मंगलवार, 28 जून 2016

Rape के नाम पर... पनप रही ये प्रवृत्त‍ि सबके लिए घातक

खबरों की एडिटिंग करते समय कई ऐसी खबरें सामने से गुजरती हैं जो यह सोचने पर विवश कर देती हैं कि महिलाओं को लेकर सरकार के बनाए कानून का पालन करना और करवाना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है उसके दुरुपयोग को रोकना भी। यूं तो 16 दिसंबर 2012 को हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार कांड के बाद से ही बलात्कारि‍यों  के लिए सख्त कानून बना, समाज में भी इसे लेकर जागरूकता बढ़ी और अब महिलायें इस पर खुलकर सामने भी आ रही हैं। इसी जागरूकता और खुलेपन की आड़ में कुछ ऐसा घटित हो रहा है जो इस मुहिम को ग्रे शेड दे रहा है।    
बलात्कार एक ऐसा शब्द है जो शरीर से ज्यादा आत्मा का ध्वंस कर देता है, फिर अगर महिला या बच्ची सामूहिक बलात्कार की शि‍कार हो जाए तो उस पर क्या गुजरती होगी, इसे तो स्वयं भुक्तभोगी भी शब्दों में शायद ही बयां कर पाए। इस शरीर और मन के कष्ट में उसके साथ-साथ उसका परिवार भी कष्ट भोगता है और किसी भी ऐसे कष्ट का कोई मूल्य नहीं लगाया जा स‍कता मगर जिस तरह सामूहिक बलत्कार की घटना को भी मुआवजे में भुनाने की प्रवृत्त‍ि देखने को मिल रही, व‍ह न सिर्फ रेप विक्टिम के प्रति सहानुभूति खत्म कर देगी बल्कि उन्हें फिर गंभीरता से लेना भी बंद किया जा सकता है।

महिलाओं के प्रति इस 'बलात्कार के राक्षस' से पहले 'दहेज का राक्षस' भी ऐसे ही पनपा था जिसने तमाम घर उजाड़ दिए, बेटियों-बहुओं के सामने दांपत्य को ज़हर बनाकर पेश किया। इसके उदाहरण हर तीसरे चौथे घर में देखने व सुनने को मिल जाते थे। इस ज़हर को फैलाने की शुरुआत तो दहेजलोभ‍ी ससुरालीजनों ने की मगर उनका साथ ऐसे माता-पिताओं ने भी दिया जो ''अच्छा सा दहेज'' देकर बेटी को ''अच्छे से घर'' में ब्याहना चाहते थे। दहेज प्रथा, कुप्रथा में ऐसी बदली कि फिर इससे निपटने को बनाए गए कानून का बहुत से मायके वालों द्वारा भरपूर दुरुपयोग किया गया। इसी कानून के नाम पर कभी मन नहीं मिलने तो कभी धन नहीं मिलने पर नाइत्त‍िफाकी की सजा अकेली बहू ने ही नहीं भुगती, बल्कि सास-ननद-देवरानी-जिठानी को भी मिली। आज भी कानून के दुरुपयोग की भुक्तभोगी अनेक सासें-ननदें बेवजह ही जेल और नारी निकेतनों में सड़ रही हैं। 

इसी तरह बलात्कार को लेकर भी हाल ही में कुछ ऐसी घटनाएं ''सहानुभूति के दुरुपयोग की'' और ''उससे लाभ उठाने की'' सामने आई हैं जिन्होंने हमारे लिए बनाए गए कानून और समाज में बलात्कार के दंश का मजाक सा बनाकर रख दिया।

एक घटना की बानगी देख‍िए- जब 20 साल तक यौन शोष‍ित होती रही महिला अचानक अपने नारीत्व को लेकर च‍िंतित हो उठती है और फटाफट आरोप उस व्यक्ति पर जड़ देती है जिससे उसे ''कोई भी'' लाभ उठाना होता है और जिसे वह ''यौन शोष‍ित'' रहते हुए नहीं उठा पाई।
सवाल उठता है कि क्या इतने सालों तक उसे भान नहीं हुआ कि वह शोष‍ित हो रही है।

ऐसा ही उदाहरण कल तब एक खबर में सामने आया जब Rape victim वाले बयान को लेकर अभ‍िनेता सलमान खान से हरियाणा के हिसार की एक गैंगरेप पीड़िता ने अपने वकील के ज़रिए 10 करोड़ रुपए मुआवजा मांगा है। मुआवजे की वजह इतनी बेसिरपैर की है कि इसे सिर्फ लाइमलाइट में आने का एक स्टंट ही कहा जा सकता है ।
इस रेप विक्टिम ने कहा कि सलमान के इस बयान से उसे मानसिक आघात पहुंचा है। पीड़िता ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के माध्यम से भेजे गए नोटिस में कहा है कि उनकी इस सार्वजनिक टिप्पणी से उसकी छवि धूमिल हुई है। शिकायतकर्ता ने बताया कि अभिनेता के बयान से उसे गहरी चोट लगी है, और वह अभी भी एक मानसिक और शारीरिक आघात से गुजर रही है। खबरों के मुताबिक नाबालिग दलित लड़की के साथ 8 लड़कों ने गैंगरेप किया था। घटना से आहत 18 सितंबर, 2012 को पीड़िता के पिता ने आत्महत्या कर ली थी।
पीड़िता के वकील ने कहा कि इस कानूनी नोटिस के जरिए मैं मेरे मुवक्किल की ओर से नोटिस प्राप्त होने के  15 दिनों के अंदर 10 करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग करता हूं। ऐसा नहीं करने पर सलमान के खिलाफ सिविल और आपराधिक कानून का उल्लंघन का मामला दर्ज कराया जाएगा।

दरअसल सलमान ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘सुल्तान’ के कुश्ती वाले दृश्यों की शूटिंग करने के बाद इतनी थकान होती थी कि मैं जब चलकर अखाड़े से बाहर आता तो रेप पीड़िता जैसा महसूस होता था, यह बेहद मुश्किल था, मैं कदम आगे नहीं बढ़ा सकता था।निश्च‍ित ही सलमान खान के इस बयान की जितनी भर्त्सना की जाए उतनी कम है, मगर इस तरह 2012 में अपने ऊपर हुए एक जुल्म को कैश किया जाना कहां तक उचित है, व‍ह भी तब जबकि सलमान खान का इस घटना से दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं।
अब आप ही बताइये कि क्या यह भी एक बलात्कार नहीं कि जो हमारी सहानुभूतियों और सुधारक सोचों के साथ किया जा रहा है और बलात्कार पीड़‍िताओं का मजाक उउ़ाया जा रहा है, गोया वो बलत्कृत हुईं क्योंकि उन्हें मुआवजा चाहिए था। ऐसे में तो न्याय व्यवस्था भी भुक्तभोगियों के साथ निष्पक्ष नहीं हो पाएगी। 

कुल्हाड़ी पर पैर मारने वाली इस भयंकर प्रवृत्ति से हमें बचना भी है और बलात्कार के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग न होने बचाना भी है ताकि दहेज के लिए बने कानून की भांति बलात्कार भी निर्दोंषों को फांसने का साधन न बन जाए।
- Alaknanda singh

रविवार, 19 जून 2016

ब-ज़रिए Twitter : तो क्या पाकिस्तान अब कठमुल्लावाद से मुक्ति चाहता है

पिछले कुछ महीनों से हम जिस पाकिस्तान को कठमुल्लाओं से घ‍िरा पाते थे , उसमें तब्दीली आने की उम्मीद जागी है और इस उम्मीद का सबब बना है सोशल साइट Twitter के ज़रिए आती कुछ खबरों को देखकर । इन खबरों ने न सिर्फ पाकिस्तानी नियामक संस्थाओं, नेताओं और कथ‍ित इस्लामी ठेकेदारों और इन्हें बढ़ावा देने वाले इनके सरमाएदारों के स्वार्थी  नज़रिए को उजागर कर दिया बल्कि यह भी जता दिया कि अगर अवाम जाग जाऐ तो इसी तरह बख‍िया उधेड़ी जाती है जैसे कि इन तीन खबरों में उधेड़ी जा रही है। लोग गुस्से का इज़हार कर रहे हैं और इज़हार कर पा रहे हैं इसीको बदलाव का वायस माना जा सकता है।
ये तीनों खबरें देख‍िए –
खबर नं. एक- 19 june
रमज़ान शो पर पाबंदी से पाक सोशल मीडिया नाराज़
पाकिस्तान के ट्विटर यूज़र देश की मीडिया नियामक संस्था के दो रमज़ान शो के प्रसारण पर रोक लगा देने से ग़ुस्से में हैं. पाकिस्तान की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी यानी पेमरा (पीईएमआरए) ने अभिनेता और टीवी शो होस्ट शब्बीर अबू तालिब के आज टीवी और न्यूज़ वन प्राइवेट चैनल पर चलने वाले रमज़ान शो पर पाबंदी लगा दी है.
पेमरा के अनुसार उन्हें रमज़ान से जुड़े शो के प्रसारण के बारे में व्हाट्सऐप, ट्विटर और टेलीफ़ोन कॉल के ज़रिए 1,000 से अधिक शिकायतें मिली. इन्हीं शिकायतों के आधार पर उन्होंने शुक्रवार को पाबंदी जारी की है. शिकायत करने वालों का कहना है कि शो में उत्तेजक सामग्री का प्रसारण किया गया.
हमज़ा अपने शो “रमज़ान हमारा ईमान” में अल्पसंख्यक अहमदी समुदाय और ईशनिंदा क़ानून के बारे में चर्चा करते दिखते हैं.
ट्विटर पर लोग पेमरा के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ जमकर बरसे.
यूजर इमरान ग़ज़ाली ने ट्विट किया, “@iamhamzaabbasi पर प्रतिबंध लगाने के लिए #PEMRA को शर्म आनी चाहिए. अथॉरिटी टीवी पर सभी तरह का कूड़ा दिखाने की इजाज़त देती है लेकिन एक व्यक्ति पर हमला करती है!”
काशिफ़ एन चौधरी नाम के यूज़र का कहना है, “ऐसे देश पर दया आती है जहां आपके सवाल पूछने पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं. “क्या सभी देशवासियों के अधिकार समान नहीं हैं?” जिन्ना का पाकिस्तान रो रहा है! #PEMRA”
इसी तरह, ट्विटर यूज़र इलमाना ने ट्विट किया, “#HamzaAliAbbasi ने इंसानी जीवन की पवित्रता को बनाए रखने पर एक उचित सवाल उठाया और मुल्ला उनकी जान के प्यासे हो गए.”
इससे पहले पेमरा ने रमज़ान महीने के दौरान रेप, हत्या, डकैती और आत्महत्या जैसे अपराधों को दिखाने वाले शो पर पाबंदी का ऐलान किया था.
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खबर नं. 2- 12 june
जब धर्म का कारोबारी ये सब कर रहा था तब उसका रोज़ा था
पाकिस्तान में एक इस्लामी राजनेता की सोशल मीडिया पर जमकर आलोचना हो रही है. उन्होंने एक टीवी शो में नारीवादी कार्यकर्ता मार्वी सर्मद के लिए भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया था. शुक्रवार को एक निजी चैनल के कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग के दौरान जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (फ़ज़ल) के नेता हाफ़िज़ हमीदुल्ला ने मार्वी सर्मद को गालियां दीं.
कार्यक्रम में एक अन्य मेहमान बेरिस्टर मसरूर की टिप्पणी पर जब मार्वी ने कहा कि ‘मैं सहमत हूँ’ तब हमीदुल्ला और मार्वी के बीच बहस शुरू हो गई जो धमकी और गाली-गलौच तक पहुँच गई. मार्वी ने हमीदुल्ला की आलोचना अपने फ़ेसबुक पन्ने और ट्विटर पर की है.
उन्होंने लिखा, “जब धर्म का कारोबारी ये सब कर रहा था तब उसका रोज़ा था.”
हमीदुल्ला पाकिस्तानी संसद के उच्च सदन सीनेट के सदस्य भी हैं. ट्विटर पर बहुत से लोगों ने सांसद और इस्लामी नेता हमीदुल्ला के व्यवहार को शर्मनाक़ बताया है.
मुनिज़ा-ए-जहांगीर (@MunizaeJahangir ) ने लिखा, “मैं मार्वी पर हमीदुल्ला के शारीरिक और ज़बानी हमले की निंदा करती हूँ. जमीयत और उनका समर्थन करने वाले नेताओं को शर्म आनी चाहिए.”
एक अन्य यूज़र डॉक्टर राशिद अली ने लिखा, “मैं मार्वी सिर्मद का फ़ैन नहीं हूं लेकिन हमीदुल्ला का व्यवहार शर्मनाक है. एक तोता याद तो कर सकता है लेकिन समझ नहीं सकता.”
शफ़ाक़त महमूद (‏@Shafqat_Mahmood ) ने लिखा, “ये महिलाओं के प्रति उनके नज़रिए का उदाहरण है.”
वहीं कुछ लोगों ने मार्वी की आलोचना भी की है.
तलहा बिन हामिद (@talhamid ) ने लिखा, “मार्वी की आलोचना क्यों नहीं हो रही है? क्या महिला और उदारवादी होना का मतलब ये है कि वो धर्मगुरू के साथ बुरा बर्ताव करें और बच जाएं.”
काशिफ़ (@aSuaveJerk ) ने ट्वीट किया, “मुझे नहीं लगता कि हाफ़िज़ हमीदुल्ला ने सिर्मद को पीटने की कोशिश की, न ही हालात इतने ख़राब थे. सिर्मद के दावों पर शक होता है.”
कुछ लोगों ने ये भी कहा कि इन दोनों को राष्ट्रीय टीवी की बहसों से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए
सबीना सिद्दीक़ी (@sabena_siddiqi ) ने लिखा, “राष्ट्रीय टीवी पर भद्दी लड़ाई. मार्वी और मुल्ला दोनों को टीवी की बहसों से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए.”
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खबर नं. 3- 28 may
पेमरा ने कंडोम के विज्ञापनों के रेडियो और टीवी प्रसारण पर प्रतिबंध लगा दिया
पाकिस्तान में प्रसारण नियामक संस्था पेमरा ने कंडोम के विज्ञापनों के रेडियो और टीवी प्रसारण पर प्रतिबंध लगा दिया है.
सभी मीडिया संस्थानों को भेजे गई एक अधिसूचना में पेमरा ने टीवी और रेडियो चैनलों से परिवार नियोजन साधनों के विज्ञापनों के प्रसारण पर तुरंत रोक लगाने के लिए कहा है.
पेमरा को ग़ैर ज़रूरी परिवार नियोजन साधनों के विज्ञापन के बारे में शिकायतें मिली थीं जिन पर कार्रवाई करते हुए ये क़दम उठाया गया है.
अधिसूचना में कहा गया है कि मासूम बच्चों पर ऐसे प्रॉडक्टों के विज्ञापनों का ग़लत असर पड़ सकता है.
पाकिस्तान में कंडोम के विज्ञापन कम ही प्रसारित किए जाते हैं और परिवार नियोजन जैसे विषयों पर बात भी कम ही होती है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ देश के कट्टरपंथियों और रूढ़िवादियों के विरोध को देखते हुए विज्ञापनकर्ता इससे दूर ही रहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पाकिस्तान की एक तिहाई आबादी को परिवार नियोजन साधन तक पहुँच नहीं है, हालाँकि पाकिस्तान की आबादी सालाना दो प्रतिशत से अधिक की दर से बढ़ रही है.
सोशल मीडिया पर पेमरा के इस निर्णय की कई लोग आलोचना कर रहे हैं.
फ़हमिदा इक़बाल ख़ान ने ट्वीट किया, “पेमरा कुछ तो समझदारी दिखाओ. ये 21वीं सदी है, कृपया जनजागरूकता अभियान को न रोको.”
एक यूजर ने @aunty_karachi हैंडल से ट्वीट किया, “पेमरा को अश्लीलता पर फ़़ोकस करना चाहिए जागरूकता पर नहीं!”
इमरान सईद ख़ान ने ट्वीट किया, “प्रिय पेमरा, परिवार नियोजन विज्ञापनों को बैन मत करो. इन दिनों कुछ अवांछित वयस्क गर्भनिरोधकों की जानकारी नहीं होने के कारण पैदा हुए.”
गुल बुख़ारी ने ट्वीट किया, “काश पेमरा अफ़सरों के माता-पिता ने कंडोम का इस्तेमाल किया होता.” एक अन्य यूज़र नाइला इनायत ने ट्वीट किया, “किसी को पेमरा को बताना होगा कि विज्ञापनों का प्राथमिक उद्देश्य क्या है. क्या वे इस्लामिक विचारधारा परिषद से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं?”
– Alaknanda singh

मंगलवार, 14 जून 2016

यूज…मिसयूज की सीमाओं को लांघ आज ट्विटर पर ट्रेंड हुआ #MissYouSattu!


कभी कभी कायदे कानूनों से घि‍री रूटीन लाइफ से हटकर कुछ हास्यास्पद घटना सामने आए तो इसे तराजू लेकर तोलने नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि इसका पूरा आनंद लेना चाहिए। आज माइक्रोब्लॉगिंग साइट Twitter ने हमें ये मौका दिया #MissYouSattu! क माध्यम से।
आज सुबह से ही एक अजीब सा हैशटैग ट्रेंड कर रहा था #MissYouSattu! जीहां , ये सत्तू … कोई वो गरमियों वाला ब्रेकफास्टी सत्तू नहीं था जिसे दादी-नानी चीनी, पानी के साथ और कभी कभी नीबू और नमक के साथ घोलकर पीने को दे देती थीं ताकि गरमी भी शांत हो और भरपूर पौष्टिकता भी मिल जाए। ये सत्तू तो भारत का ऐसा पहला कुत्ता बन गया है जो मरने के बाद आज ट्विटर पर ट्रेंड #MissYouSattu! के हैशटैग के साथ ट्रेंड करता रहा और डिजीटल- सोशल माइक्रोब्लॉगिंग साइट पर इतिहास बनाता हुआ अमर हो गया। बहुत हैरान थी मैं जब ट्विटर लॉगइन करते ही एक अजीब से फनी हैशटैग पर नजर पड़ी जो किसी सत्तू को मिस कर रहा था। बात अजीब सी इसलिए लग रही थी कि मेरी जानकारी में आई खबरों के मुताबिक पिछले 24 घंटों में ऐसा कोई भी कुत्ता नहीं मरा था जिसका नाम सत्त्तू हो । थोड़ा और आगे बढ़ने पर देखा कि #MissYouSattu! ट्रॉलिंग में सबसे ऊपर आता जा रहा है और इस तरह सत्तू को आख‍िर खोज निकाला गया।


दरअसल ह्यूमर के लिए चलाया गया हैशटैग था #MissYouSattu! क्योंकि अपने यहां फिल्म से लेकर राजनीति और सामाजिक जगत में भी कुत्ता अपनी न सिर्फ स्वामीभक्ति से अलग और स्पेशल हैसियत रखता है बल्कि कभी मजाक का पात्र बनकर तो कभी गुस्से का वायस बनकर अपने नाम को रोशन बनाए हुए है । वजह चाहे ढेर सारी रहीं मगर ट्विटर पर ट्रेंड हुआ #MissYouSattu! जिसे हर किसी ने अपने अपने हिसाब से अपने अपने सत्तू को गढ़ा, और व्यंग्य का हैशटैग बन गया सत्तू।
ज़रा बानगी देख‍िए कि सत्तू को किस किसने किस तरह से अपने लिए ट्रेंडिंग हैशटैग बनाया।
kancha bahu ने कहा-
“Who let the dog out” me jo kutta bhoka tha wo hamara #Sattu hi tha #MissYouSattu
Ahmar Khan ‏@imahmarने कहा-
सत्तू की मौत का कारन धर्मेन्द्र जी है हर बार सत्तू का खून पि जाते थे खून की कमी से मर गया बेचारा सत्तू #MissYouSattu
Lalu prasad Yadav ‏@Thakur_sholay ने लिखा
Last time, Sattu spotted on Azam’s buffalo #MissYouSattu
Kachra Peti ‏@kachra_peti ने लिखा
Sattu Jayanti per Dharmendra bhi hue gamgeen,apna khoon dekar ki thi Sattu ko bachane ki koshish. #MissYouSattu
nin ‏@NautankiNinja ने लिखा
Sattu’s friend interacting with the media at the press conference. #MissYouSattu
Ahmar Khan ‏@imahmar ने लिखा
Pappu is always playing with the emotions of sattu #MissYouSattu
अजय मोहन ने लिखा- भारत का पहला कुत्ता जो मरने के बाद हुआ ट्विटर पर ट्रेंड #MissYouSattu
Khushi #उड़ती दिल्ली ‏@khushi2434 ने लिखा
सत्तू हमे छोड़ के चला गया और मोदी जी ने अफ़सोस भी नहीं जताया 😢 Modi should Resign #MissYouSattu
Bobby Deol ‏@thebobbydeoll ने लिखा
Sattu last seen with kitty in Goa #MissYouSattu
Yashwant Deshmukh Verified account ‏@YRDeshmukh ने लिखा
#MissYouSattu मंत्री जी के गाँव में बिजली लाने के वादे से सबसे ज़्यादा तुम खुश हुए थे. बिजली तो आई नहीं पर खंभे ज़रूर तुम्हारे काम आए…
Yashwant Deshmukh Verified account ‏@YRDeshmukh ने लिखा
#MissYouSattu तुमने कभी भी बीफ और पोर्क के नाम पर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं किया. जो भी ऊपर वाले ने दिया; प्यार से मिल-बाँट के खाया.
ɹәәɥp ʇdɐɔ ‏@CaptDheer ने लिखा
पाकिस्तान के क्रिकेटर-नेता इमरान ख़ान ने जताया सत्तू की मौत पर खेद, बोले हर पाकिस्तानी नागरिक है सत्तू। #MissYouSattu
बहरहाल #MissYouSattu! हैशटैग पर क्लिक कीजिए और ये मुगालता दिमाग से निकाल दीजिए ये सत्‍तू खाने वाला है। नहीं, ये तो भौंकने वाला है!!! सच में से भौंकने वाला था! क्‍योंकि अब तो ये सत्‍तू मर चुका है और ट्विटर पर लोग उसे श्रद्धांजलि दे रहे हैं।
वैसे जिस प्रकार लोग ट्विटर पर सत्‍तू को श्रद्धांजलि देने के बहाने मजे ले रहे हैं, उससे भले ही सत्‍तू की आत्‍मा को दु:ख पहुंच रहा हो, लेकिन सच पूछिए तो आज सत्‍तू अमर हो गया। सत्‍तू नाम का यह कुत्‍ता भारत का ऐसा पहला कुत्‍ता है, जो मरने के बाद ट्विटर पर ट्रेंड हो रहा है।

- अलकनंदा सिंह

रविवार, 12 जून 2016

”उड़ता पंजाब”: आईने को तोड़कर अपनी शक्ल नहीं सुधारी जा सकती

भगवान बुद्ध की कही हुई एक उक्ति है कि तीन चीजें किसी के भी छुपाए नहीं छुप सकतीं- सूर्य , चंद्र और सच ( Three things cannot be long hidden: the sun, the moon, and the truth: Buddha) मगर पंजाब का सच कितना कड़वा है, ये तो अकेली फिल्म ”उड़ता पंजाब” भी नहीं दिखा सकती फिर भी हम अभ‍िशप्त हैं ऐसी फिल्मों पर कैंची चलाने वाले व स्वयं को ”मोदी भक्त” कहने वाले सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी की कारस्तानी सोच को ढोने के लिए। ये बात अलग है कि सरकार के मंत्री रवीशंकर प्रसाद ने उनकी मोदी भक्ति को ठुकरा दिया, लेकिन बात निकली तो दूर तलक गई भी।

फिल्म ”उड़ता पंजाब” की रिलीज आप पार्टी और बीजेपी व अकाली दल में बंट गई। पहलाज निहलानी द्वारा अपनी सफाई में बहस का रुख इतनी सफाई से मोड़ा गया कि जिस समस्या पर फिल्म बनी थी, अब उस पर तो कोई बात नहीं कर रहा अलबत्ता राजनीतिक फायदे और नुकसान पर बात होने लगी।

पंजाब में नशे का ज़हर जिस तरह नेताओं ने बोया और पूरा पंजाब इसकी गिरफ्त में आ गया, इसी सच को छिपाने के लिए जानबूझकर फिल्म ”उड़ता पंजाब” को राजनीति में धकेला गया।

मैंने अनुराग कश्यप की मुबई ब्लास्ट पर ”ब्लैक फ्राई डे” देखी है, सच कहने में उन्हें कभी कोई गुरेज नहीं हुआ। उनकी गैंग्स ऑफ वासेपुर भी देखी है, उसमें भी क्या झूठ दिखाया गया था कि कोल माफिया और अपराध किस तरह गुंथे हुए हैं। आज बिहार स्वयं अपनी जुबानी वही सच बोल रहा है। फिर ”उड़ता पंजाब” पर हम सच को क्यों नहीं देख पा रहे , वह तो डायरेक्टर अभ‍िषेक चौबे की फिल्म है, अनुराग कश्यप फिल्म के सिर्फ प्रोड्यूसर हैं।

सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष इस राजनीति का सूत्रधार हो तो उसके पद पर बने रहना ‘समाज का सच’ दिखाने वालों पर भारी पड़ सकता है। ये बिल्कुल उसी तरह से है जैसे कि किसी घर का मुख‍िया सच को लेकर दोहरे मापदंड रखता हो, खुद जो कहे वही सच बाकी सब झूठ…। पहलाज निहलानी का रवैया भी यही है, उनकी मसाला फिल्मों में क्या क्या नहीं दिखाया गया, सब जानते हैं। फिर दर्शक तो अब इतने समझदार हो गए हैं कि उन्हें क्या देखना , कितना देखना है, कब और कहां देखना है आदि का फैसला वे स्वयं कर लेते हैं। उन्हें तो फिल्म की रिलीज से पहले भी फिलम देखने को मिल ही जाएगी, तो भी अड़ंगा क्यों।

सोशल मीडिया के पल पल बदलते घटनाक्रमों के बीच निहलानी का ये कदम हास्यास्पद ज्यादा लगता है। यूं भी पहलाज निहलानी और कंट्रोवर्सी लगभग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब से वे सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने हैं, तब से लगातार विवादों में हैं। फिल्मों में सेंसरशिप का लेकर उनका संकुचित नजरिया उन फिल्मकारों को पसंद नहीं आ रहा है जिनकी फिल्मों पर सिर्फ निहलानी की अड़‍ियल सोच के कारण अच्छी खासी कैंची चलाई जा रही है।

अभी कुछ दिन पहले की बात है जब जेम्स बॉन्ड पर निहलानी का कहर बरपा, जेम्स बॉन्ड सीरीज की नई फिल्म में चुंबन दृश्यों को काट दिये जाने के बाद ही वह प्रदर्श‍ित की जा सकी। अब ज़रा सोचिए जेम्स बॉन्ड सीरीज की फिल्में चलती ही चुंबन दृश्यों से हैं, वे भी काट दिए जाऐं तो बचेगा क्या। अब तो भारतीय दर्शक टीवी पर भी  इतने चुंबन दृश्य देख लेते हैं जितने जेम्स बॉन्ड में आते हैं।

बहरहाल जेम्स बॉन्ड प्रकरण के बाद शरारती सोशल मीडिया में निहलानी साहब उपहास के पात्र बन गए, और संस्कारी जेम्स बॉन्ड श्रृंखला के अनेक चुटकुले उन्हें केंद्र में रखकर रचे गए थे लेकिन उड़ता पंजाब फिल्म में 89 कट्स की बात के बाद अब मामला अधिक संगीन हो गया है।

”उड़ता पंजाब” फिल्म पंजाब में कुख्यात नशाखोरी की समस्या पर केंद्रित है। पंजाब में कुछ माह बाद ही चुनाव होने जा रहे हैं। पंजाब में नशाखोरी की समस्या के सर्वव्यापी हो जाने के लिए वहां सत्तारूढ़ भाजपा-अकाली दल गठबंधन सरकार को दोषी ठहराया जा रहा है और बताया जाता है कि इस फिल्म में भी सरकार को भी आड़े हाथों लिया गया है।

आईने को तोड़कर अपनी शक्ल नहीं सुधारी जा सकती, पंजाब देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में से एक है। इस सूबे के नौजवानों की बदहाली के लिए आखिर कौन जवाबदेह है। वहां ड्रग्स की लत और नशाखोरी का यह आलम है कि सीमावर्ती गांवों में जहां देखो, सुइयां और सीरिंज बिखरी हुई दिखाई देती हैं। नशे की लत से नौजवानों की यह हालत हो गई है कि वे अब काम करने की हालत में भी नहीं रह गए हैं। उनका पूरा वक्त अपनी लत पूरी करने की कोशिशों में ही जाया हो जाता है। पंजाब की सरहदें पाकिस्तान को छूती हैं। एक वक्त था, जब देश की सेनाओं में सर्वाधिक संख्या में भर्ती पंजाबी युवकों की ही होती थी। लेकिन आज वे ही युवक नशे से निढाल हैं। इसके पीछे किसी पाकिस्तानी साजिश से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

नशे की लत के शिकार अधिकतर नौजवान 15 से 35 वर्ष उम्र के हैं। जो पैसे वाले हैं, वे हेरोइन का नशा करते हैं। जो गरीब-गुरबे हैं, वे स्थानीय फार्मेसी से सिंथेटिक ड्रग्स खरीदते हैं। The Newyork times में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया था कि आज पंजाब के हर तीसरे कॉलेज छात्र में से एक नशे का आदी हो चुका है। पंजाब की लगभग 75 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में नशे का सेवन कर रही है। ये भयावह आंकड़े हैं।

अर्धसैनिक बलों में पहले जिन पंजाबी युवकों की भरमार होती थी, अब उनके लिए उन्हें अनफिट पाया जा रहा है। एक जमाना था, जब सेना में जाना हर पंजाबी युवक का सपना होता था और वह बचपन से ही इसकी तैयारी शुरू कर देता था। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मन की बात कार्यक्रम में इस समस्या को उठा चुके हैं। उन्होंने संकेत किया था कि सीमावर्ती पंजाब में पाकिस्तान से ड्रग्स की तस्करी की जाती है, जिसका मकसद भारतीय नौजवानों को भीतर से खोखला बना देना है। इसके पीछे ISI का भी हाथ हो सकता है, बावजूद इसके पंजाब की बादल सरकार द्वारा इस बारे में कुछ नहीं किया गया जबकि भाजपा उसकी सहयोगी पार्टी है।

जब इस नशाखोरी की ज्वलंत समस्या पर एक फिल्म बनाई जाती है तो खुद को प्रधानमंत्री का विश्वस्त बताने वाले पहलाज निहलानी आखिर उस पर कैंची चलाने को क्यों आमादा हो जाते हैं? क्या उन्हें लगता है कि उड़ता पंजाब में 89 कट्स करके वे पंजाब की इस भीषण समस्या पर परदा डालने में कामयाब हो जाएंगे? यह बादल सरकार के प्रति पंजाबियों की घोर वितृष्णा का ही परिणाम था कि अरुण जेटली जैसे कद्दावर नेता अमृतसर से लोकसभा चुनाव हार गए थे और पंजाब में ”आप” के चार प्रत्याशी चुनाव जीत गए थे।

अनुराग कश्यप की फिल्म पर कैंची चलाकर मतदाताओं के असंतोष को और भड़काया ही जा सकता है, कम नहीं किया जा सकता। फिल्म उड़ता पंजाब में से उसके शीर्षक सहित तमाम स्थानों से पंजाब का संदर्भ हटा देने का आदेश सेंसर बोर्ड ने दिया है। यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण है। निहलानी यह भी कह रहे हैं कि कश्यप की इस फिल्म को आम आदमी पार्टी सरकार का वित्तीय समर्थन प्राप्त है। अगर ऐसा है तो अरविंद केजरीवाल अपनी रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं। ना केवल फिल्म को प्रचार मिल रहा है, बल्कि निहलानी की बातों से सरकार की भी बदनामी हो रही है।

जो भी हो बॉलीवुड बनाम सेंसर बोर्ड की ऊपर से नजर आने वाली लड़ाई के पीछे अनेक राजनीतिक पहलू हैं, जो कि धीरे-धीरे उभरकर सामने आते रहेंगे।

एक बात तो साफ हो गई कि अब फिल्म अपने अनकट्स के साथ इंटरनेट पर ढूढ़ी जाएगी और वह देखी भी जाएगी। निहलानी, राज्य सरकार और केंद्र सरकार विवाद को उलझाकर ये ही बता रहे हैं कि ये सभी उन नौजवानों की ओर से कितने बेपरवाह हैं जो शाम को अपने घर गली गली झूमते गि‍रते पड़ते बमुश्किल पहुंच पाते हैं। जो पंजाब कभी गबरू नौजवानों के लिए प्रसिद्ध था, व‍ह आज इसलिए जाना जा रहा है कि उसके बच्चे नशे की भेंट चढ़ाए जा रहे हैं, वह भी राज्य सरकार की नीतियों के चलते और अब तो सेंसर बोर्ड भी इस सच को छुपाने का गुनहगार माना जाएगा।

चलिए इसी बात पर  ”शाद आरफी” का ये शेर कि –
कहीं फ़ितरत के तक़ाज़े भी बदल सकते हैं
घास पर शेर जो पालोगे तो पल जाएगा।

राजनीति इसी शै का नाम है जो समाज को, नौजवानों को, पंजाब को खोखला किए दे रही है और हम देख रहे हैं कि शेरों को घास पर भी नहीं नशे पर पाला जा रहा है।

– अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 10 जून 2016

ये कैसे संत और कैसी इनकी संतई… !

कुछ समय पहले एक शब्द हमारी संवेदनाओं को खंगालता हुआ आया, ”असहिष्णुता”, जितना लिखने में कठिन उतना ही बोलने और समझने-समझाने में। सारी सोशल साइट्स पर यह अपने अपने तरीके से ट्रेंड करने लगा। एक स्थापित सी मान्यता बन गई कि हिंदू बनाम मुसलमान यदि कुछ भी घटित हुआ तो बड़ी असहिष्णुता है जी, घटना घटित हुई नहीं कि सोशल मीडिया पर हाय- हाय शुरू।
इस असहिष्णुता के दायरे में हिंदू-मुसलमान के मनमुटाव तो आ गए मगर वो अत्याचार दब गए जो सबल किसी निर्बल पर करते हैं।
वृंदावन में इसी असहिष्णुता का हाल ही में एक वाकया सामने आया, जिसका हीरो था तथाकथि‍त संत समाज और असहिष्णुता सह रही थीं मृत देहें।
जी हां, मथुरा के जवाहर बाग कांड में कथित सत्याग्रहियों की मृत देहें ।
पूरा घटनाक्रम कुछ इस प्रकार था कि मथुरा में उद्यान विभाग की भूमि ”जवाहर बाग ” पर लगभग सवा दो साल पहले बाबा जय गुरुदेव के बागी श‍िष्य पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के रहने वाले रामवृक्ष यादव ने कब्जा कर लिया, कब्जा करने को बहाना शुरुआत में तो सिर्फ धरना कहा गया फिर उनकी असली मंशा जवाहर बाग की कुल 280 एकड़ भूमि को कब्जाने की थी इसीलिए उसने न सिर्फ अपना जनबल, धनबल बढ़ाया बल्कि बारूद का ढेर इकठ्ठा कर लिया। मंसूबे खतरनाक थे। कहा जा रहा है प्रदेश सरकार के मंत्रियों की शह पर सब कुछ हुआ, कब्जा हटवाने के लिए हुए आख‍िरी रण में दो पुलिस अफसर एसपी सिटी मुकुल द्व‍िवेदी और एस ओ संतोष यादव शहीद हो गए। अफसरों के शहीद होते ही पुलिस ने जवाहर बाग में मौजूद रामवृक्ष के सहयागियों पर गोलियां दागीं, तो कुछ कब्जाधारी अपनी ही लगाई आग में घ‍िर कर मर गए। ऐसे मरने वालों की संख्या ऑन रिकॉर्ड कुल 27 बताई जा रही है। ये कथ‍ित कब्जाधारी मथुरा प्रशासन को ही नहीं, स्थानीय जनता को भी बेहद परेशान करते थे। जाहिर है क‍ि उनके प्रति जो घृणा थी वह पुलिस अफसरों के शहीद होने पर भयंकर रूप ले चुकी थी। ऐसे में जो कब्जाधारी बच गए, वो भाग खड़े हुए, कुछ जनता के हाथ पड़ गए। जो मर गए उनका अंतिम संस्कार किया जाना था, सो कुछ मथुरा के मोक्षधाम (श्मसान) पर लाए गए तो कुछ को वृंदावन ले जाया गया।


पुलिस पोस्टमॉर्टम के बाद जिन मृतकों को वृंदावन के मोक्ष धाम पर अंतिम संस्कार के लिए ले गई उनको स्थानीय संतों के विरोध का सामना करना पड़ा और मोक्षधाम में प्रवेश करने की इजाजत नहीं मिली।
संतों का नेतृत्व कर रहे महामंडलेश्वर नवल गिरि और संत फूलडोल बिहारीदास महाराज ने मोक्षधाम पर धरना देते हुए पुलिस वालों से कहा कि यह पुण्यात्माओं की भूमि है, यहां इन पापात्माओं की मृत देहों के लिए कोई स्थान नहीं। हारकर पुलिस उन मृत देहों को लेकर पानीगांव, यमुना किनारे गई और वहां उनका अंतिम संस्कार किया गया।
 
मेरा सवाल यहीं से है– कि मरने वाला पापात्मा था या पुण्यात्मा, ये कौन निर्णय करेगा। हमारे यहां तो अर्थी को नमन करने का प्रावधान इसीलिए गया बनाया गया है कि मृत देह में कोई व्यसन, कोई दुर्गुण शेष नहीं रहता, वह देह ही हमें भान कराती है कि जो कुछ था अच्छा या बुरा हमें सब यहीं छोड़ जाना है। फिर वृंदावन के इन संतों को इतनी सी बात कैसे समझ नहीं आई। और यदि वे संत होने के बाद भी किसी के प्रति इतनी घृणा रख सकते हैं तो उनकी संतई किस काम की, इनसे अच्छे तो वे मूढ़ हैं जो दोस्ती, दुश्मनी, घृणा व प्रेम सब जो करते हैं उसके लिए उन्हें चोले की आवश्यकता नहीं पड़ती।
 
मेरा दूसरा सवाल इन्हीं संतों से– कि वे किस आधार पर पुण्यात्मा और पापात्मा में विभेद कर रहे थे। ये कैसे संत हैं जो इसी पुण्य भूमि में पल रहे अपराधों पर चुप्पी साधे रहते हैं।

वृंदावन आने वाले दर्शनार्थी जानें या न जानें मगर हम तो जानते हैं, और इसी आधार पर इन संतों से पूछ भी सकते हैं कि ये कैसे संत हैं जो अपनी आंखों के सामने ड्राई एरिया होते हुए भी लगातार पनप रहे शराब के अड्डों, पांच सितारा आश्रमों में ब्लैकमनी का अंधाधुंध इन्वेस्टमेंट करके उनमें बाहर से आकर अय्याशी करने वाले धनाढ्य वर्ग के लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं।

ये कैसे संत हैं जो निर्बल संतों के जर्जर से दिखने वाले आश्रमों पर भूमाफिया के कब्जे को लेकर कुछ नहीं बोलते, एक शब्द भी नहीं… क्यों।

ये कैसे संत हैं जो किसी दुकान या प्रतिष्ठान का उद्घाटन करने की एवज में भारी धन राश‍ि ”दान” स्वरूप लेते हैं। गोया अपना आशीर्वाद भी बेच रहे हों।

अन्य धार्मिक स्थलों का तो पता नहीं लेकिन मथुरा-वृंदावन की बात मैं बता सकती हूं कि रातों रात उग आने वाले आश्रमों के पीछे की हकीकत क्या है और कौन कितना बड़ा ”संत” है।
ये कैसे संत हैं जो ”भक्तों” के रूप में राष्ट्रपति, सांसद हेमा मालिनी, प्रदेश सरकार की पूरी मंडली को अपने आश्रमों पर लाने के लिए बाकायदा मार्केटिंग करते हैं ।

ये किस्सा जवाहर बाग के कथ‍ित सत्याग्रहियों की मृत देहों को मोक्षधाम में स्थान न दिए जाने से शुरू अवश्य हुआ मगर यही इनके ”चोलों” के भीतर झांकने का माध्यम भी बन गया और इनकी लाइमलाइट पॉलिटिक्स का सच भी बता गया।

मृत देहों के प्रति वृंदावन के इन प्रसिद्ध संतों द्वारा दिखाई असहिष्णुता के लिए किसी ने भी दो शब्द नहीं बोले और ना ही लिखे, हां हर समाचार पत्र ये जरूर लिखता रहा कि पुलिस अफसरों की शहादत के कारण संत भी रोष में आ गए, जबकि हकीकत तो कुछ और ही थी ।

हिंदू-मुसलमान के इतर इस असहिष्णुता पर किसी की भी संवेदनशीलता नहीं जागी, क्योंकि यह अंधभक्ति का जमाना है और संतों के मुखालफत अपराध हो जाता है। सच तो ये है कि असहिष्णुता हिंदू व मुसलमानों का मुद्दा तो है ही नहीं, ये तो इस दौर की खालिस पॉलिटिक्स है जो मौके पर चौका लगाती है…बस।

बहरहाल, गीता में कहा भी गया है कि आत्मा एक शरीर को छोड़ते ही दूसरे में तत्काल प्रवेश कर जाती है तो भी इनके विरोध का क्या औचित्य रहा। मृत देहों को तो अंतत: यमुना किनारा मिल ही गया और ब्रज की रज भी।
इन जैसे (अब तो अध‍िकांशत: ऐसे ही शेष हैं) संतों के लिए कबीर दास का कहा सही लगता है,

“संत न छोड़े संतई, चाहे कोटिक मिले असंत |
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग ||”

– अलकनंदा सिंह

सोमवार, 6 जून 2016

आप भी सीख लीजिए - ‘CPR 10’ क्योंकि ये जरूरी है

आकस्मिक कार्डियक अरेस्ट (हृदय गति रुकना) के कुछ चेतावनी संकेत होते हैं और 30 साल से ज्यादा उम्र के हर व्यक्ति को इस बारे में जानकारी होनी चाहिए। अगर मरीज पर ‘हैंड्स ओनली ‘CPR 10′(कार्डियो पल्मनरी रेस्यूसाईटेशन)10’ तकनीक अपनाई जाए तो आकस्मिक कार्डियक अरेस्ट से होने वाली मौत को 10 मिनट के भीतर ठीक किया जा सकता है। इसे सीखना बेहद आसान है और यह तकनीक देश के ज्यादातर लोगों को सिखाई जानी चाहिए।
 https://www.youtube.com/watch?v=Mo6XfFIbSEE
जब दिल का इलेक्ट्रिक कंडक्टिंग सिस्टम फेल हो जाता है और दिल की धड़कन अनियमित हो जाती है और यह 1000 बार से भी ज्यादा तेज हो जाती है तो इस स्थिति को तकनीकी तौर पर वेंट्रीकुलर फिब्रिलेशन कहा जाता है। इसके तुरंत बाद दिल धड़कना एक दम बंद कर देता है और दिमाग को रक्त का बहाव बंद हो जाता है। इस वजह से व्यक्ति बेहोश हो जाता है और उसकी सांस रुक जाती है। कार्डियक अरेस्ट दिल के दौरे की तरह नहीं होता, लेकिन यह हार्ट अटैक की वजह हो सकता है। ज्यादातर मामलों में पहले दस मिनट में कार्डियक अरेस्ट को ठीक किया जा सकता है। यह इसलिए संभव है क्योंकि इस समय के दौरान दिल और सांस रुक जाने के बावजूद दिमाग जिंदा होता है। इस हालत को क्लिनिकल डैथ कहा जाता है।
सिर्फ लगातार दबाने (सीपीआर) से दिल स्ट्रनम और पिछली हड्डी के मध्य दब जाता है और इससे बने दबाव से ऑक्सीजन युक्त रक्त दिमाग की ओर बहता रहता है और तब तक डीफिब्रिलेशन की सुविधा या एक्सपर्ट मेडिकल हेल्प पहुंच जाती है। इसलिए अगर आप किसी को आकस्मिक कार्डियक अरेस्ट की वजह से बेहोश होता देखें तो तुरंत उसकी जान बचाने का प्रयास करें।
ऐसी स्थिति में तेजी से काम करें, क्योंकि हर एक मिनट के साथ बचने की संभावना 10 प्रतिशत कम हो जाती है। यानी अगर 5 मिनट व्यर्थ चले गए तो बचने की संभावना 50 प्रतिशत कम हो जाएगी। कार्डियक अरेस्ट के पीड़ित को जितनी जल्दी सीपीआर 10 दिया जाए उसकी जान बचने की संभावना उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है।
हर साल 2,40,000 लोग हार्ट अटैक से मर जाते हैं अगर देश की 20 प्रतिशत जनता ‘हैंड्स ओनली सीपीआर’ तकनीक सीख ले तो इनमें से 50 प्रतिशत जानें बचाई जा सकती हैं। आसानी से सीखी जा सकने वाली यह तकनीक कोई भी कर सकता है और यह बेहद प्रभावशाली होती है।
बस इतना याद रखें कि जो व्यक्ति सांस ले रहा हो, उसकी नब्ज चल रही हो और वह क्लिनिकली जिंदा हो, उस पर इसे न अपनाएं। इसे 10 मिनट के भीतर अपनाएं और एंबुलेंस आने तक या व्यक्ति के होश में आने तक इसे जारी रखें। कार्डियक अरेस्ट किसी को भी, कभी भी और कहीं पर भी हो सकता है। लेकिन यह आसान तरीका किसी अपने की जान बचा सकता है।
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया का हैंड्स ओनली सीपीआर 10 मंत्र है – मौत के दस मिनट के अंदर बल्कि जितनी जल्दी हो सके कम से कम 10 मिनट तक (बालिगों को 25 मिनट तक और बच्चों को 35 मिनट तक) पीड़ित व्यक्ति की छाती के बीचों बीच लगातार जोर से 10 गुना 10 यानी 100 बार प्रति मिनट की रफ्तार से दबाएं।
ऐसे मौके पर अक्सर हल्के चेतावनी संकेत मिलते हैं, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन बातों पर गौर करना जरूरी है।
* 30 की उम्र के बाद एसिडिटी या अस्थमा के दौरे जैसे संकेतों को नजरअंदाज ना करें।
* 30 सेकंड से ज्यादा छाती में होने वाले अवांछनीय दर्द को नजरअंदाज ना करें।
* छाती के बीचोंबीच भारीपन, हल्की जकड़न या जलन को नजरअंदाज ना करें।
* थकावट के समय जबड़े में होने वाले दर्द को नजरअंदाज न करें।
* सुबह छाती में होने वाली बेचैनी को नजरअंदाज ना करें।
* थकावट के समय सांस के फूलने को नजरअंदाज ना करें।
* छाती से बाईं बाजू और पीठ की ओर जाने वाले दर्द को नजरअंदाज ना करें।
* बिना वजह आने वाले पसीने और थकावट को नजरअंदाज ना करें।
अगर इनमें से किसी भी तरह की समस्या हो तो मरीज को तुरंत पानी में घुलने वाली एस्प्रिन दें और नजदीकी डॉक्टर के पास ले जाएं। अगर कार्डियक अरेस्ट की वजह से किसी की सांस फूलने लगे तो उसके दिल पर मालिश करें या कार्डियो पल्मनरी रेस्यूसाईटेशन दें। सीपीआर के बिना किसी को भी मृत घोषित न करें।

- Alaknanda singh

बुधवार, 1 जून 2016

Verginity test: पाकीजगी के नाम पर रिश्तों का तमाशा

मैं आज टीना डाबी को केंद्रीय मंत्री डा. जितेंद्र सिंह से प्रशस्ति पत्र लेते हुए देख रही थी कि तभी मेरी नजर उस खबर पर पड़ी जो महाराष्ट्र के नासिक से आ रही थी, जहां एक पत्नी के ‘verginity test’ में फेल होने पर पति ने शादी के 48 घंटे बाद ही तलाक दे दिया। हद हो गई ये तो…कबीलाई सोच इस डिजिटल युग में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही।
पाकीजगी के नाम पर रिश्तों को तमाशा बनाने वाली यह घटना आज भी यह बताने के लिए काफी है कि लड़कियां चाहे कितना भी आगे बढ़ने का हौसला दिखायें, पुरुषवादी समाज उन्हें पीछे धकेलने में कोई कोताही नहीं बरतता। पाकीजगी का पैमाना भी अलग अलग हो और उसे मापने वाले भी वही हों जो पैमाना तय कर रहे हों तो न्याय देगा भी कौन, और मांगा भी किससे जाए।
बेशर्मी की एक और हद कि यदि यह कथ‍ित ‘वर्जिनिटी टेस्ट’ सिर्फ पाकीजगी का तमगा थामे पति ने ही नहीं लिया, गांव की पंचायत ने एक सफेद चादर देकर इस टेस्ट की तस्दीक पति से करवाई और पत्नी के ‘वर्जिनिटी टेस्ट’ में फेल होने पर पति ने शादी के 48 घंटे बाद ही तलाक दे दिया। हालांकि पत‍ि के अकेले लेने पर भी वह निंदनीय तो था ही, फिर भी हम मान लेते कि यह उनका आपसी मामला था परंतु यह कतई असहनीय ही नहीं आपराध‍िक कृत्य है कि जिले के एक गांव की पंचायत को नवविवाहित लड़की के पति ने बताया कि उसकी पत्नी वर्जिन नहीं है। इसके बाद पंचायत ने उसे अपने पत्नी से तलाक लेने की मंजूरी दे दी।
अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 22 मई को शादी के बाद जाति विशेष की पंचायत ने कथित तौर पर दूल्हे को एक सफेद रंग की चादर दी थी। दूल्हे से कहा गया था कि शादी की सारी रस्में पूरी होने के बाद इसे पंचायत को वापस लौटा दे। जब दूल्हे ने पंचायत को वह बैडशीट दिखाई तो उस पर ब्लड के निशान नहीं थे। इसके बाद पंचायत ने दूल्हे को शादी खत्म करने की अनमुति दे दी।
सदियों से महिला के लिए उसकी वर्जिनिटी उसकी इज्जत से जोड़ी गई है। आज हम भले ही चांद और मंगल पर पहुंच गए हों, लेकिन बात शादी की आते ही मामला लड़की की वर्जिनिटी पर अटक जाता है। आज भी ऐसे लड़कों की तादाद कम नहीं है जो शादी से पहले डॉक्टरों से यह पूछते हैं कि पत्नी की वर्जिनिटी कैसे टेस्ट की जा सकती है।
गाइनोकॉलोजिस्ट और सेक्स काउंसलर्स से लोग अक्सर पूछते हैं कि अपनी गर्लफ्रेंड या पत्नी की वर्जिनिटी के बारे में कैसे पता लगाया जा सकता है?’
विशेषज्ञ कहते हैं कि लोग अक्सर शादी के बाद यह शिकायत करते हैं कि यौन संबंध बनाने के बाद उनकी पत्नी को ब्लीडिंग नहीं हुई। लोगों के बीच यह धारणा आम है कि महिला की जब वर्जिनिटी पहली बार टूटती है तो उसे ब्लीडिंग होती है लेकिन यह सही पैमाना नहीं है। उन्होंने बताया, कई महिलाओं में तो हाइमन ( झि‍ल्ली ) होती ही नहीं। कुछ महिलाओं में यह लचीला होता है, कुछ केस में यह बचपन में ही फट जाता है, इसलिए अगर पहली बार संबंध बनाने पर भी लड़कियों को ब्लीडिंग नहीं होती तो इसका मतलब ये नहीं कि वो वर्जिन नहीं है मगर नासिक वाली घटना में इस चिकित्सकीय सच के कोई मायने नहीं हैं।
बहरहाल, ये घटना सिर्फ एक ”पाकीजा रिश्ते” को उसके ”वजूद” को शरीर से ही नापने पर ही सवाल नहीं उठाती, उस सामाजिक बेहयाई पर दंडात्मक अंकुश की भी मांग करती है जो पति को सफेद चादर पर न मिलने वाले खून के धब्बों की मोहताज है।
हालांकि अच्छी और सकारात्मक बात यह रही कि 48 घंटे के भीतर घटी जीवन को बदलने वाली इस घटना से दुल्हन और उसके घर वालों ने न सिर्फ दूल्हे के ख‍िलाफ पुलिस में श‍िकायत की बल्कि पंचायत को भी साथ में नामजद कराया है। शादी से पहले लड़की पुलिस कांस्टेबल की भर्ती के लिए तैयारी कर थी और अब इस घटना ने उसके इरादों को और पुख्ता कर दिया है।
निश्चित ही ऐसी सामाजिक बुराइयों का विरोध इसी तरह सकारात्मक तरीके से करना होगा ताकि कुरीतियों और रूढ़‍िवादी सोच को परे धकेला जा सके। हमारे समाज की ये दो तस्वीरें हैं, एक में टीना डाबी और दूसरी में नासिक की ये दुल्हन, दोनों हमारे लिए सूचक हैं कि अभी औरतों को ”वस्तु” की तरह ट्रीट किए जाने से कितना और आगे जाना है।
इन्हें पंचायतियों को कौन बताये कि-
बंदिशों और इम्तिहानों की लंबी यात्रा ने
हमारे हौसलों को और बुलंद ही किया है…।

- Alaknanda singh

रविवार, 22 मई 2016

कहां छुपी हैं इस insensitivity की जड़ें ?

लगभग दो दशक पहले की बात है जब संयुक्त परिवार बड़ी तेजी के एकल परिवारों में बदल रहे थे। दादा- दादी की बंदिशों, उनके उपदेशों से पीछा छुड़ाकर इन नए गढ़े परिवारों में स्वच्छंदता की एक अलग अनुभूति थी। जड़ों को छोड़ने पर खुश होने वाले इन परिवारों को कहां पता था कि वे जिस पीढ़ी के सुख के लिए ये सब कर रहे हैं, वह पीढ़ी संवेदनाओं से शून्य हो जाएगी। एक ओर मां-बाप अपने अपने हिसाब से बच्चों की परवरिश करने, नित नए भौतिक साधनों से घरों को भरने में लगे थे, घरों में इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्‍स की भीड़ बढ़ रही थी तो दूसरी ओर खोए हुए रिश्ते अपने लिए घरों में एकमात्र कोना ढूढ़ते रह गए। स्वच्छंदता भरी इस अंधी दौड़ में सब के सब बेतहाशा भागे जा रहे थे… क्या बच्चे और क्या बड़े…। इस दौड़ में मगर जो बहुत पीछे छूटती जा रही थी, वह थी संवेदनशीलता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि या तो जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं व्यक्ति को संवेदनहीन बना देती हैं या जरूरत से ज्यादा स्वच्छंदता अथवा बंधन, लेकिन ग्रेटर नोएडा की उस भीड़ में ऐसा कौन सा कारण मौजूद था जो 150-200 लोगों के हुजूम को संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक ले गया । क्यों सब के सब अपने मोबाइल से घटना की वीडियो क्लिपिंग बनाने में जुटे रहे, क्यों किसी ने उन अपराध‍ियों को रोका नहीं जो संख्या में मात्र तीन या चार थे, उनके हाथों में कोई ऐसा हथ‍ियार भी नहीं था, उन्होंने एक आदमी को उसके बालों से पकड़ा हुआ था और उसका अपहरण करके गाड़ी में डाल रहे थे, वह व्यक्ति मदद के लिए चिल्ला रहा था मगर मदद तो दूर किसी ने पुलिस स्टेशन पर खबर तक करने की जरूरत नहीं समझी। भीड़ की इस बेहयाई के कारण अगले दिन उसकी लाश मिली।
दूसरा वाकया है बैंगलौर का है, जहां एक गाड़ी आकर रुकती है, एक लड़का पीछे से उतरता है और दिनदहाड़े ही लगभग 30-35 लोगों के सामने एक लड़की को पीछे से आकर पकड़ता है तथा खींचता हुआ अपनी गाड़ी में डाल लेता है, लड़की चिल्लाती है…मदद की गुहार लगाती है। आश्चर्य देखिए कि उसकी आवाज़ मौजू़द लोगों में से किसी के भी कानों तक नहीं पहुंचती, देखते सब रहते हैं। इस दुस्साहसिक घटना को पास से गुजरती एक औरत भी देखती है और पलभर में ही मुंह फेर लेती है। गोया कहीं कुछ घटित ही ना हुआ हो ।
बताइये इन दो घटनाओं को आप क्या कहेंगे, संवेदनहीनता, अभ‍िव्यक्ति का मर जाना या मरे हुए लोगों से आशा करना कि वो अपनी संवेदनाओं के साथ किसी भी अनुचित और दुखद घटना का प्रतिरोध करेंगे। यही लोग जब किसी अपने के साथ कुछ बुरा घटित होते देखते हैं तो कहते हैं किसी ने हमारी मदद नहीं की, या लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसी के साथ क्या घट रहा है, यह देखना भी जरूरी नहीं समझते। जब स्वयं दर्शक होते हैं तो भूल जाते हैं कि वे भी चुप बने रहे थे… क्यों, ये जानना इनके लिए जरूरी नहीं क्योंकि तब घटना का श‍िकार इनके अपने नहीं होते।
अतिवाद किसी का भी हो, भावनाओं का, अपेक्षाओं का, महात्वाकांक्षाओं का, कर्तव्यों का किसी भी जीवित कौम के लिए आत्मघाती होता है। संवेदनाओं के हर स्तर को ध्वस्त करने का सिलसिला बहुत पहले ही तभी शुरू हो चुका था जब  परिवारों में विघटन एक आदत और फिर जरूरत बन गया। और आज ये अपने विकराल रूप में हमारे सामने है।
सरकारें चाहे कितने ही कानून बना लें, हम यानि आमजन उनके बनाए कानूनों में कितने ही लूपहोल्स निकाल लें मगर ये सत्य जो हमें दिखाई दे रहा है कि परिवार, संस्कार और संवेदनाएं सब के सब आधुनिकता और सिर्फ ”मैं” की भेंट चढ़ चुके हैं।
इस संदर्भ में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैनिटीज के छात्रों द्वारा किये गए एक सर्वे को यहां उद्धृत करना जरूरी है जिसमें कुल 30 बड़े शहरों व मझले शहर- ग्रामीण क्षेत्रों के हर वर्ग के परिवारों को शामिल किया गया। सबसे एक ही सवाल पूछा गया, कि ”आपके घर में आग लगी है, पड़ोस का एक बच्चा उसमें फंसा है, आप किसे पहले बचाऐंगे… स्वयं को या उस पड़ोसी के उस बच्चे को”। शहरी लोगों के 74% विचार पहले स्वयं को बचाने के थे जबकि ग्रामीण और छोटे शहरों के 75% लोगों ने पहले बच्चे को बचाने की बात कही।
इस सर्वे के आंकड़े ये बताने को काफी हैं कि अगर हमें स्वयं को और अपने बच्चों को सुरक्षित करना है तो पहले उन जीवन मूल्यों को बचाना होगा जो ”सर्वे भवन्तु सुख‍िन: सर्वे सन्तु निरामया” के आधार स्तंभ रहे हैं। देर नहीं हुई है, इन जीवन मूल्यों को अभी भी सहेजा जा सकता है बशर्ते सिर्फ ”मैं” से हटकर सोचने की प्रवृत्त‍ि अपनाई जाए …बशर्ते ग्रेटर नोएडा हो या बैंगलौर, हम क्लिपिंग बनाने वाली भीड़ ना बनें,अपराध‍ियों पर टूट पड़ने वाले हाथ बन जाएं।
-अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 17 मई 2016

For GOD sake… इन्हें भगवान मानना बंद करो

उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ में इस बार धर्म की जिस गंगा को हम प्रत्यक्ष बहते देख रहे हैं, धर्म के उस सनातन स्वरूप को  लेकर लगभग हर धार्मिक चैनल 24 घंटे एक से बढ़ कर एक आख्यान-व्याख्यान पेश कर रहा है। दूसरी ओर बड़े-बड़े मठाधीश और महामंडलेश्वर व शंकराचार्य अपनी बेढंगी वेशभूषा और स्टाइल को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं।
सिंहस्थ कुंभ में ऐसी ही एक चर्चा के केंद्रबिन्दु बने हुए हैं जूना अखाड़े के वरिष्ठ महामंडलेश्वरों में से एक पायलट बाबा जिनके 17 शिष्य भी महामंडलेश्वर हैं और धर्म-आध्यात्म के क्षेत्र में कई जनकल्याणकारी काम कर रहे हैं।  दरअसल, पायलट बाबा अपनी विदेशी श‍िष्याओं को लेकर चर्चा में हैं।
सिंहस्थ में यूं तो पायलट बाबा और उनकी विदेशी शिष्याओं ने काफी पहले से डेरा जमा लिया था लेकिन इस बीच अचानक उनकी जापानी शिष्या और महामंडलेश्वर केको आइकावा ने सिंहस्थ छोड़ दिया और जापान चली गईं। महामंडलेश्वर केको आइकावा इंटरनेशनल एजुकेशन संस्था की वाइस प्रेसीडेंट हैं। उनकी संस्था पर कम्प्यूटर एजुकेशन के नाम से देशभर में 500 करोड़ रुपए की ठगी करने का आरोप है। संस्था ने सिर्फ एक रुपए में कम्प्यूटर की शिक्षा देने के नाम पर देशभर में विभिन्न संस्थाओं को 50-50 हजार रुपए लेकर फ्रेंचाइजी दी थी।
केको आइकावा की इस संस्था ने कम्प्यूटर शिक्षा का सारा खर्चा वहन करने का दावा किया था लेकिन फ्रेंचाइजी के नाम पर पैसे लेने के बाद कोई शिक्षा नहीं दी गई। देशभर में पीड़ित लोगों ने इस इंटरनेशनल एजुकेशन संस्था के खिलाफ डेढ़ दर्जन से ज्यादा केस दर्ज कराए थे। कहा जा रहा है यह मामला फिर से उछलने के बाद कथित तौर पर केको आइकावा ने सिंहस्थ शिविर छोड़ दिया। अब सवाल यह है क‍ि यद‍ि आरोप बेबुनयिाद हैं तो आख‍िर पायलट बाबा की यह जापानी शिष्या इस तरह अचानक गायब क्यों हो गई।
पायलट बाबा की यह शिष्या महामंडलेश्वर केको आइकावा पिछले सिंहस्थ ( 2004) में के दौरान भी चर्चाओं में थीं क्योंकि तब उन्होंने बाबा के शिविर में ही समाधी लगाई थी। जूना अखाड़े के वरिष्ठ महामंडलेश्वर पायलट बाबा ने ही आइकावा को महामंडलेश्वर की उपाधि दिलवाई थी। यह बात अलग है कि इस बार आइकावा गलत वजहों से सुर्खियों में हैं।
पायलट बाबा ने अपनी सफाई में इन सभी आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए कहा है कि आइकावा माता की तबियत ठीक नहीं होने की वजह से वह दिल्ली गई हैं। पायलट बाबा ने कुछ लोगों पर संस्था को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए कहा कि संस्था अपना काम कर रही है।
इन आरोपों-प्रत्यारोपों से एक बात तो निश्चित है कि कहीं कोई चिंगारी तो है, जिससे धुंआ उठ रहा है। हममें से अध‍िकांश लोग जानते हैं कि धर्म की आड़ आजकल ''धंधे'' के लिए बड़ी मुफीद बनी हुई है, ऐसे में आइकावा माता हों या स्वयं पायलट बाबा, किसी को भी पूरी तरह दूध का धुला नहीं माना जा सकता। इसके अलावा भी अनेक प्रश्न सिंहस्थ में तैर रहे हैं। 
ऐसे में उन सब तथाकथति भक्तों को भी सोचना होगा जो बड़े पदवीधारी इन बाबाओं के यहां बिना यह सोचे-समझे दंडवत करते हैं, शीश नवाते हैं क‍ि वह इस काबिल हैं भी या नहीं। एक लोकोक्ति है- पानी पीजे छान के, गुरू कीजै जान के। आजकल तो जानना और भी जरूरी हो गया है।
पायलट बाबा और आइकावा तो बस एक उदाहरणभर हैं, वरना सोचिए क‍ि जिस देश में बुंदेलखंड, लातूर और तेलंगाना की भूमि प्यासी हो, उस देश में बेहद लग्जरी गाड़‍ियों और मिनरल वॉटर पीने वाले बाबाओं को तो साक्षात् ईश्वर वैसे ही मिला हुआ है, वे ही सही मायनों में उपदेश दे सकते हैं कि जो मिल रहा है उसी में खुश रहो क्योंक‍ि उन्हें तो सबकुछ  ''मिल'' रहा है। उन्हें दो जून के दो ग्रास के लिए हाड़ मांस नहीं गलाना पड़ रहा। धर्म की ये व्याख्या आम लोगों को इसीलिए लुभाती है कि वो उसकी तह में जाने के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं निकाल पाते और जो धर्म पर चलने की बात कहता है (आचरण नहीं करता), वो उसे ही देवदूत की भांति पूजने लगते हैं तथा स्वयं अपने ही हाथों से किसी पायलट बाबा को या किसी आइकावा को गढ़ देते हैं।
यह बात हमें समझ लेनी चाहिए कि जो ईश्वर को खोजने स्वयं निकले हों या खोजने का नाटक कर रहे हों, वो भला किस तरह अपने अनुयायियों को ईश्वर के मार्ग पर चलने को कहेंगे। उन्हें तो ट्रस्ट, ऑरगेनाइजेशन, इंटरनेशनल संस्थाएं, धर्मार्थ चलाए जा रहे आलीशान आश्रम और मिलेनियर श‍िष्य अपने ऐसेट्स के रूप में दिखते हैं।
सिर्फ चंद दिनों तक घर, परिवार, समाज तथा भौतिक सुखों के त्याग का नाटक करके बेहिसाब सुख-सुविधाएं जुटा लेने वाले ये तथाकथित साधु-संत यद‍ि वाकई ईश्वर के निकट होते तो उन्हें न श‍िष्य-शिष्याओं के किसी लाव-लश्कर की जरूरत होती और न उन सामाजिक भक्तों की ज‍ो अनैतिक तरीकों से पूंजी एकत्र करके ईश्वर की जगह इनके चरणों में शांत‍ि तलाशते हैं।
अनैति‍क तरीकों से संप्पति जुटा लेने वाले बाबाओं के ये भक्त इतना भी नहीं सोचते क‍ि जिनका अपना जीवन अशांति से भरा पड़ा है, वह क्या तो किसी को शांत‍ि का मार्ग बताएंगे और क्या धर्म का मार्ग दिखाएंगे।

- अलकनंदा सिंह
 

सोमवार, 16 मई 2016

The Galápagos Islands

The Galápagos Islands, a volcanic archipelago in the Pacific Ocean, is a province of Ecuador, lying about 1,000km off its coast, and considered one of the world's foremost destinations for wildlife-viewing. Its isolated terrain shelters a diversity of plant and animal species, many found nowhere else. Charles Darwin visited in 1835, and his observation of Galápagos' species later inspired his theory of evolution.


शुक्रवार, 13 मई 2016

आसमान में सुराख करते हौसलों का नाम है किन्नर अखाड़ा

ओशो ने कहा था कि प्रकृति और परिवर्तन दो ही शाश्वत हैं, और किन्हीं दो परिवर्तनों के बीच जो है वही समय है। समय का अर्थ ही होता है दो परिवर्तनों के बीच का फासला। उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ में इस बार समय के इसी फासले को तय किया जा रहा है। कुछ किया जा चुका है, कुछ करना बाकी है। परिवर्तन की बयार को धर्म के उच्चतम स्थान पर प्रतिष्ठापित किया जा रहा है।

जो पहला और महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ क‍ि जिन्हें आज तक मां बाप अपनी औलाद मानने से भी कतराते थे और अनाथ छोड़ देते थे ताकि समाज में शर्मिंदगी ना उठानी पड़े, आज वही किन्नर सिंहस्थ में पेशवाई कर रहे हैं। अपना अखाड़ा बनाकर धर्म के इस महाकुंभ में अपनी सशक्त मौजूदगी दिखा रहे हैं।

