शुक्रवार, 29 जून 2018

Down the drain: अमानवीय वातावरण में काम, ‘आखिरी व्‍यक्‍ति’ की कथा

Down the drain एक सबक के तौर पर है उनके लिए जो हमेशा अपने काम से असंतुष्‍ट रहते हैं

इस मानसूनी मौसम में कहीं जलभराव और कहीं सीवर का पानी उफनते देखकर सफाईकर्मियों को गरियाते हुए, उनके लिए अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल करते हुए हम किसी को भी, कहीं भी देख सकते हैं। गंदगी के लिए इन्‍हें जिम्‍मेदार ठहराते हैं मगर इनके हालातों पर चर्चा करने से मुंह फेरते हैं। वह भी तब जबकि इनके बगैर एक दिन भी हम अपना सामान्‍य जीवन नहीं जी सकते। अंदाज़ा लगाइये कि एक दिन कूड़ा ना उठे तो हमारा दिमाग भन्‍ना जाता है, सीवर संबंधी समस्‍या तो जानलेवा बन जाती है पूरे वातावरण के लिए। तो सोचिए कि जो इस काम में लगे हैं उनका क्‍या हाल होता होगा।
कल सफाईकर्मियों के हालातों पर एक आंकड़ा सामने आया कि हर साल सीवर की सफाई करते हुए भारत में लगभग 22,327 लोग मारे जाते हैं। यह आंकड़ा बताता है कि सुप्रीमकोर्ट के तमाम आदेशों की किस तरह अवमानना होती रही है। नगर निगमों, पालिकाओं में काम कर रहे सफाईकर्मियों को उनकी औसत सुविधायें भी नहीं दी जा रहीं। उन्‍हें मानसून में जलभराव होते ही किसी न किसी ऐसे सीवर में उतरना होता है, जहां से सही सलामत वापसी की कोई गारंटी नहीं होती।
इसके अलावा गांव-गिरांव में तो प्राइवेट सफाईकर्मियों से आज भी मैन्‍युअली गंदगी साफ करवाई जा रही है सो अलग। हां, घर-घर में शौचालय बनाए जाने की मुहिम ने हालात कुछ हद तक काबू में किये हैं परंतु इसमें अभी तक सहजता नहीं आई है क्‍योंकि इसके पीछे के सामाजिक कारण अभी तक व्‍याप्‍त हैं।
आज मैं बात कर रही हूं उन शहरी इलाकों की जहां सरकारी अमले के पास साधन होने के बावजूद सफाईकर्मियों को सीवर की सफाई के लिए अमानवीय वातावरण में काम करना पड़ रहा है।
हालांकि भारतीय संसद ने मैनुअल स्कैंवेंजर एंड रिहैबिलिटेशन एक्ट 2013 भी पास किया है और सुप्रीम कोर्ट का भी स्‍पष्‍ट आदेश है कि किसी व्यक्ति को सीवर में न भेजा जाए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने सीवर साफ करने के दौरान हुई मौत का मुआवजा 10 लाख फिक्स किया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की खुलेआम अवहेलना और अवमानना की जा रही है, यहां तक कि सफाईकर्मियों को धड़ल्‍ले से सीवर में उतार दिया जाता है जिसका परिणाम उनकी भयंकर मौत के रूप में देखने को मिलता है। समाचारों में भी सफाईकर्मियों की मौत चंद क्षणों की सुर्खियां बनती हैं और फिर उनकी मौत को नजरअंदाज करके सफाईकर्मियों को बेधड़क सीवर में उतार दिया जाता है।
2014 में आई प्रैक्सिस संस्था की रिपोर्ट ”Down the drain” से पता लगता है कि सीवर में काम करने वाले मज़दूरों की मौत का कोई आधिकारिक डेटा नहीं रखा जाता। सीवर में उतरने वाले जातिवाद का जो दंश झेलते हैं, उस पर बात फिर कभी करूंगी। 20 फुट गहरे सीवर में उतरे सफाईकर्मी के लिए सांस लेने तक की साफ हवा नहीं मिलती, यह भी पता नहीं होता कि अंदर हाइड्रोजन सल्फाइड इंतज़ार कर रही है या मिथेन गैस। गैस की मौजूदगी पता करने का इनके पास कोई उपकरण नहीं होता, कई बार माचिस की तीली जलाकर जांच कर लेते हैं बस। बदन पर कोई कपड़ा नहीं होता है, कमर में रस्सी बंधी होती है ताकि कीचड़ में फंस जाए तो कोई खींच कर बाहर निकाल ले।
बहरहाल, जलभराव के इस मौसम में हम सिर्फ कामना ना करें कि सीवर साफ रहे, बल्‍कि सीवर सफाई के लिए अपने-अपने यहां की सरकारी संस्‍थाओं पर दबाव बनायें कि वे सफाईकर्मियों को काम करने के लिए सारे साधन मुहैया करायें क्‍योंकि कोई भी स्‍वच्‍छता मिशन तब तक अधूरा रहेगा जबतक कि इसे आखिरी व्‍यक्‍ति की सुरक्षा से ना जोड़ा जाए।
-अलकनंदा सिंह

रविवार, 24 जून 2018

तराशे हुए बाजुओं का सच

चित्र गूगल से साभार
कमउम्र में ही दुनिया को अलविदा कह गईं मशहूर शायरा परवीन शाकिर का एक शेर याद आ रहा है ....

तूने अखबार में उड़ानों का इश्‍तिहार देकर
मेरे तराशे हुए बाजुओं का सच बेपरदा कर दिया।

परवीन मेरी पसंदीदा शायरों में से एक रही हैं, उन्‍होंने इन चंद लफ्ज़ों में बहुत कुछ कह दिया। यह शेर लाचारगी का पर्याय बनी विधवाओं से जुड़े आज के इस लेख पर बिल्‍कुल सही बैठता है।

दो दिन पहले दिल्‍ली के विज्ञान भवन में ''लूमबा फाउंडेशन'' ने अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। लॉर्ड राज लूमबा सीबीई द्वारा 1997 में स्‍थापित गया था। लूमबा फाउंडेशन के इस कार्यक्रम में उपराष्‍ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने कहा था- ''विधवाओं के प्रति मानसिकता बदली जानी चाहिए, अगर कोई पुरुष पुनर्विवाह कर सकता है तो महिला क्यों नहीं कर सकती? लोगों की मानसिकता एक बड़ी समस्या है, हमें इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है।''

तो नायडू जी! बात तो सारी मानसिकता पर ही आकर ठहर जाती है ना, हालांकि इसमें बहुत कुछ बदला भी है मगर अभी बहुत कुछ बाकी भी है।

निश्‍चित ही यहां उपराष्‍ट्रपति के वक्‍तव्‍य का अर्थ सिर्फ पुनर्विवाह से नहीं था, बल्‍कि इसके ज़रिए विधवाओं के जीवन में खुशहाली लाने से था। मगर मेरा मानना है कि विधवा की इच्‍छा पर पुनर्विवाह हो तो ठीक वरना महज इसलिए पुनर्विवाह कराया जाये कि पुनर्विवाह करके वह खुश रहेगी, यह ठीक नहीं है।

बेहतर हो कि विधवाओं को आत्‍मसम्‍मान से जीने के साधन उपलब्‍ध कराये जाएं ताकि उन्‍हें किसी पर ''आश्रित'' रहना ही ना पड़े। कोई भी किसी पर आश्रित रहकर खुशहाल जीवन कतई नहीं जी सकता।

आत्‍मसम्‍मान तो दूर की बात अभी तक तो स्‍थिति यह है कि जीवन की बेसिक आवश्‍यकताओं के लिए भी दूसरों पर उनकी निर्भरता विधवा महिलाओं की पूरी ज़िंदगी को नर्क बना रही है। अधिकांशत: देखा गया है कि आर्थिक रूप से स्‍वतंत्र महिलायें जीवन को ज्‍यादा अच्‍छी तरह से जीती हैं बनिस्‍बत उनके जो अपने परिवारिक सदस्‍यों पर निर्भर रहती हैं। तो ऐसे में पुनर्विवाह विधवाओं को खुशी देने की एक संभावना तो हो सकती है (हालांकि यह किसी विधवा की व्‍यक्‍तिगत इच्‍छा पर निर्भर करेगा) मगर ''संभावनाओं'' पर खुशियां तो नहीं ढूढ़ीं जा सकतीं न। यदि ऐसा होता तो इन्‍हीं ''संभावनाओं'' के कारण वे अपने परिवार में त्‍यक्‍त न कर दी जातीं।

