सोमवार, 28 सितंबर 2020

‘कौवा कान ले गया’ जैसा है क‍िसान आंदोलन का सच

 

अनियंत्रित अभ‍िव्यक्त‍ि की स्वतंत्रता के दुष्‍परिणाम: 
कुछ नासूर ऐसे होते हैं जो क‍िसी एक व्यक्त‍ि नहीं बल्क‍ि पूरे समाज को अराजक स्थ‍ित‍ि में झोंक देते हैं, ऐसा ही एक नासूर है अभ‍िव्यक्त‍ि की स्वतंत्रता और लोकतंत्र बचाने के नाम पर ''आंदोलन'' की बात करना, फि‍र चाहे इसके ल‍िए कोई भी अराजक तरीका क्यों ना अपनाया जाये। हाल ही में क‍िया जा रहा क‍िसान आंदोलन इसी अराजकता और भ्रम की पर‍िणत‍ि है। ''क‍िसानों के नाम पर'' क‍िये जाने वाले इस आंदोलन के कर्ताधर्ता दरअसल भयभीत हैं क‍ि उनकी सूदखोर लॉबी के हाथ से न‍िकल कर क‍िसान अपनी उपज का खुद माल‍िक बन जायेगा। 

आंदोलन का जोर हर‍ियाणा, पंजाब में ज्यादा रहा क्योंक‍ि इन दोनों ही प्रदेशों में मंडी कारोबारी हों या कोल्ड स्टोरोज चेन के माल‍िक सभी नेता हैं। हर‍ियाणा में देवीलाल के पोते दुष्यंत चौटाला या पंजाब के अकाली दल की बादल फैम‍िली का करोबारी ह‍ित इससे प्रभाव‍ित हो रहा है। ठीक यही स्थ‍िति महाराष्ट्र में एनसीपी के पवार फैम‍िली की भी है, तभी तो अज‍ित पवार ने कहा क‍ि वे कानून को महाराष्ट्र में लागू नहीं होने देंगे।  पश्च‍िमी उत्तरप्रदेश में भी भाक‍ियू ने प्रदर्शन क‍िये, इसमें भाग लेने वाले ''क‍िसान'' दरअसल मंडी में कमीशन एजेंटों  व आढ़त‍ियों के वे गुर्गे ही न‍िकले परंतु यहां उनकी '' नेताग‍िरी'' की सारी हवा पढ़े ल‍िखे क‍िसानों ने ही न‍िकाल दी।  

संसद में भी आपराध‍िक पृष्ठभूम‍ि वालों ने तो भरपूर अराजकता फैलाने की कोश‍िश की, संसद के बाहर धरना द‍िया, राष्ट्रपत‍ि से जाकर भी म‍िले क‍ि व‍िधेयकों को पास न क‍िया जा सके और कहीं से भी प्राणवायु म‍िल सके परंतु अब यह कानून ''कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020'' बन गया। इसमें  किसानों के हित में ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो कृषि उत्पाद बाजार की खामियों को दूर करेंगे। अब किसानों को अपना उत्पाद बेचने के लिए एपीएमसी यानी कृषि मंडियों तक सीमित रहने के लिए मजबूर नहीं होना होगा। कानून बनने के बाद राज्य की मंडियां या व्यापारी किसी प्रकार की फीस या लेवी नहीं ले पाएंगे। ज‍िस एमएसपी को लेकर संशय पैदा क‍िया जा रहा है , केंद्र सरकार ने अगले ही कदम में रबी की फसलों का एमएसपी बड़ा कर ये शंका भी न‍िर्मूल साब‍ित‍ कर दी। अब...? अब ये क्या करें .. कहने को कुछ नहीं ..बचा तो कुलम‍िलाकर ये कौआ कान ले गया जैसी कहावत को ही चर‍ितार्थ कर रहे हैं जहां ना कौआ है ना ही कान गायब है ..है तो बस स‍िर्फ हंगामा ..वो भी बेवजह। 

