ओशो ने कहा था कि प्रकृति और परिवर्तन दो ही शाश्वत हैं, और किन्हीं दो
परिवर्तनों के बीच जो है वही समय है। समय का अर्थ ही होता है दो परिवर्तनों
के बीच का फासला। उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ में इस बार समय के इसी फासले
को तय किया जा रहा है। कुछ किया जा चुका है, कुछ करना बाकी है। परिवर्तन की
बयार को धर्म के उच्चतम स्थान पर प्रतिष्ठापित किया जा रहा है।
जो पहला और महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि जिन्हें आज तक मां बाप अपनी औलाद मानने से भी कतराते थे और अनाथ छोड़ देते थे ताकि समाज में शर्मिंदगी ना उठानी पड़े, आज वही किन्नर सिंहस्थ में पेशवाई कर रहे हैं। अपना अखाड़ा बनाकर धर्म के इस महाकुंभ में अपनी सशक्त मौजूदगी दिखा रहे हैं।
बेशक इसमें विभिन्न स्तर पर लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद मिली जीत का बहुत बड़ा हाथ है, मगर उन हौसलों को कोई कैसे भुला सकता है जो स्वयं पर हंसने वालों को बता सके कि यदि जीवन परमात्मा का दिया हुआ है तो शारीरिक विकृति या कमी भी उसी की देन है। फिर किस पर हंसना और क्यों हंसना। सिंहस्थ कुंभ में अखाड़े की पेशवाई से इस ‘तीसरी ताकत’ का नया आगाज करके किन्नरों ने हमें प्रकृति के नियम, ईश्वर व हमारे समाज की गहराई व परिवर्तनों को समेट लेने की ताकत भी दिखाई।
नए अस्तित्व की इस नई पेशवाई ने इस मामले में भी इतिहास रच दिया कि अब से पहले कभी यह नजारा नहीं दिखा और न दिख सकता था, कम से कम कुंभ जैसे महाधार्मिक आयोजन में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
इस मायने में 21 अप्रैल की वह चिलचिलाती धूप वाली दोपहर सचमुच ऐतिहासिक थी कि सर्वथा उपेक्षित, दब-छिपकर अनाम जिंदगी बिताने वालों का झंडा ऐसे धार्मिक आयोजन में गर्व से ऊंचा लहरा रहा था।
संन्यासियों के पवित्र 13 अखाड़ों के साथ-साथ एक नया अखाड़ा उनके अस्तित्व की एक नई इबारत लिख चुका था। मौका पहले पहल की पेशवाई का था सो सिंहस्थ में उसकी पेशवाई कुछ ज्यादा ही धूमधाम से निकली, पहली बार कोई पेशवाई मुस्लिम-बाहुल्य तोपखाना मुहल्ले से निकली।
ऐसे में कितना लाजिमी था किन्नर अखाड़े की प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का ये कहना कि ”हमारी लड़ाई वजूद की है और इस पेशवाई ने हमारे वजूद को एक नया आयाम दे दिया है।” निश्चित ही ये सही है।
अभी कुछ साल पहले तक इस वजूद का हम ज़िक्र तक करने में कतराते थे किंतु अखाड़ा अब उनके अस्तित्व की पहचान का आयाम है। इसका उद्देश्य भी बड़ा है, जैसे कि देशभर के किन्नरों को जोड़ना, उनके जीवनयापन का बंदोबस्त करना और वृद्धाश्रम जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराना।
हालांकि जैसी कि अपेक्षा थी, सभी 13 धार्मिक अखाड़ों ने दबी जुबान से किन्नर अखाड़े का विरोध किया लेकिन किन्नरों ने शास्त्रार्थ की चुनौती देकर सबको मुंह बंद रखने पर मजबूर कर दिया।
बहरहाल, कुंभ के बहाने किन्नरों ने एक और मुकाम छू लिया है जिससे एक सकारात्मक आशा जगती है।
अभी तो ये यात्रा की शुरुआत है, और बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। पेशवाई का पूरा मैनेजमेंट संभाल रहीं नाज फाउंडेशन की संस्थापक व सामाजिक कार्यकर्ता अंजली गोपालन कहती हैं, ”बदलाव आना अच्छा है लेकिन हर स्तर पर भेदभाव मिटाना होगा। आज भी किन्नरों को नौकरी नहीं मिलती, स्कूल में परेशानी आती है, लोग अजीब नजर से देखते हैं, बिना शिक्षा कुछ संभव नहीं है।” निश्चित ही इसके लिए कानून बनाने की जरूरत है।
