उस दिन मैं मशहूर शायर निदा फ़ाजली साहब के बारे में पढ़ रहा था। 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ तो निदा फ़ाजली के अब्बा भी पाकिस्तान चले गए किंतु निदा फ़ाजली नहीं गए।
निदा फ़ाजली साहब का मानना था कि जो भी दंगे हो रहे हैं, उनका कारण हिंदू या मुसलमान नहीं हैं। उनका कारण इंसान हैं, चाहे उनका वास्ता किसी मजहब से हो। वो हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई।
निदा फ़ाजली के अनुसार इंसान जहां भी होगा, वहां वह ऐसे हालात पैदा कर लेगा क्योंकि वह उसकी फितरत में शामिल है।
1947 में हुए बंटवारे के वक्त निदा फ़ाजली कितने जवान रहे होंगे, इसका अंदाज तो लगाया जा सकता है किंतु यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि उस समय उनकी जो सोच थी, वह इतनी परिपक्व कैसे थी कि आज भी न केवल हिंदुस्तान के संदर्भ में बल्कि विश्वभर के संदर्भ में पूरी तरह सच्ची साबित हो रही है।
जरा विचार कीजिए कि यदि समस्या सिर्फ हिंदू या मुसलमान की होती तो दुनिया के उन तमाम मुल्कों में एक ही मजहब के लोग परस्पर एक दूसरे की जान के दुश्मन क्यों बने हुए हैं।
पाकिस्तान जैसे लगभग शत-प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले देश में आतंकवादी अपने ही निर्दोष भाई-बंधुओं का कत्ल क्यों कर रहे हैं। यहां तक कि उन मासूम बच्चों को भी निशाना बनाने से परहेज नहीं करते, जिन्हें ठीक से न मजहब का पता होता है और न वो उनके मकसद से वाकिफ होते हैं।
पाकिस्तान के अलावा सीरिया, ईरान, इराक और अफगानिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम मुस्लिम मुल्कों में कौम के रक्त पिपाशु सक्रिय हैं जिससे साबित होता है कि निदा फ़ाजली साहब सौ फीसद सही थे।
अब बात करें हिंदुस्तान की तो यहां भी सवाल हिंदू, मुस्लिम या सिख का नहीं है। सवाल उन लोगों का है जिनकी समूची राजनीति ही वैमनस्यता पर टिकी है।
चूंकि मुंसिफ भी वही हैं और मुज़रिम भी वही इसलिए उनकी पूरी भूमिका कभी सामने नहीं आ पाती। जितनी और जो आ भी पाती है, वह भी राजनीति की चौसर का हिस्सा होती है लिहाजा सबूत व गवाहों के अभाव में दम तोड़ देती है। वो देर-सवेर बेदाग साबित होते हैं।
राजनीति में सक्रिय ऐसे रक्त पिपाशु न तो किसी एक मजहब में हैं और न किसी एक दल में। यह हर दल में और हर मजहब में घुसे हुए हैं।
जहां तक इनकी सामर्थ्य का प्रश्न है तो वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके अपने दल और उनके अपने नेता भी उन पर लगाम लगाने में असमर्थ हैं क्योंकि वहां वोटों की राजनीति तथा सत्ता पर कायम रहने अथवा सत्ता कब्जाने की चाहत आड़े आ जाती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस दौर की राजनीति संभवत: राजनीति के उस मुकाम तक जा पहुंची है जहां से नीचे गिरने लायक कुछ बचा ही नहीं है। ऐसे में किसी कौम का कोई एक व्यक्ति मरे या सैकड़ों-हजारों मारे जाएं, राजनेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता।
कहीं उस गौवंश के नाम पर हिंसा की जाती है जो खुद अपने जीवन-यापन के लिए गली-गली और सड़क-सड़क आवारा घूम रहा है। कूड़े के ढेरों पर से गंदगी खाकर अपने उदर की पूर्ति कर रहा है…और कहीं मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों तथा धार्मिक ग्रंथों की आड़ में हिंसा के बीज बोए जा रहे हैं जहां से निकलने वाली हर आवाज़ तथा जिनमें दर्ज़ एक-एक शब्द मानवता का संदेश देता है…शांति का उद्घघोष करता है।
घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि समाज का वो बुद्धिजीवी तबका भी राजनेताओं की चाल में फंस रहा है जिससे उम्मीद की जाती है कि वह विषम परिस्थितियों या संक्रमण काल में समाज को दिशा दिखाने के लिए आगे आयेंगे।
चिंता इस बात की नहीं कि बुद्धिजीवी कहलाने वाले ये लोग देश के हालातों पर अपना रोष किस तरह प्रकट कर रहे हैं, चिंता इस बात की है कि उन्होंने अपना बुद्धि-विवेक ताक पर रख दिया है।
बुद्धिजीवियों की इस जमात से कोई यह पूछने वाला नहीं कि यदि उन्हें देश पर इतना बड़ा खतरा मंडराता नजर आ रहा है और सत्ता के शिखर पर बैठे व्यक्ति विशेष अथवा दल विशेष से इतनी ही निराशा है तो वह खुद समाज व देश को बचाने के लिए कौन से प्रयास कर रहे हैं।
क्या समाज व देश के प्रति उनकी जिम्मेदारी सिर्फ चंद रचनाएं लिख देने और उनकी एवज में पहले तो हर हथकंडा अपनाकर पुरस्कार हासिल करने तथा फिर उसी पुरस्कार को लौटा देने तक सीमित है। क्या इसके अलावा उनकी समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।
आज अपने पुरस्कार लौटाने वाले बुद्धिजीवियों व रचनाधर्मियों में से तमाम तो ऐसे हैं जिन्हें पुरस्कार लौटाने की घोषणा करने से पहले तक नई पीढ़ी जानती भी नहीं थी। आमजन को भी यह पता नहीं था कि उन्हें किस कार्य के लिए और कब पुरस्कृत किया गया जबकि मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम या शिवानी से आज भी समाज का एक बड़ा वर्ग वाकिफ़ है।
आज ही के दौर में अपनी रचनाओं के साथ-साथ अपनी शख्सि़यत के बल पर अलग पहचान रखने वाले दिग्गज शायर मुनव्वर राणा ने सही कहा है कि जो लोग पुरस्कार लौटा रहे हैं वह थके हुए लोग हैं और उन्हें अपनी योग्यता पर भरोसा नहीं रहा।
स्वतंत्रता के आंदोलन की ओर मुड़कर देखिए तो आपको मुनव्वर राणा की कही हुई बातों का अर्थ शायद समझ में आ जाए, जब अनेक रचनाधर्मियों, बुद्धिजीवियों तथा पत्रकारों ने कलम के साथ-साथ समाज के बीच सक्रिय होकर भी स्वतंत्रता सेनानियों का साथ निभाया था और उसकी खातिर जेलयात्रा भी की थी।
निदा फ़ाजली और मुनव्वर राणा जैसी शख्सियतों का मक़सद यदि तथाकथित बुद्धिजीवियों की समझ में आ जाए तो नि:संदेह कभी कोई राजनेता अपने नापाक इरादों में कामयाब नहीं हो सकता।
नाराजगी ज़ाहिर करना और समाज के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना हर इंसान का अधिकार भी है और कर्तव्य भी लेकिन यदि उस नाराजगी के पीछे कोई निजी स्वार्थ अथवा छद्म मकसद छिपा हो तो वह बेमानी हो जाती है। फिर राजनीति और नेकनीयती में फर्क कहां रह जाता है। यूं तो अक्सर राजनेता ही एक-दूसरे पर राजनीति करने का आरोप लगाते रहते हैं लेकिन वो तो राजनेता हैं, उनके आरोप-प्रत्यारोप भी राजनीति से परे नहीं हैं किंतु उनका क्या, जो कहलाते बुद्धिजीवी हैं लेकिन फिर भी राजनीति के शिकार हो रहे हैं।
इस सब को देखकर तो निदा फ़ाजली साहब का दर्शन शत-प्रतिशत सही साबित होता है कि समस्या जाति-धर्म या खान-पान नहीं है, समस्या इंसान खुद है। वो इंसान जिसे कदम-कदम पर इंसानियत सिखानी पड़ती है। यही एकमात्र ऐसी इकाई है, जो खुद को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना बताती है लेकिन इंसानियत के मौलिक धर्म से सर्वथा अनभिज्ञ है और जिसे मानव होते हुए मानवता का पाठ एक-दो मर्तबा नहीं, बार-बार पढ़ाना पड़ता है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
