मंगलवार, 27 मार्च 2018

नीड़ से बेदखल होने वाले मां-बापों के हक़ में... एक कदम

पहले आप डा. हरिवंशराय बच्‍चन की आत्‍मकथा के दूसरे खंड ''नीड़ का निर्माण फिर फिर'' की उन पंक्‍तियों को पढ़िए जो आज के इस लेख पर खरी उतरती हैं, हालांकि संदर्भ अलग-अलग हैं मगर दोनों के अर्थ एक ही है ।

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,

रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से ऊषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

अब मैं अपनी बात कहती हूं...आज इन पंक्‍तियों को जिस संदर्भ में मैंने उद्धृत किया है, वह हमारे उन ''परित्‍यक्‍त-परिजनों'' से संबंधित है जिन्‍हें उनकी अपनी संतानों ने संपत्‍ति हथियाने के बाद शारीरिक व मानसिक स्‍तर पर प्रताड़ित करके नीड़ (घर) से दूर कर दिया और हालात के मारे ये लोग अब वृद्धाश्रमों की चौखट पर ''खाली हाथ'' बैठे खून के आंसू रोने को विवश हैं ।

दो दिन पहले आगरा स्‍थित रामलाल वृद्धाश्रम से आई खबर को एडिट करते हुए जो सच्‍चाई सामने आई, वह परवरिश में खोट, लालची प्रवृत्‍ति और ज़माने के दस्‍तूर जैसी दलीलों में नहीं छुपाई जा सकती।

खबर थी कि- 

''वृद्धजनों पर अत्याचार और उन्‍हें प्रताड़ित करने की घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। खबर के अनुसार प्रताड़नाओं के हद से गुजर जाने के बाद कई वृद्धजन  कैलाश मन्दिर के पास स्थित Ramlal Ashram में आ गये। जहां आश्रम के अध्यक्ष शिव प्रसाद शर्मा ने उन सभी का स्‍वागत-सत्‍कार किया गया और सभी को आश्रम में शरण दी।
अभी 1 माह में वहां ऐसे 25 दादा-दादी का आगमन हुआ है, जिनमें से कई को तो काउसिंलिग के द्वारा उनके परिजनों के पास भेज दिया गया, बाकी 15 का समझौता नहीं हो पाया लिहाजा उन्हें आश्रम में शरण दे दी गई।'' 

यहां पढ़ें पूरी खबर-

http://legendnews.in/respected-in-the-ramlal-ashram-of-the-old-age-expelled-from-the-homes/

यह  हमारे समाज की वो सूरत है जिसे भद्दा बनाने के लिए हम स्‍वयं ही दोषी हैं । जिन लैंगिक, आर्थिक असमानताओं से जुड़े विचारों को हमने ही समाज में पिरोया, ये सब उसके आफ्टर इफेक्‍ट्स हैं । जब आज से लगभग दो-तीन दशक पहले वृद्धजनों को तिरस्‍कृत किया जाने लगा तभी समाज की ओर से गंभीर प्रयास नहीं हुए। हालांकि ''हैल्‍पएज इंडिया'' जैसी गैरसरकारी संस्थाओं ने जिम्‍मेदारी संभाली भी, मगर वृद्धजनों की संख्‍या को देखते हुए यह प्रयास नाकाफी था। ''हैल्पएज-इंडिया'' ने 2014 में जारी अपनी रिपोर्ट के अंदर खुलासा किया था कि भारत में 10 करोड़ से अधिक बूढ़े लोग रहते हैं। इनमें से करीब एक करोड़ लोगों को उनके ही बच्चों ने सम्पत्ति विवाद के चलते घर से बाहर निकाल दिया है।

इत्‍तेफाकन उसी दिन इसी खबर के साथ एक और खबर आ गई कि केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय इसके लिए माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक देखभाल एवं कल्याण अधिनियम 2007 में संशोधन करने जा रहा है। बच्चों द्वारा सम्पत्ति अपने नाम करवा लेने के बाद बूढ़े माता-पिता को घर से निकाल देने की शिकायतों को गंभीरता से लेते हुए संशोधित अधिनियम को कैबिनेट की मंज़ूरी मिलते ही राज्‍य सरकारों को भेज दिया जाएगा। इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी राज्यों की होगी।

अधिनियम से जुड़े ये दो खास बिंदु हैं जिन्‍हें आप भी अवश्‍य जान लें- कि...
वित्तीय मदद सीमा बढ़ेगी
मां-बाप को जीवनयापन के लिए बच्चों की ओर से हर माह दी जाने वाली वित्तीय मदद (10 हजार रुपए) की सीमा भी हटाई जाएगी।

पीड़ित मां-बाप यहां शिकायत कर सकेंगे
राज्यों में मैंटीनैंस ट्रिब्यूनल या अपीलेट ट्रिब्यूनल में पीड़ित मां-बाप इसकी शिकायत कर सकेंगे। इन ट्रिब्यूनल के पास सिविल कोर्ट के अधिकार हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक 53.2 प्रतिशत मामले ऐसे हैं जिनमें माता-पिता से दुर्व्यवहार का कारण सिर्फ सम्पत्ति है।

