शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

हारून भाई को किसने मारा...

वो फैमिली हेयर ड्रेसर थे, दुबई रिटर्न...जी हां...''दुबई रिटर्न'', ये तमगा 90 के दशक में बड़ी बात  हुआ करती थी, वो बताते थे कि वो स्‍वयं तब वहां शेखों के पर्सनल सैलून्‍स में हजामत किया करते  थे।
खुशदिल, मिलनसार और ओवरऑल एक अच्‍छी पर्सनालिटी के मालिक थे हारून भाई। मथुरा में  उनकी दुकान हमेशा शिफ्ट होती रहती, कभी चौराहे के पास किसी नन्‍हीं सी गली में तो कभी  नामालूम वीरानी सी रोड पर। दुकान कहीं भी पहुंच जाए, मगर हारून भाई के ''हुनर'' के मुरीद  उनको तलाश ही लेते थे। उनकी कस्‍टमर लिस्‍ट में एक ओर जहां शहर के अमीरजादे, नवधनाढ्य,  गणमान्‍य नागरिक, फैशनपरस्‍त थे वहीं दूसरी ओर आमजन भी उसी शिद्दत से उन्‍हें आजमाते थे।  एक अजब सा सम्‍मोहन था उनके उंगलियों में जो नन्‍हें बच्‍चों को भी चुपचाप हेयर ड्रेसिंग कराने  को बाध्‍य कर देता।

लगभग एक साल पहले की बात है कि अचानक एक दिन उनके बेटे का फोन आया कि ''मेरे अब्‍बा  और आपके हारून भाई नहीं रहे...''। उनका जाना हमारे लिए किसी अज़ीज की रुखसती जैसा था।  बेटे से तफसील जानी तो पता लगा कि वो डायबिटिक थे, उनका शहर के जाने माने  एंडोक्रायनोलॉजिस्‍ट से इलाज चल रहा था, डॉक्‍टर ने उन्‍हें इतनी हैवी मैडीसिन्‍स दी कि उनका  पैन्‍क्रियाज ही बस्‍ट हो गया, उन्‍हें जो इंजेक्‍शन्‍स इंट्रामस्‍कुलर दिए जाने थे, वो इंट्रावेनस दिए गए,  जिससे उनका दिमाग डेड हो गया, जब शरीर में जहर फैलता देखा तब जाकर डॉक्‍टर ने उन्‍हें  दिल्‍ली के अपोलो अस्‍पताल के लिए रैफर किया, वहां का हाल भी कमोबेश ऐसा ही था, बस बच्‍चों  को सुकून था कि सर्वोच्‍च सुविधा का हॉस्‍पीटल है तो अच्‍छे रिजल्‍ट आऐंगे, परंतु कुछ दिन  वेंटीलेटर पर रखने के बाद उनका मृत शरीर ही हाथ आया।

इस तफसील का लब्‍बोलुआब ये कि अच्‍छे खासे हारून भाई को डायबिटीज ने नहीं, बल्‍कि गलत  और एक की जगह दस दवाओं के हाईडोज ने मारा और इसका जिम्‍मेदार कौन...? ज़ाहिर है वही  जिम्‍मेदार माना जाएगा जिसने दवाइयां दीं...जिसने जानबूझकर उन्‍हें कई दिनों तक अपने यहां  सिर्फ हैवी बिल बनाने के लालच में एडमिट रखा और बिगड़ती तबियत को 'अंडरकंट्रोल' बताता रहा।

ज़रा बताइये कि मरीजों की जान से खेलने वाले झोलाछाप डॉक्‍टर्स को जब हम गलत ठहराते हैं तो  ये स्‍पेशलिस्‍ट क्‍या कहे जाने चाहिए। बेशर्मी की हद देखिए कि डॉक्‍टर्स की संस्‍था ''इंडियन मेडीकल  एसोसिएशन'' यानि आईएमए इस जानलेवा अपराध को चुप्‍पी साधे देखती रहती है। डॉक्टर्स की  लापरवाही के ऐसे किसी भी मामले पर आईएमए का बोलना तो दूर, बल्‍कि उन्‍हें इस लूट-खसोट की  मौन स्‍वीकृति देती है।

