हमारे ब्रज में 40 दिन तक चलने वाले होली उत्सव का चरम है फिर भी मुझे बरसाने से उठी होली के समाज गायन की आवाज के साथ साथ बरबस ही पंडित छन्नू लाल मिश्र जी की राग काफी में गाई होली अपनी ओर खींच रही है। ये हर होली पर्व पर ही होता आया है कि मैं उनकी गाई हुई ''खेलें मसाने में होरी दिगंबर खेलैं मसाने में होरी...'' हो या '' रंग डारूंगी ... डारूंगी नंदलालन पै... '' हो दोनों को सुनकर भावविभोर हो जाती हूं।
पंडित जी की राग काफी में गाई एक होली है ।
https://www.youtube.com/watch?v=LPHBdIB06SU
होली पर होने वाले लोकगायन और समाज गायन से अलग अपनी शास्त्रीय उपस्थिति बताने को काफी है राग काफी में गाई जाने वाली होली । होली के अधिकांश गीतों में जिस राग को बहुतायत में गाया गया , वह है राग काफी।
यूं तो भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है परंतु मनमोहक राग - काफी में होली विषयक रचनाएँ खूब मुखर हो जातीं हैं। जैसे कि फिल्म ' गोदान ' में पं. रविशंकर का संगीतबद्ध की हुई एक होली है -
बिरज में होरी खेलत नंदलाल ...
https://www.youtube.com/watch?v=S-4nRKGRRAM
होली, उल्लास, उत्साह और मस्ती का प्रतीक-पर्व होता है। इस अनूठे परिवेश का चित्रण भारतीय संगीत की सभी शैलियों में मिलता है। उपशास्त्रीय संगीत में तो होली गीतों का सौन्दर्य खूब निखरता है। ठुमरी-दादरा, विशेष रूप से पूरब अंग की ठुमरियों में होली का मोहक चित्रण मिलता है। उपशास्त्रीय संगीत की वरिष्ठ गायिका विदुषी गिरिजा देवी की गायी अनेक होरी हैं, जिनमे राग काफी के साथ-साथ होली के परिवेश का आनन्द भी प्राप्त होता है। बोल-बनाव से गिरिजा देवी जी गीत के शब्दों में अनूठा भाव भर देतीं हैं। आम तौर पर होली गीतों में ब्रज की होली का जीवन्त चित्रण होता है , सुनिए राग काफी में निबद्ध एक होली...
https://www.youtube.com/watch?v=cTieTuVatRY
उन्हीं की गाई राग गारा में उड़त अबीर गुलाल को भी सुनिए...
https://www.youtube.com/watch?v=CRVyFBfvku8
राग काफी की संरचना की अगर बात करें तो राग काफी, काफी थाट का आश्रय राग है और इसकी जाति है सम्पूर्ण-सम्पूर्ण, अर्थात आरोह-अवरोह में सात-सात स्वर प्रयोग किए जाते हैं।
आरोह में सा रे ग(कोमल) म प ध नि(कोमल) सां तथा अवरोह में सां नि(कोमल) ध प म ग(कोमल) रे सा स्वरों का प्रयोग किया जाता है।
इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है।
कभी-कभी वादी कोमल गांधार और संवादी कोमल निषाद का प्रयोग भी मिलता है।
हालांकि दक्षिण भारतीय संगीत का राग खरहरप्रिय राग काफी के समतुल्य राग है। राग काफी, ध्रुवपद और खयाल की अपेक्षा उपशास्त्रीय संगीत में अधिक प्रयोग किया जाता है।
ठुमरियों में प्रायः दोनों गांधार और दोनों धैवत का प्रयोग भी मिलता है। टप्पा गायन में शुद्ध गांधार और शुद्ध निषाद का प्रयोग वक्र गति से किया जाता है। इस राग का गायन-वादन रात्रि के दूसरे प्रहर में किए जाने की परम्परा है, किन्तु फाल्गुन में इसे किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है।
हमारे ब्रज में कहा जाता है कि ''फागुन ना माने जात कुजातन और ना माने उमरन कौ भान, जाई तै सब परबन पै भारी पड़्यौ फागुन कौ मान....
इसी पर पंडित छन्नू लाल मिश्र जी ने गाया है ... रंग डारूंगी ... डारूंगी नंदलालन पै... सुनिए
https://www.youtube.com/watch?v=bgyrScI3T5c
इसके अलावा कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें हैं ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग काफी के अलावा भी कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं, जैसे कि बसंत, बहार, हिंडोल। कुछ तो ये होली का पर्व ऐसा कि बसंत की खुमारी और मादकता के कारण गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है, उस पर ऐसी बंदिशें कि मन झूम उठे सुनकर ही । और ऐसे में यदि पंडित छन्नूलाल मिश्र की आवाज हो तो क्यों ना रंग छाए ... बरबस रंग छाने ही लगता है।
उपशास्त्रीय संगीत विधा में भी चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली पड़ गया जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन , स्थान , इतिहास व धार्मिक महत्व छुपा मिलता है।
ब्रज की होली के बारे में यदि मैं कुछ ना कहूं तो कुछ अधूरा सा लगता है होली का आनंद ...फाग खेलन मतवारे आए हैं , नटवर नंद किशोर ... हो या होरी खेलन आयौ स्याम आजु जाय रंग में बोरौ री... के साथ श्री कृष्ण जन्मस्थान से होरी के गीतों और ढप तथा बम की धमक यहां तक सुनाई दे रही है..... ।
चलिए होली के इन शास्त्रीय रंगों को पंडित छन्नूलाल मिश्र की ही चैती से आगे बढ़ाते हैं ... सुनिए...