हालांकि ये सारी खबरें वृद्धजनों के प्रति एक सहानुभुति जगाती हैं और होना भी ऐसा ही चाहिए मगर यह उन वृद्धजनों को चौकन्‍ना भी करती हैं जो बच्‍चों पर ''अतिनिर्भर'' होकर हम अपनी आत्‍मनिर्भरता को कम करते जाते हैं। हम स्‍वयं अपनी ओर भी देखें और आंकलन करें कि जो गलतियां अब तक औरों से होती रहीं हैं, वे अब आगे हमसे न दोहराई ना जाऐं।

आगरा का रामलाल आश्रम जो कर्तव्‍य निभा रहा है, हमें उससे एक कदम आगे के बारे में सोचना होगा। जैसाकि वृंदावन में सुलभ संस्‍था के प्रयासों के बाद उत्‍तरप्रदेश सरकार ने किया। पहले बात-बात पर घरवालों की लालची-क्रूर प्रवृत्‍ति और तमाम अन्‍य कुप्रवृत्‍तियों का रोना रोने वाली ''वृंदावन की विधवाओं'' का आत्‍मनिर्भर होते जाना हमें बताता है कि जीवन के  सफ़र में  बनी-बनाई अवधारणाओं के अलावा भी जबतक जीवन है, बहुत कुछ करके उन बहुतों के काम आया जा सकता है जो जरूरतमंद हैं।

इस सबके बावजूद मैं यहां उन संतानों के लिए कुछ भी नहीं कह पा रही...एक शब्‍द भी नहीं...कतई नि:शब्‍द हूं... क्‍योंकि लालच और अपने माता-पिता की अवहेलना करने वाले जिस घृणा के पात्र है, उसे तो मेरे शब्‍द भी व्‍यक्‍त नहीं कर पा रहे।

सरकार के नीतिगत प्रयास, हैल्‍पऐज इंडिया के सहयोग और वृद्धाश्रमों की सेवा के बाद...

अब एक बार फिर डा. हरिवंशराय 'बच्‍चन' के उस 'नीड़ के निर्माण' की आवश्‍यकता है जो इन वृद्धजनों की ससम्‍मान वापसी करा सके, साथ ही आर्थिक -पारिवारिक-सामाजिक सुरक्षा दे सके और देने के साथ साथ उस सुरक्षा का अहसास भी करा सके।

-अलकनंदा सिंह 

गुरुवार, 22 मार्च 2018

पैसे की हवस: महिला खेलरत्‍नों से ये उम्‍मीद नहीं थी

सरकारी खर्चे पर ऐश करते परिजन भ्रष्‍टाचार की मुख्‍य वजह


जो राष्‍ट्रीय व अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर देश का नाम रोशन कर रहे हों...जो राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से लेकर पद्म पुरस्‍कारों से सुशोभित किये जा चुके हों...जो एक एक टूर्नामेंट से करोड़ों रुपये कमा रहे हों...जिनके लिए तमाम सरकारी सुविधाओं सहित गाड़ी, बंगला का अंबार लगा हो, उनसे आप ये उम्‍मीद तो नहीं कर सकते कि वो ज़रा से खर्चे के लिए भ्रष्‍टाचार कर रहे होंगे।

आटे में नमक बराबर हो या पूरा आटा ही सना हुआ हो, मगर भ्रष्‍टाचार तो भ्रष्‍टाचार ही रहेगा ना।  जी हां, भ्रष्‍टाचार की ये खबर किसी मामूली व्‍यक्‍ति से नहीं, बल्‍कि हमारी उन दो खेल विभूतियों से जुड़ी है जो  देश की नई उम्‍मीदों को ''पर देकर उड़ान भरने'' के लिए प्रसिद्ध हैं। ये हैं बैडमिंटन की स्‍टार पीवी सिंधु और साइना नेहवाल।

दरअसल, ऑस्‍ट्रेलिया के गोल्‍ड कोस्‍ट में आयोजित कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में हिस्‍सा लेने के लिए जा रही पीवी सिंधु के साथ उनकी माता विजया पुसरला और साइना के साथ उनके पिता हरवीर सिंह को ''सरकारी खर्चे'' पर बतौर बैडमिंटन अधिकारी जाने के लिए ओलंपिक संघ के नौकरशाहों ने पूरा बंदोबस्‍त कर दिया था जबकि इन दोनों खिलाड़ियों के माता-पिता का किसी खेल से कोई वास्‍ता नहीं है, फिर भी वो भारतीय दल की लिस्ट में बतौर अधिकारी शामिल किए गए। हालांकि अच्‍छी बात ये रही कि खेल मंत्री ने इन्‍हें ''सरकारी खर्चे'' पर भेजने से मना कर दिया है। 

