आज के विषय पर सबसे पहले पढ़िए मेरे चंद अशआर.....
ये परेशानियां जिस्मानी नहीं हैं
ये ख्वाहिशें रूमानी नहीं हैं
और ये खिलाफतें भी रूहानी नहीं हैं
कि अब ये आवाज़ें उठ रही हैं
उन जमींदोज वज़ूदों की जानिब से,
आहिस्ता-आहिस्ता से,
तो कहीं पूरे ज़ोर शोर से
गोया अब शिद्दतें अंजाम तक पहुंचेंगी
कि लिखी जा रही हैं नई इबारतें।
देश ज़ुदा हैं...परेशानियां भी ज़ुदा...मगर अब मुस्लिम महिलाओं ने अपनी आवाज़ उठाना शुरू कर दिया है और अब ये आवाज़ें भारत व अफगानिस्तान से होकर ईरान तक पहुंच चुकी हैं। ये उनकी संगठनात्मक शक्ति का ही उदाहरण हैं।
आप भी क्रमवार नज़र डालिए इन अभियानों पर-
भारत में लिखी गई नई इबारत-
वज़ूद मापने की यदि कोई इकाई होती तो आज इसकी सर्वाधिक जरूरत मुस्लिम महिलाओं को होती। खुशखबरी है कि भारतीय मुस्लिम महिलाएं नए साल आने तक उठ खड़ी हुई हैं, वे उठ खड़ी हुई हैं उन बंदिशों के खि़लाफ जो उनके वज़ूद पर भारी पड़ रहीं थीं। उनकी संगठनात्मक भावना प्रबल हुई तभी तो सुप्रीम कोर्ट के रास्ते तीन तलाक़ बिल लोकसभा में पास हो पाया।
नाइश हसन, अंबर ज़ैदी, रूबिका लियाक़त, ताहिरा हसन, शाइस्ता अंबर से शुरू हुआ ये सफर आखिर में इशरत जहां तक आकर ठहरा नहीं है। पानी की तरह इन महिलाओं ने चट्टानों के बीच से रास्ता निकाल लिया है। मौलानाओं द्वारा स्थापित रेगुलेटरी-बॉडीज को नारी शक्ति ने धता बताई है। मुस्लिम महिलाओं ने जता दिया है कि पुरुष अब अपने बनाए नियमों को फिर से खंगालें। बहरहाल, भारतीय मुस्लिम महिलाओं का तो ये आग़ाज़ है जिसे अंजाम तक चलते जाना है।
उनकी इस जद्दोजहद की ये जीत ही तो है कि 2017 के आखिरी रेडियो संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ''मन की बात'' के तहत यह बात उल्लेख न की जाती कि अब मुस्लिम महिलाओं को बिना ''महरम'' के ही ''हज पर जाने की सुविधा'' सरकार ने शुरू कर दी है और इसमें तमाम महिलाओं ने स्वयं को हज पर जाने के लिए एनरोल भी करा लिया है। अब तक हज पर जाने के लिए ''महरम'' यानि पुरुष अभिभावक का होना महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी माना जाता था मगर अब कोई महिला यदि अकेले हज पर जाना चाहती है तो उसे ''महरम'' के नाम पर रोका नहीं जा सकता।
अफगानिस्तान #WhereIsMyName हैशटैग ने छेड़ा 'अजी-सुनती हो' कहने के खिलाफ अभियान -
भारत की ही तरह गुजिश्ता साल में कट्टरपंथ की आग से सुलगते अफगानिस्तान के अंदर भी वज़ूद के लिए बदलाव की आहट भी सुनने को मिली।
गौरतलब है कि इस मुल्क में महिलाओं के नाम लेने का चलन नहीं है। उनको किसी की बेगम, बहन, बेटी या मां के रूप में ही संबोधित किया जाता है। इस मामले में खास बात यह है कि अफगान समाज में महिलाओं का नाम लेना एक तरह से गुस्सा जाहिर करना माना जाता है और यदा-कदा इसको अपमान के रूप में भी लिया जाता है। अब इसके खिलाफ अफगानी महिलाओं ने आवाज़ उठानी शुरू दी है। वे चाहती हैं कि वे अपने नाम से पहचानी जाएं।
