साहित्यिक निरपेक्षता के लिए जब मौजूदा समय को संक्रमण काल कहा जा रहा है, तब आज ठीक नवमी के दिन निराला जी द्वारा रचित ‘राम की शक्ति पूजा’ के निहितार्थ समझ में आ रहे हैं। कल विजय दशमी है और कल ही साहित्य अकादमी की वो महत्वपूर्ण बैठक है जिसके बहाने तमाम साहित्यकार अपने भविष्य का रास्ता
तय करेंगे। कल की बैठक का जो भी लब्बोलुआब निकले, लेकिन आज मेरा ये लिखना
सर्वथा आवश्यक है कि तब आखिर ऐसा क्या था कि हमारे रचनाकार व साहित्यकार
जन- जन के दिलों तक समाए और राम की शक्ति पूजा (निराला) या कामायनी (
जयशंकर प्रसाद ) जैसी निरापद रचनायें दे सके। वे किसी भी शूरवीर नायक से
कमतर नहीं थे, तो आज ऐसा क्या हो गया है कि पूरी की पूरी रचनात्मकता ही
कठघरे में आ खड़ी हुई।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ रचना में यह भलीभंति उद्धृत किया है कि रावण को मारने से पूर्व जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आठ दिनों तक 108 नीलकमलों से यज्ञ करते हुए देवी महाशक्ति का आह्वान किया, तब नवें दिन 108 नीलकमलों में दो नीलकमल कम रह गए, देवी परीक्षा ले रही थीं क्योंकि राम तो दो नीलकमल लाने के लिए यज्ञ से उठ नहीं सकते थे, अचानक उन्हें याद आया कि बचपन में मां उन्हें राजीव-नयन कह कर बुलाती थीं…यानि जिनके नेत्र नीलकमल के समान हों, बस यह सोचते ही उन्होंने तूणीर साधा और अपने नेत्र निकालने को आतुर हो उठे… सत्य और निष्ठा के इस मार्ग पर उनके इस निर्भीक कदम का स्वयं देवी शक्ति ने स्वागत किया और सुविजय का आशीर्वाद दिया ।
निराला जी ने इस वृत्तांत को पढ़ते हुए आज भी वह पूरा का पूरा दृश्य आंखों के सामने आ जाता है और साथ ही आ जाता है वो साहस जो मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को युगों युगों तक के लिए प्रतिष्ठापित कर गया ।
कल साहित्य अकादमी की बैठक से पहले आज विक्रम सेठ और अनीता देसाई का भी अकादमी पुरस्कार लौटाने वाला धमकी भरा बयान छप गया कि वे भी ‘आहत’ हैं देश में फैल रही असहिष्णुता से। यह साहित्य अकादमी पर बेजां दबाव बनाने का एनआरआई प्रयास है।
दबाव तो वह भी बेजां ही रहा होगा कि जब मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब ने 7 अक्तूबर को ही कहा कि अगर आप सम्मान लौटा रहे हैं, तो इसका मतलब है कि आप थक चुके हैं, अपनी कलम पर आपको भरोसा नहीं है. लाख-डेढ़ लाख रुपये का सम्मान लौटाना बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात यह है कि आप अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को सुधारें.’ और अगले 10 – 12 दिनों में ही उनकी निष्ठा इस तरह बदलीं कि 18 अक्तूबर को स्वयं उन्होंने भी अपना अवार्ड लौटा दिया। वह अपने ही हौसलों वाले बयानों से मुकर गए, ठीक ऐसे ही जैसे कि अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल की कथित सहिष्णुता और निरपेक्षता दिखी।
कमाल की बात है ना कि साहित्यकार आदमी हैं या सिक्का, जिन्हें पलटने के लिए धार्मिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे शब्दों का सहारा लिया और सत्ताओं के खांचों ने आज के रचनाकारों की असल तस्वीर हम सबको दिखाई। यह कैसे संभव है कि एक ही जैसी घटनाएं किसी खास सत्ता काल में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल बन जाएं तो वैसी ही घटना किसी दूसरे सत्ताकाल में वक्ती जज़्बात का प्रदर्शन भर मानीं जाएं।
अब तो साहित्य अकादमी के हित और समाज के हित की बात करने वाले साहित्यकारों के कथन पर विश्वास करना भी मुश्किल हो रहा है कि कौन …क्यों…किसलिये…और कब कह रहा है। किसके कथन को सच मानें और किसे ड्रामेबाज कहें। जो कुछ भी रचनात्मक दिख रहा है वह कथित ”असहिष्णुता” के नाम पर लामबंदी के नाम स्वाहा हुआ जा रहा है।
आज गोपालदास नीरज जी ने कहा है कि साहित्यकार वर्तमान केंद्र सरकार को लांक्षित करके अपनी ‘अवार्ड लौटाऊ’ धमकियों से यह ज़ाहिर करवा रहे हैं कि वे पिछली सरकारों के किस तरह अंधभक्त रहे हैं। एक स्वायत्त संस्था साहित्य अकादमी को एक सरकारी संस्था की तरह ट्रीट करने वाले बुद्धिजनों के अपनी इस बकझक में ये भी याद नहीं रहा कि अतिरंजना में वे साहित्य अकादमी को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।
आज तो मुझे यह लिखने में भी डर लग रहा है कि मुनव्वर राणा साहब की तरह नीरज जी भी तो कहीं अपने पुरस्कार वापस करने नहीं जा रहे ???? किसकी बात पर भरोसा किया जाए।
कल दशहरा भी है, अपने सारे कुविचारों को फुल वॉशआउट करने का समय, जो हो रहा है अच्छा ही है, साहित्यिक जगत के लिए भी एक खास किस्म के नाजीवाद से मुक्ति का समय है ये। हमाम सबका सच सामने ला रहा है। एक और बात पक्की है कि आने वाली पीढ़ी आज के इन साहित्यकारों को रचनात्मकता के लिए नहीं बल्कि एक खास कॉकसगीरी के लिए याद करेगी। जहां साहित्यकार शब्दों की नहीं व्यक्ति की शक्ति पूजा कर रहे हैं। जहां देश पीछे रह गया है और उसे खांचों में बांटने वाले स्वयं को राम निरूपित करने में लगे हैं।
बहरहाल, पुरस्कार लौटाऊ साहित्यकारों का आंकड़ा जब ‘चालीसवें’ में चल रहा है तब समझ में आ रहा है कि निराला जी के ‘राम’ और उनकी ‘शक्ति पूजा’ की आज भी इतनी निरपेक्ष स्वीकार्यता कैसे संभव है। निश्चित ही वे महाप्राण निराला जी थे जो स्वार्थों से घिरे दशकंधरों (साहित्यकारों) के अहंकार का नाश करने की उक्ति, अपनी रचना के माध्यम से पहले ही बता गये।
अंत में उन्हीं की कृति ‘राम की शक्ति पूजा’ के 5वें भाग से ये पंक्तियां ….पढ़ें…..
“यह है उपाय”, कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीव नयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
“साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!”
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।
“होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
– अलकनंदा सिंह
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ रचना में यह भलीभंति उद्धृत किया है कि रावण को मारने से पूर्व जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आठ दिनों तक 108 नीलकमलों से यज्ञ करते हुए देवी महाशक्ति का आह्वान किया, तब नवें दिन 108 नीलकमलों में दो नीलकमल कम रह गए, देवी परीक्षा ले रही थीं क्योंकि राम तो दो नीलकमल लाने के लिए यज्ञ से उठ नहीं सकते थे, अचानक उन्हें याद आया कि बचपन में मां उन्हें राजीव-नयन कह कर बुलाती थीं…यानि जिनके नेत्र नीलकमल के समान हों, बस यह सोचते ही उन्होंने तूणीर साधा और अपने नेत्र निकालने को आतुर हो उठे… सत्य और निष्ठा के इस मार्ग पर उनके इस निर्भीक कदम का स्वयं देवी शक्ति ने स्वागत किया और सुविजय का आशीर्वाद दिया ।
निराला जी ने इस वृत्तांत को पढ़ते हुए आज भी वह पूरा का पूरा दृश्य आंखों के सामने आ जाता है और साथ ही आ जाता है वो साहस जो मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को युगों युगों तक के लिए प्रतिष्ठापित कर गया ।
कल साहित्य अकादमी की बैठक से पहले आज विक्रम सेठ और अनीता देसाई का भी अकादमी पुरस्कार लौटाने वाला धमकी भरा बयान छप गया कि वे भी ‘आहत’ हैं देश में फैल रही असहिष्णुता से। यह साहित्य अकादमी पर बेजां दबाव बनाने का एनआरआई प्रयास है।