वर्ष 1967 में बना कृषि बाजार उत्पाद समिति यानी एपएमसी एक्ट और वर्ष 1991 के बाद आर्थ‍िक सुधारों के बाद भी बिचौलियों के कारण कृषि उत्पाद बाजारों की उपेक्षा, किसानों का शोषण के ल‍िए सरकारी लाइसेंस ने स्थ‍ित‍ि औश्र ब‍िगाड़ी ही। हालांक‍ि 2001 में शंकरलाल गुरु समिति ने कृषि उत्पाद बाजार के संवर्द्धन एवं विकास के लिए 2,600 अरब रुपये के निवेश का सुझाव दिया, लेकिन उस पर चुप्पी साध ली गई। ऐसे में जाह‍िर है क‍ि  इस कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020 कानून से उस वर्ग को तो खीझ होगी ही जो अब तक कृषि उत्पाद बाजार से अरबपत‍ि बन गए। कृषि मंडियां ज‍िनके ल‍िए कमाई का अहम ज़रिया रहीं, कृषि मंडियों की खामियों व उनके परिसर में संचालित होने वाले उत्पादक संघों से कौन सा क‍िसान आज‍िज़ नहीं होगा।   

इस सारे कथ‍ित आंदोलन से एक बात तो साफ हो गई क‍ि जिन्होंने कायदे से गांव नहीं देखे, खेत से जिनका साबका नहीं पड़ा, फसल की निराई-गुड़ाई नहीं की, उपज की मड़ाई-कटाई नहीं की, घर पर खेतों से अनाज कैसे आता है, जो नहीं जानते, वे लोग किसानों के हमदर्द बनने का दावा कर रहे हैं। दरअसल ऐसे लोगों की कोशिश अपनी राजनीति चमकाना है, इसीलिए वे राज्यसभा में अध्यक्ष की पीठ के सामने मेज पर चढ़ जाते हैं...हंगामा करते हैं और इसके बावजूद खुद को संसदीय आचरण के संवाहक मानते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज की जनता सूचनाओं के बहुस्रोतों के उपयोग की आदी हो गई है। वह भी सच और झूठ समझने लगी है। उसकी समझ ही मौजूदा राजनीति को जवाब देगी। 

- अलकनंदा स‍िंंह 


बुधवार, 16 सितंबर 2020

दीमकें… इससे पहले क‍ि हमारा घर चट कर जायें


 घर का गेट खोला… तो देखा दरवाजे की चौखटों पर दीमक लगी हुई है, घर के कई कोनों तक उसका फैलाव हो गया जबक‍ि अभी कुछ द‍िन पहले ही तो पेस्ट ट्रीमटमेंट कराया था। काफी कुछ तो खरोंच कर भी उतारी मगर सब बेकार। दीमक कुछ समय के ल‍िए गई लेकिन फ‍िर वापस आ गई। इसे दूर करने के ल‍िए घर के कोने-कोने व दरवाजों को लगातार खरोंचना होगा… दरअसल, दीमक की प्रवृत्त‍ि ही ऐसी होती है क‍ि उसे दूर करने को सतत प्रयास करने होते हैं।

ऐसा ही कुछ हाल है हमारे समाज में व्याप्त दीमकों का भी है, जो स‍िर्फ अपनी स्वार्थ पूर्त‍ि के ल‍िए देश के हर उस दरवाजे और हर उस अंग को अपने लपेटे में ले चुकी हैं, जहां-जहां से उन्‍हें प्रगत‍ि की आस लगी हो। दीमक को अंधेरा, सीलन और कमजोर कड़‍ियों का साथ चाह‍िए बस, फ‍िर देख‍ने लायक होता है उसका फैलाव…।

मैं बात कर रही हूं, ऐसी ही कुछ दीमकों की जैसे क‍ि द‍िल्ली दंगों के साज‍िशकर्ता तथा सीएए व एनआरसी का व‍िरोध करने वाले वो ”कथ‍ित बुद्ध‍िजीवी” जो बलवाइयों को न केवल आर्थ‍िक मदद देते रहे बल्क‍ि कोर्ट में उनकी र‍िहाई और अन्य खर्चों को भी स्वयं ही वहन करते रहे हैं…उनकी ये मदद बदस्तूर अब भी जारी है।

