आज मकर संक्रांति है, मुझे अपना बचपन याद आ रहा है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में बीता और जहां ''संक्राति' को ''खिचराईं'' कहा जाता है।
आज के दिन वहां घर की औरतों में एक कहावत बहुतायत से कही जाती रही है और वो कहावत रसोई में औरतों की संघशक्ति व स्वादग्रहण की रोचक विधि बताती है।
जैसे कि बड़ी बहन समान जेठानी, देवरानी से कहती है-
''तात तात खिचरी, जूड़ जूड़ घिउ,
खालेउ द्विउरनिया जुड़ाय जाय जिउ।''
यूं तो खिचड़ी पर और भी कहावतें हैं वहां, जैसे...खाने के बाद बर्तन मलने के आलस्य को कुछ यूं इज्ज़त बख्शी गई है-
''खिचड़ी खात नीक लागे, बटुली मलत पे बथे।''
खिचड़ी खाने के समय को स्वास्थ्य से जोड़ते हुए कहा जाता है कि-
''माघ मास घी खिचरी खाय, फागुन उठि के प्रातः नहाय।''
स्वाद बढ़ाने को और बच्चों में इसके प्रति मोह जगाने को कह कह के सुनाया जाता है-
''खिंचड़ी के चारी इआर, दही, पापर, घी, अचार।''
बहरहाल, मैं अपने बचपन की इन खूबसूरत यादों से निकल पाती इससे पहले ही देखती हूं कि आज मीडिया में तरह-तरह के मैसेज तैर रहे हैं।
कोई मकर संक्रांति का महत्व बता रहा है तो कोई संस्कृत में भीष्म पितामह द्वारा बताए गए उत्तरायण को व्याख्यायित कर रहा है। इन प्रवचनों से थोड़ा बाहर निकलें तो अलग-अलग तरह की खिचड़ी पकाई जा रही है। इटैलियन रिसोतो से लेकर गुजराती खिचड़ी तक सब उपलब्ध है, और वो भी फ्री में। जो भी हो, सोशल मीडिया ने खिचड़ी का कारपोरेटाइजेशन कर ही दिया है। इसके लिए उसे धन्यवाद...अब वह हमारी दादी-नानी-काकी सब बन गया है।
तमाम बुराइयों के साथ सोशल मीडिया को हमें इस बात का धन्यवाद देना ही होगा कि उसने बीमारों का खाना बताकर नाक-भौं सिकोड़ने वालों के सामने अब इसे गरियाने के सारे रास्ते बंद कर दिये हैं। हमने अगर पहले ही खिचड़ी को ''हाईलेवल'' भोज्यपदार्थ मान लिया होता तो आज हमें ही हमारी दादी-नानी-काकी की ये रेसिपी यूं ना बताई जा रही होती। और तो और ''कथित तौर पर संभ्रांत'' कहलाने के चक्कर में आज हमें अपनी नाक यों घुमाकर ना पकड़नी पड़ रही होती।
पहले आज के कुछ प्रवचन खिचड़ी के इस त्यौहार पर सुनिये-
इस दिन से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है यानी मकर रेखा के बिलकुल ऊपर होता है। वहाँ से धीरे-धीरे मेष राशि में प्रवेश करने के बाद छह महीने बाद कर्क राशि में प्रवेश करता है।
इसी के आधार पर ऋतु परिवर्तन होता है। मकर संक्रांति के दिन से उत्तरायण में दिन का समय बढ़ना और रात्रि का समय घटना शुरू हो जाता है।
कई राज्यों में इस दिन अलग-अलग राज्यों में तिल-गुड़ की गजक, रेवड़ी, लड्डू खाने और उपहार में देने की परंपरा भी है।
चावल बाहुल्य वाले बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में इस पर्व को ' खिचड़ी' या 'खिचराईं' के नाम से मनाया जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में इस दिन खिचड़ी पकाई और खाई जाती है। कई जगह दाल और चावल दान करने की परंपरा है जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर बाजरे की खिचड़ी पकाई और खाई जाती है।
अब मैं अपनी बात आज की खिचराईं पर मुबारकबाद देते हुए इस तरह खत्म करती हूं कि -
“ज्यादा खाये जल्द मरि जाय,
सुखी रहे जो थोड़ा खाय।
रहे निरोगी जो कम खाये,
बिगरे काम न जो गम खाये।”
अंत में बस इतना कहना चाहती हूं कि कुछ ऐसी कहावतें जो हमारे भीतर आज भी स्पंदन जगाती हैं, संयुक्त परिवारों की याद दिलाती हैं, स्वाद और सेहत के प्रति जागरूक करती हैं उनमें सर्वाधिक पढ़े-लिखों की ''खिचड़ी'' यानि हम जैसों की ''खिचराईं'' को लेकर बनी कहावतें भी शामिल हैं।
आज भी हम अपने बचपन को गुनगुना लेते हैं इन्हीं के बहाने, वरना तो...यू नो...????????????
