रविवार, 22 मई 2016

कहां छुपी हैं इस insensitivity की जड़ें ?

लगभग दो दशक पहले की बात है जब संयुक्त परिवार बड़ी तेजी के एकल परिवारों में बदल रहे थे। दादा- दादी की बंदिशों, उनके उपदेशों से पीछा छुड़ाकर इन नए गढ़े परिवारों में स्वच्छंदता की एक अलग अनुभूति थी। जड़ों को छोड़ने पर खुश होने वाले इन परिवारों को कहां पता था कि वे जिस पीढ़ी के सुख के लिए ये सब कर रहे हैं, वह पीढ़ी संवेदनाओं से शून्य हो जाएगी। एक ओर मां-बाप अपने अपने हिसाब से बच्चों की परवरिश करने, नित नए भौतिक साधनों से घरों को भरने में लगे थे, घरों में इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्‍स की भीड़ बढ़ रही थी तो दूसरी ओर खोए हुए रिश्ते अपने लिए घरों में एकमात्र कोना ढूढ़ते रह गए। स्वच्छंदता भरी इस अंधी दौड़ में सब के सब बेतहाशा भागे जा रहे थे… क्या बच्चे और क्या बड़े…। इस दौड़ में मगर जो बहुत पीछे छूटती जा रही थी, वह थी संवेदनशीलता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि या तो जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं व्यक्ति को संवेदनहीन बना देती हैं या जरूरत से ज्यादा स्वच्छंदता अथवा बंधन, लेकिन ग्रेटर नोएडा की उस भीड़ में ऐसा कौन सा कारण मौजूद था जो 150-200 लोगों के हुजूम को संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक ले गया । क्यों सब के सब अपने मोबाइल से घटना की वीडियो क्लिपिंग बनाने में जुटे रहे, क्यों किसी ने उन अपराध‍ियों को रोका नहीं जो संख्या में मात्र तीन या चार थे, उनके हाथों में कोई ऐसा हथ‍ियार भी नहीं था, उन्होंने एक आदमी को उसके बालों से पकड़ा हुआ था और उसका अपहरण करके गाड़ी में डाल रहे थे, वह व्यक्ति मदद के लिए चिल्ला रहा था मगर मदद तो दूर किसी ने पुलिस स्टेशन पर खबर तक करने की जरूरत नहीं समझी। भीड़ की इस बेहयाई के कारण अगले दिन उसकी लाश मिली।
दूसरा वाकया है बैंगलौर का है, जहां एक गाड़ी आकर रुकती है, एक लड़का पीछे से उतरता है और दिनदहाड़े ही लगभग 30-35 लोगों के सामने एक लड़की को पीछे से आकर पकड़ता है तथा खींचता हुआ अपनी गाड़ी में डाल लेता है, लड़की चिल्लाती है…मदद की गुहार लगाती है। आश्चर्य देखिए कि उसकी आवाज़ मौजू़द लोगों में से किसी के भी कानों तक नहीं पहुंचती, देखते सब रहते हैं। इस दुस्साहसिक घटना को पास से गुजरती एक औरत भी देखती है और पलभर में ही मुंह फेर लेती है। गोया कहीं कुछ घटित ही ना हुआ हो ।
बताइये इन दो घटनाओं को आप क्या कहेंगे, संवेदनहीनता, अभ‍िव्यक्ति का मर जाना या मरे हुए लोगों से आशा करना कि वो अपनी संवेदनाओं के साथ किसी भी अनुचित और दुखद घटना का प्रतिरोध करेंगे। यही लोग जब किसी अपने के साथ कुछ बुरा घटित होते देखते हैं तो कहते हैं किसी ने हमारी मदद नहीं की, या लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसी के साथ क्या घट रहा है, यह देखना भी जरूरी नहीं समझते। जब स्वयं दर्शक होते हैं तो भूल जाते हैं कि वे भी चुप बने रहे थे… क्यों, ये जानना इनके लिए जरूरी नहीं क्योंकि तब घटना का श‍िकार इनके अपने नहीं होते।
अतिवाद किसी का भी हो, भावनाओं का, अपेक्षाओं का, महात्वाकांक्षाओं का, कर्तव्यों का किसी भी जीवित कौम के लिए आत्मघाती होता है। संवेदनाओं के हर स्तर को ध्वस्त करने का सिलसिला बहुत पहले ही तभी शुरू हो चुका था जब  परिवारों में विघटन एक आदत और फिर जरूरत बन गया। और आज ये अपने विकराल रूप में हमारे सामने है।
सरकारें चाहे कितने ही कानून बना लें, हम यानि आमजन उनके बनाए कानूनों में कितने ही लूपहोल्स निकाल लें मगर ये सत्य जो हमें दिखाई दे रहा है कि परिवार, संस्कार और संवेदनाएं सब के सब आधुनिकता और सिर्फ ”मैं” की भेंट चढ़ चुके हैं।
इस संदर्भ में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैनिटीज के छात्रों द्वारा किये गए एक सर्वे को यहां उद्धृत करना जरूरी है जिसमें कुल 30 बड़े शहरों व मझले शहर- ग्रामीण क्षेत्रों के हर वर्ग के परिवारों को शामिल किया गया। सबसे एक ही सवाल पूछा गया, कि ”आपके घर में आग लगी है, पड़ोस का एक बच्चा उसमें फंसा है, आप किसे पहले बचाऐंगे… स्वयं को या उस पड़ोसी के उस बच्चे को”। शहरी लोगों के 74% विचार पहले स्वयं को बचाने के थे जबकि ग्रामीण और छोटे शहरों के 75% लोगों ने पहले बच्चे को बचाने की बात कही।
इस सर्वे के आंकड़े ये बताने को काफी हैं कि अगर हमें स्वयं को और अपने बच्चों को सुरक्षित करना है तो पहले उन जीवन मूल्यों को बचाना होगा जो ”सर्वे भवन्तु सुख‍िन: सर्वे सन्तु निरामया” के आधार स्तंभ रहे हैं। देर नहीं हुई है, इन जीवन मूल्यों को अभी भी सहेजा जा सकता है बशर्ते सिर्फ ”मैं” से हटकर सोचने की प्रवृत्त‍ि अपनाई जाए …बशर्ते ग्रेटर नोएडा हो या बैंगलौर, हम क्लिपिंग बनाने वाली भीड़ ना बनें,अपराध‍ियों पर टूट पड़ने वाले हाथ बन जाएं।
-अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 17 मई 2016

For GOD sake… इन्हें भगवान मानना बंद करो

उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ में इस बार धर्म की जिस गंगा को हम प्रत्यक्ष बहते देख रहे हैं, धर्म के उस सनातन स्वरूप को  लेकर लगभग हर धार्मिक चैनल 24 घंटे एक से बढ़ कर एक आख्यान-व्याख्यान पेश कर रहा है। दूसरी ओर बड़े-बड़े मठाधीश और महामंडलेश्वर व शंकराचार्य अपनी बेढंगी वेशभूषा और स्टाइल को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं।
सिंहस्थ कुंभ में ऐसी ही एक चर्चा के केंद्रबिन्दु बने हुए हैं जूना अखाड़े के वरिष्ठ महामंडलेश्वरों में से एक पायलट बाबा जिनके 17 शिष्य भी महामंडलेश्वर हैं और धर्म-आध्यात्म के क्षेत्र में कई जनकल्याणकारी काम कर रहे हैं।  दरअसल, पायलट बाबा अपनी विदेशी श‍िष्याओं को लेकर चर्चा में हैं।
सिंहस्थ में यूं तो पायलट बाबा और उनकी विदेशी शिष्याओं ने काफी पहले से डेरा जमा लिया था लेकिन इस बीच अचानक उनकी जापानी शिष्या और महामंडलेश्वर केको आइकावा ने सिंहस्थ छोड़ दिया और जापान चली गईं। महामंडलेश्वर केको आइकावा इंटरनेशनल एजुकेशन संस्था की वाइस प्रेसीडेंट हैं। उनकी संस्था पर कम्प्यूटर एजुकेशन के नाम से देशभर में 500 करोड़ रुपए की ठगी करने का आरोप है। संस्था ने सिर्फ एक रुपए में कम्प्यूटर की शिक्षा देने के नाम पर देशभर में विभिन्न संस्थाओं को 50-50 हजार रुपए लेकर फ्रेंचाइजी दी थी।
केको आइकावा की इस संस्था ने कम्प्यूटर शिक्षा का सारा खर्चा वहन करने का दावा किया था लेकिन फ्रेंचाइजी के नाम पर पैसे लेने के बाद कोई शिक्षा नहीं दी गई। देशभर में पीड़ित लोगों ने इस इंटरनेशनल एजुकेशन संस्था के खिलाफ डेढ़ दर्जन से ज्यादा केस दर्ज कराए थे। कहा जा रहा है यह मामला फिर से उछलने के बाद कथित तौर पर केको आइकावा ने सिंहस्थ शिविर छोड़ दिया। अब सवाल यह है क‍ि यद‍ि आरोप बेबुनयिाद हैं तो आख‍िर पायलट बाबा की यह जापानी शिष्या इस तरह अचानक गायब क्यों हो गई।
पायलट बाबा की यह शिष्या महामंडलेश्वर केको आइकावा पिछले सिंहस्थ ( 2004) में के दौरान भी चर्चाओं में थीं क्योंकि तब उन्होंने बाबा के शिविर में ही समाधी लगाई थी। जूना अखाड़े के वरिष्ठ महामंडलेश्वर पायलट बाबा ने ही आइकावा को महामंडलेश्वर की उपाधि दिलवाई थी। यह बात अलग है कि इस बार आइकावा गलत वजहों से सुर्खियों में हैं।
पायलट बाबा ने अपनी सफाई में इन सभी आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए कहा है कि आइकावा माता की तबियत ठीक नहीं होने की वजह से वह दिल्ली गई हैं। पायलट बाबा ने कुछ लोगों पर संस्था को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए कहा कि संस्था अपना काम कर रही है।
इन आरोपों-प्रत्यारोपों से एक बात तो निश्चित है कि कहीं कोई चिंगारी तो है, जिससे धुंआ उठ रहा है। हममें से अध‍िकांश लोग जानते हैं कि धर्म की आड़ आजकल ''धंधे'' के लिए बड़ी मुफीद बनी हुई है, ऐसे में आइकावा माता हों या स्वयं पायलट बाबा, किसी को भी पूरी तरह दूध का धुला नहीं माना जा सकता। इसके अलावा भी अनेक प्रश्न सिंहस्थ में तैर रहे हैं। 
ऐसे में उन सब तथाकथति भक्तों को भी सोचना होगा जो बड़े पदवीधारी इन बाबाओं के यहां बिना यह सोचे-समझे दंडवत करते हैं, शीश नवाते हैं क‍ि वह इस काबिल हैं भी या नहीं। एक लोकोक्ति है- पानी पीजे छान के, गुरू कीजै जान के। आजकल तो जानना और भी जरूरी हो गया है।
पायलट बाबा और आइकावा तो बस एक उदाहरणभर हैं, वरना सोचिए क‍ि जिस देश में बुंदेलखंड, लातूर और तेलंगाना की भूमि प्यासी हो, उस देश में बेहद लग्जरी गाड़‍ियों और मिनरल वॉटर पीने वाले बाबाओं को तो साक्षात् ईश्वर वैसे ही मिला हुआ है, वे ही सही मायनों में उपदेश दे सकते हैं कि जो मिल रहा है उसी में खुश रहो क्योंक‍ि उन्हें तो सबकुछ  ''मिल'' रहा है। उन्हें दो जून के दो ग्रास के लिए हाड़ मांस नहीं गलाना पड़ रहा। धर्म की ये व्याख्या आम लोगों को इसीलिए लुभाती है कि वो उसकी तह में जाने के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं निकाल पाते और जो धर्म पर चलने की बात कहता है (आचरण नहीं करता), वो उसे ही देवदूत की भांति पूजने लगते हैं तथा स्वयं अपने ही हाथों से किसी पायलट बाबा को या किसी आइकावा को गढ़ देते हैं।
यह बात हमें समझ लेनी चाहिए कि जो ईश्वर को खोजने स्वयं निकले हों या खोजने का नाटक कर रहे हों, वो भला किस तरह अपने अनुयायियों को ईश्वर के मार्ग पर चलने को कहेंगे। उन्हें तो ट्रस्ट, ऑरगेनाइजेशन, इंटरनेशनल संस्थाएं, धर्मार्थ चलाए जा रहे आलीशान आश्रम और मिलेनियर श‍िष्य अपने ऐसेट्स के रूप में दिखते हैं।
सिर्फ चंद दिनों तक घर, परिवार, समाज तथा भौतिक सुखों के त्याग का नाटक करके बेहिसाब सुख-सुविधाएं जुटा लेने वाले ये तथाकथित साधु-संत यद‍ि वाकई ईश्वर के निकट होते तो उन्हें न श‍िष्य-शिष्याओं के किसी लाव-लश्कर की जरूरत होती और न उन सामाजिक भक्तों की ज‍ो अनैतिक तरीकों से पूंजी एकत्र करके ईश्वर की जगह इनके चरणों में शांत‍ि तलाशते हैं।
अनैति‍क तरीकों से संप्पति जुटा लेने वाले बाबाओं के ये भक्त इतना भी नहीं सोचते क‍ि जिनका अपना जीवन अशांति से भरा पड़ा है, वह क्या तो किसी को शांत‍ि का मार्ग बताएंगे और क्या धर्म का मार्ग दिखाएंगे।