कौन नहीं जानता कि हर नर्सिंग होम के भीतर मेडीकल स्‍टोर रखना नाजायज है, फिर भी रखा  जाता है, या ये कौन नहीं जानता कि पैथोलॉजीकल लैब बाकायदा कमीशन-सेंटर के तौर पर डॉक्‍टर्स  की ''साइड-इनकम'' का ज़रिया होती हैं, कैसे एक ही टेस्‍ट के लिए हर पैथलैब का रिजल्‍ट अलग  अलग होता है।

आईएमए के साथ साथ मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) भी इस बावत आंखें फेरे रहती  है कि जिन मेडीकल प्रैक्‍टिशनर्स को उसने प्रैक्‍टिस के लिए मान्‍यता दी है, वे उसका पालन कर भी  रहे हैं या नहीं। यूं तो स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय भी आंखें मूंदे था, यदि गत दिनों प्रसिद्ध हॉस्‍पीटल फोर्टिस   में डेंगू से बच्‍ची के मर जाने तथा उसके पिता को 18 लाख रुपए का बिल थमा देने जैसा गंभीर  मामला सामने न आता। अस्‍पताल की असंवेदनशीलता तथा लूट को सभी ने सुना होगा कि कैसे  अस्‍पताल के संचालकों द्वारा कई दिन पहले मर चुकी बच्‍ची का शव सिर्फ मोटा बिल बनाने के  लिए उपयोग किया जाता रहा और अंतत: बच्‍ची का निर्जीव शरीर उन्‍हें थमा दिया गया।

ये कोई किस्‍सा नहीं बल्‍कि ऐसी हकीकत है जिसे हर वो परिवार भोगता है जिसका कोई अपना  धरती पर भगवान कहलाने वाले चिकित्‍सकों की शरण में पहुंचने को मजबूर होता है।
फोर्टिस अस्‍पताल की ब्‍लैकमेलिंग के मामले ने वो सारे ज़ख्‍म ताज़ा कर दिए जो हमने हारून भाई  की मौत के बाद जाने थे।

संभवत: इसीलिए आमजन की तो अब यह धारणा हो गई है कि मल्‍टीस्‍पेशलिटी हॉस्‍पीटल, हैल्‍थ  पैकेजेज, भारी-भरकम डिग्रियों से सुसज्‍जित डॉक्‍टर्स के ये सिर्फ आधुनिक कसाईखाने हैं। हालांकि  अपवाद अभी भी शेष हैं, मगर कितने।

अब तो बस ये देखना है कि केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय की ओर से जो राज्‍यों को ''क्‍लीनकल  स्‍टैब्‍लिशमेंट एक्‍ट'' लागू करने को कहा गया है, उसे कितने समय और कितने राज्‍यों द्वारा लागू  किया जाता है क्‍योंकि इस ''क्‍लीनकल स्‍टैब्‍लिशमेंट एक्‍ट'' के तहत अस्‍पतालों को विभिन्‍न सेवाओं  व चिकित्‍सकीय प्रक्रियाओं के लिए तय फीस का ब्‍यौरा देना होगा। यदि ऐसा होता है तो अब भी  समय है कि मेडीकल जगत जनता का भरोसा कायम रख सकता है। हकीकतन तो आज कोई  डॉक्‍टर ऐसा नज़र नहीं आ रहा जो उस शपथ की सार्थकता सिद्ध कर पाने के  लायक भी हो  जिसमें पूरी मानवता की सेवा को सर्वोपरि मानने की बात कही गई थी।

बहरहाल, अफसोस तो इस बात का है कि व्‍यावसायिकता की अंधी दौड़ में पता नहीं कब धरती के  भगवानों ने शैतान का रूप धारण कर लिया और कैसे उनकी पैसे को लेकर हवस इस कदर बढ़ गई  कि उनके लिए इंसानी जान की कोई कीमत ही नहीं रही। अगर कुछ रहा तो केवल इतना कि किस  तरह मरीज के परिजनों की भावनाओं का खून की अंतिम बूंद तक दोहन किया जा सके। 

-अलकनंदा सिंह 

शनिवार, 18 नवंबर 2017

भंसाली जी! इतिहास प्रयोगधर्मी का सेट नहीं हो सकता

हाई बजट, ग्रेट स्‍ट्रैटजी, भव्‍य सेट और टॉप के कलाकारों के साथ अपनी फिल्‍म को 'महान'  बताने के 'आदी' रहे संजय लीला भंसाली ने संभवत: रानी पद्मिनी के जौहर को हल्‍के में ले  लिया। यूं आदतन उन्‍होंने बाजीराव-मस्‍तानी में भी वीरता को दरकिनार कर पेशवा बाजीराव  को भी शराबी और महबूबा मस्‍तानी के प्रेम में डूबा आशिकमिजाज़ शासक ही दिखाया था  मगर इस बार उनकी ये कथित ''अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी'' उन्‍हीं पर भारी पड़ती जा रही  है।

कुछ सेंसर बोर्ड, कुछ सरकार और कुछ जनता के भयवश अभी गनीमत इतनी है कि  ''अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी'' के नाम पर पूरा फिल्‍म जगत बस चौराहों पर नंगा होकर नहीं  नाच सकता अन्‍यथा इसी आज़ादी के चलते फिल्‍मकारों ने क्‍या-क्‍या नहीं दिखाया।

बात अगर फिल्‍म के ऐतिहासिक पक्ष की करें तो मध्‍यकालीन इतिहास में राजपूत अपनी  आन-बान-शान के लिए आपस में ही लड़ते रहे और आक्रांता इसका लाभ उठाते रहे परंतु  अब स्‍थिति वैसी नहीं है इसीलिए फिल्‍म में घूमर करती वीरांगना रानी पद्मिनी को दिखाए  जाने के खिलाफ राजघरानों-राजकुमारियों सहित महिला राजपूत संगठन एकजुट हो रहे हैं।  कुल मिलाकर पूरे मामले का राजनीतिकरण हो चुका है और इसके सहारे जहां करणी सेना  जैसे ''धमकी'' देने वाले संगठन अपना चेहरा चमका रहे हैं वहीं भंसाली भी इस अराजक  स्‍थिति को क्रिएट करने के जिम्‍मेदार हैं क्‍योंकि वो अपना भरोसा खो चुके हैं। चूंकि मामला  इतिहास का था तो कायदे से संजय लीला भंसाली को चित्‍तौड़गढ़ राजघराने की अनुमति  लेनी ही चाहिए थी और इसके चरित्र के साथ प्रयोगों से भी बचना चाहिए था क्‍योंकि यह  ऐसी गाथा है जो बदली नहीं जा सकती। 

फिल्‍म क्षेत्र तो वैसे भी देश-संस्‍कृति की गरिमा से कोसों दूर रहता आया है। ऐसे में  महारानी पद्मिनी के जौहर को पूजने वाले राजपूतों का विरोध कैसे गलत मान लिया जाए  क्‍योंकि प्रोमोज कुछ और ही बयां कर रहे हैं। कला के नाम पर इतिहास से खिलवाड़ कौन  सी ज़िंदा कौम बर्दाश्‍त करेगी भला। फिल्‍म के विरोध का राजपूतों का अभिव्‍यक्‍ति का   तरीका हो सकता है कि किसी वर्ग को नापसंद हो लेकिन उनकी भावनाओं को समझना  चाहिए क्‍योंकि भंसाली की गिनती तो ''बुद्धिजीवियों में की जाती'' है। उन्‍हें और उन जैसे  प्रयोगधर्मी फिल्‍मकारों को ये समझना चाहिए कि ना तो अस्‍मिता मनोरंजन की वस्‍तु होती  है और ना ही इतिहास को भुलाया जा सकता है। फिर ऐसे में अफवाहें भी अपना काम  करती ही हैं।

अभी जबकि सेंसर बोर्ड में भी फिल्‍म पास नहीं हो सकी है तब राजपूत संगठनों द्वारा  ''हिंसात्मक धमकी'' को भी जहां उचित नहीं ठहराया जा सकता वहीं फिल्‍म पद्मावती को  हुबहू दिखाये जाने के लिए फिल्‍म इंडस्‍ट्री के कुछ पैरोकारों द्वारा दबाव डालना भी ठीक  नहीं कहा जा सकता।

बहरहाल, जिस महाकाव्‍य ''पद्मावत'' के बहाने भंसाली खुद को बवाल से दूर करने की  कोशिश में हैं तो उन्‍हें यह समझ लेना चाहिए कि इसके रचयिता जायसी ने भी मर्यादा की  सीमाएं बनाकर रखीं थीं। अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी तो तब भी रही ही होगी। फिर उन्‍होंने  रानी पद्मिनी के चरित्र से छेड़छाड़ क्‍यों नहीं की, और क्‍यों उनके लिए अलाउद्दीन खिलजी  एक मुसलमान की बजाय एक व्‍यभिचारी आक्रांता ही रहा, जिसकी कुत्‍सित दृष्‍टि रानी पर  थी?

मलिक मोहम्मद जायसी इतिहास की एक वीरांगना स्‍त्री के आत्‍मसम्‍मान की रक्षा हेतु  'कर्म' और 'प्रेम' को उच्‍च स्‍तर तक ले जाकर पद्मावत रच सके। किसी बहस में ना पड़ते  हुए जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का सम्मिश्रण किया मगर  900 या 906 हिजरी में जन्‍मे मलिक मुहम्‍मद जायसी ने स्‍वप्‍न में भी नहीं सोचा होगा कि  जिस महाकाव्‍य को वे रच रहे हैं, वो इस तरह वैमनस्‍य का कारण बन जाएगा।

''अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी'' का एक सच यह भी है कि हमारा समाज आज तक बेडरूम के  किस्‍सों को चौराहों पर दिखाना पसंद नहीं करता, फिर ये तो शौर्य की प्रतीक एक रानी की  बात है। अत्‍याधुनिक होने के बावजूद सभ्‍यता-शालीनता-मर्यादा आज भी वांछित है। इसी  मर्यादा के कारण जायसी की अवधी भाषा में कृति ''पद्मावत'' सूफी परम्परा का प्रसिद्ध  ''महाकाव्‍य'' बन गई और भंसाली...की फिल्‍म...एक मज़ाक।

 -अलकनंदा सिंह

शनिवार, 11 नवंबर 2017

खबर आई है कि उनका दम घुट रहा है...

सुना है कि धुंध ने दिल्‍ली में डेरा जमा लिया है। ये कैसी धुंध है जो  एक कसमसाती ठंड के आगमन की सूचना लेकर नहीं आती बल्‍कि  एक ज़हर की चादर हमारे अस्‍तित्‍व पर जमा करती चली आती है।

इस धुंध ने आदमी की उस ख्‍वाइश को तिनका-तिनका कर दिया है  जो अपने हर काम और अपनी हर उपलब्‍धि को ''दिल्‍ली'' ले जाने में  लगा रहता है। सचमुच अब दिल्‍ली दूर भले ही ना लगे, मगर दिल्‍ली  से दूर रहने में ही ज्‍यादा भलाई है।

पिछले दो-तीन दिनों से दिल्‍ली पूरे विश्‍व के पटल पर चर्चा का विषय  बनी हुई है। यूं चर्चा का विषय तो स्‍मॉग है जो दिल्‍ली-एनसीआर की  बड़ी आबादी को तिल-तिल करके मार रहा है मगर वजह तो और भी  हैं जो दिल्‍ली को ज़हरीला बना रही हैं जिनमें मुख्‍य है देशभर से आई  आबादी का दिल्‍ली-एनसीआर क्षेत्र में विस्‍फोटक रूप में आकर बसना।  यहां सेर में सवासेर नहीं, बल्‍कि सेर में दस सेर समा रहा है। यानि  सब-कुछ जब कई गुना बढ़ रहा है तो स्‍मॉग कम कैसे हो सकता है।

कुल मिलाकर बात ये है कि सब जानते हैं ये समस्‍या कोई आज की  नहीं है, इसकी जड़ तो उस मूल अवधारणा में छुपी है जो हर  दिल्‍लीवासी (चाहे वह झुग्‍गीवासी ही क्‍यों ना बन गया हो) को  अतिविशिष्‍ट बनाती है। इसी सोच ने दिल्‍ली को नरक बनाकर रख  दिया है। हम सभी ये भी जानते हैं कि इस अतिविशिष्‍टता ने दिल्‍ली  को स्‍मॉग का शहर बनाने के साथ-साथ क्राइम सिटी भी बनाया है।

'सर्वसुख...? सर्वसुलभ...?' की मृगतृष्‍णा ने दिल्‍ली को आज इस  नारकीय स्‍थिति में ला खड़ा किया है कि वह आकर्षित करने की  बजाय सुरसा के मुंह की भांति भयावह नज़र आती है जो अपनी  ज़मीन पर आने वाले हर वाशिंदे को निगलने को आतुर है।

जहां तक बात है स्‍मॉग की, तो स्‍मॉग कोई सिर्फ दिल्‍ली की समस्‍या  नहीं है, इस मौसम में लगभग हर शहर इस समस्‍या से दो-चार होता  है मगर चूंकि नेशनल मीडिया दिल्‍ली में बैठा है और एक एक खबर  पर वो 24 घंटे चीखने की कुव्‍वत रखता है सो स्‍मॉग की ''चपेट'' में  आ जाती है दिल्‍ली, और आननफानन में एनजीटी से लेकर सुप्रीम  कोर्ट तक अतिसक्रिय हो जाते हैं। बाजार में 'एअरप्‍यूरीफायर' और  'मास्‍क' के ब्रांड मॉल्स से लेकर फुटपाथों तक सजा दिए जाते हैं।

हकीकतन दिल्‍ली की हवा में ज़हर की ये समस्‍या पलायन से उपजी  है, समस्‍या हर किसी के दौड़ने और दौड़कर लक्ष्‍य पाने की आपाधापी  से उपजी है, समस्‍या हर किसी के भीतर पैदा हुए बेशुमार लालच से  उपजी है, समस्‍या गांवों के खाली होने से और शहरों में भीड़ के  पहाड़ों से उपजी है, समस्‍या उस सोच से भी उभरी है जो दिल्‍ली वाला  बनने के लिए अपने जीवन, अपने रिश्‍तों, अपने बच्‍चों, अपने सुकून  को दांव पर लगा देती है मगर उसे बदले में हासिल होता है ज़हरीली  सांसों का उपहार।

यूं रस्‍मी तौर पर स्‍मॉग चर्चा में है और अगले कुछ दिनों तक रहने  भी वाली है, इस ज़हरीली धुंध के कारण-निवारण ढूढ़े जाऐंगे, हर बार  की तरह इस बार भी सर्दी के पूर्ण आगमन से पूर्व ये तमाशा चलता  है...चलता रहेगा।

लीजिए इसी हमारी 'धुंध' यानि दिल्‍ली की 'स्‍मॉग' पर मेरा एक शेर -

कोई हमें मारने को आए क्‍यूं भला
हम खुद अपने ताबूतों को नीलाम किए बैठे हैं।

-- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 4 नवंबर 2017

धर्मध्‍वजा पर छाती चौड़ी करने वालों का एक सच यह भी

 आज कर्तिक पूर्णिमा भी है, देव दीपावली भी और गुरू नानक जयंती भी...इस शुभ दिन पर धर्म की सर्वाधिक बातें की जाऐंगी मगर कुछ सच ऐसे हैं जो इन बड़ी बड़ी बातों में दबे रह जाऐंगे।

यूं भी धर्म जब तक किताबों में रहता है तब तक वह बहुत आकर्षित करता है परंतु जब इसी धर्म को निबाहने की बारी आती है तो हम अपने-अपने तरीकों से इससे भाग जाने के रास्‍ते तलाशने लगते हैं।

आज दो खबरों ने दिल कचोटा-
पहली खबर है गिरिराज गोवर्द्धन समेत ब्रज के सभी मंदिरों में भगवान  सर्दी के व्‍यंजन 'सुहाग-सोंठ' खाऐंगे, मेवाओं से लदे-फदे भगवान 'डिजायनर  व विदेशी रजाइयां ओढ़ेंगे' और इसी के ठीक उलट दूसरी खबर एक गौशाला  से आई है कि ब्रज की इस गौशाला में हर रोज लगभग तीन गायें भूख के  कारण बीमार पड़ रही हैं और अपने प्राण त्‍याग रही हैं।