बेशक इसमें विभिन्न स्तर पर लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद मिली जीत का बहुत बड़ा हाथ है,  मगर उन हौसलों को कोई कैसे भुला सकता है जो स्वयं पर हंसने वालों को बता सके कि यदि जीवन परमात्मा का दिया हुआ है तो शारीरिक विकृति या कमी भी उसी की देन है। फिर किस पर हंसना और क्यों हंसना। सिंहस्थ कुंभ में अखाड़े की पेशवाई से इस ‘तीसरी ताकत’ का नया आगाज करके किन्नरों ने हमें प्रकृति के नियम, ईश्वर व हमारे समाज की गहराई व परिवर्तनों को समेट लेने की ताकत भी दिखाई।
नए अस्तित्व की इस नई पेशवाई ने इस मामले में भी इतिहास रच दिया कि अब से पहले कभी यह नजारा नहीं दिखा और न दिख सकता था, कम से कम कुंभ जैसे महाधार्मिक आयोजन में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
इस मायने में 21 अप्रैल की वह चिलचिलाती धूप वाली दोपहर सचमुच ऐतिहासिक थी कि सर्वथा उपेक्षित, दब-छिपकर अनाम जिंदगी बिताने वालों का झंडा ऐसे धार्मिक आयोजन में गर्व से ऊंचा लहरा रहा था।
संन्यासियों के पवित्र 13 अखाड़ों के साथ-साथ एक नया अखाड़ा उनके अस्तित्व की एक नई इबारत लिख चुका था। मौका पहले पहल की पेशवाई का था सो सिंहस्थ में उसकी पेशवाई कुछ ज्यादा ही धूमधाम से निकली, पहली बार कोई पेशवाई मुस्लिम-बाहुल्य तोपखाना मुहल्ले से निकली।
ऐसे में कितना लाजिमी था किन्नर अखाड़े की प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का ये कहना कि ”हमारी लड़ाई वजूद की है और इस पेशवाई ने हमारे वजूद को एक नया आयाम दे दिया है।” निश्चित ही ये सही है।
अभी कुछ साल पहले तक इस वजूद का हम ज़‍िक्र तक करने में कतराते थे किंतु अखाड़ा अब उनके अस्तित्व की पहचान का आयाम है। इसका उद्देश्य भी बड़ा है, जैसे कि देशभर के किन्नरों को जोड़ना, उनके जीवनयापन का बंदोबस्त करना और वृद्धाश्रम जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराना।
हालांकि जैसी कि अपेक्षा थी, सभी 13 धार्मिक अखाड़ों ने दबी जुबान से किन्नर अखाड़े का विरोध किया लेकिन किन्नरों ने शास्त्रार्थ की चुनौती देकर सबको मुंह बंद रखने पर मजबूर कर दिया।
बहरहाल, कुंभ के बहाने किन्नरों ने एक और मुकाम छू लिया है जिससे एक सकारात्मक आशा जगती है।
अभी तो ये यात्रा की शुरुआत है, और बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। पेशवाई का पूरा मैनेजमेंट संभाल रहीं नाज फाउंडेशन की संस्थापक व सामाजिक कार्यकर्ता अंजली गोपालन कहती हैं, ”बदलाव आना अच्छा है लेकिन हर स्तर पर भेदभाव मिटाना होगा। आज भी किन्नरों को नौकरी नहीं मिलती, स्कूल में परेशानी आती है, लोग अजीब नजर से देखते हैं, बिना शिक्षा कुछ संभव नहीं है।” निश्चित ही इसके लिए कानून बनाने की जरूरत है।
एक और पदाध‍िकारी रेवती भी कहती हैं कि समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। यह हकीकत है कि किन्नरों को कोई कमरा तक नहीं देता, स्लम में कमरा मिलता भी है तो दोगुनी कीमत पर। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लोग तमाशा समझते हुए सरेआम फ्री सेक्स की बात करते हैं।
इस संदर्भ में एक फिल्म बड़े ही मार्मिक ढंग से किन्नरों की मानसिक स्थ‍िति को दर्शाती है, यह फिल्म है ” द डैनिश गर्ल (2015)।  इस फिल्म में आयनर वेगेनर अपनी पत्नी से कहता है, ”रोज सुबह मैं खुद से वादा करता हूं कि मैं पूरा दिन पुरुष बनकर गुजारूंगा पर मैं लिली की तरह सोचता हूं, उसकी तरह ख्वाब देखता हूं, वह हमेशा यहीं रहती है, यह शरीर मेरा नहीं है, मुझे इसे छोड़ना ही होगा।” हमें और हमारे समाज को हर आयनर के अंदर छिपी किसी ना किसी लिली को पहचानना होगा और समाज को इस बदलाव का हिस्सा बनाना होगा।
शायर दुष्यंत की मशहूर लाइनों ”कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो” को समाज के सामने साबित कर दिखाया है किन्नर अखाड़े ने । आगे क्या होगा, यह तो कहना मुश्किल है परंतु फिलहाल किन्नरों के हौसले ने इसका आगाज सिंहस्थ कुंभ में किन्नर अखाड़े की पेशवाई करके कर ही दिया है। ऐतिहासिक बन गया है उज्जैन का ये कुंभ, जहां लोगों की कतार हर वक्त नजर आती है और परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है।
परिवर्तन, प्रकृत‍ि का नियम है। यद‍ि प्रकृत‍ि में परिवर्तन नहीं होगा तो सब-कुछ ठहर जाएगा। और ठहरी हुई हर चीज विनाश की परि‍चायक है। समाज का भी समय के साथ परिवर्तन होना आवश्यक है। ठहरा हुआ समाज हो या ठहरा हुआ पानी, दोनों से सड़ांध आने लगती है। समाज को इस सड़ांध से मुक्त रखने के लिए ईश्वर की उस रचना का सम्मान हमें करना ही होगा जिसे अब तक हम हिंजड़े, क‍िन्नर, छक्के अथवा ट्रांसजेंडर जैसे नामों से संबोधित करते रहे हैं और जिसे मात्र उप‍हास का पात्र समझकर दबी हुई कामुक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनाते रहे हैं।
– अलकनंदा सिंह

रविवार, 8 मई 2016

मैथ‍िलीशरण गुप्त की नज़र से… मां ने सिखाया पाठ

8 मई: मातृ दिवस पर विशेष  

कुछ भाव कुछ रिश्ते और कुछ अहसासों को हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं, कभी-कभी जब तक अबोले रहकर उस स्थ‍िति से ना गुजरें तब तक वो अहसास अधूरे रहते हैं… वो दर्द अधूरे रहते हैं…वो दर्द जो एक शरीर से दूसरा पूरा एक शरीर बनाते हैं, उसे इस जहां से रूबरू कराते हैं।

आज 8 मई का दिन मातृ दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इसे मनाना आसान है, बच्चों का अपनी मां के प्रति एक दिन का ही सही, बदलते और बढ़ते समय ने एक बात तो अच्छी की कि मां के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाया। हालांकि इस एक दिन को मनाने को पर भी कई प्रतिक्रियायें सामने आती हैं, कोई कहता कि एक दिन ही क्यों… हम तो मां के हर पल, हर दिन कृतज्ञ हैं। कोई कहता कि ये सब कॉरपोरेटाइजेशन है संबंधों का। कोई कहता सब चोचलेबाजी है। जितनेलोग उतने ही नज़रिये।
इस सब के बीच पुरानी पीढ़ी हो या नई पीढ़ी, दोनों ही पीढ़ी की मांयें अपने अपने तरीके से अपने बच्चों को अपने विचार, संस्कार सौंप रही हैं। पुरानी पीढ़ी की मांओं ने जहां सिखाया शांत रहकर, सहनशक्ति के साथ परिवार को बांधकर चलना मगर इस तरह से वे स्वयं को उतना मुखर होकर सामने नहीं ला सकीं जितना कि आज की मांयें, वहीं आज की मां अपने प्रोफाइल के साथ बच्चों के प्रोफाइल को भी उतना ही महत्व दे रही हैं, यह बेहद जरूरी भी है।
बहरहाल, मां के किरदार पर तमाम बहसों- मुबाहिसों के बीच हम तो मातृत्व को सम्मानित करना चाहते हैं और पश्चिम से ही आया सही , ये एक दिन विश‍िष्ट तो है ही… तो फिर इसे सेलिब्रेट करना भी बनता है ना।
इस आसान सी दिखने वाली कठिन यात्रा पर आज मैथ‍िलीशरण गुप्त की कविता याद आ गई जो बचपन की किताबों- यादों में से अचानक निकली है।
ये कविता बताती है कि रक्षक और भक्षक, न्याय और अन्याय, आखेटक और खग की रक्षा जैसी गूढ़ सीखों को इस तरह बातों ही बातों में सिर्फ मां ही बता सकती है, मां ही सिखा सकती है।

गुप्त जी ने मां के नज़रिए को क्या खूब लिखा है…

“माँ कह एक कहानी।”
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?”
“कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।”

“तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।”
“जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।”

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।”
“लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।”

“गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।”
“हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!”

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।”
“लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।”

“माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।”
“हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।”

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।”
“सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।”

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?”
“माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।”
“न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।”

– मैथिलीशरण गुप्त
                 
- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 6 मई 2016

अद्भुत है कवि कालिदास का ‘रघुवंशम’ जो ‘Raghuvansham : The Line of Raghu’ के रूप में आया

एक सुखद समाचार है कि कवि कालिदास की महानतम संस्कृत कृतियों में से एक ‘रघुवंशम’ अब अंग्रेजी में भी उपलब्ध होगी। इस पुस्तक में भगवान राम और उनके रघु वंश की कथा बयां की गयी है।

व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले इस महाकाव्य का अंग्रेजी में अनुवाद पूर्व राजनयिक ए एन डी हक्सर ने किया है।
‘Raghuvansham : The Line of Raghu’ पेंग्विन रैंडम हाउस ने प्रकाशित की है जिसमें रामायण और भगवान राम के पूर्वजों की कहानी और आज की तारीख में इसकी प्रासंगिकता के बारे में बताया गया है।
कालिदास ने शास्त्रीय भाषा संस्कृत में इस महाकाव्य की रचना की ।
पुस्तक में भगवान राम के पूर्वजों और वंशजों का भी उल्लेख है।
महाकाव्य के बारे में
रघुवंश कालिदास रचित महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।
आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परंतु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति ‘रघुवंश’ में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरांत उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।
रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई – 1450 ई) द्वारा रचित ‘संजीवनी’ है।
कालिदास रघुवंश की  पूरी कथा
रघुवंश की कथा का आरंभ महाराज दिलीप से होता है। कालिदास ने दिलीप के पहले के राजाओं की चर्चा करते हुए कहा है कि इस वंश का प्रादुर्भाव सूर्य से हुआ है और इसमें मनु पृथ्वी- लोक के सर्वप्रथम राजा हैं। उस मनु वंश में राजा दिलीप हुए। रघुवंश में दिलीप के विषय में तीन सर्ग हैं, जो महाराज रघु के प्रादुर्भाव की भूमिका- रुप में है। रघु के नाम पर रघुवंश नाम इस महाकाव्य को दिया गया है। रघु कालिदास का आदर्श राजा है, क्योंकि वह दिग्विजयी था। दिग्विजय का आख्यान चतुर्थ सर्ग में है। दिग्विजय के प्रसंग से समग्र भारत के विविध प्रदेशों में रघु को घुमाते हुए कवि को उन- उन प्रदेशों की विशेषताओं का वर्णन करते
हुए राष्ट्रीय एकता का आभास कराना अभीष्ट प्रतीत होता है।
पंचम सर्ग में रघु की सभा में कौत्स नामक स्नातक के गुरुदक्षिणा के लिए आने की चर्चा है। रघु ने यद्यपि विश्वजित् यज्ञ में सर्व दान दे दिया था, फिर भी उसने कौत्स को पूरी दक्षिणा देने की व्यवस्था की। अंत में कौत्स के आशीर्वाद से उसे अज नामक पुत्र हुआ। युवावस्था में अज ने विदर्भ राजकन्या इंदुमती के स्वयंवर में भाग लेने के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में उसने नर्मदा तट पर एक विशाल वन्य गज को मारा। वह मरते ही गंधर्व बन गया। उसने अज को सम्मोहनास्र दिया। विदर्भ पहुँचने पर अज का विशेष स्वागत हुआ।
छठें सर्ग में इंदुमती अज को स्वयंवर में चुनती है। सातवें सर्ग में लौटते हुए मार्ग में अज का अन्य राजाओं से युद्ध होता है। वे सब पराजित होते हैं। अज का अयोध्या में स्वागत होता है। रघु ने उसे राज्य भार देकर सन्यास ग्रहण किया। आठवें सर्ग में रघु के मरने का वर्णन है। अज का पुत्र दशरथ हुआ। कालान्तर में इंदुमती नारदवीणा से च्युत पुष्प के आघात से मर गई। अज का रोना- धोना आदि बतलाते हुए कवि ने सर्ग को समाप्त किया है। नवें से बारहवें सर्ग तक दशरथ और रामविषयक वाल्मीकि- रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है।
तेरहवें सर्ग में विमान द्वारा राम के सीता को लेकर अयोध्या लौटने की कथा है। मार्ग में अनेक दृश्य स्थलों से राम के भाविक संबंध थे, जिनकी चर्चा उन्होंने सीता से की। चौदहवें सर्ग में राम का राजकुल के सदस्यों से मिलन का मार्मिक वर्णन है। भरत ने उन्हें अपना राज्य लौटा दिया। रामराज्य का समारंभ हुआ। उस समय सीता गर्भवती थीं। उन्हें गंगा के तट पर बसे हुए तपोवनों को देखने की इच्छा हुई। इधर भद्र नामक दूत ने राम से कहा कि प्रजा आपके द्वारा सीता के पुनर्ग्रहण को ठीक नहीं समझती। राम ने लक्ष्मण से कहा कि सीता को वन में छोड़ आओ। लक्ष्मण ने ऐसा ही किया। वहाँ सीता की रक्षा करने के लिए वाल्मीकि- मुनि आ पहुँचे। वाल्मीकि ने राम के इस कुकृत्य की भत्र्सना की और सीता को अपनी पुत्री की भाँति रखा। इधर अयोध्या में राम ने अश्वमेध यज्ञ का समारंभ किया।
पंद्रहवें सर्ग में शत्रुध्न राम के द्वारा नियोजित होने पर मथुरा- प्रदेश के लिए प्रयाग करते हैं। वहाँ उन्हें ॠषियों के संतापक लवणासुर को मारना था। शत्रुध्न वाल्मीकि के आश्रम पर रात में रहे। उसी रात सीता को दो पुत्र हुए। शत्रुघ्न को यह समाचार मिला। उन्होंने मथुरा जाकर लवणासुर का वध किया।
वाल्मीकि ने सीता के पुत्र लव और कुश को संस्कार संपन्न करके, उन्हें अपनी कृति रामायण का गायन सिखाया। शम्बूक- वध के पश्चात् राम ने अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा।
उस यज्ञ भूमि में लव और कुश को राम ने बुलाया, क्योंकि उनके रामायण- गान की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी। कालिदास ने लिखा है —
तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ।
हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निवर्तितेव वनस्थली।।
वयोवेषविसंवादी रामस्य च तयोस्तदा।
जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत।।
लव और कुश ने राम के पूछने पर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम बता दिया। राम भाइयों के साथ वाल्मीकि के पास पहुँचे और उन्हें अपना सारा राज्य निवेदन किया। वाल्मीकि ने राम से कहा कि ये तुम्हारे पुत्र हैं। तुम इन्हें और सीता को स्वीकार कर लो। राम ने कहा कि प्रजा को सीता की शुद्धता पर विश्वास नहीं है। यदि सीता शुद्धता का प्रमाण देकर प्रजा को विश्वस्त करे, तो मैं उसे पुत्रों के साथ ग्रहण कर लूँ। सीता के समक्ष वाल्मीकि ने प्रस्ताव रखा। सीता ने कहा — माता पृथिवी, यदि मैं सर्वथा शुद्ध हूँ, तो मुझे अपनी गोद में ले लो। उसी समय पृथिवी फटी और देवी प्रकट होकर सीता को गोद में लेकर चली गई। कालांतर में राम, लक्ष्मण आदि दिवंगत हुए।
सोलहवें से उन्नीसवें सर्ग तक कुश से लेकर अग्निवर्ण तक राजाओं का क्रमशः चरिताख्यान है। कुश ने एक दिन स्वप्न देखा कि अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी नगरी की दुर्दशा का वर्णन कर रही है। तब तो कुश ने कुशावती श्रोतियों को दे डाली और अयोध्या भा गए। सरयू में विहार करते हुए कुश को कुमुद्वती नामक नाग- कन्या विवाह के लिए मिली। सत्रहवें सर्ग में कुश के इंद्र के लिए युद्ध करते हुए मारे जाने का वर्णन है। उसके पश्चात् उसका पुत्र अतिथि राजा हुआ। अठारहवें सर्ग में निषध नल, नभ, पुण्डरीक, क्षेमधन्वा, देवानीक, अहीनगु, शिल, उन्नाभ, वज्रनाभ, शंखण, व्युषिताश्व, विश्वसह, हिरण्यनाभ, कौशल्य, ब्रह्मिष्ठ, कमललोचन, पुष्य, ध्रुवसंधि और सुदर्शन राजा हुए। उन्नीसवें सर्ग में सुदर्शन का पुत्र अग्निवर्ण राजा हुआ। वह नाममात्र का शासक था। उसने सारा समय रानियों के साथ विलास में बिताया। उसे अंत में यक्ष्मारोग हो गया, जिससे वह नि:संतान मर गया। उसके मरने के समय उसकी पटरानी गर्भवती थी। वही सिंहासन पर बैठी। यहीं काव्य का अंत है।
कालिदास के महाकाव्य का नाम रघुवंश ही क्यों है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। हरिवंश के नाम पर रघुवंश का नाम कालिदास के स्मृति- पटल पर आया होगा — ऐसा प्रतीत होता है। हरिवंश में रघुवंश के राजाओं की नामावली भी मिलती है, पर इस सूची में दिलीप से पहले के और अग्निवर्ण से परवर्ती राजाओं की भी गणना की गई है।
उपयुक्त विवरण से स्पष्ट है कि रघुवंश की आख्यान- परिधि अत्यंत विशाल है और इसके आख्यान- तत्व का वैविध्य अन्यत्र किसी महाकाव्य में द्रष्टव्य नहीं है। ऐसे आख्यान का परम लाभ है कि कवि को मनोवांछित वर्णनों के सन्निवेश के लिए कोई कृत्रिम प्रयोग नहीं करना पड़ा है और साथ ही रस- निष्पत्ति में भावादिकों का एक पूरा संसार ही मिल गया है। इस आख्यान के आधिकारिक और प्रासंगिक भागों में देव, मानव, ॠषि, असुर और राक्षस से लेकर पशु- पक्षी तक विचरण करते हुए मिलते हैं, जिनसे कवि का सहानुभूतिमय काव्यात्मक परिचय है। महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रवृत्तियों को समान रुप से प्रतिष्ठित किया गया है। नि:संदेह सभी आख्यान- तत्वों को रमणीय काव्यात्मक परिधान देने में कालिदास को सफलता मिली है। पुरातनतम आख्यान- वृत्तों को भी कालिदास ने इस प्रकार चित्रित किया है कि वे शाश्वत जीवंत प्रतीत होते हैं।
नायक की श्रेष्ठता ओर उच्चता से रघुवंश का काव्य- गौरव सर्वातिशाली है। इस महाकाव्य के आरंभ में रघुवंश की गुणगरिमा का सम्पुट पाठ करके दिलीप का जो वर्णन किया गया है, वह काव्य को उच्चतम स्तर पर ला देता है। यथा —
तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना।
    तथा हि सर्वे तस्यासन् परार्थेकफला गुणा:।।
रघु को कालिदास ने इंद्र से भी बढ़ कर माना है।
तमीशः कामरुपाणामत्याखण्डलविक्रमम्।
आध्यात्मिक और आधिभौतिक दृष्टि से इंद्र के आदर्श को भारत- राष्ट्र के लिए अन्तर्हस्तीन बनाने के उद्देश्य से कालिदास ने अपने काव्यों में बहुविध उपक्रम किये हैं। वास्तव में वैदिक युग के पश्चात लोग इंद्र को भूल से रहे थे। इंद्र के पराक्रम को तत्कालीन समाज के समक्ष रख कर उसे कर्मण्य बना देने के लिए ही कवि ने पुनः- पुनः उन्हें राजाओं के साथ मिल- जुल कर काम करते हुए दिखाया है। कवि की दृष्टि में राजा दिलीप और रघु इंद्र के समान है। इंद्र ने घोड़ा ले जाते हुए रघु ने देखा और इंद्र के न मानने पर उससे युद्ध किया। उसके पराक्रम को देखकर –
तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा
कालिदास के अनुसार देवता मनुष्यों के साथ मिलते- जुलते थे। मगध- नरेश के असंख्य यज्ञों में इंद्र को पुनः- पुनः आना पड़ता था। परिणाम हुआ —
क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्त्रमाहूतसहस्त्रनेत्रः
    शच्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान्मन्दारशून्यानलकांश्चकार।।
और तो और- इंद्र ने बैल का रुप धारण करके रघुवंश के राजा ककुत्स्थ के लिए असुरों के साथ लड़ने में वाहन का काम किया था।
केवल इंद्र ही नहीं, स्वयं इंद्राणी भी मानव – लोक में महान् कार्य – सम्भारों में सम्मिलित होता है।
इंद्र की सहायता युद्ध में करना में यह रघुवंश का कुलव्रत था। रघुवंश का परवर्ती राजा ब्रह्मिष्ठ मरने के पश्चात् इंद्र का मित्र बना।
कालिदास ने इंद्रादि देवताओं की बारंबार चर्चा अलंड्कारों में उपमान बना कर भी की है। कवि के शब्दों में दशरथ मानों पृथिवी पर अवतीर्ण इंद्र हैं। पर इतना ही नहीं। इंद्र के आदर्श को अग्रेसर को अग्रेसर करने के लिए कवि इस चर्चा को नहीं छोड़ना चाहता कि
स किल संयुगमूर्व्हिध्न सहायतां
    मघवतः प्रतिपद्य महारथः।
    स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छितं
    सुरवधूरवधूतभया: शरै:।
इस श्लोक के द्वारा समकालिक राजाओं को इंद से भी बढ़ कर पराक्रमी बनने का प्रोत्साहन देना कवि का अभिमत है।
रघुवंश में कालिदास की शैली रस- प्रधान है। रस की साक्षात् निष्पत्ति के लिए उपयोगी अलंकारों और गुणों का संयोजन कवि ने स्थान- स्थान पर किया है। कालिदास ने रस तथा अलंकारादि के द्वारा काव्य- सौंदर्य में जो विशेष चारुता संपादित की, उससे प्रभावित होकर आलोचकों ने उन्हें रसेश्वर और उपमा- सम्राट की उपाधि दी है।
रघुवंश में राजाओं के जीवन- चरित्र के प्रकरण में साधारणतः वीररसात्मक घटनाओं की विशेषता होनी ही चाहिए थी। तभी तो क्षेत्रधर्म से राष्ट्र की सुरक्षा का परम प्रयोजन कालिदास के द्वारा सिद्ध हुआ है।
कालिदास की शैली को प्राचीन काल से ही भारत में सर्वोपरि प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। मानव की सुकुमार भावनाओं का स्पर्श करके उन्हें यथोचित संस्कार देने के काम में कालिदास को अनुपम सफलता मिली है।
रघुवंश में कवि ने बहुविध छंदों का प्रयोग किया है, जिससे उसके प्रौढ़ पाण्डित्य और काव्याभ्यास का चिर अनुभव प्रकट होता है। इसमें अनुष्टुभ, प्रहषिणी, उपजाति, मालिनी, वंशस्थ, हरिणी, वसंततिलका, पुष्पिताग्रा, वैतालीय, तोटक, मन्दाक्रान्त, द्रुतविलम्बित, शालिनी,
औपच्छन्दसिक, रथोद्धता, स्वागता, मत्तमयूर, नाराच तथा प्रहर्षिणी छंदों की छटा है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास ने कठिन और अप्रचलित छंदों का भी प्रयोग किया है।
कालिदास कवि होने के नाते साक्षात उपदेश देते हुए सामने प्रायः नहीं आते, पर वे मान- व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित पथ का प्रदर्शन अलंकार- व्याज से करते हैं। यथा–
इन्द्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्वज्ञानेन संयमी।।
(संयमी तत्त्वज्ञान से इंद्रियों को वश में रहता है।)
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रघुवंश की आख्यान- परिधि अत्यंत विशाल है और इसके आख्यान- तत्त्व का वैविध्य अन्यत्र किसी महाकाव्य में द्रष्टव्य नहीं है। ऐसे आख्यान का परम लाभ है कि कवि को मनोवांछित वर्णनों के सन्निवेश के लिए कोई कृत्रिम प्रयोग नहीं करना पड़ा है और साथ ही रस- निष्पत्ति में भावादिकों का एक पूरा संसार ही मिल गया है, इस आख्यान के आधिकारिक और प्रासंगिक भागों में देव, मानव, ॠषि, असुर और राक्षस से लेकर पशु- पक्षी तक विचरण करते हुए मिलते हैं, जिनसे कवि का सहानुभूतिमय काव्यात्मक परिचय है।
महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रवृत्तियों को समान रुप से प्रतिष्ठित किया गया है। नि:संदेह सभी आख्यान- तत्त्वों को रमणीय काव्यात्मक परिधान देने में कालिदास को सफलता मिली है। पुरातनतम आख्यान- वृत्तों को भी कालिदास ने इस प्रकार चित्रित किया है कि वे शाश्वत जीवंत प्रतीत होते हैं।

- अलकनंदा सिंह