अफगान कानून के तहत जन्म प्रमाणपत्र में मां का नाम भी दर्ज नहीं होता। इन सबके खिलाफ बदलाव की मांग अफगान समाज के भीतर से ही उठी है। सोशल मीडिया में अफगानिस्तान की महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं ने #WhereIsMyName से एक अभियान शुरू किया, इस अभियान के माध्यम से महिलाएं इस व्यवस्था में बदलाव की मांग करते हुए चाहती हैं कि उनको उनके नाम से संबोधित किया जाना चाहिए। कुछ महीनों पहले शुरू हुए इस हैशटेग अभियान में हजारों महिलाएं शामिल हुई, साथ ही खुशखबरी ये है कि महिलाओं के साथ प्रगतिवादी पुरुष भी उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, हौसला बढ़ा रहे हैं।
इस अभियान से जुड़ी महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है-
गुमनामी की जिंदगी से बाहर निकलने के लिए शुरू किए गए इस अभियान से जुड़ी महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि अफगानिस्तान में महिलाओं के नाम लेने के मामले में ऐसी पुरातनपंथी सोच है कि महिलाएं बिना किसी निजी शिनाख्त के ही अपना जीवन बसर करती हैं। यहां तक कि अंतिम संस्कार के समय भी महिलाओं का नाम नहीं लिया जाता और कब्र के पत्थर पर भी उनका नाम नहीं लिखवाया जाता, इसलिए मौत के बाद वह सिर्फ एक ऐसी कब्र बनकर रह जाती हैं जिसकी कोई पहचान तक नहीं होती। कब्र का पत्थर भी उन्हें शायद ही पहचान पाता हो।
मुस्लिम महिलाओं की ऐसी ही जद्दोजहद अब ईरान में भी कट्टरपंथी आयतुल्ला खमैनी शासन के शुरू हो चुकी है और उसकी गंभीरता का अंदाज सड़कों पर उमड़ रही आंदोलनकारियों की उस भीड़ से लगाया जा सकता है, जिसमें कई दर्जन लोग मारे जा चुके हैं लेकिन आंदोलन फिर भी जारी है। अच्छी बात ये है कि यहां भी प्रगतिवादी ईरानी युवक महिलाओं के कंधे से कंधा मिलाकर शासक वर्ग की गोलियां झेलने को सड़कों पर मौजूद हैं।
बहरहाल, मैं फिर से बात भारत की मुस्लिम महिलाओं की संगठनात्मक शक्ति की ही करूंगी जिन्हें मौलवियों के कट्टरवादी रवैये के खिलाफ सरकार का भी साथ भी मिल रहा है। हालांकि, अब भी ज्यादातर महिलाऐं पारिवारिक मोर्चे पर अकेली हैं और मौलवी कहते हैं कि तलाके-बिद्दत खत्म होने से तमाम ''घर बिगड़ेंगे'', मौलवी ये भी कहते हैं कि ''बिना महरम'' हज जाने वाली महिला को कयामत के रोज़ सज़ा दी जाएगी।
जो भी हो, अब तो मुस्लिम महिलायें ''मौलवियों की गिरफ्त से बाहर आ रही हैं'' और पूछ रही हैं आखिर ये कयामत कब होगी। आखिर सब कुछ जो प्रगतिवाद की ओर ले जाता है कि वह मुस्लिमविरोधी ही क्यों हो जाता है। महिलाओं को कठपुतली बनाकर क्या मौलानाओं की हकीकत सामने नहीं आ गई। क्या एक महिला अकेली नहीं जा सकती। क्या मक्का तक जाने वाली अकेली महिला किसी के लिए खतरा हो सकती है। शरियत जब वजूद में आई तब उसे क्या ये पता था कि कंप्यूटर-स्मार्टफोन जैसी चीज दुनिया में आएगी या चांद के पार मंगल और धरती के अंदर तक का अध्ययन महिलाएं करेंगी।
प्रश्न बहुत हैं, बहसें भी बहुत, लेकिन सिलसिला तो अभी शुरू हुआ है...सफ़र लंबा जरूर है मगर इसकी मंज़िल एकदम स्पष्ट है। हम प्रतीक्षा करते हैं और प्रार्थना भी कि इस वास्तविक आज़ादी के अभियान चलते रहें और मुकाम दर मुकाम अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ें।
-अलकनंदा सिंह