- अलकनंदा सिंह
 

सोमवार, 16 मई 2016

The Galápagos Islands

The Galápagos Islands, a volcanic archipelago in the Pacific Ocean, is a province of Ecuador, lying about 1,000km off its coast, and considered one of the world's foremost destinations for wildlife-viewing. Its isolated terrain shelters a diversity of plant and animal species, many found nowhere else. Charles Darwin visited in 1835, and his observation of Galápagos' species later inspired his theory of evolution.


शुक्रवार, 13 मई 2016

आसमान में सुराख करते हौसलों का नाम है किन्नर अखाड़ा

ओशो ने कहा था कि प्रकृति और परिवर्तन दो ही शाश्वत हैं, और किन्हीं दो परिवर्तनों के बीच जो है वही समय है। समय का अर्थ ही होता है दो परिवर्तनों के बीच का फासला। उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ में इस बार समय के इसी फासले को तय किया जा रहा है। कुछ किया जा चुका है, कुछ करना बाकी है। परिवर्तन की बयार को धर्म के उच्चतम स्थान पर प्रतिष्ठापित किया जा रहा है।

जो पहला और महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ क‍ि जिन्हें आज तक मां बाप अपनी औलाद मानने से भी कतराते थे और अनाथ छोड़ देते थे ताकि समाज में शर्मिंदगी ना उठानी पड़े, आज वही किन्नर सिंहस्थ में पेशवाई कर रहे हैं। अपना अखाड़ा बनाकर धर्म के इस महाकुंभ में अपनी सशक्त मौजूदगी दिखा रहे हैं।