यहां मैं वृंदावन में निवास कर रही परित्‍यक्‍ताओं और विधवाओं की बात करना चाहूंगी जिन्‍हें उनके परिवारीजनों द्वारा भगवद्भजन के नाम पर यहां ''छोड़'' दिया जाता है। ये महिलाएं कुछ समय पहले तक सिर्फ भीख मांगकर, मंदिरों में भजन गाकर या दान आदि के सहारे जीती थीं।
इनके लिए आत्‍मसम्‍मान से जीने की विधि सुलभ इंटरनेशनल और प्रशासन ने मिलकर निकाली। सुलभ के सहयोग से संचालित विधवा आश्रय स्‍थलों में ही अब प्रशासन ने मंदिरों से निकलने वाले फूलों से अगरबत्‍ती बनाने के साथ-साथ भगवान की पोशाक आदि बनाने का न केवल प्रशिक्षण दिलवाया बल्‍कि उन्‍हें आत्‍मसम्‍मान से जीने के अन्‍य साधन भी मुहैया कराये। हर आयुवर्ग की विधवायें और यहां रह रहीं परित्‍यक्‍तायें भी अब गोपाल जी की पोशाक व अन्‍य साजोसामान बनाती हैं। इस आमदनी से वे अपना जीवन अपने मुताबिक जी सकेंगी। वे यदि चाहें तो पुनर्विवाह कर सकती हैं मगर आत्‍मसम्‍मान से जीने की खुशी उन्‍हें आर्थिक स्‍वतंत्रता से ही मिलेगी, यह निश्‍चित है।

बात सिर्फ पुनर्विवाह की नहीं है, नायडू जी ने सही कहा कि सामाजिक बदलाव से विधवाओं को सामान्‍य जीवन दिया जा सकता है। यह कटुसत्‍य है कि समाज में, स्‍वयं अपने परिवार में, अपने बच्‍चों के द्वारा भी विधवाओं को सिर्फ अपने अपने हिसाब से ''यूज'' किया जाता है, कभी इमोशनली तो कभी सोशली। उनके आत्‍मसम्‍मान की बात तो छोड़ ही दें सम्‍मान भी यदाकदा ही देखने-सुनने को मिलता है।

बहरहाल भारत में कुल 4.60 करोड़ विधवाएं हैं, जिन्‍हें आत्‍मनिर्भर बनाना आवश्‍यक है, इन कार्यक्रमों द्वारा हम 4.60 करोड़ चेहरों पर खुशी ला सकेंगे। चूं कि वर्तमान में खुशी व बदलाव सब आर्थिक उन्‍नति से जोड़कर देखा जाने लगा है तो विधवाओं के लिए भी सामाजिक स्‍तर पर बदलाव आर्थिक माध्‍यम से ही आएगा, यह वर्तमान समय का कटुसत्‍य है। वे ''विधवाविलाप'' जैसी उक्‍ति को भी बदलने का माध्‍यम बनेंगी,जहां सिर्फ लाचारगी ही होती थी।

जो भी हो मगर इतना तो अवश्‍य है कि अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस के बहाने उन ''सचों'' पर फिर से गौर किया गया जो विधवाओं के रास्‍ते का पत्‍थर थे, परवीन शाकिर के शब्‍दों में कहूं तो तराशे गए बाजुओं का सच, सामने तभी लाया जा सका है जब हमने उड़ानों का इश्‍तिहार दिया... कि अभी कितने चेहरे ऐसे हैं जो अपनी आकांक्षाओं को परिजनों के रहमोकरम पर मसलने को विवश हैं, हमें भी इन सचों को स्‍वीकारना होगा ताकि विधवायें भी ज़माने में अपनी आकांक्षाओं की उड़ान भर सकें।

-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 22 जून 2018

आज साहित्य अकादमी ने वर्ष 2018 के लिए बाल साहित्य पुरस्कार और युवा पुरस्कारों की घोषणा

साहित्य अकादमी का युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार आस्तिक वाजपेयी, बाल साहित्य पुरस्कार दिविक रमेश 

नई दिल्ली। उदयन वाजपेयी के पुत्र व अशोक वाजपेयी के भतीजे हैं आस्तिक वाजपेयी  को इसबार साहित्य अकादमी का युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया जाएगा। साहित्य अकादमी ने वर्ष 2018 के लिए बाल साहित्य पुरस्कार और युवा पुरस्कारों की आज घोषणा की। साहित्य अकादमी द्वारा जारी विज्ञप्ति के मुताबिक बाल साहित्य पुरस्कार दिविक रमेश (हिंदी), ईस्टेरिन किरे (अंग्रेजी), वैद्यनाथ झा (मैथिली), तरसेम (पंजाबी), सी एल सांखला (राजस्थानी), रईस सिद्दीकी (उर्दू) ,सम्पदानंद मिश्र (संस्कृत), शीषेंदु मुखोपाध्याय (बांग्ला) और रत्नाकर मटकरी (मराठी) सहित 23 लेखकों को दिया गया. डोगरी भाषा का पुरस्कार बाद में दिया जायेगा।

देखिए साहित्‍य अकादमी केे आफीशियल ट्विटर पर अन्‍य डिटेल-

https://twitter.com/sahityaakademi/status/1010118994320285697


वहीं, साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार दस कविता संग्रहों, सात कहानी संग्रहों, तीन उपन्यासों तथा एक नाटक को दिया गया। युवा पुरस्कार से आस्तिक वाजपेयी (हिंदी), उमेश पासवान (मैथिली), दुष्यंत जोशी (राजस्थानी), शहनाज रहमान (उर्दू), गुरप्रीत सहजी (पंजाबी), मुनिसज सुंदर विजय (संस्कृत) ,साम्राज्ञी बंद्योपाध्याय (बांग्ला) और नवनाथ गोरे (मराठी) सहित 22 रचनाकर्मियों को पुरस्कृत किया गया।

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ चंद्रशेखर कंबार की अध्यक्षता में गुवाहाटी में संपन्न कार्यकारी मंडल की बैठक में इन पुरस्कारों की घोषणा की गयी। बाल साहित्य पुरस्कार के रूप में ताम्रफलक और 50 हजार रूपये का नकद इनाम 14 नवंबर को एक समारोह में प्रदान किया जायेगा। युवा पुरस्कार के रूप में उत्कीर्ण ताम्रफलक और 50 हजार रूपये की राशि एक विशेष समारोह में प्रदान की जायेगी।

सोमवार, 18 जून 2018

यहाँ सब के सर पे सलीब है

अपेक्षाओं का अतिरिक्‍त दबाव हम सहन करने में नाकाम हो रहे हैं, यह बात किसी आम आदमी  की हो तो समझ में भी आती है मगर जब दूसरों के लिए माइलस्‍टोन बने अपने क्षेत्र के ''कामयाब  दिग्‍गज'' नाकामी की इबारत लिखते हैं तो सोचना पड़ता है कि आखिर ये कामयाबी किस कीमत  पर पा रहे हैं हम?

मुझे आज अपनी बात कहने के लिए राणा सहरी की लिखी गज़ल जिसे मशहूर ग़ज़ल गायक  जगजीत सिंह ने गाया है, के कुछ अशआर याद आ रहे हैं कि- 

कोई दोस्त है न रकीब है, तेरा शहर कितना अजीब है।
वो जो इश्क था वो जुनून था, यह जो हिज्र है, ये नसीब है।
यहाँ किसका चेहरा पढ़ा करूँ, यहाँ कौन इतना करीब है।
मैं किसे कहूँ, मेरे साथ चल, यहाँ सब के सर पे सलीब है।

सलीब को अब तक हम उस क्रॉस के रूप में देखते आए है जिसे ईसा मसीह को ढोना पड़ा था।  यानि तनाव की सलीब ढोने वाले हम, अपनी मौत को अपने ही कांधों पर ढोने का अहसास और  आमंत्रण दोनों ही देते दिखाई देते हैं। सलीब लेटिन भाषा का शब्द है जिसका शाब्‍दिक अर्थ है ‘गम  का रास्ता,’ ‘दुःख का पथ,’ ‘पीड़ा का मार्ग,’ या बस ‘दर्दनाक राह’। जीवन भी कुछ ऐसा ही है, कुछ  लोगों के लिए।” सलीब या क्रॉस, ज़िम्मेदारियों के लिए एक रूपक (metaphor) की तरह भी है,  दूसरे शब्दों में, राणा सहरी के अनुसार अपने-अपने काम में सब इतने व्यस्त हैं यहाँ, कि किसी  दूसरे के लिए उनके पास वक्त ही नहीं।”

