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बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

करवाचौथ का बाजारयुग…ऐसे किस देवता की उपासना करें हम

श्‍याम बेनेगल के धारावाहिक भारत एक खोज की वे पंक्‍तियां आज तक याद हैं मुझे… ”ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर…”।
भारत एक खोज में इस प्रारंभ-गीत को ऋग्‍वेद के जिस नासदीय सूक्‍त से अनूदित कर वसंत देव द्वारा हिंदी में लिखा गया था, वह नासदीय सूक्‍त का ये श्‍लोक इस तरह है –
नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम॥
पूरे श्‍लोक में देवता की उपासना के संग-संग जीवन पद्धति की स्‍थापना को लेकर कई प्रश्‍नोत्‍तर हैं जिसमें संतुलित जीवन जीने के लिए ही स्‍थापित की गई ”जीवन पद्धति” सनातन धर्म का आधार बनी। और यही धर्म धीरे धीरे जड़ परंपराओं, अशिक्षा से ग्रस्‍त रीति रिवाजों की धमनियों से बहता हुआ आज हमारे सामने अपने सबसे सतही और हल्‍के रूप में उपस्‍थित है। धर्म के इस बाजारी रूप को यहां तक लाने में धर्म के कारोबारियों का बड़ा हाथ है जिनके ऊपर आमजन ने आंख मूंदकर विश्‍वास किया।
इसी ”विश्‍वास” के ”बाजार’ का कल हम करवा चौथ के आधुनिक रूप में दीदार करेंगे। करवा चौथ यानि सुहागिनों का ” निर्जल व्रत” वाला त्‍यौहार। पति की लंबी उम्र मांगने का ‘अहसान’ उन्‍हीं की जेब पर उतारा जाता है। इस बार यह त्‍यौहार अपने अब तक के सबसे वीभत्‍स रूप में हमारे सामने है। गहनों, कपड़ों, ब्‍यूटी पार्लर्स से आगे बढ़ता हुआ बाजार अब डिजायनर करवों, पूजा की थालियों, सरगी की सामिग्री के 500 रुपये से लेकर हजारों के पैकेजों सहित उपलब्‍ध है जो शोशेबाजी और शारीरिक साजसज्‍जा तक सिमट कर रह गया है।
दरअसल करवा चौथ भगवान गणेश की आराधना का पर्व है जिसमें सिर्फ पति ही नहीं, संतान व परिवार के प्रत्‍येक सदस्‍य के लिए सद्बुद्धि की आराधना की जाती है परंतु इसे सिर्फ पति तक सीमित कर दिया गया। ये क्‍यों और कब हुआ, इसका तो नहीं पता परंतु इतना अवश्‍य है कि ”कुछ लोगों” तक सिमटी शिक्षा के चलते ये अपभ्रंशित तस्‍वीर ही करवा चौथ बनकर रह गई है। जिन व्रतों को जीवनपद्धति के लिए स्‍थापित किया गया था, उन्‍हें बाजार ने निगल लिया और गिफ्ट के लेनदेन ने इसे ”व्‍यवहार” बनाकर रख दिया। करोड़ों रूपये के सौंदर्य प्रसाधन, जूलरी व कपड़ों की खरीदफरोख्‍़त से बाजार में तब्‍दील ये ”व्रत” सोचने को बाध्‍य करता है कि आखिर यह किस तरह की परंपरा और कैसी जीवन पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं हम।
तो नासदीय सूक्‍त की भांति हम भी आखिर ऐसे किस देवता की उपासना करें जो हमें इस कुचक्र से निकाल सके और टूटते बिखरते रिश्‍तों के इस कठिन समय में परिवार और समाज के काम आ सके। बाजार पर आधारित परंपरा हो या धर्म, या फिर जीवन पद्धति ही क्‍यों न हो वो तो अंतत: क्षोभ ही उत्‍पन्‍न करेगा, संतुष्‍टि नहीं। ये समझना इस दौर की सबसे बड़ी जरूरत है।
इसी के साथ नासदीय सूक्‍त का वसंत देव द्वारा ये हिंदी अनुवाद पढ़िए-
सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ
किसने ढका था
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहां था
सृष्टि का कौन है कर्ता?
कर्ता है या विकर्ता?
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
नहीं पता
नहीं है पता
नहीं है पता
वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगा जो देवों का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऊँ! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशायें बाहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर…
गीत बेशक बड़ा है परंतु आज के संदर्भ में इसे न केवल पढ़ना बल्‍कि इसका मनन करना भी बेहद आवश्‍यक हो गया है क्‍योंकि रुढ़िवादी परंपराएं धर्म धारण करने और धर्म के मार्ग से भटकाने का काम बड़ी तेजी से करती हैं।
-अलकनंदा सिंह