बेशक इसमें विभिन्न स्तर पर लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद मिली जीत का बहुत बड़ा हाथ है,  मगर उन हौसलों को कोई कैसे भुला सकता है जो स्वयं पर हंसने वालों को बता सके कि यदि जीवन परमात्मा का दिया हुआ है तो शारीरिक विकृति या कमी भी उसी की देन है। फिर किस पर हंसना और क्यों हंसना। सिंहस्थ कुंभ में अखाड़े की पेशवाई से इस ‘तीसरी ताकत’ का नया आगाज करके किन्नरों ने हमें प्रकृति के नियम, ईश्वर व हमारे समाज की गहराई व परिवर्तनों को समेट लेने की ताकत भी दिखाई।
नए अस्तित्व की इस नई पेशवाई ने इस मामले में भी इतिहास रच दिया कि अब से पहले कभी यह नजारा नहीं दिखा और न दिख सकता था, कम से कम कुंभ जैसे महाधार्मिक आयोजन में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
इस मायने में 21 अप्रैल की वह चिलचिलाती धूप वाली दोपहर सचमुच ऐतिहासिक थी कि सर्वथा उपेक्षित, दब-छिपकर अनाम जिंदगी बिताने वालों का झंडा ऐसे धार्मिक आयोजन में गर्व से ऊंचा लहरा रहा था।
संन्यासियों के पवित्र 13 अखाड़ों के साथ-साथ एक नया अखाड़ा उनके अस्तित्व की एक नई इबारत लिख चुका था। मौका पहले पहल की पेशवाई का था सो सिंहस्थ में उसकी पेशवाई कुछ ज्यादा ही धूमधाम से निकली, पहली बार कोई पेशवाई मुस्लिम-बाहुल्य तोपखाना मुहल्ले से निकली।
ऐसे में कितना लाजिमी था किन्नर अखाड़े की प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का ये कहना कि ”हमारी लड़ाई वजूद की है और इस पेशवाई ने हमारे वजूद को एक नया आयाम दे दिया है।” निश्चित ही ये सही है।
अभी कुछ साल पहले तक इस वजूद का हम ज़‍िक्र तक करने में कतराते थे किंतु अखाड़ा अब उनके अस्तित्व की पहचान का आयाम है। इसका उद्देश्य भी बड़ा है, जैसे कि देशभर के किन्नरों को जोड़ना, उनके जीवनयापन का बंदोबस्त करना और वृद्धाश्रम जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराना।
हालांकि जैसी कि अपेक्षा थी, सभी 13 धार्मिक अखाड़ों ने दबी जुबान से किन्नर अखाड़े का विरोध किया लेकिन किन्नरों ने शास्त्रार्थ की चुनौती देकर सबको मुंह बंद रखने पर मजबूर कर दिया।
बहरहाल, कुंभ के बहाने किन्नरों ने एक और मुकाम छू लिया है जिससे एक सकारात्मक आशा जगती है।
अभी तो ये यात्रा की शुरुआत है, और बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। पेशवाई का पूरा मैनेजमेंट संभाल रहीं नाज फाउंडेशन की संस्थापक व सामाजिक कार्यकर्ता अंजली गोपालन कहती हैं, ”बदलाव आना अच्छा है लेकिन हर स्तर पर भेदभाव मिटाना होगा। आज भी किन्नरों को नौकरी नहीं मिलती, स्कूल में परेशानी आती है, लोग अजीब नजर से देखते हैं, बिना शिक्षा कुछ संभव नहीं है।” निश्चित ही इसके लिए कानून बनाने की जरूरत है।
एक और पदाध‍िकारी रेवती भी कहती हैं कि समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। यह हकीकत है कि किन्नरों को कोई कमरा तक नहीं देता, स्लम में कमरा मिलता भी है तो दोगुनी कीमत पर। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लोग तमाशा समझते हुए सरेआम फ्री सेक्स की बात करते हैं।
इस संदर्भ में एक फिल्म बड़े ही मार्मिक ढंग से किन्नरों की मानसिक स्थ‍िति को दर्शाती है, यह फिल्म है ” द डैनिश गर्ल (2015)।  इस फिल्म में आयनर वेगेनर अपनी पत्नी से कहता है, ”रोज सुबह मैं खुद से वादा करता हूं कि मैं पूरा दिन पुरुष बनकर गुजारूंगा पर मैं लिली की तरह सोचता हूं, उसकी तरह ख्वाब देखता हूं, वह हमेशा यहीं रहती है, यह शरीर मेरा नहीं है, मुझे इसे छोड़ना ही होगा।” हमें और हमारे समाज को हर आयनर के अंदर छिपी किसी ना किसी लिली को पहचानना होगा और समाज को इस बदलाव का हिस्सा बनाना होगा।
शायर दुष्यंत की मशहूर लाइनों ”कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो” को समाज के सामने साबित कर दिखाया है किन्नर अखाड़े ने । आगे क्या होगा, यह तो कहना मुश्किल है परंतु फिलहाल किन्नरों के हौसले ने इसका आगाज सिंहस्थ कुंभ में किन्नर अखाड़े की पेशवाई करके कर ही दिया है। ऐतिहासिक बन गया है उज्जैन का ये कुंभ, जहां लोगों की कतार हर वक्त नजर आती है और परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है।
परिवर्तन, प्रकृत‍ि का नियम है। यद‍ि प्रकृत‍ि में परिवर्तन नहीं होगा तो सब-कुछ ठहर जाएगा। और ठहरी हुई हर चीज विनाश की परि‍चायक है। समाज का भी समय के साथ परिवर्तन होना आवश्यक है। ठहरा हुआ समाज हो या ठहरा हुआ पानी, दोनों से सड़ांध आने लगती है। समाज को इस सड़ांध से मुक्त रखने के लिए ईश्वर की उस रचना का सम्मान हमें करना ही होगा जिसे अब तक हम हिंजड़े, क‍िन्नर, छक्के अथवा ट्रांसजेंडर जैसे नामों से संबोधित करते रहे हैं और जिसे मात्र उप‍हास का पात्र समझकर दबी हुई कामुक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनाते रहे हैं।
– अलकनंदा सिंह

