरूओं को फिर संसद पर हमले की जरूरत क्‍या रह जाती है।

दुखद ही नहीं यह शर्मनाक भी है कि आज जब ‘भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी जंग रहेगी’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगाने वाले लोगों का समर्थन करने वालों के विरोध में कोई खड़ा होता है तो मीडिया उसे विलेन की तरह पेश करता है। अभिव्यक्ति की आजादी सबको है मगर देश के प्रति अपने दायित्व को नजरंदाज करके आजादी की बात करना बेईमानी है।

सही मायनों में विभिन्न संगठनों की राजनीति के चक्कर में देश के लिए अपने व्यक्तिगत सुख को त्याग कर शहादत स्वीकार करने वालों के बलिदान का उपयोग करना पूरी तरह से गलत है। उन बलिदानियों के बलिदान का सम्मान करना हमारी नौतिक जिम्मेदारी है। गुरमेहर से कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए लेकिन ये सवाल दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली उस लड़की से नहीं हैं जिसके पिता शहीद हो गए। बल्कि सवाल उस बेटी से हैं जो स्कूल में पढ़ाई के दौरान पीटीएम में अपने पिता को मिस करती थी, जो हर त्योहार को इस उम्मीद में बिना पिता के मना लेती थी कि इस बार न सही लेकिन अगले त्योहार पर उसके पिता जरूर घर आएंगे, जो आज अपने पिता की तस्वीर देखकर उनकी शहादत पर गर्व करती है।

तो बताओ गुरमेहर कि क्या तुम्‍हारे पिता उन लोगों का समर्थन करते जो कहते हैं कश्मीर को, बस्तर को, पूर्वोत्तर के राज्यों को भारत से ‘आजादी’ दे देनी चाहिए?
आज अगर कश्मीर में आपके पिता पर कुछ ‘आजादी के परवाने’ पत्थर चला रहे होते तो क्या तुम उन पत्थरों को कश्मीरियों का गुस्सा करार देतीं?
तुम अपने जिस पिता की शहादत का राजनीतिकरण कर रही हो, क्या वह उन लोगों का समर्थन करते जो कहते हैं कि भारत ने कश्मीर पर नाजायज कब्ज़ा किया हुआ है?
क्या तुम्‍हारे पिता बुरहान वानी जैसे आतंकवादियों को शहीद अथवा आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाला मानते हुए उसके जनाजे में शामिल होने वालों का समर्थन करते?
क्या तुम उन लोगों से सहमत हो जो कहते हैं कि भारतीय सेना के जवान बलात्कारी हैं?
ऐसे बहुत से सवाल हैं, क्‍या दोहरी नीति पर चलने वाले कथित वामपंथियों में यह हिम्मत है कि वे इन सवालों का सामना कर सकें। जो रिसर्च के नाम पर भारी भरकम राशि सरकार से लेते हैं, हमारे टैक्‍स से पलते हैं और भारत के टुकड़े करने वालों को सेमीनार में बतौर अतिथि आमंत्रित करते हैं।

देश का दुर्भाग्य है कि एक शहीद की बेटी अपने पिता की शहादत को अपमानित कर रही है। वह स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर नहीं खोज पा रही। उसे शहादत का अर्थ ही नहीं समझ आ रहा है क्योंकि अगर उसे शहादत का दर्द पता होता तो वह उस दर्द को भी महसूस करती जो भारतीय सेना के जवानों को पत्थर खाते वक्त होता है। निश्‍चित ही हम किसी तरह की हिंसा के समर्थक नहीं, एबीवीपी के भी नहीं। जिस किसी ने कानून हाथ में लेने की कोशिश की है तो उसे सजा मिलनी चाहिए लेकिन इसके साथ ही एक सवाल भी कि जो देश को तोड़ने की बात करने वालों का समर्थन करते हैं, उनके लिए संवैधानिक मानवाधिकार की बात आखिर किस आधार पर?

दिल्ली के रामजस कॉलेज में तथाकथित एबीवीपी/वामपंथी कार्यकर्ताओं ने जिस तरह का हिंसक प्रदर्शन किया, उसकी भर्त्‍सना होनी चाहिए मगर साथ ही उन लोगों का विरोध भी जो कश्मीर को भारत का अवैध कब्जा बताने वालों का, देश विरोधी नारे लगाने वालों का, भारतीय सेना को रेपिस्ट कहने वालों का, राष्ट्र की एकता, अखंडता और अस्मिता पर प्रहार करने वालों का समर्थन करने वालों को मंच देने की बात करते हैं। जो लोग संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास नहीं करते, संविधान में दिए गए मौलिक दायित्वों यानी कर्तव्यों का पालन नहीं करते, उनका संविधान में दिए गए ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार’ पर अधिकार कैसे है?

आप भी सोचिएगा ज़रा...क्‍योंकि चुप्पी ऐसी उच्‍छृ़ंखलताओं को और बढ़ावा ही देगी।

-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

हम भी आदि शंकराचार्य की भांति कह सकते हैं शिवोहम् ...शिवोहम् ...शिवोहम्


आज शिवचतुर्दशी=शिवरात्रि=शिवविवाह का दिन=शिव महिमा के चौतरफा गायन का दिन है, आज ही  से ब्रज में बरसाना की प्रसिद्ध लठामार होली की पहली चौपाई उठेगी जिसे लाड़ली महल से निकाल कर  रंगीली गली के शिव मंदिर तक लाया जाएगा और होली का जो जोर बसंत पंचमी से शुरू हुआ था वह  अपने चरम की ओर बढ़ता जाएगा।

कोयम्बटूर में आज ही ईशा फाउंडेशन के ईशा योग केंद्र द्वारा स्‍थापित की जा रही एक विशालकाय  शिव प्रतिमा का अनावरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे।

हमेशा की तरह इन प्रसिद्ध मंदिरों के उत्‍सव और शिव भजनों के कोलाहल में जिस शिव तत्‍व को  अनदेखा किया जाएगा, वह किस तरह हमें प्राप्‍त हो सकता है, इस पर शायद ही कोई चर्चा होगी। ईशा  फाउंडेशन के सद्गुरू कहते हैं कि आदि योगी शिव ने मानवता को आत्‍मरूपांतरण की 112 विधियां भेंट  कीं, इसी के सम्‍मान में आदियोगी के 112 फुट ऊंचे दिव्‍य चेहरे को प्रतिष्‍ठित किया जाएगा।

कितना बचकाना है ये विचार। मेरे ख्‍याल से तो यह सिर्फ उसी राह को आगे बढ़ाने करने का ज़रिया है  जिसके तहत लोग ''ईश्‍वर को इंगित करने वाली उंगली ही पकड़ कर बैठ जाते हैं और उसे ईश्‍वर  समझ लेते हैं, जिसकी ओर उंगली उठाकर ''गुरू'' उसे बतौर ईश्‍वर प्रतिष्‍ठापित करते हैं और इस तरह  अनुयायियों की एक लंबी चौड़ी फौज खड़ी हो जाती है। गाहे-बगाहे सनातन धर्म की रक्षा की बातें या यूं  कहें कि प्रोपेगंडा किया जाता है ताकि धर्म का असली स्‍वरूप इन उंगली पकड़ने वालों की समझ में  कैसे भी ना आने पाए। फिर किसके कितने अनुयायी, किसके कितने मंदिर- मठ, किसके कितने ''5  स्‍टार भक्‍त'' और किसका कितना बाहुबल, कितनी संपत्‍ति आदि तो प्रतिस्‍पर्द्धा में होता ही है।

ऐसे में ''शिव'' और ''शिव तत्‍व'' का अध्‍ययन कौन करेगा, निश्‍चित ही कोई नहीं। शिव योगी थे तो  उस योग का मूल तत्‍व ''स्‍वयं पर नियंत्रण'', सर्वप्रथम इन मंदिर-मठ-गुरुओं के सानिध्‍य में नहीं बल्‍कि  ''स्‍वयं को स्‍वयं के द्वारा ही'' जानकर हो सकता है। प्रतिमाओं की स्‍थापना से हो सकता है कि आंखें  आश्‍चर्य से फटी की फटी रह जायें, हम कौतूहलवश ये तो कह सकते हैं कि ओह, कितनी विशाल है,  किस तरह बनाई गई होगी, कितना धन व्‍यय हुआ होगा परंतु इसे देखकर शिवतत्‍व पाने
की कामना नहीं जागेगी। कदापि नहीं।

आस्‍थाओं के बाजार के बीच शिव को समझने और हृदय के तल तक उतारने के लिए आदि गुरू  शंकराचार्य का उदाहरण देना चाहूंगी जो आज धर्म, गुरुओं और उनकी उंगली पकड़ने वालों के लिए  बिल्‍कुल सही बैठती है-

''आदि गुरू शंकराचार्य की जब अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका  परिचय मांगा। बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन  जाता है…

यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

अर्थात्

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश,  भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…।
अब आप ही बताइये कि शिव के किस रूप को पाने के लिए हम इतने लालायित रहते हैं, जो हमारे  भीतर घुला हुआ है उसे हम विलग करके कैसे देख सकते हैं। और जो ऐसा देखने का प्रयास करते हैं  वह कोरा नाटक है क्‍योंकि शिव तो हमारे भीतर हर श्‍वास-नि:श्‍वास में है। प्रतिमाओं- मंदिरों-  मठों-सिद्धपीठों में ही यदि शिव विराजते तो ना तो शंकराचार्य होते और ना ही कबीर और सूर को  शायद ही कभी ब्रह्म का ज्ञान होता।

जहां तक बात है शिवचौदस पर लोक के मनोरंजन की तो जब मन आल्‍हादित होगा...प्रफुल्‍लित होगा...
तो ईश्‍वर तक उतनी ही सहजता से जा मिलेगा...शिव को भोला भंडारी इसीलिए तो कहा गया है कि  वो नाचना चाहता है तो नटराज बन जाता है गाना चाहता है तो विशिष्‍ट रागों का निर्माण करता  है...और प्रेमी ऐसा कि सती के विरह में संपूर्ण ब्रहमांड को उथलपुथल कर देता है और जब वह योग  साधना में रत होता है तो 112 विधियों को प्रतिपादित कर देता है...। हम लोक में सहज रहकर भी  शिव को अपने ''भोलेपन'' से पा सकते हैं।

