आमजन के बीच पॉकेटबुक्स का चलन चलाने वाले और 1963 से अब तक 291 थ्रिलर व
जासूसी उपन्यास लिखने वाले सुरेंद्रमोहन पाठक को साहित्य जगत ने अपनी
बिरादरी से छेक कर रखा है, लिहाजा उन्हें कोई पुरस्कार मिलने का तो सवाल ही
पैदा नहीं होता, फिर भी वह आज मोस्ट सेलेबल लेखक हैं। सुरेंद्रमोहन पाठक
का दावा है कि उनकी मौत के बाद पॉकेटबुक्स का बाजार ही बंद हो जाएगा। जहाज
का पंछी की तो सिर्फ 15 दिन में डेढ़ लाख कॉपी निकल गईं।
जो स्वयं ही अपने प्रकाशक के खिलाफ लिखने का माद्दा रखता हो। जिससे स्वयं बड़े साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा हो कि तुमने माहौल बिगाड़ दिया, तुम्हारी किताबें बाजार ही पकड़ लेती हैं,
इससे साफ जाहिर होता है कि मोस्ट सेलेबल होने में और बड़ा साहित्यकार होने में फर्क है।
मगर यहां एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या साहित्य आमजन का नहीं हो सकता, क्या आमजन की समस्याओं से दूर रहकर सिर्फ कंट्रोवर्सी के लिए लिखा गया साहित्य ही पुरस्कृत होना चाहिए?
या क्या सिर्फ उसी की समीक्षा होनी चाहिए जो एक विशेष खेमे या विशेष विचारधारा के साथ साहित्य की पेशबंदी करता हो?
क्या धार्मिक असहिष्णुता की परिभाषायें साहित्यकारों के लिए अपने-अपने खेमे के अनुसार अलग अलग होती हैं?
जिन बड़ी (महान नहीं) लेखिका नयनतारा ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर खेमेबाजी को बढ़ावा दिया और उनके पीछे- पीछे 16 और साहित्यकारों द्वारा अपना पुरस्कार लौटाने की सूचना है, उनसे यह तो पूछा जाना चाहिए कि अचानक भारत की आजादी के अब तक के इतिहास में उन्हें दादरी की ही धार्मिक असहिष्णुता क्यों दिखाई दी।
नयनतारा जी यह भी बतायें कि जिन लेखकों की हत्या पर वे इतनी द्रवित हैं, उनके हित में उन्होंने सरकार को कोई पत्र लिखा या स्वयं साहित्य अकादमी को लिखा या कहीं भी किसी भी मंच से इन हत्याओं की निंदा की?
नहीं…उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, क्योंकि ऐसा करके वे उस तरह की सुर्खियों में नहीं आतीं जिससे कि न केवल मोदी सरकार को कोसा जा सकता बल्कि कांग्रेस व नेहरू से जुड़े संस्थानों पर सरकार की कार्यवाहियों की खिलाफत भी की जा सकती। पुरस्कार लौटाना सुलभ था, सो उन्होंने किया।
हमेशा अभिजात्य वर्ग की लेखिका रहीं नयनतारा सहगल कब से आम जन के हित में कुछ कहने- सुनने लगीं, आश्चर्य होता है ना कि जीवन के 88 वसंत देखने के बाद उनमें गरीबों के लिए जज्ब़ात जागे। 1984 के सिख विरोधी दंगे और हालिया उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के दंगों पर वो कुछ क्यों नहीं बोलीं ?
सिख विरोधी दंगों के वक्त केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी और मुजफ्फरनगर दंगों के समय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, मोदी का तो नामोनिशान तक नहीं था।
आज मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल, कन्नड़ लेखक श्रीनाथ डीएन, वरयाम संधु, जी एन रंगनाथ राव और उर्दू उपन्यासकार रहमान अब्बास द्वारा पुरस्कार लौटाने की सूचना पर क्या ये ठीक नहीं होगा कि इन सभी से वही सवाल किये जाने चाहिए जो नयनतारा से पूछे जा रहे हैं।
कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल साहब को आज धर्म निरपेक्षता पर खतरा नजर आ रहा है। क्या वो खतरा तब नहीं था जब कश्मीर से पंडितों को बेदखल किया जा रहा था। ये मंज़र तो उन्होंने भी देखा होगा।
सवाल तो रहमान अब्बास साहब से भी हैं कि मुज़फ्फ़रनगर के दंगों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार किस तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और केंद्र का कांग्रेसनीत गठबंधन देखेंगे… करेंगे….हो रहा है… जांच करवायेंगे… दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा…. की राजनीति करके अपनी सरकार बचाने में लगा था।
हकीकत तो ये है कि साहित्य जगत पूरा का पूरा खेमों में बंट चुका है जिसे जनसरोकार से या उसे अच्छा साहित्य उपलब्ध कराने से वास्ता नहीं, बल्कि खमों में ही अपनी-अपनी पैठ गहरी करने की राजनीति करनी है…।
संकेत अच्छा नहीं हैं, कम से कम उन नये पाठकों के लिए, जिन्हें ना मोदी से मतलब है ना कांग्रेस से और न ही धर्मनिरपेक्षता के कथित ढकोसलों से, नया पाठक खुद अपनी राह बना रहा है और पुरानों की बेचैनी यही है कि वे चर्चाओं से दूर हो रहे हैं। यह उनका अंतिम अरण्य है।
अधिकांशत: तो अपनी उम्र के कम से कम छह दशक साहित्य के सहारे काट चुके हैं, ऐसे में इन साहित्यकारों से यह उम्मीद तो कतई नहीं थी कि वो आधे सच के आधार पर अपना विरोध जतायेंगे।
एक ओर पुरस्कार लौटाने वाले कुशल राजनैतिक साहित्यकार हैं जिन्हें पुरस्कार की अहमियत सिर्फ अपने खेमों की और अपनी चमक बनाए रखने के लिए जरूरी लगती है तो दूसरी ओर सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्यिक जमात ने किसी पुरस्कार के लायक नहीं समझा। उन्हें फिक्शन या थ्रिलर की श्रेणी में भी नहीं रखा क्योंकि वो इनकी जमात से बाहर के थे।
सच तो यह है कि साहित्य अकादमी के लिए अब अपने पैमाने बदलने का समय आ गया है। अब Writer for elite की बजाय writer of masses की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि खेमेबाजी और राजनीति से हटकर कुछ पाठकों के लिए, कुछ साहित्य के लिए और कुछ समाज के लिए लिखा-पढ़ा जा सके। रही बात इन पुरस्कार का कैच- कैच खेलने की तो इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला सिवाय इसके कि कुछ लेखक कांग्रेसी, कुछ वामपंथी और कुछ दक्षिणपंथी हो जायें।
जो अपना पुरस्कार लौटा रहे हैं वो खालिस भारतीय समाज के हित में ऐसा कर रहे हैं, यह समझने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए वरना किसी की ओर एक उंगली उठाने से पहले अपनी ओर मुड़ने वाली तीन उंगलियां भी देख लेनी चाहिए। विरोध की बात है तो विरोध करना जरूरी है मगर बात एकपक्षीय हो जाए तो उंगली उठना भी लाजिमी है । है ना….. ?
– अलकनंदा सिंह
जो स्वयं ही अपने प्रकाशक के खिलाफ लिखने का माद्दा रखता हो। जिससे स्वयं बड़े साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा हो कि तुमने माहौल बिगाड़ दिया, तुम्हारी किताबें बाजार ही पकड़ लेती हैं,
इससे साफ जाहिर होता है कि मोस्ट सेलेबल होने में और बड़ा साहित्यकार होने में फर्क है।
मगर यहां एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या साहित्य आमजन का नहीं हो सकता, क्या आमजन की समस्याओं से दूर रहकर सिर्फ कंट्रोवर्सी के लिए लिखा गया साहित्य ही पुरस्कृत होना चाहिए?
या क्या सिर्फ उसी की समीक्षा होनी चाहिए जो एक विशेष खेमे या विशेष विचारधारा के साथ साहित्य की पेशबंदी करता हो?
क्या धार्मिक असहिष्णुता की परिभाषायें साहित्यकारों के लिए अपने-अपने खेमे के अनुसार अलग अलग होती हैं?
जिन बड़ी (महान नहीं) लेखिका नयनतारा ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर खेमेबाजी को बढ़ावा दिया और उनके पीछे- पीछे 16 और साहित्यकारों द्वारा अपना पुरस्कार लौटाने की सूचना है, उनसे यह तो पूछा जाना चाहिए कि अचानक भारत की आजादी के अब तक के इतिहास में उन्हें दादरी की ही धार्मिक असहिष्णुता क्यों दिखाई दी।
नयनतारा जी यह भी बतायें कि जिन लेखकों की हत्या पर वे इतनी द्रवित हैं, उनके हित में उन्होंने सरकार को कोई पत्र लिखा या स्वयं साहित्य अकादमी को लिखा या कहीं भी किसी भी मंच से इन हत्याओं की निंदा की?
नहीं…उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, क्योंकि ऐसा करके वे उस तरह की सुर्खियों में नहीं आतीं जिससे कि न केवल मोदी सरकार को कोसा जा सकता बल्कि कांग्रेस व नेहरू से जुड़े संस्थानों पर सरकार की कार्यवाहियों की खिलाफत भी की जा सकती। पुरस्कार लौटाना सुलभ था, सो उन्होंने किया।
हमेशा अभिजात्य वर्ग की लेखिका रहीं नयनतारा सहगल कब से आम जन के हित में कुछ कहने- सुनने लगीं, आश्चर्य होता है ना कि जीवन के 88 वसंत देखने के बाद उनमें गरीबों के लिए जज्ब़ात जागे। 1984 के सिख विरोधी दंगे और हालिया उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के दंगों पर वो कुछ क्यों नहीं बोलीं ?
सिख विरोधी दंगों के वक्त केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी और मुजफ्फरनगर दंगों के समय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, मोदी का तो नामोनिशान तक नहीं था।
आज मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल, कन्नड़ लेखक श्रीनाथ डीएन, वरयाम संधु, जी एन रंगनाथ राव और उर्दू उपन्यासकार रहमान अब्बास द्वारा पुरस्कार लौटाने की सूचना पर क्या ये ठीक नहीं होगा कि इन सभी से वही सवाल किये जाने चाहिए जो नयनतारा से पूछे जा रहे हैं।
कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल साहब को आज धर्म निरपेक्षता पर खतरा नजर आ रहा है। क्या वो खतरा तब नहीं था जब कश्मीर से पंडितों को बेदखल किया जा रहा था। ये मंज़र तो उन्होंने भी देखा होगा।
सवाल तो रहमान अब्बास साहब से भी हैं कि मुज़फ्फ़रनगर के दंगों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार किस तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और केंद्र का कांग्रेसनीत गठबंधन देखेंगे… करेंगे….हो रहा है… जांच करवायेंगे… दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा…. की राजनीति करके अपनी सरकार बचाने में लगा था।
हकीकत तो ये है कि साहित्य जगत पूरा का पूरा खेमों में बंट चुका है जिसे जनसरोकार से या उसे अच्छा साहित्य उपलब्ध कराने से वास्ता नहीं, बल्कि खमों में ही अपनी-अपनी पैठ गहरी करने की राजनीति करनी है…।
संकेत अच्छा नहीं हैं, कम से कम उन नये पाठकों के लिए, जिन्हें ना मोदी से मतलब है ना कांग्रेस से और न ही धर्मनिरपेक्षता के कथित ढकोसलों से, नया पाठक खुद अपनी राह बना रहा है और पुरानों की बेचैनी यही है कि वे चर्चाओं से दूर हो रहे हैं। यह उनका अंतिम अरण्य है।
अधिकांशत: तो अपनी उम्र के कम से कम छह दशक साहित्य के सहारे काट चुके हैं, ऐसे में इन साहित्यकारों से यह उम्मीद तो कतई नहीं थी कि वो आधे सच के आधार पर अपना विरोध जतायेंगे।
एक ओर पुरस्कार लौटाने वाले कुशल राजनैतिक साहित्यकार हैं जिन्हें पुरस्कार की अहमियत सिर्फ अपने खेमों की और अपनी चमक बनाए रखने के लिए जरूरी लगती है तो दूसरी ओर सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्यिक जमात ने किसी पुरस्कार के लायक नहीं समझा। उन्हें फिक्शन या थ्रिलर की श्रेणी में भी नहीं रखा क्योंकि वो इनकी जमात से बाहर के थे।
सच तो यह है कि साहित्य अकादमी के लिए अब अपने पैमाने बदलने का समय आ गया है। अब Writer for elite की बजाय writer of masses की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि खेमेबाजी और राजनीति से हटकर कुछ पाठकों के लिए, कुछ साहित्य के लिए और कुछ समाज के लिए लिखा-पढ़ा जा सके। रही बात इन पुरस्कार का कैच- कैच खेलने की तो इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला सिवाय इसके कि कुछ लेखक कांग्रेसी, कुछ वामपंथी और कुछ दक्षिणपंथी हो जायें।
जो अपना पुरस्कार लौटा रहे हैं वो खालिस भारतीय समाज के हित में ऐसा कर रहे हैं, यह समझने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए वरना किसी की ओर एक उंगली उठाने से पहले अपनी ओर मुड़ने वाली तीन उंगलियां भी देख लेनी चाहिए। विरोध की बात है तो विरोध करना जरूरी है मगर बात एकपक्षीय हो जाए तो उंगली उठना भी लाजिमी है । है ना….. ?
– अलकनंदा सिंह
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