एक और पदाधिकारी रेवती भी कहती हैं कि समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। यह हकीकत है कि किन्नरों को कोई कमरा तक नहीं देता, स्लम में कमरा मिलता भी है तो दोगुनी कीमत पर। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लोग तमाशा समझते हुए सरेआम फ्री सेक्स की बात करते हैं।
इस संदर्भ में एक फिल्म बड़े ही मार्मिक ढंग से किन्नरों की मानसिक स्थिति को दर्शाती है, यह फिल्म है ” द डैनिश गर्ल (2015)। इस फिल्म में आयनर वेगेनर अपनी पत्नी से कहता है, ”रोज सुबह मैं खुद से वादा करता हूं कि मैं पूरा दिन पुरुष बनकर गुजारूंगा पर मैं लिली की तरह सोचता हूं, उसकी तरह ख्वाब देखता हूं, वह हमेशा यहीं रहती है, यह शरीर मेरा नहीं है, मुझे इसे छोड़ना ही होगा।” हमें और हमारे समाज को हर आयनर के अंदर छिपी किसी ना किसी लिली को पहचानना होगा और समाज को इस बदलाव का हिस्सा बनाना होगा।
शायर दुष्यंत की मशहूर लाइनों ”कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो” को समाज के सामने साबित कर दिखाया है किन्नर अखाड़े ने । आगे क्या होगा, यह तो कहना मुश्किल है परंतु फिलहाल किन्नरों के हौसले ने इसका आगाज सिंहस्थ कुंभ में किन्नर अखाड़े की पेशवाई करके कर ही दिया है। ऐतिहासिक बन गया है उज्जैन का ये कुंभ, जहां लोगों की कतार हर वक्त नजर आती है और परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है।
परिवर्तन, प्रकृति का नियम है। यदि प्रकृति में परिवर्तन नहीं होगा तो सब-कुछ ठहर जाएगा। और ठहरी हुई हर चीज विनाश की परिचायक है। समाज का भी समय के साथ परिवर्तन होना आवश्यक है। ठहरा हुआ समाज हो या ठहरा हुआ पानी, दोनों से सड़ांध आने लगती है। समाज को इस सड़ांध से मुक्त रखने के लिए ईश्वर की उस रचना का सम्मान हमें करना ही होगा जिसे अब तक हम हिंजड़े, किन्नर, छक्के अथवा ट्रांसजेंडर जैसे नामों से संबोधित करते रहे हैं और जिसे मात्र उपहास का पात्र समझकर दबी हुई कामुक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनाते रहे हैं।
– अलकनंदा सिंह
जो पहला और महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि जिन्हें आज तक मां बाप अपनी औलाद मानने से भी कतराते थे और अनाथ छोड़ देते थे ताकि समाज में शर्मिंदगी ना उठानी पड़े, आज वही किन्नर सिंहस्थ में पेशवाई कर रहे हैं। अपना अखाड़ा बनाकर धर्म के इस महाकुंभ में अपनी सशक्त मौजूदगी दिखा रहे हैं।
बेशक इसमें विभिन्न स्तर पर लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद मिली जीत का बहुत बड़ा हाथ है, मगर उन हौसलों को कोई कैसे भुला सकता है जो स्वयं पर हंसने वालों को बता सके कि यदि जीवन परमात्मा का दिया हुआ है तो शारीरिक विकृति या कमी भी उसी की देन है। फिर किस पर हंसना और क्यों हंसना। सिंहस्थ कुंभ में अखाड़े की पेशवाई से इस ‘तीसरी ताकत’ का नया आगाज करके किन्नरों ने हमें प्रकृति के नियम, ईश्वर व हमारे समाज की गहराई व परिवर्तनों को समेट लेने की ताकत भी दिखाई।
नए अस्तित्व की इस नई पेशवाई ने इस मामले में भी इतिहास रच दिया कि अब से पहले कभी यह नजारा नहीं दिखा और न दिख सकता था, कम से कम कुंभ जैसे महाधार्मिक आयोजन में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
इस मायने में 21 अप्रैल की वह चिलचिलाती धूप वाली दोपहर सचमुच ऐतिहासिक थी कि सर्वथा उपेक्षित, दब-छिपकर अनाम जिंदगी बिताने वालों का झंडा ऐसे धार्मिक आयोजन में गर्व से ऊंचा लहरा रहा था।
संन्यासियों के पवित्र 13 अखाड़ों के साथ-साथ एक नया अखाड़ा उनके अस्तित्व की एक नई इबारत लिख चुका था। मौका पहले पहल की पेशवाई का था सो सिंहस्थ में उसकी पेशवाई कुछ ज्यादा ही धूमधाम से निकली, पहली बार कोई पेशवाई मुस्लिम-बाहुल्य तोपखाना मुहल्ले से निकली।
ऐसे में कितना लाजिमी था किन्नर अखाड़े की प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का ये कहना कि ”हमारी लड़ाई वजूद की है और इस पेशवाई ने हमारे वजूद को एक नया आयाम दे दिया है।” निश्चित ही ये सही है।
अभी कुछ साल पहले तक इस वजूद का हम ज़िक्र तक करने में कतराते थे किंतु अखाड़ा अब उनके अस्तित्व की पहचान का आयाम है। इसका उद्देश्य भी बड़ा है, जैसे कि देशभर के किन्नरों को जोड़ना, उनके जीवनयापन का बंदोबस्त करना और वृद्धाश्रम जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराना।
हालांकि जैसी कि अपेक्षा थी, सभी 13 धार्मिक अखाड़ों ने दबी जुबान से किन्नर अखाड़े का विरोध किया लेकिन किन्नरों ने शास्त्रार्थ की चुनौती देकर सबको मुंह बंद रखने पर मजबूर कर दिया।
बहरहाल, कुंभ के बहाने किन्नरों ने एक और मुकाम छू लिया है जिससे एक सकारात्मक आशा जगती है।
अभी तो ये यात्रा की शुरुआत है, और बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। पेशवाई का पूरा मैनेजमेंट संभाल रहीं नाज फाउंडेशन की संस्थापक व सामाजिक कार्यकर्ता अंजली गोपालन कहती हैं, ”बदलाव आना अच्छा है लेकिन हर स्तर पर भेदभाव मिटाना होगा। आज भी किन्नरों को नौकरी नहीं मिलती, स्कूल में परेशानी आती है, लोग अजीब नजर से देखते हैं, बिना शिक्षा कुछ संभव नहीं है।” निश्चित ही इसके लिए कानून बनाने की जरूरत है।
एक और पदाधिकारी रेवती भी कहती हैं कि समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। यह हकीकत है कि किन्नरों को कोई कमरा तक नहीं देता, स्लम में कमरा मिलता भी है तो दोगुनी कीमत पर। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लोग तमाशा समझते हुए सरेआम फ्री सेक्स की बात करते हैं।
इस संदर्भ में एक फिल्म बड़े ही मार्मिक ढंग से किन्नरों की मानसिक स्थिति को दर्शाती है, यह फिल्म है ” द डैनिश गर्ल (2015)। इस फिल्म में आयनर वेगेनर अपनी पत्नी से कहता है, ”रोज सुबह मैं खुद से वादा करता हूं कि मैं पूरा दिन पुरुष बनकर गुजारूंगा पर मैं लिली की तरह सोचता हूं, उसकी तरह ख्वाब देखता हूं, वह हमेशा यहीं रहती है, यह शरीर मेरा नहीं है, मुझे इसे छोड़ना ही होगा।” हमें और हमारे समाज को हर आयनर के अंदर छिपी किसी ना किसी लिली को पहचानना होगा और समाज को इस बदलाव का हिस्सा बनाना होगा।
शायर दुष्यंत की मशहूर लाइनों ”कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो” को समाज के सामने साबित कर दिखाया है किन्नर अखाड़े ने । आगे क्या होगा, यह तो कहना मुश्किल है परंतु फिलहाल किन्नरों के हौसले ने इसका आगाज सिंहस्थ कुंभ में किन्नर अखाड़े की पेशवाई करके कर ही दिया है। ऐतिहासिक बन गया है उज्जैन का ये कुंभ, जहां लोगों की कतार हर वक्त नजर आती है और परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है।
परिवर्तन, प्रकृति का नियम है। यदि प्रकृति में परिवर्तन नहीं होगा तो सब-कुछ ठहर जाएगा। और ठहरी हुई हर चीज विनाश की परिचायक है। समाज का भी समय के साथ परिवर्तन होना आवश्यक है। ठहरा हुआ समाज हो या ठहरा हुआ पानी, दोनों से सड़ांध आने लगती है। समाज को इस सड़ांध से मुक्त रखने के लिए ईश्वर की उस रचना का सम्मान हमें करना ही होगा जिसे अब तक हम हिंजड़े, किन्नर, छक्के अथवा ट्रांसजेंडर जैसे नामों से संबोधित करते रहे हैं और जिसे मात्र उपहास का पात्र समझकर दबी हुई कामुक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनाते रहे हैं।
– अलकनंदा सिंह
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