बात यहां किसी खिलाड़ी के माता या पिता को सरकारी खर्चे पर भेजने की नहीं है, बात है उस भ्रष्‍टाचारी प्रवृत्ति की जो सरकार के और हमारे टैक्‍स का दुरुपयोग करने से जुड़ी है।
इन दोनों ही खिलाड़ियों के खेल का हम  सम्मान करते हैं मगर उनके भ्रष्‍टाचार को कतई बर्दाश्‍त नहीं किया जा सकता। ये इनके द्वारा जानबूझकर किया जाने वाला एक गंभीर अपराध है।

भ्रष्‍टाचारी प्रवृत्ति और पैसे की हवस का कोई अंत नहीं होता, कोई अंधा व्‍यक्‍ति भी कह देगा कि इतना कमा लेने के बाद तो ये खिलाड़ी अपने परिजनों को निजी खर्चे पर दुनिया में कहीं की भी सैर करा सकती हैं ।

बहराहल, तारीफ करनी होगी खेलमंत्री राज्‍यवर्धन सिंह राठौर की, जिन्‍होंने खेलों में सरकारी पैसे की ''लूट'' करने वाले इंडियन ओलंपिक संघ की कारगुजारी पर न केवल शिकंजा कसा बल्‍कि इस धांधली के लिए जिम्‍मेदार लोगों को ''संभल जाने'' की चेतावनी भी दे दी।

इससे पहले तो 2012 में लंदन ओलंपिक में सानिया मिर्जा की मां नसीम मिर्जा ''टेनिस मैनेजर'' बनकर  सरकारी खर्चे पर यात्रा कर ही चुकी हैं। ये तो वो मामले हैं  जो संज्ञान में आए , वरना दबे छुपे मामलों का तो बस अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है। करोड़पति खिलाड़ियों की इस हरकत से हमें चौकन्‍ना रहने की हिदायत भी मिलती है और यह भी कि तमाम पुरस्‍कारों से नवाजे जाने वाले  भी हमारी आंखों में धूल झोंक सकते हैं।

कहते हैं ना कि जब भोजन पेट से ऊपर खा लिया जाए तो वह अफरा कर देता है, राज्‍य व केंद्र सरकारों को यह भी सोचना होगा कि किसी पदक को जीतने के बाद किसी भी खिलाड़ी को सरआंखों पर बिठाते हुए उन पर जो धनवर्षा की जाती है, उसे भी खत्‍म किया जाना  चाहिए।

इनाम-इकराम तो हौसलाअफजाई का माध्‍यम होते हैं मगर उतना ही जितना जरूरत हो। इस तरह गाड़ी-बंगला देकर इन पर ''लुटाया गया'' धन ना जाने कितने ऐसे खिलाड़ियों की ज़िंदगी संवार सकता है जो एक रैकेट तक खरीदने के लिए अपनी तमाम जमापूंजी को दांव पर लगा देते हैं, देश में अब भी आमजन के बच्‍चों के लिए खेल सुविधायें पाना अनिश्‍चित नहीं तो दुरूह अवश्‍य है।

जो भी हो, इस खुलासे से बड़े स्‍तर पर खिलाड़ियों द्वारा धनलाभ के लिए की जाने वाली ओछी हरकतें हमें सबक जरूर देती हैं और बताती हैं कि बेशुमार दौलत, शौहरत तथा इज्‍जत पाने के बावजूद पैसे की हवस किसी को कितने नीचे गिरा सकती है। फिर वह चाहे कोई पुरुष हो या महिला।

पीवी सिंधु और सानिया नेहवाल का यह अपराध इसलिए कहीं अधिक गंभीर हो जाता है कि सामान्‍य तौर पर महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक संवेदनशील तथा अधिक नेकनीयत माना जाता रहा है।

- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 21 मार्च 2018

बीसवेंं अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार घोषित

भोपाल । साठ महत्वपूर्ण ग्रंथोंं के सर्जक एवं चार सौ चित्रों के चित्रकार स्व. अम्बिका प्रसाद दिव्य की स्मृति में विगत उन्नीस वर्षो से दिये जा रहे राष्ट्रीय ख्याति के दिव्य पुरस्कारो की घोषणा उनकी जन्म जयन्ती 16मार्च 2018 को साईंनाथ नगर, महाबली कोलार, भोपाल स्थित साहित्य सदन में आयोजित एक सादा समारोह में श्री जगदीश किंजल्क ने की ।
इस वर्ष के पुरस्कारों में उपन्यास विधा में श्रीमती कुसुम खेमानी (कोलकाता ) को उनके उपन्यास ” जडिया बाई ” को दिया जायेगा । द्वितीय और तृतीय क्रम में आने वाले उपन्यास में ” हेमू ” ( डॉक्टर तारकेश्वर उपाध्याय ) ” मोतीहारी एवं चतुर्भुज ” (डॉक्टर अरविंद जैन भोपाल ) को दिव्य प्रशस्ति पत्र प्रदान किये जायेंगे । व्यंग्य विधा में श्री सुदर्शन सोनी (भोपाल ) को उनकी कृति आरोहण के लिए दिया जायेगा । इसके साथ ही दिव्य प्रशस्ति पत्र पाने वाले व्यंग्यकार हैं श्री आलोक सक्सेना (दिल्ली ) उनकी कृति ” पप्पू बन गया अफसर ” एवं बिहारी दुबे ( पन्ना ) को उनकी कृति ” चौंकना मना है ” के लिये प्रदान किये जायेंगे ।कहानी विधा में वीकानेर की इंजीनियर श्रीमती आशा शर्मा को उनकी कृति ” उजले दिन मटमैली शामें ” को दिव्य पुरस्कार प्रदान किया जायेगा ।
दिव्य प्रशस्ति पत्र पाने वाली लेखिकायेंं हैं डॉक्टर सुमन लता श्रीवास्तव (जबलपुर ) कृति ” कटघरे “
काव्य विधा में कविता के साथ नयी कविता एवं गजल विधा को शामिल किया गया है नयी कविता के लिए सुश्री लक्ष्मी रूपल , जीरकपुर ( पंजाब ) की कृति ” तेरा पानी मेरा पानी ” को दिव्य पुरस्कार प्रदान किया जायेगा । अहमदाबाद के घमंडी राम किशोर मेहता, कृति “अंधेरे का समाजवाद ,”श्री गंगा शरण प्यासा (मरैना ) कृति ” गंगा हजारिका ” श्री ब्रज श्रीवास्तव( विदिशा ) को उनकी कृति ” ऐसे दिन का इंतजार “तथा श्री शैलेंद्र सिंह शैल कति ” तन्हा साया ” को प्रशस्ति पत्र प्रदान किये जायेंगे । बाल साहित्य के अंतर्गत भोपाल के डाक्टर परशुराम शुक्ल को उनकी कृति ” परमचंद के कारनामे ” के लिये दिव्य पुरस्कार प्रदान किया जायेगा । इसी क्रम में प्रशस्ति पत्र गुडगांव के श्री घमंडीलाल अग्रवाल को उनकी कृति “नये निराले गीत ” के लिये दिया जाएगा ।
निबन्ध विधा का दिव्य पुरस्कार जबलपुर की लेखिका डॉक्टर तनूजा चौधरी को उनकी कृति साठोत्तर लेखिकाओं का ” स्त्री-विमर्श ” के लिये दिया जाएगा एवं दिव्य प्रशस्ति पत्र चौन्ने की डॉक्टर ए . फातिमा को उनकी कृति “डॉक्टर विश्व नाथ त्रिपाठी के साहित्य में चित्रित ग्रामीण जीवन सभ्यता के लिए दिया जायेगा । इस वर्ष देश के विभिन्न अंचलोअं से दिव्य पुरस्कारों हेतु 156 पुस्तकें प्राप्त हुईं ।
राष्ट्रीय ख्याति के दिव्य पुरस्कारों के सम्मानीय निर्णायक
विद्वान हैं – श्री रामदेव भारद्वाज (कुलपति ) 2- श्री प्रभु दयाल मिश्र 3- डॉक्टर राधा बल्लभ शर्मा 4- श्री घनश्याम सक्सेना 5- डॉक्टर विनय राजाराम 6- श्री मयंक श्रीवास्तव 7- श्रीमती विजय लक्ष्मी विभा 8-राजेन्दर नागदेव 9 – श्री हरि जोशी 10- श्री पी.डी खैरा 11- श्री अरुण तिवारी 12- श्री राधेलाल विजघावने 13- डॉक्टर सुनीता खत्री 14- श्री राग तैलंग 15-श्री मती राजो किंजल्क ।
स्मरणीय है कि राष्ट्रीय ख्याति के दिव्य पुरस्कार विगत बीस वर्षो से प्रदान किये जा रहे हैं । संयोजक श्री जगदीश किंजल्क ने बताया कि इक्कीसवे दिव्य पुरस्कारों के लिये कृतियाँ शीघ्र ही आमंत्रित की जायेंगी ।
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

रविवार, 18 मार्च 2018

ये किस दयार पर खड़े हैं हम...कि देवी भी हम और गाली भी

आज से नवदुर्गा हमारे घरों में विराजेंगी, पूरे नौ दिन देश में ऋतुओं के  माध्‍यम से जीवन में उतरते नवसंचार को उत्‍सवरूप मनाने के दिन हैं। एक  समाज के तौर पर  इन नौ दिनों में हम अपने संस्‍कारों के किस किस स्‍तर  को समृद्ध करें और सोच के किस स्‍तर को परिष्‍कृत करें, यह भी सोचना  आवश्‍यक हो गया है। यह कैसे संभव है कि एक ओर हमें 'दुर्गा' कहा जाए और  दूसरी ओर हमारे ही नाम पर गालियों का अंबार लगा दिया जाए।

सोच का यही ''संकट'' हमारी सारी आराधनाओं और सारी खूबियों को मिट्टी में  मिलाए दे रहा है।

मंदिरों में भारी भीड़ और हर मंदिर में देवी प्रतिमा को निकटतम से निहारने  की होड़ के बीच यह प्रश्‍न अनुत्‍तरित ही रह जाता है कि आखिर हम किस देवी  की आराधना कर रहे हैं और क्‍यों कर  रहे हैं।

देवी-पूजा के अर्थ एवं औचित्‍य को समझाने वाला शायद ही कोई मंदिर किसी  के सामने हो क्‍योंकि अगर ऐसा होता तो आज ''गालियां'' शब्‍द विलोपित हो  गया होता।

मां-बहन का नाम लेकर दी जाने वाली इन ''गालियों'' का समाजशास्‍त्र ऐसा है  कि हर वर्ग, धर्म, समाज, प्रदेश, वर्ण में ये समानरूप से मौजूद हैं। इन्‍हें  आजतक कोई मिटा तो नहीं पाया, बल्‍कि अब इनका विस्‍फोटकरूप हमारे  सामने आ रहा है कि अब ये गालियां महिलाओं की जुबान पर भी बैठती जा  रही हैं। शारीरिक बनावट से लेकर शारीरिक संबंधों को घिनौने अंदाज़ में पेश  करने वाली ये महिलायें, अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला रही हैं।

साहित्‍य से लेकर सोशल मीडिया तक इन नए ज़माने की महिलाओं की गालियों  वाली अभिव्‍यक्‍ति हमें सामाजिक और संस्‍कारिक तौर पर ग़रीब बना रही है।  प्रत्‍यक्षत: आधुनिक होने के नाम पर सोच का एक ऐसा निकृष्‍टतम स्‍तर उभर  रहा है जिसका जिम्‍मा अब स्‍वयं इन महिलाओं ने उठा लिया है और इनमें से  ना तो कोई निम्‍न वर्ग से है और ना ही कम पढ़ी-लिखी। 

पुरुषों से बराबरी करनी है तो बुद्धि-कौशल-सामाजिक सरोकारों को और ऊंचा  उठाने के लिए करें ना कि उनके दोषों को अपनाकर। जिन्‍हें दूर करने की  जिम्मेदारी अभी तक कम से कम घर की महिलाऐं निभा रही थीं आज उन्‍हीं  की बच्‍चियां गालियों में स्‍वयं के ही शरीर को नंगा कर रही हैं। तो फिर किस  देवी की आराधना करें हम।

शक्‍ति आराधना किसी देवी स्‍वरूपा मूर्ति की आराधना नहीं है, ऋतुओं के  संधिकाल में अपनी ऊर्जा को एक जगह संचित करके उसकी अनुभुतियों को  स्‍वयं के भीतर महसूस करने का पर्व है ये। इस पर्व पर यदि हम समाज में  मौजूद उक्‍त ''गालियों वाली'' शाश्‍वत-स्‍थितियों को बदल  पाने का संकल्‍प और  साहस दिखायें तो संभवत: दुर्गा मंदिरों से उतर कर हमारे दिलों में बैठ जायें  और फिर उन्‍हें तलाशने किसी भी मंदिर जाना ही नहीं पड़ेगा।


देवी दुर्गा का रूप बताई जाने वाली हर महिला के ''संबंधों'' को तार तार करने  वाली ये गालियां सोच के उस निम्‍नतर स्‍तर को दर्शाती हैं जिसके अभी तक  हम पुरुषों को जिम्‍मेदार ठहराते आए थे। मां-बहन की गालियां आमतौर पर  पुरुष ही दिया करते थे और महिलाओं को गालियां मुश्किल से ही हजम होती हैं  क्‍योंकि सब उन पर ही तो पड़ती हैं।
अमूमन मां...बहन...बेटी...के ही नाम पर ये गालियां चलती रहीं और कुलीन  वर्ग इसे निम्‍नवर्गीय मानकर महिलाओं के आगे अपशब्‍द कहने से बचता रहा  परंतु अब तो स्‍थिति उलट रही है। सामाजिक ताने-बाने के लिए ये उल्‍टी  स्‍थिति भयानक भी है।

ऋग्‍वेद में कहा गया है- “आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:”
Let noble thoughts come to us from every side.(Rigveda 1-89-1)

ऋग्‍वेद के इस सूत्र को याद रखते हुए आज मैं बस ये कामना ही कर सकती हूं  कि हम सभी (पुरुष व महिलायें) अपने संस्‍कारों को सहेजने का और ऐसी गिरी  हुई सोचों के उभरने का विरोध करें और अधिक ना सही कम से कम अपनी  नई पीढ़ी को इसके प्रकोप से बचा सकें। यही होगी नवदुर्गा की सच्‍ची आराधना  और यही होगा नव संवत्‍सर का नव संकल्‍प।
- अलकनंदा सिंंह