रविवार, 8 मई 2016

मैथ‍िलीशरण गुप्त की नज़र से… मां ने सिखाया पाठ

8 मई: मातृ दिवस पर विशेष  

कुछ भाव कुछ रिश्ते और कुछ अहसासों को हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं, कभी-कभी जब तक अबोले रहकर उस स्थ‍िति से ना गुजरें तब तक वो अहसास अधूरे रहते हैं… वो दर्द अधूरे रहते हैं…वो दर्द जो एक शरीर से दूसरा पूरा एक शरीर बनाते हैं, उसे इस जहां से रूबरू कराते हैं।

आज 8 मई का दिन मातृ दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इसे मनाना आसान है, बच्चों का अपनी मां के प्रति एक दिन का ही सही, बदलते और बढ़ते समय ने एक बात तो अच्छी की कि मां के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाया। हालांकि इस एक दिन को मनाने को पर भी कई प्रतिक्रियायें सामने आती हैं, कोई कहता कि एक दिन ही क्यों… हम तो मां के हर पल, हर दिन कृतज्ञ हैं। कोई कहता कि ये सब कॉरपोरेटाइजेशन है संबंधों का। कोई कहता सब चोचलेबाजी है। जितनेलोग उतने ही नज़रिये।
इस सब के बीच पुरानी पीढ़ी हो या नई पीढ़ी, दोनों ही पीढ़ी की मांयें अपने अपने तरीके से अपने बच्चों को अपने विचार, संस्कार सौंप रही हैं। पुरानी पीढ़ी की मांओं ने जहां सिखाया शांत रहकर, सहनशक्ति के साथ परिवार को बांधकर चलना मगर इस तरह से वे स्वयं को उतना मुखर होकर सामने नहीं ला सकीं जितना कि आज की मांयें, वहीं आज की मां अपने प्रोफाइल के साथ बच्चों के प्रोफाइल को भी उतना ही महत्व दे रही हैं, यह बेहद जरूरी भी है।
बहरहाल, मां के किरदार पर तमाम बहसों- मुबाहिसों के बीच हम तो मातृत्व को सम्मानित करना चाहते हैं और पश्चिम से ही आया सही , ये एक दिन विश‍िष्ट तो है ही… तो फिर इसे सेलिब्रेट करना भी बनता है ना।
इस आसान सी दिखने वाली कठिन यात्रा पर आज मैथ‍िलीशरण गुप्त की कविता याद आ गई जो बचपन की किताबों- यादों में से अचानक निकली है।
ये कविता बताती है कि रक्षक और भक्षक, न्याय और अन्याय, आखेटक और खग की रक्षा जैसी गूढ़ सीखों को इस तरह बातों ही बातों में सिर्फ मां ही बता सकती है, मां ही सिखा सकती है।

गुप्त जी ने मां के नज़रिए को क्या खूब लिखा है…

“माँ कह एक कहानी।”
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?”
“कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।”

“तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।”
“जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।”

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।”
“लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।”

“गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।”
“हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!”

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।”
“लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।”

“माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।”
“हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।”

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।”
“सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।”

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?”
“माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।”
“न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।”

– मैथिलीशरण गुप्त
                 
- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 6 मई 2016

अद्भुत है कवि कालिदास का ‘रघुवंशम’ जो ‘Raghuvansham : The Line of Raghu’ के रूप में आया

एक सुखद समाचार है कि कवि कालिदास की महानतम संस्कृत कृतियों में से एक ‘रघुवंशम’ अब अंग्रेजी में भी उपलब्ध होगी। इस पुस्तक में भगवान राम और उनके रघु वंश की कथा बयां की गयी है।