https://www.youtube.com/watch?v=kOiVPLw0rKI&ebc=ANyPxKpa8QdbRGPb1CCGdEuodj7YUBOKBIvJC0BRv6-cpon8ONTH-Scl8wN4cdJ-xiXtBOfVmdpRDc_7Ggn88v1LMckc4nO30w
- अलकनंदा सिंह
पंडित जी की राग काफी में गाई एक होली है ।
https://www.youtube.com/watch?v=LPHBdIB06SU
होली पर होने वाले लोकगायन और समाज गायन से अलग अपनी शास्त्रीय उपस्थिति बताने को काफी है राग काफी में गाई जाने वाली होली । होली के अधिकांश गीतों में जिस राग को बहुतायत में गाया गया , वह है राग काफी।
यूं तो भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है परंतु मनमोहक राग - काफी में होली विषयक रचनाएँ खूब मुखर हो जातीं हैं। जैसे कि फिल्म ' गोदान ' में पं. रविशंकर का संगीतबद्ध की हुई एक होली है -
बिरज में होरी खेलत नंदलाल ...
https://www.youtube.com/watch?v=S-4nRKGRRAM
होली, उल्लास, उत्साह और मस्ती का प्रतीक-पर्व होता है। इस अनूठे परिवेश का चित्रण भारतीय संगीत की सभी शैलियों में मिलता है। उपशास्त्रीय संगीत में तो होली गीतों का सौन्दर्य खूब निखरता है। ठुमरी-दादरा, विशेष रूप से पूरब अंग की ठुमरियों में होली का मोहक चित्रण मिलता है। उपशास्त्रीय संगीत की वरिष्ठ गायिका विदुषी गिरिजा देवी की गायी अनेक होरी हैं, जिनमे राग काफी के साथ-साथ होली के परिवेश का आनन्द भी प्राप्त होता है। बोल-बनाव से गिरिजा देवी जी गीत के शब्दों में अनूठा भाव भर देतीं हैं। आम तौर पर होली गीतों में ब्रज की होली का जीवन्त चित्रण होता है , सुनिए राग काफी में निबद्ध एक होली...
https://www.youtube.com/watch?v=cTieTuVatRY
उन्हीं की गाई राग गारा में उड़त अबीर गुलाल को भी सुनिए...
https://www.youtube.com/watch?v=CRVyFBfvku8
राग काफी की संरचना की अगर बात करें तो राग काफी, काफी थाट का आश्रय राग है और इसकी जाति है सम्पूर्ण-सम्पूर्ण, अर्थात आरोह-अवरोह में सात-सात स्वर प्रयोग किए जाते हैं।
आरोह में सा रे ग(कोमल) म प ध नि(कोमल) सां तथा अवरोह में सां नि(कोमल) ध प म ग(कोमल) रे सा स्वरों का प्रयोग किया जाता है।
इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है।
कभी-कभी वादी कोमल गांधार और संवादी कोमल निषाद का प्रयोग भी मिलता है।
हालांकि दक्षिण भारतीय संगीत का राग खरहरप्रिय राग काफी के समतुल्य राग है। राग काफी, ध्रुवपद और खयाल की अपेक्षा उपशास्त्रीय संगीत में अधिक प्रयोग किया जाता है।
ठुमरियों में प्रायः दोनों गांधार और दोनों धैवत का प्रयोग भी मिलता है। टप्पा गायन में शुद्ध गांधार और शुद्ध निषाद का प्रयोग वक्र गति से किया जाता है। इस राग का गायन-वादन रात्रि के दूसरे प्रहर में किए जाने की परम्परा है, किन्तु फाल्गुन में इसे किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है।
हमारे ब्रज में कहा जाता है कि ''फागुन ना माने जात कुजातन और ना माने उमरन कौ भान, जाई तै सब परबन पै भारी पड़्यौ फागुन कौ मान....
इसी पर पंडित छन्नू लाल मिश्र जी ने गाया है ... रंग डारूंगी ... डारूंगी नंदलालन पै... सुनिए
https://www.youtube.com/watch?v=bgyrScI3T5c
इसके अलावा कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें हैं ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग काफी के अलावा भी कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं, जैसे कि बसंत, बहार, हिंडोल। कुछ तो ये होली का पर्व ऐसा कि बसंत की खुमारी और मादकता के कारण गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है, उस पर ऐसी बंदिशें कि मन झूम उठे सुनकर ही । और ऐसे में यदि पंडित छन्नूलाल मिश्र की आवाज हो तो क्यों ना रंग छाए ... बरबस रंग छाने ही लगता है।
उपशास्त्रीय संगीत विधा में भी चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली पड़ गया जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन , स्थान , इतिहास व धार्मिक महत्व छुपा मिलता है।
ब्रज की होली के बारे में यदि मैं कुछ ना कहूं तो कुछ अधूरा सा लगता है होली का आनंद ...फाग खेलन मतवारे आए हैं , नटवर नंद किशोर ... हो या होरी खेलन आयौ स्याम आजु जाय रंग में बोरौ री... के साथ श्री कृष्ण जन्मस्थान से होरी के गीतों और ढप तथा बम की धमक यहां तक सुनाई दे रही है..... ।
चलिए होली के इन शास्त्रीय रंगों को पंडित छन्नूलाल मिश्र की ही चैती से आगे बढ़ाते हैं ... सुनिए...
https://www.youtube.com/watch?v=kOiVPLw0rKI&ebc=ANyPxKpa8QdbRGPb1CCGdEuodj7YUBOKBIvJC0BRv6-cpon8ONTH-Scl8wN4cdJ-xiXtBOfVmdpRDc_7Ggn88v1LMckc4nO30w
- अलकनंदा सिंह
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