कल की ही बात ले लीज‍िए… द‍िल्ली दंगों के आरोपी उमर खाल‍िद का नाम दंगों में ”जबरन फ्रेम” करने व कोई सुबूत ”ना” होने का आरोप लगाते हुए कथ‍ित बुद्ध‍िजीवी उसके ल‍िए सहानुभुत‍ि अभ‍ियान चला रहे थे, वह भी सोशल मीड‍िया के उस युग में जब इसकी ”करतूतों” वाले वीड‍ियो वायरल होकर सरेआम हो चुके हैं क‍ि कैसे उमर खाल‍िद ”खून बहाने” की बात कहता है… कैसे वह डोनाल्ड ट्रंप का नाम लेते हुए कहता है क‍ि यही अच्छा मौका है ज‍िससे हमारी बात इंटरनेशनली सुनी जा सकेगी… व‍ह आईबी के अंक‍ित शर्मा के हत्यारे ताह‍िर हुसैन से मुलाकात करता है, ये वीड‍ियो भी सोशल मीड‍िया पर है… फ‍िर भी उसके पक्ष में बोल रहे कथ‍ित बुद्ध‍िजीवी आख‍िर समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं, क्यों अव‍िश्वास और अलगाववाद की दीमकों को पनपा रहे हैं, वे यह क्यों नहीं समझते क‍ि इससे तो स्वयं उनकी ही व‍िश्वसनीयता पर खतरा है।

कोरोना संक्रमण काल में भी बजाय वॉर‍ियर्स का साथ देने के सीएए व एनआरसी से लेकर द‍िल्ली दंगों तक को अंजाम देने वाली ये दीमकें आख‍िर देश को क‍िधर ले जाना चाहती हैं।

अगला उदाहरण है रेलवे कर्मचारी यून‍ियन अर्थात ‘ऑल इंड‍िया रेलवे मेंन्स फेडरेशन’ नामक दीमक का, जो रेलवे द्वारा कुछ प्राइवेट ट्रेन्स को ट्रैक पर चलाने का व‍िरोध कर रही है जबकि इससे गरीबजन की यात्रा पर कोई आंच नहीं आएगी, ये तो बस एक्स्ट्रा इनकम के ल‍िए ओवरटाइम है ताक‍ि रेलवे समृद्ध हो सके। प्राइवेट ट्रेनों का संचालन जहां रेलवे कर्मचार‍ियों की कार्यसंस्कृत‍ि को प्रत‍िस्पर्द्धा बनाएगा वहीं संसाधनों का दुरुपयोग भी रोकेगा परंतु ऑल इंड‍िया रेलवे मेंन्स फेडरेशन के इरादे भी दीमकों की भांत‍ि रहे हैं जो ”अध‍िकारों” के नाम पर व‍िभागह‍ित को ही चाटते रहे हैं।

प्रत‍िस्पर्द्धा और प्रत‍िबद्धता दोनों ही फेडरेशन के कुकृत्यों के ल‍िए खतरा हैं। अभी तक फेडरेशन के नेता कुछ भ्रष्ट रेलवे अध‍िकार‍ियों के साथ म‍िलकर टेंडर्स के नाम पर बड़े घोटाले, करोड़ों की रेलवे भूम‍ि को खुर्दबुर्द करके, वेंडर्स से लेकर कंस्ट्रक्शन, रेलवे अस्पतालों के सामान खरीद तक में घोटाला करके मामूली से पद पर रहते हुए जो करोड़ों कमा रहे हैं, वो ये नहीं कर पायेंगे, कर्मचारी संगठन पर दबदबा खो देंगे, सो अलग।

दरअसल यून‍ियन द्वारा कर्मचारी के ह‍ित की बात करना तो मुखौटा है, इसके पीछे खाल‍िस तौर पर वो कॉकस है जो प्राइवेटाइजेशन के नाम पर न केवल कर्मचार‍ियों को बरगला रहा है बल्क‍ि रेलवे को फायदे में आने से भी रोक रहा है। संगठन पदाध‍िकारी से लेकर अध‍िकार‍ियों के घर तक कर्मचार‍ियों से ”बेगार” या रेलवे ट्रैक की देखरेख करने वाले गैंगमैन्स से घरों में बर्तन, पोंछा करवाना कैसा कर्मचारी ह‍ित है परंतु यून‍ियनबाजी के चलते व‍िभाग ऐसे लोगों को ढोने पर व‍िवश है।

कुछ अन्य दीमकों में शाम‍िल हैं फर्जी भर्त‍ियों को अंजाम देने वाले ठेकेदार, ई गवर्नेंस को धता बताते भ्रष्टाचारी सरकारी कर्मचारी। वंच‍ितों -आद‍िवास‍ियों के ल‍िए काम करने वाली वो गैर सरकारी संस्थाऐं ज‍िनका ‘व‍िकास’ गरीबों का ”धर्म पर‍िवर्त‍ित” करा कर ही ज़मीन पर उतरता है और इस व‍िकास के ल‍िए वे हथ‍ियारों से लेकर मानव तस्करी तक के नेटवर्क को इस्तेमाल कर रही हैं। इसी श्रेणी में आती हैं ड्रगमाफ‍िया, हथ‍ियार माफ‍िया, बॉलीवुड माफ‍िया की दीमकें (Termites) जो अपने अपने तरीके से समाज को चट कर रही हैं।