ये परेशानियां जिस्मानी नहीं हैं
ये ख्वाहिशें रूमानी नहीं हैं
और ये खिलाफतें भी रूहानी नहीं हैं
कि अब ये आवाज़ें उठ रही हैं
उन जमींदोज वज़ूदों की जानिब से,
आहिस्ता-आहिस्ता से,
तो कहीं पूरे ज़ोर शोर से
गोया अब शिद्दतें अंजाम तक पहुंचेंगी
कि लिखी जा रही हैं नई इबारतें।
देश ज़ुदा हैं...परेशानियां भी ज़ुदा...मगर अब मुस्लिम महिलाओं ने अपनी आवाज़ उठाना शुरू कर दिया है और अब ये आवाज़ें भारत व अफगानिस्तान से होकर ईरान तक पहुंच चुकी हैं। ये उनकी संगठनात्मक शक्ति का ही उदाहरण हैं।
आप भी क्रमवार नज़र डालिए इन अभियानों पर-
भारत में लिखी गई नई इबारत-
वज़ूद मापने की यदि कोई इकाई होती तो आज इसकी सर्वाधिक जरूरत मुस्लिम महिलाओं को होती। खुशखबरी है कि भारतीय मुस्लिम महिलाएं नए साल आने तक उठ खड़ी हुई हैं, वे उठ खड़ी हुई हैं उन बंदिशों के खि़लाफ जो उनके वज़ूद पर भारी पड़ रहीं थीं। उनकी संगठनात्मक भावना प्रबल हुई तभी तो सुप्रीम कोर्ट के रास्ते तीन तलाक़ बिल लोकसभा में पास हो पाया।
नाइश हसन, अंबर ज़ैदी, रूबिका लियाक़त, ताहिरा हसन, शाइस्ता अंबर से शुरू हुआ ये सफर आखिर में इशरत जहां तक आकर ठहरा नहीं है। पानी की तरह इन महिलाओं ने चट्टानों के बीच से रास्ता निकाल लिया है। मौलानाओं द्वारा स्थापित रेगुलेटरी-बॉडीज को नारी शक्ति ने धता बताई है। मुस्लिम महिलाओं ने जता दिया है कि पुरुष अब अपने बनाए नियमों को फिर से खंगालें। बहरहाल, भारतीय मुस्लिम महिलाओं का तो ये आग़ाज़ है जिसे अंजाम तक चलते जाना है।
उनकी इस जद्दोजहद की ये जीत ही तो है कि 2017 के आखिरी रेडियो संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ''मन की बात'' के तहत यह बात उल्लेख न की जाती कि अब मुस्लिम महिलाओं को बिना ''महरम'' के ही ''हज पर जाने की सुविधा'' सरकार ने शुरू कर दी है और इसमें तमाम महिलाओं ने स्वयं को हज पर जाने के लिए एनरोल भी करा लिया है। अब तक हज पर जाने के लिए ''महरम'' यानि पुरुष अभिभावक का होना महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी माना जाता था मगर अब कोई महिला यदि अकेले हज पर जाना चाहती है तो उसे ''महरम'' के नाम पर रोका नहीं जा सकता।
अफगानिस्तान #WhereIsMyName हैशटैग ने छेड़ा 'अजी-सुनती हो' कहने के खिलाफ अभियान -
भारत की ही तरह गुजिश्ता साल में कट्टरपंथ की आग से सुलगते अफगानिस्तान के अंदर भी वज़ूद के लिए बदलाव की आहट भी सुनने को मिली।
गौरतलब है कि इस मुल्क में महिलाओं के नाम लेने का चलन नहीं है। उनको किसी की बेगम, बहन, बेटी या मां के रूप में ही संबोधित किया जाता है। इस मामले में खास बात यह है कि अफगान समाज में महिलाओं का नाम लेना एक तरह से गुस्सा जाहिर करना माना जाता है और यदा-कदा इसको अपमान के रूप में भी लिया जाता है। अब इसके खिलाफ अफगानी महिलाओं ने आवाज़ उठानी शुरू दी है। वे चाहती हैं कि वे अपने नाम से पहचानी जाएं।