सलीब की तरह ही एक शब्‍द और है तीन अक्षरों का...तनाव जो अपने भीतर सलीब का वजन भी  रखता है और इससे मिलने वाला दुखद अंजाम भी हमारे सामने लाता है। ये किसी लहीम शहीम  पर्सनालिटी को भी जब अपनी गिरफ्त में लेता है तो वही होता है जो भय्यू जी महाराज का हुआ,  जो सुपरकॉप हिमांशु रॉय का हुआ और जो एटीएस के अधिकारी राजेश साहनी का हुआ। परीक्षाओं  में नाकाम रहने वाले छात्रों, किसानों की आत्‍महत्‍या की बात तो छोड़ ही दें क्‍योंकि वे ''कामयाब  हस्‍ती'' नहीं होते मगर ये तीनों नाम तो किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। भौतिक रूप से  प्रतिष्‍ठित जीवन जीने के लिए ''सबकुछ'' था इनके पास, तो फिर ऐसा क्‍या हुआ कि ये जीवन जीने  से ही कतराने लगे।

पिछले महीने से लगातार घटी इन घटनाओं के बाद तनाव की वजहें तलाशी जा रही हैं। मगर जहां  तक मैं समझ पा रही हूं वो यही कि इच्‍छाओं-अपेक्षाओं का भंवर ही तनाव का निर्माण करता है।  दूसरों से पाली गई बेशुमार अपेक्षाओं पर जब अपनी इच्‍छायें पूर्ण होने की शर्त अड़ा दी जाती है  तब ही तनाव का जन्‍म होता है। कुछ लोग इससे पार पा लेते हैं तो कुछ भय्यू जी, हिमांशु रॉय  और राजेश साहनी की तरह दूसरा भयानक रास्‍ता चुनते हैं। 

माना कि सामान्‍यत: जीवन जीना आसान नहीं है मगर इतना कठिन भी नहीं कि हम कायरों की  भांति जीवन से यूं कन्‍नी काट लें। एक इंसान को जिस पद, प्रतिष्ठा और पैसे की चाह होती है, वो  भय्यूजी महाराज से लेकर साहनी तक तीनों के पास था लेकिन फिर भी तीनों की अकाल मौत का  कारण पहली नजर में अवसाद यानी तनाव ही देखा गया है। वो तनाव जिसने इन तीनों को भरी  दुनिया में अकेला कर दिया।

लेकिन मेरा स्‍पष्‍ट मानना है कि इच्‍छाओं-अपेक्षाओं की अपनी अपनी सलीबों को ढोकर चलने वाले  हम, सिर्फ अकेलेपन को आमंत्रण ही नहीं देते बल्‍कि उसी से कुचले भी जा रहे हैं। इससे तो बेहतर  होगा कि सपने, अहंकार, अपेक्षायें और नियति से जद्दोजहद के आफ्टरइफेक्‍ट्स भी हम जान लें  और अतिवाद की किसी भी स्‍थिति से समय रहते बच लें।

बहरहाल राणा सहरी के अशआरों की गहराई हमारी नियति बताते हैं तो सावधान भी करते हैं कि  जीवन सिर्फ तुम्‍हारा अपना नहीं, इसपर औरों का भी अधिकार है, हम कुछ ऐसा करें कि अपने  दुखों को ढोकर भी दूसरों को जीवन की सुखद राह दिखा सकें।