निदा फ़ाजली साहब का मानना था कि जो भी दंगे हो रहे हैं, उनका कारण हिंदू या मुसलमान नहीं हैं। उनका कारण इंसान हैं, चाहे उनका वास्ता किसी मजहब से हो। वो हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई।
निदा फ़ाजली के अनुसार इंसान जहां भी होगा, वहां वह ऐसे हालात पैदा कर लेगा क्योंकि वह उसकी फितरत में शामिल है।
1947 में हुए बंटवारे के वक्त निदा फ़ाजली कितने जवान रहे होंगे, इसका अंदाज तो लगाया जा सकता है किंतु यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि उस समय उनकी जो सोच थी, वह इतनी परिपक्व कैसे थी कि आज भी न केवल हिंदुस्तान के संदर्भ में बल्कि विश्वभर के संदर्भ में पूरी तरह सच्ची साबित हो रही है।
जरा विचार कीजिए कि यदि समस्या सिर्फ हिंदू या मुसलमान की होती तो दुनिया के उन तमाम मुल्कों में एक ही मजहब के लोग परस्पर एक दूसरे की जान के दुश्मन क्यों बने हुए हैं।
पाकिस्तान जैसे लगभग शत-प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले देश में आतंकवादी अपने ही निर्दोष भाई-बंधुओं का कत्ल क्यों कर रहे हैं। यहां तक कि उन मासूम बच्चों को भी निशाना बनाने से परहेज नहीं करते, जिन्हें ठीक से न मजहब का पता होता है और न वो उनके मकसद से वाकिफ होते हैं।
पाकिस्तान के अलावा सीरिया, ईरान, इराक और अफगानिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम मुस्लिम मुल्कों में कौम के रक्त पिपाशु सक्रिय हैं जिससे साबित होता है कि निदा फ़ाजली साहब सौ फीसद सही थे।
अब बात करें हिंदुस्तान की तो यहां भी सवाल हिंदू, मुस्लिम या सिख का नहीं है। सवाल उन लोगों का है जिनकी समूची राजनीति ही वैमनस्यता पर टिकी है।
चूंकि मुंसिफ भी वही हैं और मुज़रिम भी वही इसलिए उनकी पूरी भूमिका कभी सामने नहीं आ पाती। जितनी और जो आ भी पाती है, वह भी राजनीति की चौसर का हिस्सा होती है लिहाजा सबूत व गवाहों के अभाव में दम तोड़ देती है। वो देर-सवेर बेदाग साबित होते हैं।
राजनीति में सक्रिय ऐसे रक्त पिपाशु न तो किसी एक मजहब में हैं और न किसी एक दल में। यह हर दल में और हर मजहब में घुसे हुए हैं।
जहां तक इनकी सामर्थ्य का प्रश्न है तो वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके अपने दल और उनके अपने नेता भी उन पर लगाम लगाने में असमर्थ हैं क्योंकि वहां वोटों की राजनीति तथा सत्ता पर कायम रहने अथवा सत्ता कब्जाने की चाहत आड़े आ जाती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस दौर की राजनीति संभवत: राजनीति के उस मुकाम तक जा पहुंची है जहां से नीचे गिरने लायक कुछ बचा ही नहीं है। ऐसे में किसी कौम का कोई एक व्यक्ति मरे या सैकड़ों-हजारों मारे जाएं, राजनेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता।
कहीं उस गौवंश के नाम पर हिंसा की जाती है जो खुद अपने जीवन-यापन के लिए गली-गली और सड़क-सड़क आवारा घूम रहा है। कूड़े के ढेरों पर से गंदगी खाकर अपने उदर की पूर्ति कर रहा है…और कहीं मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों तथा धार्मिक ग्रंथों की आड़ में हिंसा के बीज बोए जा रहे हैं जहां से निकलने वाली हर आवाज़ तथा जिनमें दर्ज़ एक-एक शब्द मानवता का संदेश देता है…शांति का उद्घघोष करता है।
घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि समाज का वो बुद्धिजीवी तबका भी राजनेताओं की चाल में फंस रहा है जिससे उम्मीद की जाती है कि वह विषम परिस्थितियों या संक्रमण काल में समाज को दिशा दिखाने के लिए आगे आयेंगे।
चिंता इस बात की नहीं कि बुद्धिजीवी कहलाने वाले ये लोग देश के हालातों पर अपना रोष किस तरह प्रकट कर रहे हैं, चिंता इस बात की है कि उन्होंने अपना बुद्धि-विवेक ताक पर रख दिया है।
बुद्धिजीवियों की इस जमात से कोई यह पूछने वाला नहीं कि यदि उन्हें देश पर इतना बड़ा खतरा मंडराता नजर आ रहा है और सत्ता के शिखर पर बैठे व्यक्ति विशेष अथवा दल विशेष से इतनी ही निराशा है तो वह खुद समाज व देश को बचाने के लिए कौन से प्रयास कर रहे हैं।
क्या समाज व देश के प्रति उनकी जिम्मेदारी सिर्फ चंद रचनाएं लिख देने और उनकी एवज में पहले तो हर हथकंडा अपनाकर पुरस्कार हासिल करने तथा फिर उसी पुरस्कार को लौटा देने तक सीमित है। क्या इसके अलावा उनकी समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।
आज अपने पुरस्कार लौटाने वाले बुद्धिजीवियों व रचनाधर्मियों में से तमाम तो ऐसे हैं जिन्हें पुरस्कार लौटाने की घोषणा करने से पहले तक नई पीढ़ी जानती भी नहीं थी। आमजन को भी यह पता नहीं था कि उन्हें किस कार्य के लिए और कब पुरस्कृत किया गया जबकि मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम या शिवानी से आज भी समाज का एक बड़ा वर्ग वाकिफ़ है।
आज ही के दौर में अपनी रचनाओं के साथ-साथ अपनी शख्सि़यत के बल पर अलग पहचान रखने वाले दिग्गज शायर मुनव्वर राणा ने सही कहा है कि जो लोग पुरस्कार लौटा रहे हैं वह थके हुए लोग हैं और उन्हें अपनी योग्यता पर भरोसा नहीं रहा।
स्वतंत्रता के आंदोलन की ओर मुड़कर देखिए तो आपको मुनव्वर राणा की कही हुई बातों का अर्थ शायद समझ में आ जाए, जब अनेक रचनाधर्मियों, बुद्धिजीवियों तथा पत्रकारों ने कलम के साथ-साथ समाज के बीच सक्रिय होकर भी स्वतंत्रता सेनानियों का साथ निभाया था और उसकी खातिर जेलयात्रा भी की थी।
निदा फ़ाजली और मुनव्वर राणा जैसी शख्सियतों का मक़सद यदि तथाकथित बुद्धिजीवियों की समझ में आ जाए तो नि:संदेह कभी कोई राजनेता अपने नापाक इरादों में कामयाब नहीं हो सकता।
नाराजगी ज़ाहिर करना और समाज के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना हर इंसान का अधिकार भी है और कर्तव्य भी लेकिन यदि उस नाराजगी के पीछे कोई निजी स्वार्थ अथवा छद्म मकसद छिपा हो तो वह बेमानी हो जाती है। फिर राजनीति और नेकनीयती में फर्क कहां रह जाता है। यूं तो अक्सर राजनेता ही एक-दूसरे पर राजनीति करने का आरोप लगाते रहते हैं लेकिन वो तो राजनेता हैं, उनके आरोप-प्रत्यारोप भी राजनीति से परे नहीं हैं किंतु उनका क्या, जो कहलाते बुद्धिजीवी हैं लेकिन फिर भी राजनीति के शिकार हो रहे हैं।
इस सब को देखकर तो निदा फ़ाजली साहब का दर्शन शत-प्रतिशत सही साबित होता है कि समस्या जाति-धर्म या खान-पान नहीं है, समस्या इंसान खुद है। वो इंसान जिसे कदम-कदम पर इंसानियत सिखानी पड़ती है। यही एकमात्र ऐसी इकाई है, जो खुद को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना बताती है लेकिन इंसानियत के मौलिक धर्म से सर्वथा अनभिज्ञ है और जिसे मानव होते हुए मानवता का पाठ एक-दो मर्तबा नहीं, बार-बार पढ़ाना पड़ता है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें