आज महाशिवरात्री है... मंदिरों में रुद्राभिषेक और ''ऊं नम: शिवाय'' मंत्र के जाप तथा बेल पत्र ,फल-फूल, धतूरे व अन्य पूजा सामग्री से शिवलिंगों की पूजा-अर्चना हो रही है। इसी गहमागहमी के बीच भीड़ का एक रेला कांवड़ियों का भी है जो शिवभक्ति के खुमार में न तो रास्ते जाम करने से बाज आता है और ना ही राहगीरों से बदसलूकी करने से।
अजीब सी स्थिति है , समझ में नहीं आ रहा कि इस पूरे के पूरे माहौल को भक्ति के किस एंगिल से देखा जाए...।
महाशिवरात्रि को शिव और शक्ति के मिलन स्वरूप मनाए जाने के पीछे भौतिक कारण कम और आध्यात्मिक कारण ज्यादा हैं, ऐसे में कांवड़ियों की तथाकथति भक्ति के रूप को देखकर चिंतित होना स्वाभाविक है कि क्या महाशिवरात्रि जैसे पर्व को एक बेलगाम भीड़ द्वारा विकृत नहीं कर दिया गया। कांवडि़ये स्वयं को सर्वश्रेष्ठ शिवभक्त मानकर कुछ भी करने पर आमादा है... कुछ भी यानि कुछ भी जो अराजक... । भीड़ सिर्फ कांवडि़यों की ही नहीं बल्कि मंदिरों में तो पुरुष , स्त्री , बच्चे, नवयुवतियां, नवयुवक एक दूसरे को लगभग धकियाये जा रहे हैं।
''ऊं नम: शिवाय'' मंत्र का जाप करते जा रहे हैं मगर सारी भक्ति... सब सतही.. . आडंबर । इस भीड़ में कोई नहीं जानना चाहता कि इस महामंत्र ''ऊं नम: शिवाय'' के आखिर मायने क्या हैं।
इस भीड़ में कोई नहीं जानना चाहता कि बीज यदि पृथ्वी की सतह पर डाल दिया जाए तो उसके उगने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं मगर यही बीज यदि पृथ्वी को थोड़ा कुरेद कर उसमें दबा दिया जाये तो वह ज़रा सी नमी पाकर ही उग आता है।
ठीक यही बात महामंत्र ''ऊं नम: शिवाय'' के जप को लेकर भी है। आज शिवरात्रि पर इस महामंत्र की मालाएं जपी जा रही हैं, काउंटिंग की जा रही है, पंडित बता रहे हैं कि फलां को इतने हजार मंत्र की इतनी मालाएं जपने का इतना लाभ हुआ। भीड़ के बीच से कराह- कराह कर दर्शन करके निकल रहे भक्त भी सुमरनी में माला दर माला तो घुमाए जा रहे हैं किंतु उनका ध्यान महामंत्र से होने वाले लाभ पर टिका हुआ है।
इन बगुला भक्तों और माला जपाऊ सिद्ध लोगों को कौन बताए कि यह महामंत्र इसलिए कहा गया क्योंकि इसके साथ कोई मांग नहीं जुड़ी केवल आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय जुड़ा है।
आत्मा की शुद्धता तभी संभव है जब आप प्रकृति के साथ तालमेल कर सकें। आत्म जागरण परमात्मा स्वरूप प्रकृति के विनाश में कम से कम सहभागी ना बनें।
इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है-केवल चैतन्य का जागरण। सोया हुआ चैतन्य जाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए और यह तभी संभव होगा जब हम अपनी अनुभूतियों को जड़ ना होने दें। मनोकामनाएं हावी होगीं तो स्वार्थ पनपेगा और स्वार्थ से अहंकार , फिर यही अहंकार 'मैं' की राह पर चलता हुआ दूसरों को नीचा दिखाता कब शिव के इस महामंत्र से दूर ले जाएगा, पता ही नहीं चलेगा।
कम से कम '' ऊं नम: शिवाय ''महामंत्र का ऐसा प्रयोग हममें से कोई नहीं चाहेगा।
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो शब्द को ब्रह्म माना गया है, उसमें अचिंत्य शक्ति होती है इसीलिए शब्दात्मक होने के कारण मंत्र को शक्तिपुंज माना गया है। और यही शक्तिपुंज मन के तीनों कार्य- स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन को अपनी क्षमता के अनुसार संचालित करता है।
मन इतिहास की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन हो पाता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन 'शब्द' के माध्यम से चलते हैं। हम जब किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं।
इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बनाया वही बिम्ब हमारे लिए सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है और इसीलिए '' ऊं नम: शिवाय '' महामंत्र के माध्यम से हम शिव को अपने जैसा मानकर उनसे अपनी कामनाओं को पूरा करने की बात कहते हैं, मगर अब ये प्रवृत्ति अपने विकृत रूप में हमारे सामने है।
मंदिरों का भी अब व्यवसायीकरण हो गया है और यह एक ऐसी आड़ भी बन गया है जो एक विशेष काउंटिंग की माला जपने और उनके नंबरों से प्राप्त फल का हिसाब किताब लगा रहा है। महाशिवरात्रि को बेलपत्रों के बोझ के बीच दबे शिवलिंग को बताया जा रहा है कि इतनी माला कर ली हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है, कामनाऐं पूरी करने की। शेष रहा '' ऊं नम: शिवाय'', तो यह एक टूल है जिसे जब चाहे तब वह इस्तेमाल कर ही लेगा।
- अलकनंदा सिंह
अजीब सी स्थिति है , समझ में नहीं आ रहा कि इस पूरे के पूरे माहौल को भक्ति के किस एंगिल से देखा जाए...।
महाशिवरात्रि को शिव और शक्ति के मिलन स्वरूप मनाए जाने के पीछे भौतिक कारण कम और आध्यात्मिक कारण ज्यादा हैं, ऐसे में कांवड़ियों की तथाकथति भक्ति के रूप को देखकर चिंतित होना स्वाभाविक है कि क्या महाशिवरात्रि जैसे पर्व को एक बेलगाम भीड़ द्वारा विकृत नहीं कर दिया गया। कांवडि़ये स्वयं को सर्वश्रेष्ठ शिवभक्त मानकर कुछ भी करने पर आमादा है... कुछ भी यानि कुछ भी जो अराजक... । भीड़ सिर्फ कांवडि़यों की ही नहीं बल्कि मंदिरों में तो पुरुष , स्त्री , बच्चे, नवयुवतियां, नवयुवक एक दूसरे को लगभग धकियाये जा रहे हैं।
''ऊं नम: शिवाय'' मंत्र का जाप करते जा रहे हैं मगर सारी भक्ति... सब सतही.. . आडंबर । इस भीड़ में कोई नहीं जानना चाहता कि इस महामंत्र ''ऊं नम: शिवाय'' के आखिर मायने क्या हैं।
इस भीड़ में कोई नहीं जानना चाहता कि बीज यदि पृथ्वी की सतह पर डाल दिया जाए तो उसके उगने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं मगर यही बीज यदि पृथ्वी को थोड़ा कुरेद कर उसमें दबा दिया जाये तो वह ज़रा सी नमी पाकर ही उग आता है।
ठीक यही बात महामंत्र ''ऊं नम: शिवाय'' के जप को लेकर भी है। आज शिवरात्रि पर इस महामंत्र की मालाएं जपी जा रही हैं, काउंटिंग की जा रही है, पंडित बता रहे हैं कि फलां को इतने हजार मंत्र की इतनी मालाएं जपने का इतना लाभ हुआ। भीड़ के बीच से कराह- कराह कर दर्शन करके निकल रहे भक्त भी सुमरनी में माला दर माला तो घुमाए जा रहे हैं किंतु उनका ध्यान महामंत्र से होने वाले लाभ पर टिका हुआ है।
इन बगुला भक्तों और माला जपाऊ सिद्ध लोगों को कौन बताए कि यह महामंत्र इसलिए कहा गया क्योंकि इसके साथ कोई मांग नहीं जुड़ी केवल आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय जुड़ा है।
आत्मा की शुद्धता तभी संभव है जब आप प्रकृति के साथ तालमेल कर सकें। आत्म जागरण परमात्मा स्वरूप प्रकृति के विनाश में कम से कम सहभागी ना बनें।
इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है-केवल चैतन्य का जागरण। सोया हुआ चैतन्य जाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए और यह तभी संभव होगा जब हम अपनी अनुभूतियों को जड़ ना होने दें। मनोकामनाएं हावी होगीं तो स्वार्थ पनपेगा और स्वार्थ से अहंकार , फिर यही अहंकार 'मैं' की राह पर चलता हुआ दूसरों को नीचा दिखाता कब शिव के इस महामंत्र से दूर ले जाएगा, पता ही नहीं चलेगा।
कम से कम '' ऊं नम: शिवाय ''महामंत्र का ऐसा प्रयोग हममें से कोई नहीं चाहेगा।
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो शब्द को ब्रह्म माना गया है, उसमें अचिंत्य शक्ति होती है इसीलिए शब्दात्मक होने के कारण मंत्र को शक्तिपुंज माना गया है। और यही शक्तिपुंज मन के तीनों कार्य- स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन को अपनी क्षमता के अनुसार संचालित करता है।
मन इतिहास की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन हो पाता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन 'शब्द' के माध्यम से चलते हैं। हम जब किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं।
इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बनाया वही बिम्ब हमारे लिए सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है और इसीलिए '' ऊं नम: शिवाय '' महामंत्र के माध्यम से हम शिव को अपने जैसा मानकर उनसे अपनी कामनाओं को पूरा करने की बात कहते हैं, मगर अब ये प्रवृत्ति अपने विकृत रूप में हमारे सामने है।
मंदिरों का भी अब व्यवसायीकरण हो गया है और यह एक ऐसी आड़ भी बन गया है जो एक विशेष काउंटिंग की माला जपने और उनके नंबरों से प्राप्त फल का हिसाब किताब लगा रहा है। महाशिवरात्रि को बेलपत्रों के बोझ के बीच दबे शिवलिंग को बताया जा रहा है कि इतनी माला कर ली हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है, कामनाऐं पूरी करने की। शेष रहा '' ऊं नम: शिवाय'', तो यह एक टूल है जिसे जब चाहे तब वह इस्तेमाल कर ही लेगा।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें