बच्चों में फैलती हिंसा पर पिछले कुछ दिनों में इतने लेख लिखे गए हैं कि समस्या पीछे छूटती गई और लेखकों के अपने विचार हावी होते गए। लेखकों में से कोई सरकारी नीतियों को, तो कोई परिवारों के विघटन को और कोई सामाजिक ताने बाने को ध्वस्त करते टीवी मोबाइल को दोषी ठहराने में लगा है परंतु क्या किसी ने ये सोचा है कि आखिर ये स्थिति आई ही क्यों ?
हमारे जीवनपद्धति में आखिर ऐसा क्या बदलाव हुआ जिसने हमारे बच्चों के हाथों में खंजर थमा दिया। क्यों माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल थमाकर, टीवी के कार्टून चैनलों के सामने बिठाकर उन्हें मनुष्य बनने से रोकते रहे?
क्यों माओं का कर्तव्य सिर्फ प्रिमैटरनिटी से थ्री मंथ मैटरनिटी लीव तक समेट दिया गया?
क्यों बच्चे को पैदा करने और उनकी परवरिश के लिए महिलाओं के घर पर रहने को हम दकियानूसी सोच, पिछड़ापन या स्त्री-स्वातंत्र्य से जोड़ने लगे?
हम क्यों नहीं देख पाये कि भूखे बच्चे को मां का दूध जरूरी है, उसका सानिध्य जरूरी है ना कि सेरलक और बॉर्नविटा व मैगी की खुराक।
संवेदनाओं का मशीनीकरण हमने स्वयं किया है, किसी सरकार ने नहीं। स्त्री-पुरुष की बराबरी के द्वंद युद्ध की बलि चढ़ते गए बच्चे। पारिवारिक व्यवस्था की खामियों को दूर करने की बजाय महिलाओं की स्वतंत्रता को इस तरह परिभाषित किया जाने लगा कि परिवार ढहते गए और बच्चे क्रिमिलन बनने लगे।
ऐसा तब हुआ जबकि पूरी दुनिया ये मान चुकी है कि भारतवर्ष में जन्मे ''वेद'' और ''गीता'' जैसे महानग्रंथ किसी भी समाज को संपूर्ण चारित्रिक बल तथा पूरी स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के साथ जीने का अधिकार देते हैं।
सदियों से आक्रांताओं और उनकी थोपी गई सोच का 'असर' हमारे देश पर ऐसा पड़ा कि वेद और गीता की बात करने वाले को कथित बुद्धिजीवी तक अपना विरोध जताने को पुरातनपंथी या कट्टरवादी या हिंदूवादी जैसे विशेषणों से नवाजने लगते हैं। ऋषियों-मुनियों की अनगिनत खोज को झुठलाने में जुट जाते हैं और इस बीच मूल तथ्य तिरोहित हो जाते हैं कि आखिर कैसे बच्चों को संपूर्ण मनुष्य बनाया जाए।
जब मानवीयता से परे ले जाकर हम ही अपनी आने वाली पीढ़ी को उत्पाद (Comodity) बनाने पर आमादा हों तो श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और संपूर्ण मनुष्य (संतान अथवा शिष्य रूप में) की अपेक्षा करना सरासर गलत है।
इस संदर्भ में ऋग्वेद के 10वें मंडल से लिया गया 53वें सूक्त का छठा मंत्र कहता है----
।। मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।।
पूरा मंत्र इस प्रकार है-
तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् ।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो, मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥
इसका भावार्थ है-
Become the Human being create the divine people
अर्थात्
मानव को चाहिए कि वह 'उत्तम मनुष्य' का विस्तार करे| अपने जीवन में धर्मपरक मार्गों का आलम्बन करते हुए मननशील होकर 'उत्तम मनुष्य' के निर्माण में यत्न करता रहे || ६ ||
ऋग्वेद के इस मंत्र में की गई 'उत्तम मनुष्य' की व्याख्या आज जैसे कोरी कल्पना बन चुकी है। मनुष्यता अपने निकृष्टतम स्तर पर जा पहुंची है। पहले यह 'उत्तम मनुष्य' की जगह निजी स्तर पर 'उत्तम संतान' अथवा 'उत्तम शिष्य' तक सिमटी, और फिर इससे भी नीचे 'सिर्फ संतान' व 'सिर्फ शिष्य' पर आकर ठहर गई।
और अब तो उत्तम मनुष्य जैसी कोई व्याख्या रह ही नहीं गई है। संतान और शिष्य को कमोडिटी के तौर पर इस्तेमाल करने के इस काल में कमोडिटी को हानि-लाभ के तौर परखा जाता है। फिर इनसे मानवता और मानवीय संवेदना की अपेक्षा करना क्या उचित होगा।
बाल सुधारगृह, बच्चा जेल की अवधारणा तक आ पहुंचे हम क्या अपने गिरेबां में झांक कर देखने की हिम्मत करेंगे?
यकीन मानिए कि जिस दिन हम ''अपनी ओर'' देख पाऐंगे, उसी दिन से उत्तम मनुष्य की अवधारणा पुन: प्रत्यक्ष होने लगेगी लगेंगे। आज भी जो अपनी ओर देख पा रहे हैं तथा आत्मचिंतन करने में समर्थ हैं वे आईआईटियन हों या एमएनसी के सीईओ, सभी अपने देश की गौरवशाली परंपरा एवं आध्यात्मिक जीवनशैली की ओर लौटते दिखाई दे रहे हैं...बच्चों के आपराधिक बनने जैसी विडंबना के बीच यह सुखद परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है।
अब बस बाकी है उस पारिवारिक एवं सामाजिक ताने बाने को पुनर्स्थापित करना जो समाज के लिए कमोडिटी नहीं, श्रेष्ठतर मनुष्य उत्पन्न करने का मार्ग प्रशस्त करता है।
- अलकनंदा सिंह
www.legendnews.in
हमारे जीवनपद्धति में आखिर ऐसा क्या बदलाव हुआ जिसने हमारे बच्चों के हाथों में खंजर थमा दिया। क्यों माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल थमाकर, टीवी के कार्टून चैनलों के सामने बिठाकर उन्हें मनुष्य बनने से रोकते रहे?
क्यों माओं का कर्तव्य सिर्फ प्रिमैटरनिटी से थ्री मंथ मैटरनिटी लीव तक समेट दिया गया?
क्यों बच्चे को पैदा करने और उनकी परवरिश के लिए महिलाओं के घर पर रहने को हम दकियानूसी सोच, पिछड़ापन या स्त्री-स्वातंत्र्य से जोड़ने लगे?
हम क्यों नहीं देख पाये कि भूखे बच्चे को मां का दूध जरूरी है, उसका सानिध्य जरूरी है ना कि सेरलक और बॉर्नविटा व मैगी की खुराक।
संवेदनाओं का मशीनीकरण हमने स्वयं किया है, किसी सरकार ने नहीं। स्त्री-पुरुष की बराबरी के द्वंद युद्ध की बलि चढ़ते गए बच्चे। पारिवारिक व्यवस्था की खामियों को दूर करने की बजाय महिलाओं की स्वतंत्रता को इस तरह परिभाषित किया जाने लगा कि परिवार ढहते गए और बच्चे क्रिमिलन बनने लगे।
ऐसा तब हुआ जबकि पूरी दुनिया ये मान चुकी है कि भारतवर्ष में जन्मे ''वेद'' और ''गीता'' जैसे महानग्रंथ किसी भी समाज को संपूर्ण चारित्रिक बल तथा पूरी स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के साथ जीने का अधिकार देते हैं।
सदियों से आक्रांताओं और उनकी थोपी गई सोच का 'असर' हमारे देश पर ऐसा पड़ा कि वेद और गीता की बात करने वाले को कथित बुद्धिजीवी तक अपना विरोध जताने को पुरातनपंथी या कट्टरवादी या हिंदूवादी जैसे विशेषणों से नवाजने लगते हैं। ऋषियों-मुनियों की अनगिनत खोज को झुठलाने में जुट जाते हैं और इस बीच मूल तथ्य तिरोहित हो जाते हैं कि आखिर कैसे बच्चों को संपूर्ण मनुष्य बनाया जाए।
जब मानवीयता से परे ले जाकर हम ही अपनी आने वाली पीढ़ी को उत्पाद (Comodity) बनाने पर आमादा हों तो श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और संपूर्ण मनुष्य (संतान अथवा शिष्य रूप में) की अपेक्षा करना सरासर गलत है।
इस संदर्भ में ऋग्वेद के 10वें मंडल से लिया गया 53वें सूक्त का छठा मंत्र कहता है----
।। मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।।
पूरा मंत्र इस प्रकार है-
तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् ।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो, मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥
इसका भावार्थ है-
Become the Human being create the divine people
अर्थात्
मानव को चाहिए कि वह 'उत्तम मनुष्य' का विस्तार करे| अपने जीवन में धर्मपरक मार्गों का आलम्बन करते हुए मननशील होकर 'उत्तम मनुष्य' के निर्माण में यत्न करता रहे || ६ ||
ऋग्वेद के इस मंत्र में की गई 'उत्तम मनुष्य' की व्याख्या आज जैसे कोरी कल्पना बन चुकी है। मनुष्यता अपने निकृष्टतम स्तर पर जा पहुंची है। पहले यह 'उत्तम मनुष्य' की जगह निजी स्तर पर 'उत्तम संतान' अथवा 'उत्तम शिष्य' तक सिमटी, और फिर इससे भी नीचे 'सिर्फ संतान' व 'सिर्फ शिष्य' पर आकर ठहर गई।
और अब तो उत्तम मनुष्य जैसी कोई व्याख्या रह ही नहीं गई है। संतान और शिष्य को कमोडिटी के तौर पर इस्तेमाल करने के इस काल में कमोडिटी को हानि-लाभ के तौर परखा जाता है। फिर इनसे मानवता और मानवीय संवेदना की अपेक्षा करना क्या उचित होगा।
बाल सुधारगृह, बच्चा जेल की अवधारणा तक आ पहुंचे हम क्या अपने गिरेबां में झांक कर देखने की हिम्मत करेंगे?
यकीन मानिए कि जिस दिन हम ''अपनी ओर'' देख पाऐंगे, उसी दिन से उत्तम मनुष्य की अवधारणा पुन: प्रत्यक्ष होने लगेगी लगेंगे। आज भी जो अपनी ओर देख पा रहे हैं तथा आत्मचिंतन करने में समर्थ हैं वे आईआईटियन हों या एमएनसी के सीईओ, सभी अपने देश की गौरवशाली परंपरा एवं आध्यात्मिक जीवनशैली की ओर लौटते दिखाई दे रहे हैं...बच्चों के आपराधिक बनने जैसी विडंबना के बीच यह सुखद परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है।
अब बस बाकी है उस पारिवारिक एवं सामाजिक ताने बाने को पुनर्स्थापित करना जो समाज के लिए कमोडिटी नहीं, श्रेष्ठतर मनुष्य उत्पन्न करने का मार्ग प्रशस्त करता है।
- अलकनंदा सिंह
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