अब इन दीमकों को समझ लेना चाह‍िए क‍ि समाज और देश की व्यवस्थाओं में भरी सीलन और कमजोरी जो इन्हें अपने मंसूबे कामयाब कराती आई है, आगे नहीं मिलने वाली क्‍योंकि समय ही नहीं सरकार भी बदल रही है।

– अलकनंदा स‍िंंह 

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

मीड‍िया: अपने ही हाथों से मैला कर ल‍िया अपना ग‍िरेबां

 



मीड‍िया के न‍िकम्मेपन और ग‍िरावट ने अब तो सारी हदें पार कर दी हैं। कभी ज‍िस वर्ग को समाज और वंच‍ितों के ल‍िए प्राणवायु माना जाता था, आज मीड‍िया का वही वर्ग और उसके कर्मचारी ( ज‍िन्हें पत्रकार तो हरग‍िज नहीं कहा जा सकता) अपनी सारी क्रेड‍िब‍िल‍िटी खो चुके हैं। अब ये चीखने वाले कथ‍ित पत्रकार क‍िसी मज़लूम की ज़‍िंदगी व न्याय के ल‍िए र‍िपोर्ट‍िंग नहीं करते, वे पुल‍िस व प्रशासन के अध‍िकार‍ियों के काले कारनामों को दबाने के आदी हो चले हैं , समाज में कहां क्या बुरा हो रहा है, इसपर नज़र नहीं डालते।

वे सुशांत स‍िंह राजपूत, र‍िया चक्रवर्ती से लेकर कंगना रानौत पर गला फाड़ फाड़कर तो च‍िल्लाते हैं, परंतु उन्हीं की नाक के नीचे गाज़ियाबाद के विकास नगर, लोनी में 16 वर्ष की नाबाल‍िग बहन को छेड़ रहे शोहदों द्वारा भाई को ही धारदार हथ‍ियार से घायल करने की खबर नहीं होती है, जबक‍ि उल्टा शोहदे ने ही लड़की के भाई पर जयश्रीराम ना बोलने पर जात‍िसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने की र‍िपोर्ट करा दी गई। लड़की के अनुसार इससे पहले भी कई बार आरोपी अभिषेक जाटव ने अश्लील हरकतों के साथ छेड़ा है।

ये पत्रकार इससे भी अनभ‍िज्ञ रहते हैं क‍ि गाज़ियाबाद पुल‍िस द्वारा लड़की के भाई पर ही ‘शोहदे को मारने’ का आरोप लगाकर SC-ST एक्ट में केस दर्ज करने की लापरवाही आख‍िर कैसे की गई। वो तो भला हो सोशल मीड‍िया का ज‍िस पर ये तस्वीर वायरल हो गई और अब गाज‍ियाबाद की पुल‍िस व उनके प‍िठ्ठू पत्रकारों का ये गठजोड़ बेनकाब हो गया।

पुल‍िस की ये र‍िपोर्ट डीसीआरबी में देखने के बाद भी क्राइम बीट संभालने वाले गाज‍ियाबाद के पत्रकारों को ये नहीं सूझता क‍ि आख‍िर पूरी बस्ती जाटव समाज की, छेड़ने वाले जाटव समाज के तो एक अकेला ब्राह्मण लड़का सैकड़ों जाटव समाज के घर के बीच कैसे उनको मार लेगा और कैसे उन्हें जयश्रीराम बोलने को बाध्य करेगा ?

जात‍िगत आधार पर यद‍ि यही मामला उल्टा होता तो टीआरपी के नाम पर यही पत्रकार थाली लोटा लेकर पीछे पड़ जाते। लोनी के व‍िकासनगर का ये मामला अकेला मामला नहीं, SC-ST एक्ट में दर्ज हजारों फर्जी मामले ऐसे हैं जो बदले की भावना से ल‍िखवाए गए। ब्राह्मण सह‍ित सभी सवर्णों के प्रत‍ि दुर्भावना को कैश करने का माध्यम बन गया है ये एक्ट परंतु क‍िसी मीड‍िया हाउस ने इस संदर्भ में कुछ नहीं क‍िया।

