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शोरगुल के माध्यम से अपनी पहचान बनाने व बताने वाला धर्म किसी भी कोण से किसी का भी लाभ नहीं कर सकता। ध्यान लगाने के लिए भी शांति जरूरी होती है, ना कि शोर। तेज आवाज़ के साथ कही गई सही बात भी अपना वज़न खो देती है और तेज बजने वाला मधुर से मधुर संगीत भी किसी को प्रिय नहीं लग सकता।
ऐसे में धार्मिक स्थलों पर लगे लाउडस्पीकर्स के बारे में ध्वनि प्रदूषण अधिनियम के तहत कड़ी कार्यवाही न करने को लेकर राज्य सरकार से इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा जवाब तलब करना आशा जगाता है कि हर गली-कूचे में स्थापित धर्म स्थलों से आने वाली कानफोड़ू आवाजें शायद अब जीना हराम नहीं करेंगी।
विगत वर्ष दिसंबर में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने धार्मिक स्थलों में बज रहे लाउडस्पीकर्स पर कड़ी नाराजगी जताई थी। हाईकोर्ट ने इस मामले में उच्चाधिकारियों को फटकार लगाकर कार्यवाही के लिए हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है।
यह आदेश मोतीलाल यादव की तरफ से दायर की गई याचिका की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने दिया था।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस अब्दुल मोइन की बेंच ने कहा था कि प्रमुख सचिव गृह, सिविल सचिवालय और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन अलग-अलग व्यक्तिगत हलफनामा देकर छह हफ्ते में बताएं कि ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए उन्होंने क्या किया? इस मामले की अगली सुनवाई अगले महीने यानि 1 फरवरी 2018 को है।
इसके अलावा हाईकोर्ट ने विभिन्न जुलूसों और शादी बरातों से हो रहे ध्वनि प्रदूषण को लेकर भी कार्यवाही करने को कहा है।
हाईकोर्ट के आदेश की कॉपी सहित गृह विभाग ने सभी जिलों के डीएम को पत्र भेजकर धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाए जाने के बाद रिपोर्ट मांगी है।
इसमें कहा गया है कि बिना अनुमति के लगाये गए लाउडस्पीकर हटाये जाएंगे। अनुमति 15 जनवरी तक ले लेनी होगी। 15 जनवरी के बाद किसी भी संस्थान को अनुमति नहीं दी जाएगी। 16 जनवरी से जिलों में बाकायदा अभियान चलाकर बिना अनुमति बजाए रहे लाउडस्पीकर हटाने का काम शुरू किया जाएगा। यह अभियान 20 जनवरी तक चलेगा और फिर इसकी रिपोर्ट शासन को भेजी जाएगी।
यूं भी मेडीकल साइंस ने तो बाकायदा किसी भी तरह के शोर, ध्वनियों के धमाके को न केवल मनुष्य के लिए बल्कि प्रकृति के हर अंश के लिए प्राणघातक बताया है। संवेदना और सकारात्मकता दोनों के लिए शांति आवश्यक है ना कि शोरगुल। ध्वनियों के प्रदूषण ने आजकल हर तीसरे व्यक्ति को आक्रामक और गुस्सैल बना दिया है, नतीजतन शरीर और मन दोनों बीमार हो रहे हैं। इस तरह बीमार बने हम 'जिस सुख की कल्पना' पाले बाबाओं-मौलवियों की चौखटों तक जा पहुंचते हैं 'वही सुख' हमारे किसी धर्मस्थल, किसी शादी-ब्याह या किसी अन्य समारोह द्वारा 'अपने-अपने लाउडस्पीकर्स' के ज़रिए पहले ही छीना जा चुका है।
हम यदि ये भ्रम पाले हुए हैं कि हमारे गली, मोहल्ले, सामाजिक समारोह स्थल व धार्मिक स्थल लाउडस्पीकर्स के साथ ही गुंजायमान होंगे तो हमने जान-बूझकर अपनी दर्दनाक मौत को बुला रखा है।
बहरहाल, हाईकोर्ट की सख्ती और उप्र. सरकार की तत्परता से बौखलाए द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद और देवबंद के उलेमा अपने अपने तरीके से इस कदम की आलोचना करने में जुट गए हैं, मगर वो ये भूल रहे हैं कि एक मठ की महंताई से ऊपर उठकर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ जब अंधविश्वासों को धता बताकर नोएडा जा सकते हैं, कुंभ में शंकराचार्यों को 'नियम विरुद्ध' ज़मीन मुहैया कराने से इंकार कर सकते हैं, ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी के लिए दंडी स्वामियों को शास्त्रार्थ की परंपरा आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं और सनातन धर्म में फैली कुरीतियों को दूर कर जानजाग्रति फैलाने का काम कर सकते हैं, मदरसों की गतिविधियों और मौलवियों की ''खाऊ-उड़ाऊ'' संस्कृति को सर्विलांस पर ले सकते हैं, वह ध्वनिप्रदूषण की बावत कठिन से कठिन कदम भी उठा सकते हैं।
जो भी हो, हमें तो यह आशा करनी ही चाहिए कि कम से कम उत्तर प्रदेश को तो निकट भविष्य में इस नाजायज शोर से मुक्ति मिल जाएगी और जो लाडस्पीकर्स बजाए भी जाऐंगे, वे अपनी हदें पार नहीं कर सकेंगे।
-अलकनंदा सिंह
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