रविवार, 18 मार्च 2018

ये किस दयार पर खड़े हैं हम...कि देवी भी हम और गाली भी

आज से नवदुर्गा हमारे घरों में विराजेंगी, पूरे नौ दिन देश में ऋतुओं के  माध्‍यम से जीवन में उतरते नवसंचार को उत्‍सवरूप मनाने के दिन हैं। एक  समाज के तौर पर  इन नौ दिनों में हम अपने संस्‍कारों के किस किस स्‍तर  को समृद्ध करें और सोच के किस स्‍तर को परिष्‍कृत करें, यह भी सोचना  आवश्‍यक हो गया है। यह कैसे संभव है कि एक ओर हमें 'दुर्गा' कहा जाए और  दूसरी ओर हमारे ही नाम पर गालियों का अंबार लगा दिया जाए।

सोच का यही ''संकट'' हमारी सारी आराधनाओं और सारी खूबियों को मिट्टी में  मिलाए दे रहा है।

मंदिरों में भारी भीड़ और हर मंदिर में देवी प्रतिमा को निकटतम से निहारने  की होड़ के बीच यह प्रश्‍न अनुत्‍तरित ही रह जाता है कि आखिर हम किस देवी  की आराधना कर रहे हैं और क्‍यों कर  रहे हैं।

देवी-पूजा के अर्थ एवं औचित्‍य को समझाने वाला शायद ही कोई मंदिर किसी  के सामने हो क्‍योंकि अगर ऐसा होता तो आज ''गालियां'' शब्‍द विलोपित हो  गया होता।

मां-बहन का नाम लेकर दी जाने वाली इन ''गालियों'' का समाजशास्‍त्र ऐसा है  कि हर वर्ग, धर्म, समाज, प्रदेश, वर्ण में ये समानरूप से मौजूद हैं। इन्‍हें  आजतक कोई मिटा तो नहीं पाया, बल्‍कि अब इनका विस्‍फोटकरूप हमारे  सामने आ रहा है कि अब ये गालियां महिलाओं की जुबान पर भी बैठती जा  रही हैं। शारीरिक बनावट से लेकर शारीरिक संबंधों को घिनौने अंदाज़ में पेश  करने वाली ये महिलायें, अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला रही हैं।

साहित्‍य से लेकर सोशल मीडिया तक इन नए ज़माने की महिलाओं की गालियों  वाली अभिव्‍यक्‍ति हमें सामाजिक और संस्‍कारिक तौर पर ग़रीब बना रही है।  प्रत्‍यक्षत: आधुनिक होने के नाम पर सोच का एक ऐसा निकृष्‍टतम स्‍तर उभर  रहा है जिसका जिम्‍मा अब स्‍वयं इन महिलाओं ने उठा लिया है और इनमें से  ना तो कोई निम्‍न वर्ग से है और ना ही कम पढ़ी-लिखी। 

पुरुषों से बराबरी करनी है तो बुद्धि-कौशल-सामाजिक सरोकारों को और ऊंचा  उठाने के लिए करें ना कि उनके दोषों को अपनाकर। जिन्‍हें दूर करने की  जिम्मेदारी अभी तक कम से कम घर की महिलाऐं निभा रही थीं आज उन्‍हीं  की बच्‍चियां गालियों में स्‍वयं के ही शरीर को नंगा कर रही हैं। तो फिर किस  देवी की आराधना करें हम।

शक्‍ति आराधना किसी देवी स्‍वरूपा मूर्ति की आराधना नहीं है, ऋतुओं के  संधिकाल में अपनी ऊर्जा को एक जगह संचित करके उसकी अनुभुतियों को  स्‍वयं के भीतर महसूस करने का पर्व है ये। इस पर्व पर यदि हम समाज में  मौजूद उक्‍त ''गालियों वाली'' शाश्‍वत-स्‍थितियों को बदल  पाने का संकल्‍प और  साहस दिखायें तो संभवत: दुर्गा मंदिरों से उतर कर हमारे दिलों में बैठ जायें  और फिर उन्‍हें तलाशने किसी भी मंदिर जाना ही नहीं पड़ेगा।


देवी दुर्गा का रूप बताई जाने वाली हर महिला के ''संबंधों'' को तार तार करने  वाली ये गालियां सोच के उस निम्‍नतर स्‍तर को दर्शाती हैं जिसके अभी तक  हम पुरुषों को जिम्‍मेदार ठहराते आए थे। मां-बहन की गालियां आमतौर पर  पुरुष ही दिया करते थे और महिलाओं को गालियां मुश्किल से ही हजम होती हैं  क्‍योंकि सब उन पर ही तो पड़ती हैं।
अमूमन मां...बहन...बेटी...के ही नाम पर ये गालियां चलती रहीं और कुलीन  वर्ग इसे निम्‍नवर्गीय मानकर महिलाओं के आगे अपशब्‍द कहने से बचता रहा  परंतु अब तो स्‍थिति उलट रही है। सामाजिक ताने-बाने के लिए ये उल्‍टी  स्‍थिति भयानक भी है।

ऋग्‍वेद में कहा गया है- “आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:”
Let noble thoughts come to us from every side.(Rigveda 1-89-1)

ऋग्‍वेद के इस सूत्र को याद रखते हुए आज मैं बस ये कामना ही कर सकती हूं  कि हम सभी (पुरुष व महिलायें) अपने संस्‍कारों को सहेजने का और ऐसी गिरी  हुई सोचों के उभरने का विरोध करें और अधिक ना सही कम से कम अपनी  नई पीढ़ी को इसके प्रकोप से बचा सकें। यही होगी नवदुर्गा की सच्‍ची आराधना  और यही होगा नव संवत्‍सर का नव संकल्‍प।
- अलकनंदा सिंंह

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

भविष्‍य के हाथों में खंजर देकर देख लिया, अब गिरेबां में झांकने का वक्‍त

बच्‍चों में फैलती हिंसा पर पिछले कुछ दिनों में इतने लेख लिखे  गए हैं कि समस्‍या पीछे छूटती गई और लेखकों के अपने विचार  हावी होते गए। लेखकों में से कोई सरकारी नीतियों को, तो कोई  परिवारों के विघटन को और कोई सामाजिक ताने बाने को ध्वस्‍त  करते टीवी मोबाइल को दोषी ठहराने में लगा है परंतु क्‍या किसी  ने ये सोचा है कि आखिर ये स्‍थिति आई ही क्‍यों ?

हमारे जीवनपद्धति में आखिर ऐसा क्‍या बदलाव हुआ जिसने हमारे  बच्‍चों के हाथों में खंजर थमा दिया। क्‍यों माता-पिता अपने बच्‍चों  को मोबाइल थमाकर, टीवी के कार्टून चैनलों के सामने बिठाकर  उन्‍हें मनुष्‍य बनने से रोकते रहे?
क्‍यों माओं का कर्तव्‍य सिर्फ प्रिमैटरनिटी से थ्री मंथ मैटरनिटी लीव  तक समेट दिया गया?
क्‍यों बच्‍चे को पैदा करने और उनकी परवरिश के लिए महिलाओं  के घर पर रहने को हम दकियानूसी सोच, पिछड़ापन या  स्‍त्री-स्‍वातंत्र्य से जोड़ने लगे?
हम क्‍यों नहीं देख पाये कि भूखे बच्‍चे को मां का दूध जरूरी है,  उसका सानिध्‍य जरूरी है ना कि सेरलक और बॉर्नविटा व मैगी की  खुराक।
संवेदनाओं का मशीनीकरण हमने स्‍वयं किया है, किसी सरकार ने  नहीं। स्‍त्री-पुरुष की बराबरी के द्वंद युद्ध की बलि चढ़ते गए बच्‍चे।  पारिवारिक व्‍यवस्‍था की खामियों को दूर करने की बजाय महिलाओं  की स्‍वतंत्रता को इस तरह परिभाषित किया जाने लगा कि परिवार  ढहते गए और बच्‍चे क्रिमिलन बनने लगे। 
ऐसा तब हुआ जबकि पूरी दुनिया ये मान चुकी है कि भारतवर्ष में  जन्‍मे ''वेद'' और ''गीता'' जैसे महानग्रंथ किसी भी समाज को संपूर्ण  चारित्रिक बल तथा पूरी स्‍वतंत्रता और अभिव्‍यक्‍ति के साथ जीने  का अधिकार देते हैं।
सदियों से आक्रांताओं और उनकी थोपी गई सोच का 'असर' हमारे  देश पर ऐसा पड़ा कि वेद और गीता की बात करने वाले को कथित बुद्धिजीवी तक अपना विरोध जताने को पुरातनपंथी या कट्टरवादी या हिंदूवादी जैसे विशेषणों से नवाजने लगते हैं। ऋषियों-मुनियों की अनगिनत खोज को झुठलाने में जुट जाते हैं और इस बीच मूल तथ्‍य तिरोहित हो जाते हैं कि आखिर कैसे बच्‍चों को संपूर्ण मनुष्‍य बनाया जाए। 

