सोमवार, 25 नवंबर 2019

Rung जनजाति,वह पहली जनजात‍ि होगी जो मनाने जा रही है अपना साहित्य उत्सव

Rung tribe is going to celebrate its literature festival
पीएम मोदी ने ‘ मन की बात’ कार्यक्रम में अपनी भाषा ‘रंगलो’ को संरक्षित करने के प्रयासों के लिए जो उत्तराखंड के धारचूला की ज‍िस Rung जनजाति की प्रशंसा की गई, वह अब जनवरी में अपना एक साहित्य उत्सव आयोजित करने जा रही है।
हिमालय में Rung नाम का एक स्‍थानीय समुदाय अपनी भाषा रंगलो को फिर से जीवित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस काम में उसकी मदद आधुनिक तकनीक और सोशल म‍ीडिया कर रहे हैं।
‘रंग’ Rung नामके इस समुदाय की मातृभाषा ‘रंगलो’ कहलाती है। इस प्राचीन भाषा की कोई लिपि नहीं है, यह सिर्फ बोलने के जरिए ही चलन में है। जेएनयू में भाषा की प्रोफेसर संदेशा रायापा गर्ब्‍याल भी इस समस्‍या से परेशान हैं। वह भी रंग समुदाय की हैं, लेकिन रंग समुदाय पर छपे एक लेख को पढ़ने के बाद वह इतनी व्‍याकुल हुईं कि उन्‍होंने इस भाषा को फिर से जीवित करने का बीड़ा उठा लिया।
वॉट्सऐप ग्रुप और सोशल मीडिया पर आए लोग
संदेशा कहती हैं, ‘उस लेख में रंग समुदाय और उनकी संस्‍कृति के बारे में गलत तथ्‍य दिए हुए थे। ऐसे पलों में हमें दस्‍तावेजों की अहमियत का अहसास होता है।’ इसके बाद संदेशा ने समुदाय के दूसरे लोगों से आपस में जुड़ने की अपील की। जल्‍द ही कई वॉट्सऐप ग्रुप बन गए जहां लोग लोग रंगलो भाषा में ऑडियो रिकॉर्डिंग पोस्‍ट करने लगे। कुछ लोग ट्विटर और फेसबुक पर रंगलो में पोस्‍ट लिखने लगे।
कहानियां, कविताएं, गाने होते हैं पोस्‍ट
धारचूला के एक व्‍यवसायी हैं कृष्‍ण गर्ब्‍याल, वह चार वॉट्सऐप ग्रुप चलाते हैं जिनमें कुल मिलाकर 1,000 सदस्‍य हैं। ये लोग रंगलो में कहानियां, कविताएं और गाने पोस्‍ट करते हैं। कृष्‍ण कहते हैं, ‘हम भाषा सिखाने की कोशिश कर रहे हैं। सोशल मीडिया के जरिए इसका अभ्‍यास तो होता ही है कोई संदेह भी हो तो वह भी दूर हो जाता है। यह एक ऐसी कक्षा की तरह है जहां हर व्‍यक्ति शिक्षक और छात्र दोनों है।’
एक और वॉट्सऐप ग्रुप की संस्‍थापक हैं वैशाली गर्ब्‍याल (22)। वैशाली को पता है कि यह कितना मुश्किल काम है। वह कहती हैं, ‘मेरे 16 साल के भाई को रंगलो बिल्‍कुल नहीं आती। अगर इन ग्रुपों की कोशिश से कुछ लोगों में ही सही पर रंगलो सीखने की चाह पैदा होती है तो हमारा मकसद पूरा हो जाएगा।’
कुल 10,000 सदस्‍य बचे हैं इस समुदाय में
रंग कल्‍याण संस्‍थान के अध्‍यक्ष बीएस बोनल कहते हैं, ‘रंग समुदाय में करीब 10, 000 सदस्‍य हैं जिनमें से अधिकांश उत्‍तराखंड के पिथौरागढ़ जिले और नेपाल के कुछ हिस्‍सों में रहते हैं।’ भारत में रंग को भोटिया जनजाति की उप जाति के रूप में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। बोनल रंग जनजाति की उत्‍पत्ति को एक किंवदंती से जोड़ते हुए बताते हैं, ‘जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तो वे कुटी गांव पहुंचे जहां रंग कबीले ने उनका स्‍वागत किया था। उनकी मां कुंती के नाम पर ही गांव का नाम कुटी पड़ा।’
कोई लिपि न होना बड़ी चुनौती
साल 2018 में ओएनजीसी ने रंगलो के संरक्षण के लिए रायापा के प्रोजेक्‍ट को फंड दिया था। किसी भी भाषा के संरक्षण में सबसे बड़ी समस्‍या होती है उसका लिपिबद्ध न होना। लेकिन लिपि तैयार करना भी आसान नहीं है। रायापा कहती हैं, ‘पहली चुनौती है इस भाषा के लिए लिपि का चुनाव। इसके बाद समुदाय के लोगों से बात करके इसका शब्‍दकोश तैयार करना है। युवा लोग इसे रोमन में लिखने की मांग कर रहे हैं जबकि बुजुर्ग इसे देवनागरी लिपि में तैयार करने पर जोर दे रहे हैं। लेकिन लोग फिलहाल दोनों तरीकों का इस्‍तेमाल कर रहे हैं।’
कई मायनों में श्रेष्ठतम है रंग समाज
पिथौरागढ़ जिले के जौलजीवी से लेकर कुटी, सीपू, मार्छा तक निवास करने वाले रंग समाज की संस्कृति की अलग पहचान है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता आज के दौर में भी महिला सम्मान है। कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में कुछ दशकों पूर्व तक शादी में दहेज नहीं के बराबर था परंतु विगत तीन दशकों के दौरान जहां अन्य समाजों में दहेज एक बीमारी की तरह फैल चुका है, वहीं रंग समाज में आज भी इसे एक दानव की ही संज्ञा है। दहेज के बारे में बात तक नहीं होती है। आज भी युवती का हाथ मांगने के लिए वर पक्ष के लोग जब बात करने जाते हैं तो इसे निवेदन की संज्ञा दी जाती है। लड़की से शादी के लिए उसके पिता या रिश्तेदार से निवेदन किया जाता है। इस निवेदन को स्वीकार करने का अधिकार लड़की को ही है। यदि लड़की निवेदन अस्वीकार कर दे तो इस मामले में आगे कुछ भी नहीं होता है। निवेदन स्वीकार करने के लिए लड़की पर परिजन दबाव भी नहीं बना सकते।
धार्मिक अनुष्ठान में बराबरी का हक
इसी तरह हर धार्मिक से लेकर सामाजिक अनुष्ठान में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार हैं। यही कारण है कि इस समाज में होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में देवी नमतिसिया की पूजा कर संदेश दिया जाता है कि नारी का सम्मान सबसे पहले होना है। कुछ मामलों में महिलाओं के अधिकार अधिक हैं।
बेटा-बेटियों में समानता
रंग समाज में बेटा और बेटी के अधिकार बराबर हैं। यहां पर व्यवहार में भी किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है। बेटा या बेटी के जन्म से लेकर शिक्षा, दीक्षा तक जीवनभर समान व्यवहार रहता है। यही कारण है कि आज भी इस समाज में लिंगानुपात में कोई संकट नहीं आया है। इसी समानता का असर है कि जहां इस समाज की दर्जनों महिलाएं उच्च पदों पर आसीन हैं, वहीं कई बेटियों ने एवरेस्ट शिखर को भी फतह किया है। चंद्रप्रभा एतवाल, सुमन कुटियाल, कविता बूढ़ाथौकी दुनिया की इस सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहरा चुकी हैं।
भारत और नेपाल के इन गांवो में रहते हैं रंग समाज के लोग
व्यास घाटी : बूंदी, गब्र्याग, गुंजी, नाबी, रौंककोंग, नपलच्यू और कुटी।
दारमा घाटी : सीपू, तिदांग, गो, मार्छा, ढाकर, दुग्तू, दांतू, चल, नागलिंग, बालिंग, सौन, बौगंिलंग, दर, विदांग।
चौदास : पांगू, हिमखोला, रौतों, दैको, रिमझिम, सौसा, रुंग, सिर्खा, सिर्दाग, जयकोट, पांगला।
नेपाल : छांगरु, टिंकर, रापला और स्यंकंग।

4 टिप्‍पणियां:

  1. रंग समाज की यह पहल सराहनीय है। ऐसी पहल देखकर अच्छा लगता है।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-11-2019) को    "मीठा करेला"  (चर्चा अंक 3532)     पर भी होगी। 
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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