गोवर्द्धन पूजा और गौचारण करके जिस कृष्‍ण ने गौसेवा को सर्वाधिक उच्‍च स्‍थान दिलाया, आज उसी की नगरी की गायें भूख से तड़प कर मर रही हैं, वह भी तब जब उसे भोग सुहाग-सौंठ और मेवाओं का लगाया जा रहा हो।

बहरहाल इन दोनों खबरों से उन अखाड़ेबाजों का सच स्‍वयमेव सामने आ गया है, जो बात-बात पर धर्म की ध्‍वजा लेकर कूद पड़ते हैं।

दरअसल, धर्म के इस बाजार में अशक्‍त व देशी निठल्‍ली गायें अपनी  कीमत नहीं रखतीं। इनकी दुर्दशा को किसी भी तरह भुनाया नहीं जा  सकता। धर्म के इसी 'व्‍यापारिक रूप' के वो सच भी हमारे सामने हैं जो  धर्म को खास लिबास, खास प्रतीक चिन्‍हों और खास जीवनशैली से बांधकर  उन लोगों के सामने परोसते हैं जो इन्‍हें ही धर्म और ईश्‍वर समझ इनके  ''भक्‍त'' हो लेते हैं। ये अलग बात है कि 'आपसदारी के तहत' वो भक्‍त भी  इनके व्‍यापार का ही हिस्‍सा होते हैं।

ब्रज के धार्मिक बाजार का हाल तो यह है कि पिछले डेढ़-दो दशक से हर  गली-कुंजगली में तीन-चार भागवतवक्‍ता उग चुके हैं, छप्‍पन भोगों से  ''पुण्‍य'' कमाया जा रहा है, फूलबंगला व भांति-भांति की रसोइयों के  आयोजनों से धर्म की नगरी में अरबों तक का व्‍यापार रोज हो रहा है।  बची-खुची कसर अब प्रदेश सरकार द्वारा इसे कृष्‍णा सर्किट के तौर पर  विकसित करने के लिएआई अनेक छोटी-बड़ी योजनाओं ने पूरी कर दी है।
बाजार के इस राजनैतिक व धार्मिक कोण की कीमत अब ब्रज की उन  गौशालाओं को चुकानी पड़ रही है जो न तो किसी ''खास भगवत वक्‍ता'' से  अनुदान पाती हैं और ना ही जिनके संरक्षक ''एनआरआई या सेठगण हैं''।

ये एनआरआई, सेठगण और बड़े ओहदेदार भक्‍त किसी बड़े भागवतवक्‍ता  को दान (इनकम टैक्स की 80 जी धारा के तहत तय की गई अनुबंध  राशि) देना ज्‍यादा अच्‍छा समझते हैं, इसके अलावा भक्‍ति-प्रदर्शन के लिए  आए दिन 56 भोगों का आयोजन और ऋतुओं के अनुसार भगवान को  लगाए जाने वाले स्‍पेशल भोगों को स्‍पांसर करना ज्‍यादा फायदे का सौदा  होता है। बजाय इसके कि ये सभी समृद्ध लोग अशक्‍त व मरती हुई गायों  के लिए आगे आऐं।

किसी भी धार्मिक स्‍थान से दूर रहने वालों के लिए उस पवित्र स्‍थान का  महत्‍व ज्‍यादा होता है बनिस्‍बत उनके जो स्‍वयं इन पवित्र स्‍थानों के वाशिंदे  हैं क्‍योंकि जीते जी मक्‍खी कोई नहीं निगल सकता और धर्मस्‍थानों के इन  धार्मिकजनों के कृत्‍यों को कम से कम मैं तो इसी श्रेणी में रखती हूं। 

आएदिन गायों को लेकर अनेक नीति-राजनीति-धर्मनीति तय की जाती हैं  उनका बखान किया जाता है मगर ज़मीनी हकीकत इससे बहुत अलग है।

बेहतर होगा कि सच के इस पक्ष से भी सिर्फ सरकारें ही नहीं, हमको भी  रुबरू होने की आवश्‍यकता है वरना कसीदों का क्‍या है...गाय तो हमारी  माता है ही और मूर्तियों को पूजना हमारी परंपरा...इन जुमलों पर ना जाने  कितने आश्रम फाइवस्‍टार हो गए और ना जाने कितने बाबा अरबपति...।

-अलकनंदा सिंह