व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले इस महाकाव्य का अंग्रेजी में अनुवाद पूर्व राजनयिक ए एन डी हक्सर ने किया है।
‘Raghuvansham : The Line of Raghu’ पेंग्विन रैंडम हाउस ने प्रकाशित की है जिसमें रामायण और भगवान राम के पूर्वजों की कहानी और आज की तारीख में इसकी प्रासंगिकता के बारे में बताया गया है।
कालिदास ने शास्त्रीय भाषा संस्कृत में इस महाकाव्य की रचना की ।
पुस्तक में भगवान राम के पूर्वजों और वंशजों का भी उल्लेख है।
महाकाव्य के बारे में
रघुवंश कालिदास रचित महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।
आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परंतु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति ‘रघुवंश’ में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरांत उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।
रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई – 1450 ई) द्वारा रचित ‘संजीवनी’ है।
कालिदास रघुवंश की  पूरी कथा
रघुवंश की कथा का आरंभ महाराज दिलीप से होता है। कालिदास ने दिलीप के पहले के राजाओं की चर्चा करते हुए कहा है कि इस वंश का प्रादुर्भाव सूर्य से हुआ है और इसमें मनु पृथ्वी- लोक के सर्वप्रथम राजा हैं। उस मनु वंश में राजा दिलीप हुए। रघुवंश में दिलीप के विषय में तीन सर्ग हैं, जो महाराज रघु के प्रादुर्भाव की भूमिका- रुप में है। रघु के नाम पर रघुवंश नाम इस महाकाव्य को दिया गया है। रघु कालिदास का आदर्श राजा है, क्योंकि वह दिग्विजयी था। दिग्विजय का आख्यान चतुर्थ सर्ग में है। दिग्विजय के प्रसंग से समग्र भारत के विविध प्रदेशों में रघु को घुमाते हुए कवि को उन- उन प्रदेशों की विशेषताओं का वर्णन करते
हुए राष्ट्रीय एकता का आभास कराना अभीष्ट प्रतीत होता है।
पंचम सर्ग में रघु की सभा में कौत्स नामक स्नातक के गुरुदक्षिणा के लिए आने की चर्चा है। रघु ने यद्यपि विश्वजित् यज्ञ में सर्व दान दे दिया था, फिर भी उसने कौत्स को पूरी दक्षिणा देने की व्यवस्था की। अंत में कौत्स के आशीर्वाद से उसे अज नामक पुत्र हुआ। युवावस्था में अज ने विदर्भ राजकन्या इंदुमती के स्वयंवर में भाग लेने के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में उसने नर्मदा तट पर एक विशाल वन्य गज को मारा। वह मरते ही गंधर्व बन गया। उसने अज को सम्मोहनास्र दिया। विदर्भ पहुँचने पर अज का विशेष स्वागत हुआ।
छठें सर्ग में इंदुमती अज को स्वयंवर में चुनती है। सातवें सर्ग में लौटते हुए मार्ग में अज का अन्य राजाओं से युद्ध होता है। वे सब पराजित होते हैं। अज का अयोध्या में स्वागत होता है। रघु ने उसे राज्य भार देकर सन्यास ग्रहण किया। आठवें सर्ग में रघु के मरने का वर्णन है। अज का पुत्र दशरथ हुआ। कालान्तर में इंदुमती नारदवीणा से च्युत पुष्प के आघात से मर गई। अज का रोना- धोना आदि बतलाते हुए कवि ने सर्ग को समाप्त किया है। नवें से बारहवें सर्ग तक दशरथ और रामविषयक वाल्मीकि- रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है।
तेरहवें सर्ग में विमान द्वारा राम के सीता को लेकर अयोध्या लौटने की कथा है। मार्ग में अनेक दृश्य स्थलों से राम के भाविक संबंध थे, जिनकी चर्चा उन्होंने सीता से की। चौदहवें सर्ग में राम का राजकुल के सदस्यों से मिलन का मार्मिक वर्णन है। भरत ने उन्हें अपना राज्य लौटा दिया। रामराज्य का समारंभ हुआ। उस समय सीता गर्भवती थीं। उन्हें गंगा के तट पर बसे हुए तपोवनों को देखने की इच्छा हुई। इधर भद्र नामक दूत ने राम से कहा कि प्रजा आपके द्वारा सीता के पुनर्ग्रहण को ठीक नहीं समझती। राम ने लक्ष्मण से कहा कि सीता को वन में छोड़ आओ। लक्ष्मण ने ऐसा ही किया। वहाँ सीता की रक्षा करने के लिए वाल्मीकि- मुनि आ पहुँचे। वाल्मीकि ने राम के इस कुकृत्य की भत्र्सना की और सीता को अपनी पुत्री की भाँति रखा। इधर अयोध्या में राम ने अश्वमेध यज्ञ का समारंभ किया।
पंद्रहवें सर्ग में शत्रुध्न राम के द्वारा नियोजित होने पर मथुरा- प्रदेश के लिए प्रयाग करते हैं। वहाँ उन्हें ॠषियों के संतापक लवणासुर को मारना था। शत्रुध्न वाल्मीकि के आश्रम पर रात में रहे। उसी रात सीता को दो पुत्र हुए। शत्रुघ्न को यह समाचार मिला। उन्होंने मथुरा जाकर लवणासुर का वध किया।
वाल्मीकि ने सीता के पुत्र लव और कुश को संस्कार संपन्न करके, उन्हें अपनी कृति रामायण का गायन सिखाया। शम्बूक- वध के पश्चात् राम ने अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा।
उस यज्ञ भूमि में लव और कुश को राम ने बुलाया, क्योंकि उनके रामायण- गान की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी। कालिदास ने लिखा है —
तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ।
हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निवर्तितेव वनस्थली।।
वयोवेषविसंवादी रामस्य च तयोस्तदा।
जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत।।
लव और कुश ने राम के पूछने पर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम बता दिया। राम भाइयों के साथ वाल्मीकि के पास पहुँचे और उन्हें अपना सारा राज्य निवेदन किया। वाल्मीकि ने राम से कहा कि ये तुम्हारे पुत्र हैं। तुम इन्हें और सीता को स्वीकार कर लो। राम ने कहा कि प्रजा को सीता की शुद्धता पर विश्वास नहीं है। यदि सीता शुद्धता का प्रमाण देकर प्रजा को विश्वस्त करे, तो मैं उसे पुत्रों के साथ ग्रहण कर लूँ। सीता के समक्ष वाल्मीकि ने प्रस्ताव रखा। सीता ने कहा — माता पृथिवी, यदि मैं सर्वथा शुद्ध हूँ, तो मुझे अपनी गोद में ले लो। उसी समय पृथिवी फटी और देवी प्रकट होकर सीता को गोद में लेकर चली गई। कालांतर में राम, लक्ष्मण आदि दिवंगत हुए।
सोलहवें से उन्नीसवें सर्ग तक कुश से लेकर अग्निवर्ण तक राजाओं का क्रमशः चरिताख्यान है। कुश ने एक दिन स्वप्न देखा कि अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी नगरी की दुर्दशा का वर्णन कर रही है। तब तो कुश ने कुशावती श्रोतियों को दे डाली और अयोध्या भा गए। सरयू में विहार करते हुए कुश को कुमुद्वती नामक नाग- कन्या विवाह के लिए मिली। सत्रहवें सर्ग में कुश के इंद्र के लिए युद्ध करते हुए मारे जाने का वर्णन है। उसके पश्चात् उसका पुत्र अतिथि राजा हुआ। अठारहवें सर्ग में निषध नल, नभ, पुण्डरीक, क्षेमधन्वा, देवानीक, अहीनगु, शिल, उन्नाभ, वज्रनाभ, शंखण, व्युषिताश्व, विश्वसह, हिरण्यनाभ, कौशल्य, ब्रह्मिष्ठ, कमललोचन, पुष्य, ध्रुवसंधि और सुदर्शन राजा हुए। उन्नीसवें सर्ग में सुदर्शन का पुत्र अग्निवर्ण राजा हुआ। वह नाममात्र का शासक था। उसने सारा समय रानियों के साथ विलास में बिताया। उसे अंत में यक्ष्मारोग हो गया, जिससे वह नि:संतान मर गया। उसके मरने के समय उसकी पटरानी गर्भवती थी। वही सिंहासन पर बैठी। यहीं काव्य का अंत है।
कालिदास के महाकाव्य का नाम रघुवंश ही क्यों है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। हरिवंश के नाम पर रघुवंश का नाम कालिदास के स्मृति- पटल पर आया होगा — ऐसा प्रतीत होता है। हरिवंश में रघुवंश के राजाओं की नामावली भी मिलती है, पर इस सूची में दिलीप से पहले के और अग्निवर्ण से परवर्ती राजाओं की भी गणना की गई है।
उपयुक्त विवरण से स्पष्ट है कि रघुवंश की आख्यान- परिधि अत्यंत विशाल है और इसके आख्यान- तत्व का वैविध्य अन्यत्र किसी महाकाव्य में द्रष्टव्य नहीं है। ऐसे आख्यान का परम लाभ है कि कवि को मनोवांछित वर्णनों के सन्निवेश के लिए कोई कृत्रिम प्रयोग नहीं करना पड़ा है और साथ ही रस- निष्पत्ति में भावादिकों का एक पूरा संसार ही मिल गया है। इस आख्यान के आधिकारिक और प्रासंगिक भागों में देव, मानव, ॠषि, असुर और राक्षस से लेकर पशु- पक्षी तक विचरण करते हुए मिलते हैं, जिनसे कवि का सहानुभूतिमय काव्यात्मक परिचय है। महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रवृत्तियों को समान रुप से प्रतिष्ठित किया गया है। नि:संदेह सभी आख्यान- तत्वों को रमणीय काव्यात्मक परिधान देने में कालिदास को सफलता मिली है। पुरातनतम आख्यान- वृत्तों को भी कालिदास ने इस प्रकार चित्रित किया है कि वे शाश्वत जीवंत प्रतीत होते हैं।
नायक की श्रेष्ठता ओर उच्चता से रघुवंश का काव्य- गौरव सर्वातिशाली है। इस महाकाव्य के आरंभ में रघुवंश की गुणगरिमा का सम्पुट पाठ करके दिलीप का जो वर्णन किया गया है, वह काव्य को उच्चतम स्तर पर ला देता है। यथा —
तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना।
    तथा हि सर्वे तस्यासन् परार्थेकफला गुणा:।।
रघु को कालिदास ने इंद्र से भी बढ़ कर माना है।
तमीशः कामरुपाणामत्याखण्डलविक्रमम्।
आध्यात्मिक और आधिभौतिक दृष्टि से इंद्र के आदर्श को भारत- राष्ट्र के लिए अन्तर्हस्तीन बनाने के उद्देश्य से कालिदास ने अपने काव्यों में बहुविध उपक्रम किये हैं। वास्तव में वैदिक युग के पश्चात लोग इंद्र को भूल से रहे थे। इंद्र के पराक्रम को तत्कालीन समाज के समक्ष रख कर उसे कर्मण्य बना देने के लिए ही कवि ने पुनः- पुनः उन्हें राजाओं के साथ मिल- जुल कर काम करते हुए दिखाया है। कवि की दृष्टि में राजा दिलीप और रघु इंद्र के समान है। इंद्र ने घोड़ा ले जाते हुए रघु ने देखा और इंद्र के न मानने पर उससे युद्ध किया। उसके पराक्रम को देखकर –
तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा
कालिदास के अनुसार देवता मनुष्यों के साथ मिलते- जुलते थे। मगध- नरेश के असंख्य यज्ञों में इंद्र को पुनः- पुनः आना पड़ता था। परिणाम हुआ —
क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्त्रमाहूतसहस्त्रनेत्रः
    शच्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान्मन्दारशून्यानलकांश्चकार।।
और तो और- इंद्र ने बैल का रुप धारण करके रघुवंश के राजा ककुत्स्थ के लिए असुरों के साथ लड़ने में वाहन का काम किया था।
केवल इंद्र ही नहीं, स्वयं इंद्राणी भी मानव – लोक में महान् कार्य – सम्भारों में सम्मिलित होता है।
इंद्र की सहायता युद्ध में करना में यह रघुवंश का कुलव्रत था। रघुवंश का परवर्ती राजा ब्रह्मिष्ठ मरने के पश्चात् इंद्र का मित्र बना।
कालिदास ने इंद्रादि देवताओं की बारंबार चर्चा अलंड्कारों में उपमान बना कर भी की है। कवि के शब्दों में दशरथ मानों पृथिवी पर अवतीर्ण इंद्र हैं। पर इतना ही नहीं। इंद्र के आदर्श को अग्रेसर को अग्रेसर करने के लिए कवि इस चर्चा को नहीं छोड़ना चाहता कि
स किल संयुगमूर्व्हिध्न सहायतां
    मघवतः प्रतिपद्य महारथः।
    स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छितं
    सुरवधूरवधूतभया: शरै:।
इस श्लोक के द्वारा समकालिक राजाओं को इंद से भी बढ़ कर पराक्रमी बनने का प्रोत्साहन देना कवि का अभिमत है।
रघुवंश में कालिदास की शैली रस- प्रधान है। रस की साक्षात् निष्पत्ति के लिए उपयोगी अलंकारों और गुणों का संयोजन कवि ने स्थान- स्थान पर किया है। कालिदास ने रस तथा अलंकारादि के द्वारा काव्य- सौंदर्य में जो विशेष चारुता संपादित की, उससे प्रभावित होकर आलोचकों ने उन्हें रसेश्वर और उपमा- सम्राट की उपाधि दी है।
रघुवंश में राजाओं के जीवन- चरित्र के प्रकरण में साधारणतः वीररसात्मक घटनाओं की विशेषता होनी ही चाहिए थी। तभी तो क्षेत्रधर्म से राष्ट्र की सुरक्षा का परम प्रयोजन कालिदास के द्वारा सिद्ध हुआ है।
कालिदास की शैली को प्राचीन काल से ही भारत में सर्वोपरि प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। मानव की सुकुमार भावनाओं का स्पर्श करके उन्हें यथोचित संस्कार देने के काम में कालिदास को अनुपम सफलता मिली है।
रघुवंश में कवि ने बहुविध छंदों का प्रयोग किया है, जिससे उसके प्रौढ़ पाण्डित्य और काव्याभ्यास का चिर अनुभव प्रकट होता है। इसमें अनुष्टुभ, प्रहषिणी, उपजाति, मालिनी, वंशस्थ, हरिणी, वसंततिलका, पुष्पिताग्रा, वैतालीय, तोटक, मन्दाक्रान्त, द्रुतविलम्बित, शालिनी,
औपच्छन्दसिक, रथोद्धता, स्वागता, मत्तमयूर, नाराच तथा प्रहर्षिणी छंदों की छटा है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास ने कठिन और अप्रचलित छंदों का भी प्रयोग किया है।
कालिदास कवि होने के नाते साक्षात उपदेश देते हुए सामने प्रायः नहीं आते, पर वे मान- व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित पथ का प्रदर्शन अलंकार- व्याज से करते हैं। यथा–
इन्द्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्वज्ञानेन संयमी।।
(संयमी तत्त्वज्ञान से इंद्रियों को वश में रहता है।)
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रघुवंश की आख्यान- परिधि अत्यंत विशाल है और इसके आख्यान- तत्त्व का वैविध्य अन्यत्र किसी महाकाव्य में द्रष्टव्य नहीं है। ऐसे आख्यान का परम लाभ है कि कवि को मनोवांछित वर्णनों के सन्निवेश के लिए कोई कृत्रिम प्रयोग नहीं करना पड़ा है और साथ ही रस- निष्पत्ति में भावादिकों का एक पूरा संसार ही मिल गया है, इस आख्यान के आधिकारिक और प्रासंगिक भागों में देव, मानव, ॠषि, असुर और राक्षस से लेकर पशु- पक्षी तक विचरण करते हुए मिलते हैं, जिनसे कवि का सहानुभूतिमय काव्यात्मक परिचय है।
महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रवृत्तियों को समान रुप से प्रतिष्ठित किया गया है। नि:संदेह सभी आख्यान- तत्त्वों को रमणीय काव्यात्मक परिधान देने में कालिदास को सफलता मिली है। पुरातनतम आख्यान- वृत्तों को भी कालिदास ने इस प्रकार चित्रित किया है कि वे शाश्वत जीवंत प्रतीत होते हैं।

- अलकनंदा सिंह