दबाव तो वह भी बेजां ही रहा होगा कि जब मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब ने 7 अक्तूबर को ही कहा कि अगर आप सम्मान लौटा रहे हैं, तो इसका मतलब है कि आप थक चुके हैं, अपनी कलम पर आपको भरोसा नहीं है. लाख-डेढ़ लाख रुपये का सम्मान लौटाना बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात यह है कि आप अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को सुधारें.’ और अगले 10 – 12 दिनों में ही उनकी निष्ठा इस तरह बदलीं कि 18 अक्तूबर को स्वयं उन्होंने भी अपना अवार्ड लौटा दिया। वह अपने ही हौसलों वाले बयानों से मुकर गए, ठीक ऐसे ही जैसे कि अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल की कथित सहिष्णुता और निरपेक्षता दिखी।
कमाल की बात है ना कि साहित्यकार आदमी हैं या सिक्का, जिन्हें पलटने के लिए धार्मिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे शब्दों का सहारा लिया और सत्ताओं के खांचों ने आज के रचनाकारों की असल तस्वीर हम सबको दिखाई। यह कैसे संभव है कि एक ही जैसी घटनाएं किसी खास सत्ता काल में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल बन जाएं तो वैसी ही घटना किसी दूसरे सत्ताकाल में वक्ती जज़्बात का प्रदर्शन भर मानीं जाएं।
अब तो साहित्य अकादमी के हित और समाज के हित की बात करने वाले साहित्यकारों के कथन पर विश्वास करना भी मुश्किल हो रहा है कि कौन …क्यों…किसलिये…और कब कह रहा है। किसके कथन को सच मानें और किसे ड्रामेबाज कहें। जो कुछ भी रचनात्मक दिख रहा है वह कथित ”असहिष्णुता” के नाम पर लामबंदी के नाम स्वाहा हुआ जा रहा है।
आज गोपालदास नीरज जी ने कहा है कि साहित्यकार वर्तमान केंद्र सरकार को लांक्षित करके अपनी ‘अवार्ड लौटाऊ’ धमकियों से यह ज़ाहिर करवा रहे हैं कि वे पिछली सरकारों के किस तरह अंधभक्त रहे हैं। एक स्वायत्त संस्था साहित्य अकादमी को एक सरकारी संस्था की तरह ट्रीट करने वाले बुद्धिजनों के अपनी इस बकझक में ये भी याद नहीं रहा कि अतिरंजना में वे साहित्य अकादमी को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।
आज तो मुझे यह लिखने में भी डर लग रहा है कि मुनव्वर राणा साहब की तरह नीरज जी भी तो कहीं अपने पुरस्कार वापस करने नहीं जा रहे ???? किसकी बात पर भरोसा किया जाए।
कल दशहरा भी है, अपने सारे कुविचारों को फुल वॉशआउट करने का समय, जो हो रहा है अच्छा ही है, साहित्यिक जगत के लिए भी एक खास किस्म के नाजीवाद से मुक्ति का समय है ये। हमाम सबका सच सामने ला रहा है। एक और बात पक्की है कि आने वाली पीढ़ी आज के इन साहित्यकारों को रचनात्मकता के लिए नहीं बल्कि एक खास कॉकसगीरी के लिए याद करेगी। जहां साहित्यकार शब्दों की नहीं व्यक्ति की शक्ति पूजा कर रहे हैं। जहां देश पीछे रह गया है और उसे खांचों में बांटने वाले स्वयं को राम निरूपित करने में लगे हैं।
बहरहाल, पुरस्कार लौटाऊ साहित्यकारों का आंकड़ा जब ‘चालीसवें’ में चल रहा है तब समझ में आ रहा है कि निराला जी के ‘राम’ और उनकी ‘शक्ति पूजा’ की आज भी इतनी निरपेक्ष स्वीकार्यता कैसे संभव है। निश्चित ही वे महाप्राण निराला जी थे जो स्वार्थों से घिरे दशकंधरों (साहित्यकारों) के अहंकार का नाश करने की उक्ति, अपनी रचना के माध्यम से पहले ही बता गये।
अंत में उन्हीं की कृति ‘राम की शक्ति पूजा’ के 5वें भाग से ये पंक्तियां ….पढ़ें…..
“यह है उपाय”, कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीव नयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
“साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!”
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।
“होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
– अलकनंदा सिंह
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