-अलकनंदा सिंह

रविवार, 17 जून 2018

Fathers Day पर पढ़िए अज्ञेय की कविता – चाय पीते हुए

कभी अज्ञेय ने कहा था- कि …चाय पीते हुए
हर साल जून के तीसरे रविवार को पूरी दुनिया में फादर्स डे मनाया जाता है। इस साल यह दिन 17 जून को सेलिब्रेट किया जा रहा है। पिछले साल 18 जून को फादर्स डे के रूप में मनाया गया था। इसी अवसर पर आप पढ़िए सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की अपने पिता के लिए लिखी गई एक कविता- चाय पीते हुए
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
चाय पीते हुए
मैं अपने पिता के बारे में सोच रहा हूँ।
आप ने कभी
चाय पीते हुए
पिता के बारे में सोचा है?
अच्छी बात नहीं है
पिताओं के बारे में सोचना।
अपनी कलई खुल जाती है।
हम कुछ दूसरे हो सकते थे।
पर सोच की कठिनाई यह है कि दिखा देता है
कि हम कुछ दूसरे हुए होते
तो पिता के अधिक निकट हुए होते
अधिक उन जैसे हुए होते।
कितनी दूर जाना होता है पिता से
पिता जैसा होने के लिए!
पिता भी
सवेरे चाय पीते थे।
क्या वह भी
पिता के बारे में सोचते थे –
निकट या दूर?
– अज्ञेय

शनिवार, 9 जून 2018

सनौली के माध्‍यम से हमारी सभ्‍यता का इतिहास दोबारा लिखा जाएगा

किसी भी देश के अस्‍तित्‍व को उसकी सभ्‍यता के वर्षों पुराने इतिहास से आंका जाता है। आज के इस लेख से पहले मैंने एक बार लिखा था कि ''पहले हिन्दू राष्ट्र था अफगानिस्‍तान में 5000 हजार वर्ष पुराना विमान मिला'' (इसके बारे में विस्‍तृत रूप से आप यहां पढ़ सकते हैं), इस रिपोर्ट को लिखने के बाद कुछ पाठकों ने मेरी आलोचना भी की कि मैंने अवैज्ञानिक तरीके से तथ्‍यों को रखा और जानबूझकर सनातन सभ्‍यता को महिमामंडित किया। हालांकि मैंने प्राप्‍त तथ्‍यों के आधार पर ही लिखा था।
मगर अब बागपत के सिनौली गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) को उत्‍खनन में कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं जो अंग्रेजों द्वारा लिखे भारतवर्ष के इतिहास को बदल देंगे।
दरअसल, हमारे ही इतिहास को जिन दूसरों के द्वारा लिखा गया वो भारत के नायकों, विकसित विचारधाराओं को सम्‍माननीय दृष्‍टि से कभी देख ही न सके और वैदिक व्‍यवस्‍थाओं व आविष्‍कारों को पोंगापंथी कहकर गरियाते रहे।
In a First, Chariot From Pre-Iron Age Found During Excavation in UP's Sanauli

बहरहाल, मुझ पर तथ्‍यहीन लेख लिखने का आरोप लगाने वाले इन पाठकों के लिए आज मैं फिर यह कहना चाहती हूं कि हमारे लिए तो.... शताब्दियों का ये रथ अब भी उसी गति से भाग रहा है....हम आज भी उतने ही आधुनिक और प्रयोगधर्मी हैं जितने वैदिक काल में थे। गुलामी के सैकड़ों सालों में भारतवर्ष के इतिहास को जिस तरह तोड़ा-मरोड़ा गया और हमारी महान खोजों को मिट्टी में दबा दिया गया, वह अब मेरठ मंडल के बागपत जनपद की सिनौली साइट से पूरी दुनिया के सामने आ रहा है।

ASI approves excavation of tunnel near Mahabharata-era's 'Lakshagriha'
सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ी सामग्री मसलन उस समय के चिह्न, मिट्टी के बर्तन, कंकाल, आभूषण और कॉपर होर्ड सभ्यता से जुड़ी सामग्रियां अब तक अलग-अलग जगहों पर तो मिलीं थीं, लेकिन अब तक कोई ऐसा मौका पहले नहीं आया था जहां दोनों के चिह्न एक साथ मिले हों। सिनौली की खोदाई में तीन कंकाल, उनके ताबूत, आसपास रखी पॉटरी पर जहां सिंधु घाटी सभ्यता के चिह्न मिले हैं, वहीं लकड़ी के रथ में बड़े पैमाने पर तांबे का इस्तेमाल, मुट्ठे वाली लंबी तलवार, तांबे की कीलें, कंघी कॉपर होर्ड का प्रतिनिधित्व करती हैं। रथ के लकड़ी का हिस्सा तो मिट्टी हो चुका है लेकिन तांबा जस का तस है। उत्‍खनन में मिले ताबूत और उसके पास से मिले ये सामान प्रमाणित करते हैं कि यह शवाधान केंद्र किसी राजशाही परिवार का रहा होगा और वे लगभग पांच हजार पूर्व तांबे का प्रयोग करते थे।

इस सच के सामने आने से पहले हमने ''गुलामी के उस वजन'' को बखूबी ढोया है जिसमें कहा गया कि ''सिंधु घाटी सभ्यता के समापन के समय ही भारत में आर्यों का आक्रमण'' हुआ, उसके बाद आर्यों द्वारा यहां नए सिरे से एक सभ्यता गढ़ी गई और फिर नई-नई खोजें व विकास हुए, अर्थात् सिनौली की मिट्टी का उत्खनन अब अंग्रेजों द्वारा रचे गए इस ''आर्य इतिहास'' के झूठ को भी उजागर करेगा क्‍योंकि सिनौली उत्‍खनन में मिले रथ को देखकर पहली बार सिंधु घाटी सभ्यता और कॉपर होर्ड (ताम्रयुगीन संस्कृति) का सामंजस्य भी सामने आ गया है और वेद-ग्रंथों में बताई गई वस्‍तुओं का प्रमाण भी मिल गया।
तांबे और लकड़ी से रथ के साथ सिंधु घाटी सभ्यता के निशानों ने अब नए सिरे से इतिहास लिखने की बहस छिड़ चुकी है।

यह भी सत्‍य है कि जहां अंग्रेजों द्वारा उल्‍लिखित इतिहास के अनुसार आर्य सभ्यता में ही पहली बार घोड़े के उपयोग की बात की गई वहीं सिनौली के उत्‍खनित प्रमाण इससे पूर्व की सभ्यता के हैं अर्थात् भारत निर्माण और इसके पुरातात्विक महत्व को लेकर अब तक दिए तमाम तर्कों को सिनौली की मिट्टी झुठला रही है।
आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के आंकलन में उत्‍खनित साइट पर मिले सामान लगभग चार से पांच हजार वर्ष पूर्व के हैं, लिहाजा अंग्रेजों का भारत पर आर्यों के आक्रमण और उनके द्वारा यहां पर नई सभ्यता की स्थापना को 1500-2000 वर्ष पुराना बताने वाले दावे धूल में मिल गए हैं। मिट्टी के नीचे दबे प्रमाणों के बाहर आने से यह अब साफ हो गया है कि आर्यों के आने से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज रथ बना चुके थे और तत्‍कालीन राजसत्‍ता तांबे का भरपूर उपयोग करती थी।

इस संबंध में कुछ उन बयानों को मैं यहां देना चाहूंगी जो इतिहास के आंकलन और उसकी प्रमाणिकता के क्षेत्र में अव्‍वल माने जाते हैं।


1. सेंटर फॉर आम्र्ड फोर्सेज हिस्टोरिकल रिसर्च, नई दिल्ली के फेलो डॉ. अमित पाठक के अनुसार अंग्रेजों ने अभी तक यह साबित किया था कि आर्यों ने 1500-2000 वर्ष ईसा पूर्व भारत पर हमला किया। वे रथ से आए और यहां की सभ्यता को रौंदते हुए नई सभ्यता की नींव रखी। उनका दावा था कि आर्यों के आने से पहले तक यहां बैलगाड़ी थी, घोड़ागाड़ी नहीं जबकि सिनौली साइट की खोदाई में मिले रथ ने यह साबित कर दिया है कि रथ हमारे यहां लगभग पांच हजार वर्ष या उससे भी पहले से है। यानि रामायण, महाभारत की बात को यदि प्रमाण के रूप में ना भी लें तो अंग्रेजों की आर्य थ्योरी को पलटने के लिए तो सिनॉली के प्रमाण ही काफी हैं।
2. आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के सुपरिंटेंडेंट आर्कियोलॉजिस्ट रहे कमल किशोर शर्मा कहते हैं कि यह एक बड़ी डिस्कवरी है।
3. पुरातत्वविद् बी. लाल के साथ काम करने वाले के. के. शर्मा के अनुसार पूर्व में आर्कियो-जेनेटिक्स भी स्पष्ट कर चुकी है कि हमारे डीएनए, क्रोमोजोम में पिछले 12 हजार वर्ष में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और अब मिला यह आर्कियोलॉजिकल प्रमाण नए इतिहास को सृजित कर रहा है।
4. शहजाद राय शोध संस्थान के निदेशक अमित राय जैन कहते हैं कि दिसंबर 2007 में भी यहां 160 कंकाल मिले थे, जिनकी कॉर्बन डेटिंग के बाद स्पष्ट हुआ था कि ये लगभग चार से पांच हजार वर्ष पुराने हैं। ऐसे में रथ का यहीं से कंकालों के साथ मिलना अंग्रेजों की आर्य थ्योरी को पलट रहा है।
कुल मिलाकर सिनौली की भूमि के अंदर दबी संस्‍कृति, सभ्‍यता और इतिहास की इन धरोहरों ने पूरी तरह यह साबित कर दिया कि अखंड भारत कभी कितना समृद्ध और सुविकिसित था।
सिनौली की धरती ने इसके अलावा यह भी सिद्ध किया है कि महान भारत की संस्‍कृति व समृद्धि को झुठलाने का प्रयास हर युग में किया जाता रहा और अब भी किया जा रहा है जबकि रामायण से लेकर महाभारत तक के काल की गाथा कहने वाले अवशेष सामने हैं।
-अलकनंदा सिंह

सोमवार, 4 जून 2018

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि राजकिशोर का निधन

नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि राजकिशोर का सोमवार को यहां अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में निधन हो गया। वे करीब तीन सप्ताह से एम्स के गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) में भर्ती थे।
उन्हें निमोनिया होने के कारण एम्स में भर्ती कराया गया था जहां उन्होंने सोमवार सुबह साढ़े नौ बजे के करीब अंतिम सांस ली। वे 71 वर्ष के थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी और पुत्री हैं। पिछले दिनों उनके बेटे का निधन हो गया था।
करीबियों के मुताबिक बेटे की मौत का उन्हें गहरा सदमा लगा था। उनके परिवार में अब उनकी पत्नी और बेटी बची हैं। उनका जन्म 2 जनवरी 1947 को पश्चिम बंगाल के कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुआ था।


इसके अलावा राजकिशोर ने प्रभाष जोशी के साथ जनसत्ता अखबार में भी काम किया। राजकिशोर नियमित तौर पर हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों और मैग्जीनों में स्तंभ लेखने का काम करते थे। इनके राजनीतिक व्यंग्य काफी चर्चित रहते थे। भारतीय समाज के व्यवहारिक समाजशास्त्र पर राजकिशोर की गहरी पकड़ थी। 

राजकिशोर को उनके कामों के लिए कई पुरस्कार और सम्मानों से भी नवाजा गया। लोहिया पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान (हिंदी अकादमी), राजेंद्र माथुर पत्रकारिता पुरस्कार (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना) प्रमुख हैं। राजकिशोर की मुख्य कृतियों में उपन्यास 'तुम्हारा सुख' व 'सुनंदा की डायरी', व्यंग्य में 'अंधेरे में हंसी' व 'राजा का बाजा' और कविता संग्रह 'पाप के दिन' शामिल है। इसके अलावा उनके प्रमुख वैचारिक लेखनों में एक अहिंदू का घोषणापत्र, गांधी मेरे भीतक, जाति कौन तोड़ेगा, गांधी की भूमि से, धर्म सांप्रदायिका और राजनीति शामिल हैं। 

राजकिशोर ने ‘रविवार’ से अपनी पत्रकारिता शुरू की थी और ‘नवभारत टाइम्स’ दिल्ली में काफी समय तक पत्रकार रहे। ‘दूसरा शनिवार’ मैग्‍जीन का संपादन किया था। वे कई अखबारों में समसामयिक विषयों पर स्तंभ भी लिखते रहे।
उनके उपन्यास संग्रह में से ‘सुनंदा की डायरी’, ‘दूसरा सुख’ प्रमुख हैं। उनका कविता संग्रह ‘पाप के दिन’ और व्यंग्य संग्रह ‘राजा का बाजा’ भी काफी लोकप्रिय था। उनको लोहिया पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।