रविवार, 4 मार्च 2018

अब स्‍तनपान के नाम पर रचा जा रहा षडयंत्र

''जिस डाल पर बैठे उसी को काटने'' की मूर्खता वाली एक उक्‍ति को हम प्रसिद्ध कवि कालिदास  के लिए हमेशा से संदर्भित करते रहे हैं, मगर आज स्‍तनपान को लेकर जो शोध रिपोर्ट आई है  उसे पढ़कर यह उक्‍ति हम मांओं पर बिल्‍कुल फिट बैठती है। नैसर्गिक अधिकारों व कर्तव्‍यों को  लेकर सदियों पुरानी भारतीय सभ्‍यता का कोई सानी नहीं, इसके बाद भी यदि हम सुसंस्‍कृत  कहलाने के लिए पश्‍चिम की ओर देखें तो हमसे बड़ा मूर्ख और कौन हो सकता है।

हम भारतीय मांऐं ही नहीं, दुनियाभर की मांओं को जिस तरह ये नैसर्गिक अधिकार प्राप्‍त है  कि अपने शिशु को स्‍तनपान कराने से ना तो कोई रोक सकता है और ना ही इसके लिए  अनुमति की आवश्‍यकता होती है, ठीक उसी तरह शिशु को भी मां के दूध से कोई वंचित नहीं  रख सकता।

हमारी सदियों पुरानी परंपरा है कि शिशु की प्राकृतिक देखभाल ही उसे फिजीकली ही नहीं,  इमोशनल ताकत भी देती है। सभ्‍य समाज के लिए शिशुओं की लालन-पालन प्रणाली का बहुत  बड़ा योगदान होता है। हालांकि, अब विदेशी स्‍वास्‍थ्‍य विशेषज्ञ उस पर रिसर्च कर ही रहे होंगे  और निश्‍चित जानिए किसी दिन ये रिपोर्ट भी हमारे सामने आ जाएगी कि बच्‍चे को कैसे पालें  और नई मांऐं इसे हुबहू मानेंगी भी बिना ये सोचे-समझे कि आखिर इस सबके पीछे कौन है जो  हमारी नैसर्गिकता को भी भुना रहा है। 

स्‍तनपान को लेकर पिछले कई दशकों से पश्‍चिम से ये भ्रांति फैला रहा है कि स्‍तनपान से मां  के फिगर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस नैसर्गिक सुख से मांओं को वंचित रखने के पीछे  बाजार का वो षड्यंत्र था जिसे पावडर दूध बेचने वाली विदेशी कंपनियों ने रचा ताकि मांओं की  कथित ''आज़ादी'' के नाम पर अपने प्रोडक्‍ट का लक्ष्‍य हासिल करने में कोई बाधा ना आए। इस  षड्यंत्र में बाकायदा डॉक्‍टर्स को शामिल किया गया। अब एकबार फिर इन्‍हीं डॉक्टर्स के माध्‍यम  से कहलवाया जा रहा है कि स्‍तनपान कराने से कैंसर का खतरा कम होता है। ध्‍यान दीजिए  कि कैंसर खत्‍म करने के स्‍थान पर इसका ''खतरा कम'' शब्‍द प्रयोग में लाया जा रहा है।  बाजार का एंगिल चेंज हुआ है, फिर से मांऐं निशाने पर हैं, इस बार शिशु-आहार बनाने वाली  कंपनियों पर कैंसररोधी दवायें बनाने वाली लॉबी हावी दिख रही है और निशाना बनाई जा रही  हैं नई मांऐं।
मैं इस तथ्‍य का विरोध करती हूं कि कैंसर के डर से स्‍तनपान कराया जाना चाहिए, बल्‍कि  बात ये होनी चाहिए कि स्‍तनपान हमारे नैसर्गिक कर्तव्‍य और शिशु के नैसर्गिक अधिकार के  बीच का मामला है तो इसे निर्धारित करने वाली विदेशी कंपनियां और शोध संस्‍थान आखिर  कैंसर की धौंस किसे दिखा रहे हैं, इस जानलेवा बीमारी के नाम पर बात उठाकर आखिर ये  लॉबी किसे अपनी ज़द में लेना चाहती है। इंतज़ार कीजिए अब ऐसी दवाओं के आने का जो  स्‍तनपान के इमोशनल टच के साथ कैंसर का इलाज करेंगी।