गुरुवार, 8 मार्च 2018

हमें अष्‍टभुजी रहने दो, औज़ार ना बनाओ

Painting by arun samadder aparajita- on womens day 
देवि दुर्गा की अष्‍टभुजाएं देखी हैं आपने? सभी भुजाओं में कोई ना कोई अस्‍त्र-शस्‍त्र मौजूद होता है जबकि शक्‍ति दुर्गा की भुजाओं में होती है, ना कि उन अस्‍त्र-शस्‍त्रों में। ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर अस्‍त्र-शस्‍त्रों को उनके हाथों में क्‍यों दर्शाया गया है? राक्षसों का नाश तो देवि अपनी भुजाओं से ही कर सकती थीं।
दरअसल, यह सब शस्‍त्र प्रतीक हैं उस शक्‍ति के जो वे भुजाएं वहन करती हैं।
सीधा सीधा अर्थ यह है कि करुणा, दया और प्रेम के साथ-साथ हर महिला अपने भीतर एक ऐसी शक्‍ति समाहित रखती है जो समय-समय पर उसे ना सिर्फ राक्षसों से बचाती है, बल्‍कि स्‍वयं अपने उत्‍थान के लिए आवश्‍यक ऊर्जा भी प्रदान करती रहती है।
राक्षसों की मौजूदगी सिर्फ प्रत्‍यक्षत: शारीरिक रूप से प्रताड़ित करती दिखे ऐसा नहीं है, वो मानसिक रूप से तोड़ने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती। तब ऐसे में महिलाएं अपनी भुजाओं में समाहित शक्‍ति का प्रयोग करती हैं, ये शक्‍ति स्‍वत:स्‍फूर्त संचालित होती है। कब चुप रहना है, कब बोलना है, कब अपनी शक्‍ति का इस्‍तेमाल करना है, कब उसे शांत रखकर घर-बाहर शांति बनाए रखनी है। सामंजस्‍य बनाए रखना हम महिलाओं का स्‍वाभाविक गुण होता है परंतु अब ये समीकरण बदलने लगे हैं।
महिलाओं पर शारीरिक हिंसा से संबंधित समाज-कल्‍याण विभाग के आंकड़े और देश की विभिन्‍न न्‍यायालयों में दायर मामलों को देखें तो 80% मामलों में आरोपपत्र झूठे लगाए जाते हैं, जिन्‍हें बाद में वापस ले लिया जाता है। वापस लिए गए मामलों में सभी वादी महिलाएं स्‍वयं को निर्दोष साबित करते हुए पारिवारिक दबाव अथवा टारगेट किए गए ”दोषी पुरुष” को अज्ञात बताकर पहचानने से के इंकार करके ”सशर्त-समझौते” को अंजाम देती हैं। ये ”सशर्त-समझौते” कैश अथवा काइंड के तौर पर ”काम आ” जाते हैं। महिलाएं यदि दलित वर्ग से हुईं तो दोषी बताए गए पुरुष को न्‍यायिक ही नहीं सामाजिक प्रतिष्‍ठा के स्‍तर पर चुनौतियों का सामना करना होता है। जितनी बड़ी उसकी प्रतिष्‍ठा, उतना ही बड़ी समझौता राशि। ऐसे में वास्‍तविक पीड़ित महिला के प्रति भी सहानुभूति संशयों में घिर जाती है और इसका सीधा-सीधा लाभ अत्‍याचारियों का मिलता है।
इसी तरह वैवाहिक अदालतों में कुछ ऐसे मामलों को मैंने रुबरू देखा है, जिनमें शादी के बाद किसी भी स्‍तर पर अनबन हो जाने अथवा सोची गई सुविधाओं मिलने में किसी भी प्रकार की कमी होने पर वह दहेज प्रताड़ना का केस तो बनाती ही हैं, साथ ही मर्यादाओं की सीमा लांघकर भी आरोप लगाने के काम करती हैं। जैसे आजकल अनबन होने पर पति को नपुंसक बता देना और उसके साथ-साथ ससुराल के अन्‍य पुरुषों पर यौन शोषण का आरोप लगाना आम बात हो गई है। किसी भी परिवार के लिए इस तरह के आरोपों को झेलना बहुत मुश्‍किल होता है। सच्‍चाई तो तब सामने आती है जब कथित तौर पर नपुंसक घोषित किए गए पुरुष की दूसरी शादी के बाद उसके बच्‍चे भी हो जाते हैं।
कुल मिलाकर आज महिला दिवस पर तमाम कसीदों के इतर यह भी जानना जरूरी है कि अब जबकि महिलाएं हर क्षेत्र में अपना डंका बजा रही हैं तब उनकी स्‍वतंत्रता के साथ आ चुकीं बुराइयों से भी रुबरू हुआ जाए क्‍योंकि झूठे आरोपों से महिलाओं की अपनी प्रतिष्‍ठा भी दांव पर लगती है।
इस प्रगतिवादी और महिलाओं के लिए अच्‍छे समय के साथ ही हमें अपराध की ओर धकेलती उच्‍छृंखलता और अपनी वास्‍तविक स्‍वतंत्रता में अंतर करना होगा, पीड़ित और पीड़क में अंतर करना होगा।
देवि दुर्गा जिन अष्‍टभुजाओं के बल पर हमें नतमस्‍तक होने को बाध्‍य करती हैं, इसका अर्थ ही यह है कि हम महिलायें एक बार में अष्‍टचक्र कार्य कर सकने में सक्षम होती हैं। बस हमें अपनी अष्‍टभुजाओं में निहित बल को ”तिर्यक” होने से बचाना होगा वरना हमें मात्र औज़ार की भांति प्रयोग किये जाने से कोई नहीं रोक सकता। ध्‍यान रखना होगा कि औज़ार अथवा शस्‍त्र की अपनी कोई शक्‍ति नहीं होती।
आज इस महिला दिवस पर महिलाओं की शक्‍ति को निश्‍चितत: सम्‍मान मिलना चाहिए मगर इस शक्‍ति के बहाने आ रहे दोषों से भी तो आंखें नहीं फेरी जा सकतीं। समग्रता ही हमारे अपने बल, बुद्धि और संपूर्ण अस्‍तित्‍व को निखारेगी। हम अपने अष्‍टभुजी रूप को सार्थकता दे पायें और किसी और का औज़ार न बने इसके लिए स्‍वयंसिद्धा तो बनना ही पड़ेगा।
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 4 मार्च 2018