-अलकनंदा सिंह
आज के दिन वहां घर की औरतों में एक कहावत बहुतायत से कही जाती रही है और वो कहावत रसोई में औरतों की संघशक्ति व स्वादग्रहण की रोचक विधि बताती है।
जैसे कि बड़ी बहन समान जेठानी, देवरानी से कहती है-
''तात तात खिचरी, जूड़ जूड़ घिउ,
खालेउ द्विउरनिया जुड़ाय जाय जिउ।''
यूं तो खिचड़ी पर और भी कहावतें हैं वहां, जैसे...खाने के बाद बर्तन मलने के आलस्य को कुछ यूं इज्ज़त बख्शी गई है-
''खिचड़ी खात नीक लागे, बटुली मलत पे बथे।''
खिचड़ी खाने के समय को स्वास्थ्य से जोड़ते हुए कहा जाता है कि-
''माघ मास घी खिचरी खाय, फागुन उठि के प्रातः नहाय।''
स्वाद बढ़ाने को और बच्चों में इसके प्रति मोह जगाने को कह कह के सुनाया जाता है-
''खिंचड़ी के चारी इआर, दही, पापर, घी, अचार।''
बहरहाल, मैं अपने बचपन की इन खूबसूरत यादों से निकल पाती इससे पहले ही देखती हूं कि आज मीडिया में तरह-तरह के मैसेज तैर रहे हैं।
कोई मकर संक्रांति का महत्व बता रहा है तो कोई संस्कृत में भीष्म पितामह द्वारा बताए गए उत्तरायण को व्याख्यायित कर रहा है। इन प्रवचनों से थोड़ा बाहर निकलें तो अलग-अलग तरह की खिचड़ी पकाई जा रही है। इटैलियन रिसोतो से लेकर गुजराती खिचड़ी तक सब उपलब्ध है, और वो भी फ्री में। जो भी हो, सोशल मीडिया ने खिचड़ी का कारपोरेटाइजेशन कर ही दिया है। इसके लिए उसे धन्यवाद...अब वह हमारी दादी-नानी-काकी सब बन गया है।
तमाम बुराइयों के साथ सोशल मीडिया को हमें इस बात का धन्यवाद देना ही होगा कि उसने बीमारों का खाना बताकर नाक-भौं सिकोड़ने वालों के सामने अब इसे गरियाने के सारे रास्ते बंद कर दिये हैं। हमने अगर पहले ही खिचड़ी को ''हाईलेवल'' भोज्यपदार्थ मान लिया होता तो आज हमें ही हमारी दादी-नानी-काकी की ये रेसिपी यूं ना बताई जा रही होती। और तो और ''कथित तौर पर संभ्रांत'' कहलाने के चक्कर में आज हमें अपनी नाक यों घुमाकर ना पकड़नी पड़ रही होती।
पहले आज के कुछ प्रवचन खिचड़ी के इस त्यौहार पर सुनिये-
इस दिन से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है यानी मकर रेखा के बिलकुल ऊपर होता है। वहाँ से धीरे-धीरे मेष राशि में प्रवेश करने के बाद छह महीने बाद कर्क राशि में प्रवेश करता है।
इसी के आधार पर ऋतु परिवर्तन होता है। मकर संक्रांति के दिन से उत्तरायण में दिन का समय बढ़ना और रात्रि का समय घटना शुरू हो जाता है।
कई राज्यों में इस दिन अलग-अलग राज्यों में तिल-गुड़ की गजक, रेवड़ी, लड्डू खाने और उपहार में देने की परंपरा भी है।
चावल बाहुल्य वाले बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में इस पर्व को ' खिचड़ी' या 'खिचराईं' के नाम से मनाया जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में इस दिन खिचड़ी पकाई और खाई जाती है। कई जगह दाल और चावल दान करने की परंपरा है जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर बाजरे की खिचड़ी पकाई और खाई जाती है।
अब मैं अपनी बात आज की खिचराईं पर मुबारकबाद देते हुए इस तरह खत्म करती हूं कि -
“ज्यादा खाये जल्द मरि जाय,
सुखी रहे जो थोड़ा खाय।
रहे निरोगी जो कम खाये,
बिगरे काम न जो गम खाये।”
अंत में बस इतना कहना चाहती हूं कि कुछ ऐसी कहावतें जो हमारे भीतर आज भी स्पंदन जगाती हैं, संयुक्त परिवारों की याद दिलाती हैं, स्वाद और सेहत के प्रति जागरूक करती हैं उनमें सर्वाधिक पढ़े-लिखों की ''खिचड़ी'' यानि हम जैसों की ''खिचराईं'' को लेकर बनी कहावतें भी शामिल हैं।
आज भी हम अपने बचपन को गुनगुना लेते हैं इन्हीं के बहाने, वरना तो...यू नो...????????????
-अलकनंदा सिंह
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