जब मानवीयता से परे ले जाकर हम ही अपनी आने वाली  पीढ़ी को उत्‍पाद (Comodity) बनाने पर आमादा हों तो श्रेष्‍ठ से  श्रेष्‍ठतर और संपूर्ण मनुष्‍य (संतान अथवा शिष्‍य रूप में) की अपेक्षा करना सरासर गलत है।

इस संदर्भ में ऋग्‍वेद के 10वें मंडल से लिया गया 53वें सूक्‍त का  छठा मंत्र कहता है----

।। मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।।

पूरा मंत्र इस प्रकार है-

तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् ।  
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो, मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥

                इसका भावार्थ है-
Become  the  Human  being  create  the  divine   people 
                     अर्थात्
मानव को चाहिए कि वह 'उत्‍तम मनुष्‍य' का विस्तार करे| अपने  जीवन में धर्मपरक मार्गों का आलम्बन करते हुए मननशील होकर  'उत्‍तम मनुष्‍य' के निर्माण में यत्न करता रहे || ६ ||

ऋग्‍वेद के इस मंत्र में की गई 'उत्‍तम मनुष्‍य' की व्‍याख्‍या आज  जैसे कोरी कल्‍पना बन चुकी है। मनुष्‍यता अपने निकृष्‍टतम स्‍तर  पर जा पहुंची है। पहले यह 'उत्‍तम मनुष्‍य' की जगह निजी स्‍तर  पर 'उत्‍तम संतान' अथवा 'उत्‍तम शिष्‍य' तक सिमटी, और फिर  इससे भी नीचे 'सिर्फ संतान' व 'सिर्फ शिष्‍य' पर आकर ठहर गई। 
और अब तो उत्तम मनुष्‍य जैसी कोई व्‍याख्‍या रह ही नहीं गई है। संतान और शिष्‍य को कमोडिटी के तौर पर इस्‍तेमाल करने के इस काल में कमोडिटी को हानि-लाभ के तौर परखा जाता है। फिर इनसे मानवता और मानवीय संवेदना की अपेक्षा करना क्‍या उचित होगा।

बाल सुधारगृह, बच्‍चा जेल की अवधारणा तक आ पहुंचे हम क्‍या  अपने गिरेबां में झांक कर देखने की हिम्‍मत करेंगे?

यकीन मानिए कि जिस दिन हम ''अपनी ओर'' देख पाऐंगे, उसी  दिन से उत्‍तम मनुष्‍य की अवधारणा पुन: प्रत्‍यक्ष होने लगेगी  लगेंगे। आज भी जो अपनी ओर देख पा रहे हैं तथा आत्‍मचिंतन  करने में समर्थ हैं वे आईआईटियन हों या एमएनसी के सीईओ,  सभी अपने देश की गौरवशाली परंपरा एवं आध्‍यात्‍मिक जीवनशैली  की ओर लौटते दिखाई दे रहे हैं...बच्‍चों के आपराधिक बनने जैसी  विडंबना के बीच यह सुखद परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है। 
अब बस बाकी है उस पारिवारिक एवं सामाजिक ताने बाने को  पुनर्स्‍थापित करना जो समाज के लिए कमोडिटी नहीं, श्रेष्‍ठतर  मनुष्‍य उत्‍पन्‍न करने का मार्ग प्रशस्‍त करता है।

- अलकनंदा सिंह
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