श्री बांकेबिहारी मंदिर में समाज गायन करते गोस्वामी समाज के मुखिया व अन्य |
यूं भी जब आराधना और लोकोत्सव एक होकर किसी संस्कृति को समृद्ध करते हों और अनेक वर्षों से अब तक लगातार ऐसा करते आ रहे हों, वह भी बिना किसी बाधा के तो कोई ना कोई बात ऐसी अवश्य होगी ही जो सर्वस्वीकृति से सभी तारों को आपस में गूंथे रही।
सामूहिकता ब्रज की थाती रही है, चाहे वह गोवर्द्धन पूजा हो या होली के परंपरागत आयोजनों की सर्वाधिक लंबी अवधि। इस लंबी अवधि को मनोरंजन और गायन-वादन की जिस अद्भुत परंपरा ने बांध रखा है, आज मैं उस ''समाज गायन'' की परंपरा के बारे में बात करूंगी।
जी हां, होली के इस रंगबिरंगे अवसर पर समाज गायन के पदों का अद्भुत विन्यास, इसे ईश्वर की आराधना से जोड़ने, श्रीकृष्ण को बीच में बैठाकर स्वयं होली की क्रीड़ा में मग्न होने का विरल आकर्षण कैसे पिरोया जाता है, यह सब समाज गायन को सुनकर ही जाना जा सकता है।
वृंदावन में ही स्वामी हरिदास की साधना स्थली टटी स्थान पर समाज गायन |
इन सभी आयोजनों के तहत मंदिरों में गाया जा रहा समाज गायन हर संगीतप्रेमी को लुभा रहा है।
ऐसा ही वृंदावन की महिमा गान संबंधी श्री हरिराम व्यास का एक पद देखिए...
धनि-धनि वृन्दावन की धरनि।
अधिक कोटि वैकुंण्ठ लोक ते, सुक-नारदमुनि बरनि।।
जहाँ श्याम की बाम केलि कुल ,धाम काम मन हरनि।
ब्रम्हा मोह्यौ ग्वाल मंडली ,भेद रहित आचरनि ।।
राधा की छवि निरखत मोही, नारायन की घरनि।
और बार कीनी बनि बनिता ,प्रेम पतिहिं अनुसरनि।।
जहाँ महीरूह राज बिराजत, सदा फूल-फल फलनि।
तहाँ "व्यास' बसि ताप बुझायौ, अतंरहित की जरनि।।
धनि-धनि वृन्दावन की धरनि ......
नीचे के वीडियो में देखिए कि कैसे होता है समाज गायन
वसंत पंचमी से शुरू होने वले इस 40 दिवसीय उत्सव के की शुरूआत करीब 445 वर्ष पुरानी बताई जाती है। प्राप्त जानकारी के अनुसार समाज गायन की शुरुआत श्रीकृष्ण की आल्हादनी शक्ति राधा के बरसाना में हुई। वृंदावन शोध संस्थान में सुरक्षित रखी गईं पांडुलिपियों से पता चला है कि इस गायन परंपरा को सर्वप्रथम श्रीनारायण भट्ट ने शुरू किया। दक्षिण भारत में मदुरैपट्टनम के श्रीवत्स गोत्रिय तैलंग ब्राह्मण भाष्कर भट्ट के यहां जन्मे श्रीनारायण भट्ट, नारायण के अवतार कहे जाते हैं। संवत् 1602 में नारायण भट्ट ब्रज में आए। यहां उन्होंने ब्रज का प्राकट्य करने के साथ-साथ समाज गायन में गाए जाने वाले पदों का भी संकलन किया।
क्या कहते हैं इतिहासकार और पांडुलिपि विशेषज्ञ
इतिहासकारों और प्राप्त पांडुलिपियों के आधार पर कहा जाता है कि ब्रज भूमि लुप्त हो चुकी थी, 16वीं सदी में ब्रज के पुनरोत्थान का दौर जारी था। स्वामी हरिदास, नारायण भट्ट, गोस्वामी हित हरिवंश, चैतन्य महाप्रभु तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य यहां आए। इन्होंने ब्रज की लीलाओं को प्रकाशित किया। उन्हीं में से अलग-अलग वैष्णवों के संप्रदाय के दृष्टिकोण के हिसाब से समाज गायन की पोथियां (प्रकाशित सामग्री) विकसित होती गईं।
देवालयों में विकसित हुआ समाज गायन
देवालय पद्धति के अनुसार समाज गायन के मध्य भाग में जो बैठता है, उसे समाज का मुखिया कहते हैं। समाज की पोथी में से पहले मुखिया गायन करता है, उनके पीछे अनुसरण करने वाले तान मिलाते हैं और सुरों को बांधते हुए आगे बढ़ते हैं, इन्हें झेला कहा जाता है, साथ ही पखावजी लोग पखावज बजाते हैं। वल्लभ कुल के वैष्णव संप्रदाय में समाज गायन को कीर्तन बोला जाता है। वैष्णव संप्रदाय की प्राप्त पोथियों में भगवान की बाल लीलाओं का ही वर्णन सुनने को मिलता है।
समाज की पोथी को बोलते हैं वर्षोत्सव की पोथी
वृंदावन शोध संस्थान के पांडुलिपि विशेषज्ञों के अनुसार पहले यह पांडुलिपियां हाथों से लिखी जाती थीं। प्रिंटिंग मशीन आने के बाद यह वर्षोत्सव (समाज की पोथी) छपने लगी, लेकिन परंपरागत रूप से हाथ से लिखी जाने वाली पोथी का विशेष महत्व होता है। पोथी को वर्षोत्सव की पोथी भी कहा जाता है।
इन्हीं पांडुलिपियों से ज्ञात होता है कि राधाकृष्ण की कृपा से वह संवत् 1602 में ब्रज में आए। यहां उन्होंने देखा कि ब्रज मंडल के ग्राम, नगर, कुंड, तालाब व विग्रह सभी विलुप्त हो गए हैं। उन्हें यह देख कर बहुत कष्ट हुआ। उन्होंने अपने साथ आए लाडिलेय प्रभु के साथ विलुप्त स्थलों का प्राकट्य किया। इसी क्रम में बरसाना के श्रीजी के श्रीविग्रह का प्राकट्य संवत 1626 में भट्ट जी ने ही किया। भट्ट जी का तिरोभाव संवत् 1700 में हुआ।
आज भी गोस्वामी समाज के मुखिया रामभरोसी गोस्वामी के पास समाज गायन की 400 वर्ष से अधिक पुरानी पोथी मौजूद हैं।
प्रदेश सरकार द्वारा संपूर्ण ब्रज को श्रीकृष्ण सर्किट के तौर पर विकसित किए जाने की योजना के बाद अब संभवत: समाज गायन की इस समृद्ध विरासत को और भी समृद्ध बनाया जा सकेगा और देश-विदेश को इससे परिचित कराया जा सकेगा।
अभी तो स्थिति यह है कि साहित्य-संस्कृति और प्राचीन परंपराओं की धारा को बचाए रखने वाले अपनी आजीविका तक निकालने को प्रतिदिन जूझते हैं, मंदिरों के अलावा कला और संगीत निस्तब्ध है, कलाकार विपन्न स्थिति में हैं। कला को जीवित रखने के लिए कलाकार को जीवित रखना होता है, यह सरकारों के साथ-साथ हम सभी के लिए चिंता और चिंतन का भी विषय है।
गायकों की विपन्नता के चलते हम समाज गायन जैसी भक्तिरस में पगी अद्भुत गायन परंपराओं को कैसे बचाए रख सकते हैं, अब इस पर विचार और प्रयास अति आवश्यक हैं।
समाज गायन की शास्त्रीयता के साथ-साथ लोक कलाओं जैसे कि ब्रज के रसिया, मल्हार, चिकाड़े का ढोला, परसोकले आदि के स्वर क्यों मौन होते जा रहे हैं? इस पर भी विचार करना आवश्यक है।
बहरहाल, श्रीकृष्ण सर्किट के तहत प्रदेश सरकार के प्रयासों से आशा तो बंधी है कि ब्रज की इन महान विरासतों से आप भी शीघ्र रूबरू हो सकेंगे।
- अलकनंदा सिंह
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