बात ब्राह्मण और दल‍ित की नहीं है, और ना ही लड़की से छेड़छाड़ व स‍िर फाड़ देने की है… बात तो उस ज‍िम्मेदार तबके ”मीड‍िया” की अवसरवाद‍िता की है जो अपने ही ग‍िरेबां को अपने ही हाथों से मैला कर रही है। हमें पढ़ाया गया था क‍ि पत्रकार‍िता की पहली सीढ़ी ही प्रश्नों के साथ ही शुरू होती है.. कहां , क्या, कौन, कब, क‍िसने, क‍िसको , क‍सि‍तर‍ह आद‍ि प्रश्न जबतक नहीं उभरेंगे तब तक पत्रकार‍िता अपने उद्देश्य को हास‍िल नहीं कर सकती परंतु अब … अब तो हो ये रहा है क‍ि सुबह सुबह ही मीड‍िया मैनेजमेंट की ओर से मीट‍िंग में मुद्दे तय कर द‍िये जाते हैं और गरीब, मजलूम, अन्याय, बदइंतजामी से सुव‍िधानुसार मुंह फेर ल‍िया जाता है।

व‍िडंबना ये है क‍ि भरोसा खो चुका मीड‍िया अब अपनी इस ग‍िरावट के ल‍िए क‍िसी और को दोष भी नहीं दे सकता क्यों क‍ि ये सब उसके अपने लालच व स्वार्थ ने क‍िया है। बस एक शेर और बात खत्म क‍ि

संभला तो कभी भी जा सकता है, कोश‍िश तो करे कोई…
इस कुफ्र की दीवार को हल्का ही धक्का काफी है… ।

-अलकनंदा स‍िंंह  

रविवार, 6 सितंबर 2020

र‍िश्तों पर भारी पड़ता मुआवज़ा

 

क‍िसी पीड़‍ित को त्वर‍ित राहत देने के ल‍िए जब कभी भी मदद के नाम पर ''मुआवजे'' शब्द का ईजाद क‍िया गया था तब शायद ही क‍िसी ने सोचा होगा क‍ि ये मदद र‍िश्तों पर क‍ितनी भारी पड़ सकती है। प‍िछले कुछ समय से ध्रुवीकरण करने के नाम पर राजनीत‍ि कर रहे दलों ने इसे ''कैक्टस'' बना द‍िया, जहां फूल की तरह द‍िखने वाला पैसा... र‍िश्तों में कांटे बोकर उन्हें जख़्मी कर जाता है और इस तरह तार तार हुए र‍िश्ते समाज में राक्षसी प्रवृत्तिायों को जन्म देते नज़र आते हैं। 


पहला उदाहरण है - फ‍िरोजाबाद में सीएए-एनआरसी के ख‍िलाफ हुए ह‍िंसक व‍िरोध प्रदर्शन में एक व्यक्ति मारा गया ज‍िसकी पत्नी को मुआवजे के तौर पर उप्र राज्य सरकार के व‍िपक्षी दल समाजवादी पार्टी की ओर से 5 लाख का चेक द‍िया गया, ज‍िसे हथ‍ियाने को देवर ने अपनी ही बेटी की हत्या कर इसका आरोप उस व‍िधवा पर लगा द‍िया। हालांक‍ि मामला खुल गया और पुल‍िस ने उस राक्षस को ग‍िरफ्तार भी कर ल‍िया परंतु मुआवजे के लालच में र‍िश्ते...तो तार तार हो गए ना ?


दूसरा उदाहरण - रेप व‍िक्टिम बताकर सरकार से मुआवजा हास‍िल करने वाले पर‍िवार का है ज‍िसने अपनी कई बेट‍ियों को इसका माध्यम बनाया और कई बार कई लोगों यहां तक क‍ि शासन-प्रशासन से भी मुआवजा झटका... हालांक‍ि देर से ही सही इस मामले की भी पोल खुल गई... और इज्ज़त मानी जाने वाली बेटी ''ब्लैकमेल‍िंग कर मुआवजा हथ‍ियाने'' की कुंजी बन गई। बाप भाई... बाप भाई ना रहे और बेटी बेटी ना रही।  