स्‍वयं के ''शिव'' बनने की प्रक्रिया स्‍वयं को मिटाकर आती है, ''शिव तत्‍व'' को पाने की लालसा नहीं,  अनुभूति जाग्रत करनी होगी तभी शिव दर्शन हो सकता है और हम भी आदि शंकराचार्य की भांति कह  सकते हैं शिवोहम् ...शिवोहम् ...शिवोहम् ।

- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

NASA opportunity: धरती के आकार वाले सात नए ग्रहों का पता लगा, इन सभी ग्रहों पर पानी मिलने की पूरी संभावना

NASA  ने आज एक ऐसी खुशखबरी दी है  जिससे पूरा अंतरिक्ष  शोध  जगत खुश  है और अपने अपने दलों  के साथ शोध  की दशा और दिशा नए  सिरे से तय करने में लग गया है। जी हां, धरती के आकार के सात ग्रहों का पता लगाया है जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. अमरीकी स्पेस एजेंसी NASA के वैज्ञानिकों ने एक तारे के इर्द-गिर्द
मिले इन सभी सात ग्रहों की सतह पर, इनकी दूसरी विशेषताओं के कारण पानी मिलने की पूरी संभावना जताई है.
जैसा नासा ने कहा  

NASA's Spitzer Space Telescope has revealed the first known system of seven Earth-size planets around a single star. Three of these planets are firmly located in the habitable zone, the area around the parent star where a rocky planet is most likely to have liquid water.
The discovery sets a new record for greatest number of habitable-zone planets found around a single star outside our solar system. All of these seven planets could have liquid water – key to life as we know it – under the right atmospheric conditions, but the chances are highest with the three in the habitable zone.
“This discovery could be a significant piece in the puzzle of finding habitable environments, places that are conducive to life,” said Thomas Zurbuchen, associate administrator of the agency’s Science Mission Directorate in Washington. “Answering the question ‘are we alone’ is a top science priority and finding so many planets like these for the first time in the habitable zone is a remarkable step forward toward that goal.”


माना जा रहा है कि इनमें से तीन ग्रह पर जीवन की संभावना है और ये “बसने लायक” हैं.
ये सातों ग्रह ट्रैप्पिस्ट-1 नाम के तारे के इर्द-गिर्द मौजूद हैं. यह तारा धरती से 40 प्रकाश वर्ष दूर है. यह आकार में छोटा और और ठंडा तारा है.



नेचर पत्रिका में बताया है कि नासा के स्पलिट्जर स्पेस दूरबीन और सतह से जुड़े कुछ वेधशालाओं की मदद से इन ग्रहों को खोजा गया है.
बेल्जियम यूनिवर्सिटी ऑफ लेज के जाने माने लेखक माइकल गिल्लन का कहना है, “ये सारे ग्रह एक दूसरे के करीब हैं. साथ ही ये सातों ग्रह अपने तारे से काफी नजदीक स्थित हैं. इनकी स्थिति बृहस्पति के आसपास मौजूद चंद्रमाओं से काफी मिलती है.”
माइकल के मुताबिक़, “तारा इतना ठंडा और आकार में इतना छोटा है कि माना जा रहा है कि सातों ग्रह का तापमान समशीतोष्ण है. इसका ये अर्थ है कि वहां लिक्विड वाटर हो सकता है. और संभव है कि वहां की सतह पर जीवन संभव हो सके.”
ट्रैप्पिस्ट-1 के तीन ग्रह परिभाषा के अनुसार पारंपरिक आवासीय क्षेत्र में है. यहां की सतह पर पर्याप्त वायुमंडलीय दबाव के कारण पानी हो सकता है.
बीबीसी के विज्ञान संपादक डेविड शुकमैन बताते हैं कि नई खोज के बारे में वैज्ञानिक केवल इसलिए उत्साहित नहीं है कि ये ग्रह धरती के आकार के हैं, बल्कि ट्रैप्पिस्ट-1 बेहद छोटा और धुंधला तारा है. इसका मतलब ये है कि दूरबीन को ग्रहों का अध्ययन करने में उतनी परेशानी नहीं हुई जितनी उन्हें इससे अधिक चमकीले तारों का अध्ययन करते समय होती है.
इससे अब बहुत दूर स्थित इस दुनिया और उनके वायुमंडल के बारे में शोध करने के कई नए अवसर पैदा हुए हैं.
शोध का अगला चरण शुरू हो चुका है. इसमें वैज्ञानिकों ने ऑक्सीजन और मिथेन जैसे महत्वपूर्ण गैसों की खोज कर रहे हैं. इससे ग्रहों की सतह पर हो रही हलचल और बदलाव के बारे में साक्ष्य मिल सकते हैं. 