अफगान कानून के तहत जन्म प्रमाणपत्र में मां का नाम भी दर्ज नहीं होता। इन सबके खिलाफ बदलाव की मांग अफगान समाज के भीतर से ही उठी है। सोशल मीडिया में अफगानिस्तान की महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं ने #WhereIsMyName से एक अभियान शुरू किया, इस अभियान के माध्यम से महिलाएं इस व्यवस्था में बदलाव की मांग करते हुए चाहती हैं कि उनको उनके नाम से संबोधित किया जाना चाहिए। कुछ महीनों पहले शुरू हुए इस हैशटेग अभियान में हजारों महिलाएं शामिल हुई, साथ ही खुशखबरी ये है कि महिलाओं के साथ प्रगतिवादी पुरुष भी उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, हौसला बढ़ा रहे हैं।
इस अभियान से जुड़ी महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है-
गुमनामी की जिंदगी से बाहर निकलने के लिए शुरू किए गए इस अभियान से जुड़ी महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि अफगानिस्तान में महिलाओं के नाम लेने के मामले में ऐसी पुरातनपंथी सोच है कि महिलाएं बिना किसी निजी शिनाख्त के ही अपना जीवन बसर करती हैं। यहां तक कि अंतिम संस्कार के समय भी महिलाओं का नाम नहीं लिया जाता और कब्र के पत्थर पर भी उनका नाम नहीं लिखवाया जाता, इसलिए मौत के बाद वह सिर्फ एक ऐसी कब्र बनकर रह जाती हैं जिसकी कोई पहचान तक नहीं होती। कब्र का पत्थर भी उन्हें शायद ही पहचान पाता हो।
मुस्लिम महिलाओं की ऐसी ही जद्दोजहद अब ईरान में भी कट्टरपंथी आयतुल्ला खमैनी शासन के शुरू हो चुकी है और उसकी गंभीरता का अंदाज सड़कों पर उमड़ रही आंदोलनकारियों की उस भीड़ से लगाया जा सकता है, जिसमें कई दर्जन लोग मारे जा चुके हैं लेकिन आंदोलन फिर भी जारी है। अच्छी बात ये है कि यहां भी प्रगतिवादी ईरानी युवक महिलाओं के कंधे से कंधा मिलाकर शासक वर्ग की गोलियां झेलने को सड़कों पर मौजूद हैं।
बहरहाल, मैं फिर से बात भारत की मुस्लिम महिलाओं की संगठनात्मक शक्ति की ही करूंगी जिन्हें मौलवियों के कट्टरवादी रवैये के खिलाफ सरकार का भी साथ भी मिल रहा है। हालांकि, अब भी ज्यादातर महिलाऐं पारिवारिक मोर्चे पर अकेली हैं और मौलवी कहते हैं कि तलाके-बिद्दत खत्म होने से तमाम ''घर बिगड़ेंगे'', मौलवी ये भी कहते हैं कि ''बिना महरम'' हज जाने वाली महिला को कयामत के रोज़ सज़ा दी जाएगी।
जो भी हो, अब तो मुस्लिम महिलायें ''मौलवियों की गिरफ्त से बाहर आ रही हैं'' और पूछ रही हैं आखिर ये कयामत कब होगी। आखिर सब कुछ जो प्रगतिवाद की ओर ले जाता है कि वह मुस्लिमविरोधी ही क्यों हो जाता है। महिलाओं को कठपुतली बनाकर क्या मौलानाओं की हकीकत सामने नहीं आ गई। क्या एक महिला अकेली नहीं जा सकती। क्या मक्का तक जाने वाली अकेली महिला किसी के लिए खतरा हो सकती है। शरियत जब वजूद में आई तब उसे क्या ये पता था कि कंप्यूटर-स्मार्टफोन जैसी चीज दुनिया में आएगी या चांद के पार मंगल और धरती के अंदर तक का अध्ययन महिलाएं करेंगी।
प्रश्न बहुत हैं, बहसें भी बहुत, लेकिन सिलसिला तो अभी शुरू हुआ है...सफ़र लंबा जरूर है मगर इसकी मंज़िल एकदम स्पष्ट है। हम प्रतीक्षा करते हैं और प्रार्थना भी कि इस वास्तविक आज़ादी के अभियान चलते रहें और मुकाम दर मुकाम अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ें।
-अलकनंदा सिंह
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