अब स्‍तनपान के नाम पर रचा जा रहा षडयंत्र

''जिस डाल पर बैठे उसी को काटने'' की मूर्खता वाली एक उक्‍ति को हम प्रसिद्ध कवि कालिदास  के लिए हमेशा से संदर्भित करते रहे हैं, मगर आज स्‍तनपान को लेकर जो शोध रिपोर्ट आई है  उसे पढ़कर यह उक्‍ति हम मांओं पर बिल्‍कुल फिट बैठती है। नैसर्गिक अधिकारों व कर्तव्‍यों को  लेकर सदियों पुरानी भारतीय सभ्‍यता का कोई सानी नहीं, इसके बाद भी यदि हम सुसंस्‍कृत  कहलाने के लिए पश्‍चिम की ओर देखें तो हमसे बड़ा मूर्ख और कौन हो सकता है।

हम भारतीय मांऐं ही नहीं, दुनियाभर की मांओं को जिस तरह ये नैसर्गिक अधिकार प्राप्‍त है  कि अपने शिशु को स्‍तनपान कराने से ना तो कोई रोक सकता है और ना ही इसके लिए  अनुमति की आवश्‍यकता होती है, ठीक उसी तरह शिशु को भी मां के दूध से कोई वंचित नहीं  रख सकता।

हमारी सदियों पुरानी परंपरा है कि शिशु की प्राकृतिक देखभाल ही उसे फिजीकली ही नहीं,  इमोशनल ताकत भी देती है। सभ्‍य समाज के लिए शिशुओं की लालन-पालन प्रणाली का बहुत  बड़ा योगदान होता है। हालांकि, अब विदेशी स्‍वास्‍थ्‍य विशेषज्ञ उस पर रिसर्च कर ही रहे होंगे  और निश्‍चित जानिए किसी दिन ये रिपोर्ट भी हमारे सामने आ जाएगी कि बच्‍चे को कैसे पालें  और नई मांऐं इसे हुबहू मानेंगी भी बिना ये सोचे-समझे कि आखिर इस सबके पीछे कौन है जो  हमारी नैसर्गिकता को भी भुना रहा है। 

स्‍तनपान को लेकर पिछले कई दशकों से पश्‍चिम से ये भ्रांति फैला रहा है कि स्‍तनपान से मां  के फिगर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस नैसर्गिक सुख से मांओं को वंचित रखने के पीछे  बाजार का वो षड्यंत्र था जिसे पावडर दूध बेचने वाली विदेशी कंपनियों ने रचा ताकि मांओं की  कथित ''आज़ादी'' के नाम पर अपने प्रोडक्‍ट का लक्ष्‍य हासिल करने में कोई बाधा ना आए। इस  षड्यंत्र में बाकायदा डॉक्‍टर्स को शामिल किया गया। अब एकबार फिर इन्‍हीं डॉक्टर्स के माध्‍यम  से कहलवाया जा रहा है कि स्‍तनपान कराने से कैंसर का खतरा कम होता है। ध्‍यान दीजिए  कि कैंसर खत्‍म करने के स्‍थान पर इसका ''खतरा कम'' शब्‍द प्रयोग में लाया जा रहा है।  बाजार का एंगिल चेंज हुआ है, फिर से मांऐं निशाने पर हैं, इस बार शिशु-आहार बनाने वाली  कंपनियों पर कैंसररोधी दवायें बनाने वाली लॉबी हावी दिख रही है और निशाना बनाई जा रही  हैं नई मांऐं।
मैं इस तथ्‍य का विरोध करती हूं कि कैंसर के डर से स्‍तनपान कराया जाना चाहिए, बल्‍कि  बात ये होनी चाहिए कि स्‍तनपान हमारे नैसर्गिक कर्तव्‍य और शिशु के नैसर्गिक अधिकार के  बीच का मामला है तो इसे निर्धारित करने वाली विदेशी कंपनियां और शोध संस्‍थान आखिर  कैंसर की धौंस किसे दिखा रहे हैं, इस जानलेवा बीमारी के नाम पर बात उठाकर आखिर ये  लॉबी किसे अपनी ज़द में लेना चाहती है। इंतज़ार कीजिए अब ऐसी दवाओं के आने का जो  स्‍तनपान के इमोशनल टच के साथ कैंसर का इलाज करेंगी।