एक सभ्‍य समाज के तौर पर हमने अपनी विरासतों को तो पश्‍चिम का पिछलग्‍गू बना ही दिया  है और अपनी नैसर्गिकता की धज्‍जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आश्‍चर्य तो इस बात  पर है कि ये सब भी होता रहा है तथाकथित तरक्‍की के नाम पर। हमारी उत्‍तरआधुनिक मांओं  की इस कमजोरी का फायदा बाजारवाद की लॉबी ने जमकर उठाया क्‍योंकि दुनिया के बाजार में  भारतीय उपभोक्‍ताओं की संख्‍या 1/6 जो है।

गौरतलब है कि जिस शोध-रिपोर्ट की मैं बात कर रही हूं, उसे यूनीवर्सिटी ऑफ पिट्सबर्ग के  डा. मलामो कॉन्‍टोरियस ने अपनी टीम के साथ 1998 से 2004 तक गर्भावस्‍था से लेकर नई  मांओं तक पूरा किया। यह रिपोर्ट कहती है कि- स्‍तनपान से गुड कॉलेस्‍ट्रॉल बढ़ता है,  सर्कुलेटिंग फैट कम होता है, गले और सिर पर खून को पहुंचाने वाली कैरोटिड आर्टरीज की  मोटाई भी कम होती है, इस आर्टरी के बड़े व्‍यास को हार्ट स्‍ट्रोक से जोड़कर देखा जाता है,  स्‍तनपान से आक्‍सीटोसिन हॉर्मोन उत्‍सर्जित होता है, जिससे ब्‍लडप्रेशर कम रहता है।

इस रिपोर्ट में शोधकर्ता ये उल्‍लेख करना भूल गए या जानबूझकर नहीं किया कि जब कोई मां  अपने बच्‍चे को उठाकर छाती से भी लगा लेती है तभी कोई भी रोता हुआ बच्‍चा चुप क्‍यों हो  जाता है, स्‍तनपान कराने वाली मां के मन के भाव अपने शिशु के लिए क्‍या होते हैं, यही भाव  आजीवन शिशु के मन की तरंगों की दिशा व दशा को स्‍थापित करते हैं। क्‍या अब हम शोध  रिपोर्टों के आधार पर इन्‍हें तय करेंगे।

मैं मानती हूं कि आधुनिकता के नाम पर अब भी ऐसी मांओं की कमी नहीं जो अपने नवजात  शिशु को फुलटाइम मेड की गोद में बाजारु शिशु आहार के सहारे पलवा रही हैं, वे स्‍तनपान को  आज भी ''पिछड़ेपन'' का नाम देकर बचना चाहती हैं। भारतीय परंपराओं को ना मानने वाली  ऐसी मांऐं ही उक्‍त शोध रिपोर्टों और बाजारवाद का सॉफ्ट टारगेट होती हैं।
ऐसी मांओं के लिए इस रिपोर्ट की पॉजिटिविटी ये रहेगी कि अब वे स्‍तनपान से शिशु को  वंचित रखने से पहले सोचेंगी अवश्‍य, चाहे कैंसर से बचने का ही भय क्‍यों ना हो।

मातृत्‍व का भाव ही तो है जिसने स्‍तनपान से लेकर पालनपोषण तक की भूमिका को 
सर्वाधिक महत्‍व दिलाया। महाभारत में जब यक्ष, धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि 'भूमि  से भारी कौन?' तब युधिष्ठर जवाब देते हैं-
'माता गुरुतरा भूमेरू।' अर्थात माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि ग्‍लोबली डिजिटलाइज्‍ड युग में जब एक क्‍लिक पर सारी  जानकारियां हमारे हथेली में समाई हों तब तो कम से कम इस तरह की शोध रिपोर्टों के  भ्रमजाल से भारतीय मांऐं बच ही सकती हैं।

फिर भी यदि बात समझ में नहीं आती तो इतना जरूर समझ सकती हैं कि हर शोध अपूर्ण  होती है और एक नई शोध के लिए रास्‍ता बनाती है, जबकि भारतीय मनीषियों द्वारा निकाले  गए निष्‍कर्ष उस मानसिकता की देन हैं जो स्‍वास्‍थ को सबसे पहला सुख मानकर चलती है।
भारतीय मनीषियों ने पहला सुख निरोगी काया को ही बताया है, और यह सभी पर समान रूप  से लागू होता है। स्‍तनपान कराने वाली मां पर भी और उस शिशु पर भी जो स्‍तनपान करता  है। ऐसे में ''कैंसर का खतरा कम'' होने की बात तो तब की जानी चाहिए जब कैंसर होने की  संभावना हो।
यहां तो शुरू से मां के दूध को अमृत तुल्‍य बताया गया है, फिर ये कम खतरे की बात कहकर  खतरे को बनाए रखने का षड्यंत्र ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। 

-अलकनंदा सिंह


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