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

जिन्‍हें हम परदे के पीछे से संचालन का भार देते हैं उनके प्रयासों को खुले मन से स्‍वीकार करने में अब भी हिचक क्‍यों

आज  स्‍टोरीपिक वेबसाइट  पर इसरो  की  महिला  वैज्ञानिकों पर एक स्‍टोरी आई  है '' 8 Hardworking ISRO Women Scientists Who Are Breaking The Space Ceilings With Their Work'' , बहुत  प्रभावित  करने  के  साथ  साथ विचलित  भी  करती  है ये  जानकारी,  कि जिन्‍हें  हम  परदे  के  पीछे से संचालन  का  भार  देते  हैं उनके प्रयासों  को खुले  मन  से  स्‍वीकार  करने  में  अब  भी  हिचक क्‍यों है।
आप  भी पढ़िए इस  स्‍टोरी  को ताकि मंगलयान  मिशन  और 104 सेटेलाइट लांचिंग तक के रिकॉर्ड्स के पीछे लगी मेहनतकश महिलाओं पर गर्व  कर  सकें और उस 80 प्रतिशत उन  महिलाओं  को  आगे ला सकें जो आज भी घुट घुटकर जीने को बाध्‍य हैं।

8 Hardworking ISRO Women Scientists Who Are Breaking The Space Ceilings With Their Work - Vinay Devnath

 

Behind every successful man, there is a woman.
Let’s just tweak it a little bit.
“Behind every successful space mission in India, there are a thousand woman scientists.”
India has successfully launched satellites into space, put an orbiter around the Moon and Mars. That too with a frugality even the developed nations admire.
But behind the scenes, away from the public eye, quiet, unassuming and positively brilliant women spearhead many important missions of the Indian Space Research Organisation. These women have not only broken the glass ceilings but have not even thought of the sky as their limit – quite literally.
They are passionate, strong and independent women of science that look like our neighborhood aunties, but pack a scientific punch that would impress the likes of Tony Stark and Elon Musk. Today, let’s take a look at the women in ISRO.

1. Ritu Karidhal, mother of two worked on most weekends, brainstorming with ISRO engineers


As a kid, Mrs. Ritu Karidhal used to wonder why the moon becomes bigger and smaller. She also wondered what lay in the dark side of the moon.
And decades later, she became the Deputy Operations Director of the Mars Orbiter Mission. After reading each and everything related to space science as a kid, she now heads one of the most well-known missions of ISRO.
Fact Source

2. Moumita Dutta – read about the Chandrayaan mission as a student, now works as a Project Manager for the Mars Mission


She is the project manager for payloads for the Mars Mission. She completed her M. Tech in Applied Physics from the University of Kolkata.
Today, she leads a team to make indigenious progress in optical sciences as a part of ‘Make in India’ initiative.
“The entire mission has 20% of women scientists deeply involved in the Mars Mission”
Fact Source

3. Nandini Harinath – her first job was at ISRO and 20 years later there is no looking back


She became inspired to study science after she saw the Star Trek series. Coming from a family of teachers and engineers, she was naturally drawn to science and technology.
Today as a Deputy Director, she feels proud to see the Mars Orbiter Mission on the new 2000 rupee notes. She works extremely hard, and despite having children, she did not go home for days just before the launch.
That’s called commitment.
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4. Anuradha TK – As a Geosat Programme Director, she is the senior-most woman officer at ISRO


She first thought about becoming a space scientist when she was just 9 years old. That was when Neil Armstrong first walked on the moon, and Mrs. Anuradha was hooked.
As the senior-most officer, she is the inspiration for every woman scientist working in ISRO. As a student, she loved the logical subjects as compared to the subjects in which she had to memorise everything. Today, she applies the same logical brain to head one of the most important departments in ISRO.
“Sometimes I say that I forget that I’m a woman here. You’re treated as an equal here.”
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5. N Valarmathi – led the launch of India’s first indigenously developed the radar imaging satellite, the  RISAT-1


She was the second woman after T K Anuradha to head a satellite mission at ISRO. At 52, she has made her state of Tamil Nadu proud.
She is the first woman to head a mission that involves a remote sensing satellite.
Too cool.
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6. Minal Sampath, worked 18 hours a day for the Mars Orbital Mission


She led a team of 500 scientists as a systems engineer at ISRO. For two years, she said goodbye to Sundays and even national holidays.
The sacrifice showed fruit when she was overjoyed with the success of the Mars Mission.
What’s next? She aims to become the first woman director to head a national space agency. A hardworking woman like that, fingers crossed!
Fact Source

7. Kriti Faujdar – computer scientist who works at the Master Control Facility, keeping satellites in their proper orbits


Kriti Faujdar is a part of the team that monitors the satellites and the other missions continuously. She is the person that makes the corrections if something goes wrong.
Her work shifts are erratic too. On some days she has a day shift and on some, it is from dusk to dawn. She is unfazed by this because she loves her job.
She wants to pursue MTech in the future to be a better scientist for ISRO in the future.
Fact Source

8. Tessy Thomas – the missile woman of India who headed the Agni IV and Agni V mission


Tessy Thomas technically works for the DRDO and not ISRO, but she deserves to be on this list. We could not leave her out.
It is her hard work and dedication that has brought India close to becoming a member of the exclusive club of countries with ICBMs (Inter Continental Ballistic Missiles). Because of her achievements, she is fondly called ‘Agniputri’ by the media.
Fact Source
Today, there are more than 16,000 women working for ISRO and the number is growing every day. It is easy to imagine ISRO completely comprised of men because all 7 heads have been men.
But the fact is that thousands of women work hard for our premier space agency.
For these women, even sky is not a limit.

 

  प्रस्‍तुति -अलकनंदा सिंह

 

 

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

सुरेंद्र वर्मा को व्यास सम्मान

हिन्दी के साहित्यकार और नाटक लेखक सुरेंद्र वर्मा को वर्ष 2016 का व्यास सम्मान उनके 2010 में प्रकाशित उपन्यास के लिए दिया जायेगा।
केके बिड़ला फाउंडेशन द्वारा आज यहां जारी विज्ञप्ति के अनुसार, वर्ष 2016 का व्यास सम्मान हिन्दी के प्रख्यात लेखक सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास ‘काटना शमी का वृक्ष : पद्मपखुरी की धार से’ को चुना गया है। इस उपन्यास का प्रकाशन वर्ष 2010 में हुआ था।
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में हुई चयन समिति की बैठक में सुरेंद्र वर्मा के नाम का चयन किया गया। उन्हें बतौर सम्मान साढ़े तीन लाख रूपये प्रदान किए जायेंगे। इस पुरस्कार का आरंभ 1991 में किया गया था।
वर्मा को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुके है। वह लंबे समय तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़े रहे हैं।
सुरेन्‍द्र वर्मा के बारे में
सुरेन्द्र वर्मा का जन्म १९४१ में हुआ था,वे हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास ”मुझे चाँद चाहिए” के लिये उन्हें सन् 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
सुरेन्‍द्र वर्मा का उपन्‍यास – मुझे चाँद चाहिए के बारे में 
कई दशकों से हिन्दी उपन्यास में छाये ठोस सन्नाटे को तोड़ने वाली कृति आपके हाथों में है, जिसे सुधी पाठकों ने भी हाथों-हाथ लिया है और मान्य आलोचकों ने भी !
शाहजहाँपुर के अभाव-जर्जर, पुरातनपंथी ब्राह्मण-परिवार में जन्मी वर्षा वशिष्ठ बी.ए. के पहले साल में अचानक एक नाटक में अभिनय करती है और उसके जीवन की दिशा बदल जाती है। आत्माभिव्यक्ति के संतोष की यह ललक उसे शाहजहाँनाबाद के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा तक लाती है, जहाँ कला-कुंड में धीरे-धीरे तपते हुए वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी क्षमता प्रमाणित करती है और फिर उसके पास आता है एक कला फिल्म का प्रस्ताव !
आत्मान्वेषण और आत्मोपलब्धि की इस कंटक-यात्रा में एक ओर वर्षा अपने परिवार के तीखे विरोध से लहूलुहान होती है और दूसरी ओर आत्मसंशय, लोकापवाद और अपनी रचनात्मक प्रतिभा को मांजने-निखारने वाली दुरूह, काली प्रक्रिया से क्षत-विक्षत। पर उसकी कलात्मक आस्था उसे संघर्ष-पथ पर आगे बढ़ाती जाती है।
वस्तुतः यह कथा-कृति व्यक्ति और उसके कलाकार, परिवार, सहयोगी एवं परिवेश के बीच चलने वाले सनातन द्वंद्व की और कला तथा जीवन के पैने संघर्ष व अंतर्विरोधों की महागाथा है।
परंपरा और आधुनिकता की ज्वलनशील टकराहट से दीप्त रंगमंच एवं सिनेमा जैसे कला-क्षेत्रों का महाकाव्यीय सिंहावलोकन ! अपनी प्रखर संवेदना के लिए सर्वमान्य सिद्धहस्त कथाकार तथा प्रख्यात नाटककार की अभिनव उपलब्धि । – Legend News

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक...फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के हस्‍ताक्षर



इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक, 
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे !!
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जब कोई शख्‍स अपनी मिट्टी से...वतन से...मोहब्‍बत से...बच्‍चों से...अलग कर दिया जाये और वह शायर हो तो अलफ़ाज खुदबखुद कलम से बाहर तैरने लगते हैं...और बहते हुए किन्‍हीं किनारों पर मौजूद लोगों को उन अहसासों में भिगो देते हैं जो इन्‍होंने अपने लिए जिए होते हैं।
आज यानि 13 फरवरी को ही आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई देने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्‍म हुआ था। साहिर लुधियानवी , क़ैफ़ी आज़मी और फ़िराक़ गोरखपुरी आदि उनके समकालीन शायर थे।

लियाकत खान के जब पाकिस्‍तान के वजीरे-आज़म थे तब उन्‍हें सरकार के तख़्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में कैद कर लिया गया था। इस दौरान (१९५१‍ - १९५५) में लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें "दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)" तथा "ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)" नाम से प्रकाशित किया गया।
इनमें जो सबसे अधिक लोकप्रिय हुई ,वह उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी थी जिसको आज भी याद किया जाता है -

    बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
    बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
    तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
    बोल कि जाँ अब तक तेरी है

    आईए हाथ उठाएँ हम भी
    हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
    हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
    कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं

    लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
    तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
    वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
    जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
    हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
    मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
    उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
    ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
    दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
    (क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)

    निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
    के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
    गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
    नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

    चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
    ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
    और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
    अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम

    आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
    दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
    ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
    राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो ।

...और इस तरह शायरी की एक अज़ीम शख्‍सियत फ़ैज अहमद फ़ैज हमारे दिलों को हमेशा अपने लफ़्जों से तरबतर करते रहेंगे।

- अलकनंदा सिंह


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

जज साहब...सवाल उठना लाजिमी है

किसी भी समाज की प्रगति उसकी इस वैचारिक तरलता से  मापी जाती है कि वहां अभिव्‍यक्‍ति की आजादी और विचारों  की तरलता का प्रवाह कितना है। कुंद विचारों के साथ पूछे  गए सवाल या उन सवालों के जवाब अपने मनमाफिक  सुनने की आकांक्षा वैचारिक तरलता को बाधित करते हैं।  अदालतों के कुछ मापदंड आजकल इसी अवधारणा पर काम  करने लगे हैं।
आज अदालती चक्रव्‍यूह से कौन वाकिफ नहीं है, और इसी  चक्रव्‍यूह पर बनी फिल्‍म ''जॉली एलएलबी 2'' से बॉम्‍बे  हाईकोर्ट ने चार सीन सिर्फ इसलिए हटाने का आदेश दे दिया  कि वो अदालत की अवमानना करते हुए उनके कार्यपद्धति  पर ही सवाल उठा रहे थे। कला व साहित्‍य में अभिव्‍यक्‍ति  की आजादी क्‍या सिर्फ सड़कों पर नारे लगाने तक ही है,   क्‍या ये माध्‍यम हमारी कानूनी व अन्‍य नियामक संस्‍थाओं  को अपने भीतर झांकने का इशारा भी नहीं कर सकते।  फिल्‍म से सीन हटवा कर क्‍या बॉम्‍बे हाईकोर्ट उस जड़ता का  परिचय नहीं दे रहा जिसका प्रदर्शन आज तक सेंसर बोर्ड  करता आया है और कभी कहानी की मांग पर तो कभी  समाज में कड़वाहट फैलाने का भय दिखाकर इंडीविजुअल  सोच के तहत फिल्‍मों को सर्टिफिकेट्स देती रही हैं। यानि  सब-कुछ अपने मनमुताबिक हो तो भला, वरना अवमानना  के कोड़े से फिल्‍म को डब्‍बे में डाल देने का रास्‍ता तो है ही।
कौन नहीं जानता कि अवमानना के नाम पर सवाल पूछने  की इसी आजादी को छीन लेने के कारण आज स्‍वयं कुछ  जज भी अपारदर्शिता के इल्‍ज़ाम लगाने पर बाध्‍य हुए हैं।  अदालतों में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार सामने नहीं आ पा रहा जबकि  सब जानते हैं कि सच क्‍या है। फिल्‍म अगर सच दिखा रही  हैं तो उससे सबक लेते हुए सुधार की गुजाइशें खोजी जानी  चाहिए ना कि सवाल करने के मौलिक अधिकार को ही  अवमानना का भय दिखाकर ''चुप्‍प'' कर देना चाहिए। इससे  सवाल उठने बंद नहीं होंगे बल्‍कि ज्‍यादा शिद्दत के साथ  उठाए जाऐंगे।
समाज के विकास के लिए सवाल छलनी की तरह होते हैं,  हालांकि यह भी सत्‍य है कि सवाल पूछने वाले की मनोदशा  और उसके पूर्वाग्रह इसमें अहम रोल अदा करते हैं क्‍योंकि  नकारात्‍मक या किसी खास मकसद से किए गए सवालों का  जवाब मिल भी जाए तो संतुष्‍टि मिलना जरूरी नहीं मगर  जहां तक बात ''जॉली एलएलबी 2'' फिल्‍म की है तो इसके  प्रिक्‍वल जॉली एलएलबी में भी दिखाया गया है कि अदालतों  में किस प्रकार वकीलों को बेरोजगारी से बचने के लिए  दलाली तक करनी पड़ती है और अदालती चक्रव्‍यूह में फंसने  वालों को किन किन समस्‍याओं से रूबरू होना पड़ता है,  फिल्‍म में ''स्‍वविवेक'' के नाम पर जज वादी-प्रतिवादियों से  क्‍या-क्‍या नहीं कराते हैं। तो फिर आज जॉली एलएलबी 2  के सीन्‍स पर अदालत की अवमानना कैसे हुई। चेहरा  मोड़कर हकीकतों से मुंह छिपा लेना समस्‍याओं के समाधान  का जरिया नहीं हो सकता। इसके लिए समाज से उठ रहे  सवालों का जवाब तो अदालतों को ही तलाशना होगा। सीन  काटकर फिल्‍म तो रिलीज हो जाएगी मगर आमजन में  गहरे तक पैठ चुकी अदालतों में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार की  कहानियां जिन सवालों के साथ खड़ी हैं उनका जवाब कौन  देगा।
किसी भी समाज के विकास को पारदर्शी सवाल-जवाब होते  रहने चाहिए। सवाल उठना और उठाना जीवंतता की निशानी  हैं।

लाजिमी है कि यदि हम ज़िंदा समाज हैं तो सवाल उठायेंगे  ही और जवाब मिलने पर समाज व इसकी नियामक  संस्‍थाओं का संचालन, समाज में सकारात्‍मक सुधार लाएगा  बशर्ते अदालत अथवा कोई भी संस्‍था स्‍वस्‍थ सोच के साथ  ''सिर्फ अपनी'' नहीं पूरे समाज का हित सोचे।
निश्‍चित जानिए कि फिल्‍म से चार सीन हटावाने की बजाय  यदि अदालत उसमें उठाए गए सवालों पर गौर करती और  अपने यहां फैली भ्रष्‍ट व अराजक स्‍थितियों को दूर करने के  लिए कोई टिप्‍पणी करती तो इसका संदेश दूर तक जाता।

गुलज़ार साहब का एक शेर याद आ रहा है-

आंखों में जल रहा है क्‍यूं,
बुझता नहीं धुआं
उठता तो है घटा सा
बरसता नहीं धुआं


 ऐसा नहीं कि अदालतों के अंदर बैठे विद्वान व माननीय  न्‍यायाधीश, न्‍याय प्रक्रिया में पूरी तरह समा चुके भ्रष्‍टाचार  से वाकिफ नहीं हैं। वह भली प्रकार वाकिफ हैं किंतु उस पर  गौर नहीं करना चाहते। गौर इसलिए नहीं करना चाहते  क्‍योंकि वह अपनी निजी शख्‍सियत को ही न्‍याय की तराजू  मान चुके हैं। उनकी दृष्‍टि से देखें तो किसी जज की  व्‍यक्‍तिगत सोच को ही अंतिम सत्‍य मान लेना बेहतर है  अन्‍यथा कोई फिल्‍म हो या लचर कानून-व्‍यवस्‍था को दिखाने  वाला दूसरा माध्‍यम, सबके सब अदालती अवमानना के  दायरे में आते हैं। 

- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

ICC ने बदले नियम, जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था

इस बार जून में होने वाली Champions Trophy में वो होगा जो पहले कभी नहीं हुआ। जी हां, इस बार चैंपियंस ट्रॉफी में क्रिकेट के फैन्स को एक ऐसा नियम देखने को मिलेगा जो उन्होंने इस टूर्नामेंट में पहले कभी नहीं देखा। दुनिया में क्रिकेट को चलाने वाले आईसीसी ने चैंपियंस ट्रॉफी को लेकर नियमों में बदलाव किया है।

इस साल ये टूर्नामेंट एक बार फिर से इंग्लैंड में खेला जाएगा। आईसीसी ने आगामी टूर्नामेंट्स में कई प्रमुख बदलाव किए जिनमें प्रमुख हैं -
1.  चैंपियंस ट्रॉफी के सेमीफाइनल और फाइनल में टाई की स्थिति में सुपर ओवर होगा। आईसीसी की दो दिनी बैठक में कई बदलावों को मंजूरी मिली। इसके तहत इस वर्ष होने वाली चैंपियंस ट्रॉफी में पहली बार टाई की स्थिति में सेमीफाइनल और फाइनल में सुपर ओवर होगा।
2. अभी तक आईसीसी टूर्नामेंट्स में सुपर ओवर सिर्फ फाइनल मैच के लिए रहता था। इसके अलावा अन्य नॉकआउट मैचों में इसका उपयोग नहीं होता था।
3. अभी तक क्वार्टर फाइनल या सेमीफाइनल मैच यदि टाई हुआ तो ग्रुप में उपरी क्रम पर रहने वाली टीम को विजेता घोषित किया जाता था।
1999 विश्व कप में ऑस्ट्रेलिया और द. अफ्रीका के बीच एजबेस्टन में टाई हुए मैच के बाद इसी आधार पर ऑस्ट्रेलिया फाइनल में पहुंची थी। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि ऑस्ट्रेलिया सुपर सिक्स चरण में द. अफ्रीका से आगे रहा था।
सुपर ओवर का आमतौर पर टी20 मैचों में टाई की स्थिति में उपयोग किया जाता रहा है लेकिन इसका कभी वन-डे में प्रयोग नहीं हुआ है।

आईसीसी ने इस बात की भी घोषणा की कि 2017 महिला विश्व कप के सेमीफाइनल और फाइनल में भी जरूरत पड़ने पर सुपर ओवर का प्रयोग होगा।
आईसीसी का ये अहम फैसला इस बार की चैंपियंस ट्रॉफी को रोमांचक बना देगा। फिलहाल चैंपियंस ट्रॉफी का खिताब भारतीय टीम के पास है जिसे टीम इंडिया ने 2013 में अपने नाम किया था। इस टूर्नामेंट के फाइनल में भारतीय टीम ने मेजबान इंग्लैंड को रोमांचक मुकाबले में 5 रन से शिकस्त देकर ट्रॉफी अपने नाम की थी।

डीआरएस को  लेकर  आईसीसी  का  महत्‍वपूर्ण  निर्णय 

आईसीसी ने क्रिकेट के तीनों प्रारूपों टेस्ट, वनडे और ट्वंटी 20 में अब एकसमान अंपायर निर्णय समीक्षा प्रणाली (डीआरएस) के उपयोग को अपनी हरी झंडी दे दी है जो अक्टूबर माह से प्रभावी होगा।

पहली बार वेस्टइंडीज में 2018 में होने वाले आईसीसी ट्वंटी 20 महिला विश्वकप टूर्नामेंट में भी डीआरएस का उपयोग किया जाएगा जहां प्रत्येक टीम को एक समीक्षा का मौका दिया जाएगा। द्विपक्षीय सीरीज में भी आईसीसी ही डीआरएस का खर्चा वहन करेगी जिससे सदस्य बोर्डों पर वित्तीय बोझ कम होगा।

आईसीसी ने साफ किया है कि जो भी संस्थान डीआरएस तकनीक मुहैया करायेंगे उन्हें पहले मैसाचुसेट्स तकनीक संस्थान(एमआईटी) से पहले इसकी जांच और सहमति हासिल करना भी अनिवार्य होगा और उसके बाद ही मैचों में इसका उपयोग होगा। गत वर्ष डीआरएस में उपयोग की जाने वाली तकनीक हॉकआई, हॉट स्पाट, अल्ट्रा एज, रियल टाइम स्निको की भी एमआईटी में जांच कराई गयी थी।

डीआरएस का उपयोग अभी बड़े पैमाने पर नहीं होने की वजह इस तकनीक का खर्चीला होना भी है जिसके मद्देनजर अब आईसीसी ने इसका वित्तीय बोझ उठाने का फैसला भी किया है।

आईसीसी के मुख्य कार्यकारी डेविड रिचर्डसन ने भी माना कि वैश्विक संस्था के लिये डीआरएस पर अधिक नियंत्रण जरूरी है।

द्विपक्षीय सीरीज में आमतौर पर घरेलू प्रसारणकर्ता ही डीआरएस के उपयोग के लिये खर्चा वहन करता है, और कुछ मामलों में घरेलू क्रिकेट बोर्ड भी इस खर्च में अपना कुछ योगदान देता है या पूरा खर्चा वहन करता है।

वैश्विक संस्था का यह निर्णय मुख्य रूप से डीआरएस के उपयोग को बढ़ाने के उद्देश्य से लिया गया है। आईसीसी की कार्यकारी समिति ने डीआरएस तकनीक को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उपयोग करने के निर्णय पर सहमति जताई है।

मई में आईसीसी की क्रिकेट समिति इसके पूर्ण रूप से इस्तेमाल पर चर्चा करेगी और जून 2017 में इसपर अंतिम निर्णय लिया जाएगा जिसके बाद इसी वर्ष अक्टूबर में इसे लागू किया जाएगा।”

सीईसी ने डीआरएस के उपयोग को लेकर एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया है जिसके अनुसार पहली बार ट्वंटी 20 अंतरराष्ट्रीय मैचों में भी पहली बार इस प्रणाली का उपयोग किया जाएगा।

वर्ष 2018 में वेस्टइंडीज में होने वाले महिला ट्वंटी 20 विश्वकप में भी पहली बार इस तकनीक का उपयोग होगा। यह इस तकनीक के साथ आईसीसी का इस प्रारूप में पहला टूर्नामेंट होगा। वहीं कई सदस्य देशों के बोर्डों ने भी ट्वंटी 20 अंतरराष्ट्रीय द्विपक्षीय सीरीज में डीआरएस के उपयोग को लेकर आईसीसी से अपील की है।

गत माह इंग्लैंड के खिलाफ भारत में तीन ट्वंटी 20 मैचों की सीरीज में भी इस मुद्दे पर चर्चा की गयी थी। नागपुर में जो रूट के पगबाधा निर्णय को लेकर दूसरे मैच के बाद इंग्लैंड ने आईसीसी मैच रेफरी से इस बारे में लिखित शिकायत की थी। इंग्लैंड के कप्तान इयोन मोर्गन ने इस दौरान डीआरएस नहीं होने का हवाला दिया था।
सीईसी ने सदस्य बोर्डों के साथ ट्वंटी 20 द्विपक्षीय सीरीज में डीआरएस के उपयोग को लेकर भी बैठक में चर्चा की। हालांकि अभी तक विश्व ट्वंटी 20 के बाद इस प्रारूप में डीआरएस के उपयोग को लेकर कोई विस्तृत चर्चा नहीं हुई है। इस बारे में मई में ही अंतिम निर्णय होने की उम्मीद है। आईसीसी ने साथ ही बताया कि जून में चैंपियंस ट्राफी में भी डीआरएस का उपयोग किया जाएगा। 


- अलकनंदा सिंह