एक सभ्‍य समाज के तौर पर हमने अपनी विरासतों को तो पश्‍चिम का पिछलग्‍गू बना ही दिया  है और अपनी नैसर्गिकता की धज्‍जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आश्‍चर्य तो इस बात  पर है कि ये सब भी होता रहा है तथाकथित तरक्‍की के नाम पर। हमारी उत्‍तरआधुनिक मांओं  की इस कमजोरी का फायदा बाजारवाद की लॉबी ने जमकर उठाया क्‍योंकि दुनिया के बाजार में  भारतीय उपभोक्‍ताओं की संख्‍या 1/6 जो है।

गौरतलब है कि जिस शोध-रिपोर्ट की मैं बात कर रही हूं, उसे यूनीवर्सिटी ऑफ पिट्सबर्ग के  डा. मलामो कॉन्‍टोरियस ने अपनी टीम के साथ 1998 से 2004 तक गर्भावस्‍था से लेकर नई  मांओं तक पूरा किया। यह रिपोर्ट कहती है कि- स्‍तनपान से गुड कॉलेस्‍ट्रॉल बढ़ता है,  सर्कुलेटिंग फैट कम होता है, गले और सिर पर खून को पहुंचाने वाली कैरोटिड आर्टरीज की  मोटाई भी कम होती है, इस आर्टरी के बड़े व्‍यास को हार्ट स्‍ट्रोक से जोड़कर देखा जाता है,  स्‍तनपान से आक्‍सीटोसिन हॉर्मोन उत्‍सर्जित होता है, जिससे ब्‍लडप्रेशर कम रहता है।

इस रिपोर्ट में शोधकर्ता ये उल्‍लेख करना भूल गए या जानबूझकर नहीं किया कि जब कोई मां  अपने बच्‍चे को उठाकर छाती से भी लगा लेती है तभी कोई भी रोता हुआ बच्‍चा चुप क्‍यों हो  जाता है, स्‍तनपान कराने वाली मां के मन के भाव अपने शिशु के लिए क्‍या होते हैं, यही भाव  आजीवन शिशु के मन की तरंगों की दिशा व दशा को स्‍थापित करते हैं। क्‍या अब हम शोध  रिपोर्टों के आधार पर इन्‍हें तय करेंगे।

मैं मानती हूं कि आधुनिकता के नाम पर अब भी ऐसी मांओं की कमी नहीं जो अपने नवजात  शिशु को फुलटाइम मेड की गोद में बाजारु शिशु आहार के सहारे पलवा रही हैं, वे स्‍तनपान को  आज भी ''पिछड़ेपन'' का नाम देकर बचना चाहती हैं। भारतीय परंपराओं को ना मानने वाली  ऐसी मांऐं ही उक्‍त शोध रिपोर्टों और बाजारवाद का सॉफ्ट टारगेट होती हैं।
ऐसी मांओं के लिए इस रिपोर्ट की पॉजिटिविटी ये रहेगी कि अब वे स्‍तनपान से शिशु को  वंचित रखने से पहले सोचेंगी अवश्‍य, चाहे कैंसर से बचने का ही भय क्‍यों ना हो।

मातृत्‍व का भाव ही तो है जिसने स्‍तनपान से लेकर पालनपोषण तक की भूमिका को 
सर्वाधिक महत्‍व दिलाया। महाभारत में जब यक्ष, धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि 'भूमि  से भारी कौन?' तब युधिष्ठर जवाब देते हैं-
'माता गुरुतरा भूमेरू।' अर्थात माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि ग्‍लोबली डिजिटलाइज्‍ड युग में जब एक क्‍लिक पर सारी  जानकारियां हमारे हथेली में समाई हों तब तो कम से कम इस तरह की शोध रिपोर्टों के  भ्रमजाल से भारतीय मांऐं बच ही सकती हैं।

फिर भी यदि बात समझ में नहीं आती तो इतना जरूर समझ सकती हैं कि हर शोध अपूर्ण  होती है और एक नई शोध के लिए रास्‍ता बनाती है, जबकि भारतीय मनीषियों द्वारा निकाले  गए निष्‍कर्ष उस मानसिकता की देन हैं जो स्‍वास्‍थ को सबसे पहला सुख मानकर चलती है।
भारतीय मनीषियों ने पहला सुख निरोगी काया को ही बताया है, और यह सभी पर समान रूप  से लागू होता है। स्‍तनपान कराने वाली मां पर भी और उस शिशु पर भी जो स्‍तनपान करता  है। ऐसे में ''कैंसर का खतरा कम'' होने की बात तो तब की जानी चाहिए जब कैंसर होने की  संभावना हो।
यहां तो शुरू से मां के दूध को अमृत तुल्‍य बताया गया है, फिर ये कम खतरे की बात कहकर  खतरे को बनाए रखने का षड्यंत्र ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। 

-अलकनंदा सिंह