अब तीसरा उदाहरण मुआवजे के साथ साथ रंज‍िशन बदले का भी देख‍िए क‍ि आपसी दुश्मनी में अपनी ही क‍िशोर बेट‍ियों को पहले मरवाया फिर सुबूत ऐसी ऐसी जगह छोड़े क‍ि व‍िरोधी फंस जाये, ऐसा हुआ भी। व‍िपक्षियों ने हालचाल लेने के बहाने भारी मुआवजे की बरसात कर दी, सरकार को घेरा, हल्ला मचा, मीड‍िया ट्रायल चला... ये लंबा चलता भी परंतु ...  परंतु पोल खुली मुआवजे के बंटवारे में। क‍िशोर बेट‍ियों के र‍िश्तेदार आपस में भ‍िड़ गए और सारे के सारे '' आंसू बहाते - दहाड़ मार कर रोते'' र‍िश्तों का सच सामने आ गया।   


चौथा उदाहरण शहीदों के पर‍िवारों को म‍िलने वाले मुआवजे का है। शहीद सैन‍िकों के ऐसे कई पर‍िवारों की पोल सरेआम खुली है, जो शहीद सैन‍िक के नाम पर बाकायदा धरने पर बैठे ताक‍ि जहां से ज्यादा से ज्यादा पैसा म‍िल सके, इन शहीदों के पर‍िजनों द्वारा ऐसा इमोशनल ड्रामा खेला जाता है क‍ि कोई भी सरकारी संस्था बेबस हो जाती है। कीमती ज़मीन पर शहीद की मूर्ति लगवा कर उस ज़मीन को अपने अध‍िकार में ले लेने, शहीद के नाम पर सब्सिडी के साथ ब‍िना स‍िक्यूर‍िटी जमा कराए पेट्रोल पंप  लेने, सैन्य व‍िभाग द्वारा दी गई सहायता के अलावा अनेक संस्थाओं से नकद धनराश‍ि बटोरने के ल‍िए कभी जाम लगाना, क‍िसी बड़े नेता व अध‍िकारी के आ जाने पर ही शहीद का अंत‍िम संस्कर करना आद‍ि दृश्य आमतौर पर देखे जा सकते हैं।  


पुलवामा हमले में मारे गए सीआरपीएफ के एक जवान के पर‍िवार में तो मुआवजा हास‍िल करने का मामला कोर्ट तक जा पहुंचा, ससुर ने बहू को धमकी दी तो बहू ने अपने मायके पक्ष से ससुर पर हमला करवा द‍िया... ऐसा क्यों ? क्योंक‍ि सरकार, व‍िपक्ष और सामाज‍िक संस्थाओं ने लगभग 3 करोड़ का मुआवजा अकेले इस पर‍िवार पर '' बरसाया'' ... नतीजा क्या न‍िकला...? र‍िश्तों की ऐसी तैसी तो हुई ही उस जवान की शहादत भी जाया  गई। 


कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं क‍ि शहीद की पत्नी ने मुआवजा राश‍ि लेकर अपनी दूसरी शादी तो ठाटबाट से कर ली और शहीद के बच्चों को दरबदर कर द‍िया ... और ये सब स्वयं उनकी सगी मां ने क‍िया, तो कहीं इसके बंदरबांट में जेल तक जाने की नौबत आ गई, और तो और इसी राश‍ि पर शहीदों के बच्चों ने क्राइम का रास्ता अख्तियार कर ल‍िया। 


हालांक‍ि सभी शहीदों के पर‍िवार ऐसे नहीं होते परंतु अब ऐसे मामलों की अध‍िकता शहादत का अपमान कर रही है। कुल म‍िलाकर बात इतनी सी है क‍ि अब मुआवजा एक ऐसा हथ‍ियार बन गया है जो पीड़‍ित के ज़ख्मों पर तुरंत मरहम लगाता द‍िखता तो है परंतु एक मीठे ज़हर की भांत‍ि ये र‍िश्तों को तार तार भी क‍िए दे रहा है। लाशों पर मुआवजा हास‍िल करने वालों ने हमारी मृत देह का सम्मान करने वाली परंपराओं, र‍िश्तों और फ‍िर समाज के आधारों को छ‍िन्न भ‍िन्न कर द‍िया है, अब सोचने की बारी हमारी है क‍ि इस मुआवजा- संस्कृत‍ि को कैसे रोका जाए, बात बात पर '' रहम की भीख ''  देकर ज‍िस मक्कारी को हमने यहां तक आने द‍िया, अब उस पर पुन: सोचें ताक‍ि ''क‍िसी भी मृतक'' के नामपर ना तो मुआवजा बंटे और ना ही इस मुआवजे के बंदरबांट पर र‍िश्तों से हम कंगाल हो जायें।  

- अलकनंदा स‍िंह