आज से नवदुर्गा हमारे घरों में विराजेंगी, पूरे नौ दिन देश में ऋतुओं के माध्यम से जीवन में उतरते नवसंचार को उत्सवरूप मनाने के दिन हैं। एक समाज के तौर पर इन नौ दिनों में हम अपने संस्कारों के किस किस स्तर को समृद्ध करें और सोच के किस स्तर को परिष्कृत करें, यह भी सोचना आवश्यक हो गया है। यह कैसे संभव है कि एक ओर हमें 'दुर्गा' कहा जाए और दूसरी ओर हमारे ही नाम पर गालियों का अंबार लगा दिया जाए।
सोच का यही ''संकट'' हमारी सारी आराधनाओं और सारी खूबियों को मिट्टी में मिलाए दे रहा है।
मंदिरों में भारी भीड़ और हर मंदिर में देवी प्रतिमा को निकटतम से निहारने की होड़ के बीच यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि आखिर हम किस देवी की आराधना कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं।
देवी-पूजा के अर्थ एवं औचित्य को समझाने वाला शायद ही कोई मंदिर किसी के सामने हो क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज ''गालियां'' शब्द विलोपित हो गया होता।
मां-बहन का नाम लेकर दी जाने वाली इन ''गालियों'' का समाजशास्त्र ऐसा है कि हर वर्ग, धर्म, समाज, प्रदेश, वर्ण में ये समानरूप से मौजूद हैं। इन्हें आजतक कोई मिटा तो नहीं पाया, बल्कि अब इनका विस्फोटकरूप हमारे सामने आ रहा है कि अब ये गालियां महिलाओं की जुबान पर भी बैठती जा रही हैं। शारीरिक बनावट से लेकर शारीरिक संबंधों को घिनौने अंदाज़ में पेश करने वाली ये महिलायें, अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला रही हैं।
साहित्य से लेकर सोशल मीडिया तक इन नए ज़माने की महिलाओं की गालियों वाली अभिव्यक्ति हमें सामाजिक और संस्कारिक तौर पर ग़रीब बना रही है। प्रत्यक्षत: आधुनिक होने के नाम पर सोच का एक ऐसा निकृष्टतम स्तर उभर रहा है जिसका जिम्मा अब स्वयं इन महिलाओं ने उठा लिया है और इनमें से ना तो कोई निम्न वर्ग से है और ना ही कम पढ़ी-लिखी।
पुरुषों से बराबरी करनी है तो बुद्धि-कौशल-सामाजिक सरोकारों को और ऊंचा उठाने के लिए करें ना कि उनके दोषों को अपनाकर। जिन्हें दूर करने की जिम्मेदारी अभी तक कम से कम घर की महिलाऐं निभा रही थीं आज उन्हीं की बच्चियां गालियों में स्वयं के ही शरीर को नंगा कर रही हैं। तो फिर किस देवी की आराधना करें हम।
शक्ति आराधना किसी देवी स्वरूपा मूर्ति की आराधना नहीं है, ऋतुओं के संधिकाल में अपनी ऊर्जा को एक जगह संचित करके उसकी अनुभुतियों को स्वयं के भीतर महसूस करने का पर्व है ये। इस पर्व पर यदि हम समाज में मौजूद उक्त ''गालियों वाली'' शाश्वत-स्थितियों को बदल पाने का संकल्प और साहस दिखायें तो संभवत: दुर्गा मंदिरों से उतर कर हमारे दिलों में बैठ जायें और फिर उन्हें तलाशने किसी भी मंदिर जाना ही नहीं पड़ेगा।
देवी दुर्गा का रूप बताई जाने वाली हर महिला के ''संबंधों'' को तार तार करने वाली ये गालियां सोच के उस निम्नतर स्तर को दर्शाती हैं जिसके अभी तक हम पुरुषों को जिम्मेदार ठहराते आए थे। मां-बहन की गालियां आमतौर पर पुरुष ही दिया करते थे और महिलाओं को गालियां मुश्किल से ही हजम होती हैं क्योंकि सब उन पर ही तो पड़ती हैं।
अमूमन मां...बहन...बेटी...के ही नाम पर ये गालियां चलती रहीं और कुलीन वर्ग इसे निम्नवर्गीय मानकर महिलाओं के आगे अपशब्द कहने से बचता रहा परंतु अब तो स्थिति उलट रही है। सामाजिक ताने-बाने के लिए ये उल्टी स्थिति भयानक भी है।
ऋग्वेद में कहा गया है- “आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:”
Let noble thoughts come to us from every side.(Rigveda 1-89-1)
ऋग्वेद के इस सूत्र को याद रखते हुए आज मैं बस ये कामना ही कर सकती हूं कि हम सभी (पुरुष व महिलायें) अपने संस्कारों को सहेजने का और ऐसी गिरी हुई सोचों के उभरने का विरोध करें और अधिक ना सही कम से कम अपनी नई पीढ़ी को इसके प्रकोप से बचा सकें। यही होगी नवदुर्गा की सच्ची आराधना और यही होगा नव संवत्सर का नव संकल्प।
- अलकनंदा सिंंह
सोच का यही ''संकट'' हमारी सारी आराधनाओं और सारी खूबियों को मिट्टी में मिलाए दे रहा है।
मंदिरों में भारी भीड़ और हर मंदिर में देवी प्रतिमा को निकटतम से निहारने की होड़ के बीच यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि आखिर हम किस देवी की आराधना कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं।
देवी-पूजा के अर्थ एवं औचित्य को समझाने वाला शायद ही कोई मंदिर किसी के सामने हो क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज ''गालियां'' शब्द विलोपित हो गया होता।
मां-बहन का नाम लेकर दी जाने वाली इन ''गालियों'' का समाजशास्त्र ऐसा है कि हर वर्ग, धर्म, समाज, प्रदेश, वर्ण में ये समानरूप से मौजूद हैं। इन्हें आजतक कोई मिटा तो नहीं पाया, बल्कि अब इनका विस्फोटकरूप हमारे सामने आ रहा है कि अब ये गालियां महिलाओं की जुबान पर भी बैठती जा रही हैं। शारीरिक बनावट से लेकर शारीरिक संबंधों को घिनौने अंदाज़ में पेश करने वाली ये महिलायें, अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला रही हैं।
साहित्य से लेकर सोशल मीडिया तक इन नए ज़माने की महिलाओं की गालियों वाली अभिव्यक्ति हमें सामाजिक और संस्कारिक तौर पर ग़रीब बना रही है। प्रत्यक्षत: आधुनिक होने के नाम पर सोच का एक ऐसा निकृष्टतम स्तर उभर रहा है जिसका जिम्मा अब स्वयं इन महिलाओं ने उठा लिया है और इनमें से ना तो कोई निम्न वर्ग से है और ना ही कम पढ़ी-लिखी।
पुरुषों से बराबरी करनी है तो बुद्धि-कौशल-सामाजिक सरोकारों को और ऊंचा उठाने के लिए करें ना कि उनके दोषों को अपनाकर। जिन्हें दूर करने की जिम्मेदारी अभी तक कम से कम घर की महिलाऐं निभा रही थीं आज उन्हीं की बच्चियां गालियों में स्वयं के ही शरीर को नंगा कर रही हैं। तो फिर किस देवी की आराधना करें हम।
शक्ति आराधना किसी देवी स्वरूपा मूर्ति की आराधना नहीं है, ऋतुओं के संधिकाल में अपनी ऊर्जा को एक जगह संचित करके उसकी अनुभुतियों को स्वयं के भीतर महसूस करने का पर्व है ये। इस पर्व पर यदि हम समाज में मौजूद उक्त ''गालियों वाली'' शाश्वत-स्थितियों को बदल पाने का संकल्प और साहस दिखायें तो संभवत: दुर्गा मंदिरों से उतर कर हमारे दिलों में बैठ जायें और फिर उन्हें तलाशने किसी भी मंदिर जाना ही नहीं पड़ेगा।
देवी दुर्गा का रूप बताई जाने वाली हर महिला के ''संबंधों'' को तार तार करने वाली ये गालियां सोच के उस निम्नतर स्तर को दर्शाती हैं जिसके अभी तक हम पुरुषों को जिम्मेदार ठहराते आए थे। मां-बहन की गालियां आमतौर पर पुरुष ही दिया करते थे और महिलाओं को गालियां मुश्किल से ही हजम होती हैं क्योंकि सब उन पर ही तो पड़ती हैं।
अमूमन मां...बहन...बेटी...के ही नाम पर ये गालियां चलती रहीं और कुलीन वर्ग इसे निम्नवर्गीय मानकर महिलाओं के आगे अपशब्द कहने से बचता रहा परंतु अब तो स्थिति उलट रही है। सामाजिक ताने-बाने के लिए ये उल्टी स्थिति भयानक भी है।
ऋग्वेद में कहा गया है- “आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:”
Let noble thoughts come to us from every side.(Rigveda 1-89-1)
ऋग्वेद के इस सूत्र को याद रखते हुए आज मैं बस ये कामना ही कर सकती हूं कि हम सभी (पुरुष व महिलायें) अपने संस्कारों को सहेजने का और ऐसी गिरी हुई सोचों के उभरने का विरोध करें और अधिक ना सही कम से कम अपनी नई पीढ़ी को इसके प्रकोप से बचा सकें। यही होगी नवदुर्गा की सच्ची आराधना और यही होगा नव संवत्सर का नव संकल्प।
- अलकनंदा सिंंह
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