यूं तो आज शिक्षक दिवस है और शिक्षा व शिक्षकों को लेकर कसीदे पढ़े जायेंगे, उनकी समस्यायें गिनाईं जाएंगी, सरकारों से उनके लिए क्या करें क्या ना करें, आदि आदि समाधान बताए जाऐंगे, जो स्वयं कुछ नहीं कर सके वे दूसरों को उपदेश देंगे कि शिक्षक दिवस पर ये करें, वो ना करें… आदि आदि। निश्चित जानिए कि आज का दिन शिक्षकों की ”बेचारगी” का रोना रोने में जाएगा। गुरुकुल की महान परंपरा वाले देश में इस तरह का रुदाली-रुदन अच्छा नहीं, ये तो शिक्षकों का डिमॉरलेजाइशन ही हुआ ना।
बहरहाल मैं अपनी बात यहीं से शुरू करती हूं कि आखिर क्यों ‘गुरू को पूजने वाले हम’ स्वयं का विक्टिमाइजेशन करने के आदी होते गए, गरीब और गरीबी को कथित रूप से महिमामंडित करते रहे। इस बेचारगी के रोने में कब स्वाभिमान तिल तिल कर समाप्त होता गया, पता ही नहीं चला।
शिक्षकों को लेकर हम इतना रोए कि ये विक्टिमाइजेशन की प्रवृत्ति रग रग में समाती चली गई, नतीजा यह रहा कि पूरे समाज को शिक्षित करने वाला शिक्षक ही अपने स्वाभिमान और कर्तव्य को ‘नौकरी’ के लबादे में लपेटकर स्वयं को हद दर्जे तक लगातार गिराता गया। स्तर यहां तक गिरा कि नौकरी के लिए शिक्षक हिंसक विरोध प्रदर्शनों पर उतर आए।
अकर्मण्यता, राजनीति, विरोध-प्रदर्शनों का पर्याय क्यों होते गए शिक्षक। शिक्षा देने वाले ही जब हिंसा पर उतारू हो जाऐंगे तो शिक्षा देगा कौन और कैसी होगी वह शिक्षा, आज के दिन ये भी सोचना जरूरी है। शिक्षादान को नौकरी में समेटकर हमने जो भूल कीं, अब उसे सुधारने का समय आ गया है।
सम्मान पाने के लिए सम्मान देना भी जरूरी है, और जो अपने कर्म को ही सम्मान नहीं दे सकता वह सम्मान पाने का अधिकार खो देता है। ये सम्मान किसी सरकार या संस्था से लिए जाने वाला सम्मान नहीं, बल्कि अपनी ही नज़रों में अपने सम्मान की बात है। तभी तो उन्हें ही श्रेष्ठ शिक्षक कहा जाता है जो नि:स्वार्थ शिक्षा देने में यकीं रखते हैं। संपन्नता नहीं, सुख खोजेंगे…अधिकार से पहले कर्तव्य को अंजाम देंगे तो ही समझ आएगा कि शिक्षक दिवस पर अब शिक्षकों को अपनी यात्रा का रुख किस ओर करना चाहिए।
धन्यवाद शास्त्री जी
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