भगवान बुद्ध की कही हुई एक उक्ति है कि तीन चीजें किसी के भी छुपाए नहीं
छुप सकतीं- सूर्य , चंद्र और सच ( Three things cannot be long hidden:
the sun, the moon, and the truth: Buddha) मगर पंजाब का सच कितना कड़वा
है, ये तो अकेली फिल्म ”उड़ता पंजाब” भी नहीं दिखा सकती फिर भी हम अभिशप्त
हैं ऐसी फिल्मों पर कैंची चलाने वाले व स्वयं को ”मोदी भक्त” कहने वाले
सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी की कारस्तानी सोच को ढोने के लिए। ये
बात अलग है कि सरकार के मंत्री रवीशंकर प्रसाद ने उनकी मोदी भक्ति को
ठुकरा दिया, लेकिन बात निकली तो दूर तलक गई भी।
फिल्म ”उड़ता पंजाब” की रिलीज आप पार्टी और बीजेपी व अकाली दल में बंट गई। पहलाज निहलानी द्वारा अपनी सफाई में बहस का रुख इतनी सफाई से मोड़ा गया कि जिस समस्या पर फिल्म बनी थी, अब उस पर तो कोई बात नहीं कर रहा अलबत्ता राजनीतिक फायदे और नुकसान पर बात होने लगी।
पंजाब में नशे का ज़हर जिस तरह नेताओं ने बोया और पूरा पंजाब इसकी गिरफ्त में आ गया, इसी सच को छिपाने के लिए जानबूझकर फिल्म ”उड़ता पंजाब” को राजनीति में धकेला गया।
मैंने अनुराग कश्यप की मुबई ब्लास्ट पर ”ब्लैक फ्राई डे” देखी है, सच कहने में उन्हें कभी कोई गुरेज नहीं हुआ। उनकी गैंग्स ऑफ वासेपुर भी देखी है, उसमें भी क्या झूठ दिखाया गया था कि कोल माफिया और अपराध किस तरह गुंथे हुए हैं। आज बिहार स्वयं अपनी जुबानी वही सच बोल रहा है। फिर ”उड़ता पंजाब” पर हम सच को क्यों नहीं देख पा रहे , वह तो डायरेक्टर अभिषेक चौबे की फिल्म है, अनुराग कश्यप फिल्म के सिर्फ प्रोड्यूसर हैं।
सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष इस राजनीति का सूत्रधार हो तो उसके पद पर बने रहना ‘समाज का सच’ दिखाने वालों पर भारी पड़ सकता है। ये बिल्कुल उसी तरह से है जैसे कि किसी घर का मुखिया सच को लेकर दोहरे मापदंड रखता हो, खुद जो कहे वही सच बाकी सब झूठ…। पहलाज निहलानी का रवैया भी यही है, उनकी मसाला फिल्मों में क्या क्या नहीं दिखाया गया, सब जानते हैं। फिर दर्शक तो अब इतने समझदार हो गए हैं कि उन्हें क्या देखना , कितना देखना है, कब और कहां देखना है आदि का फैसला वे स्वयं कर लेते हैं। उन्हें तो फिल्म की रिलीज से पहले भी फिलम देखने को मिल ही जाएगी, तो भी अड़ंगा क्यों।
सोशल मीडिया के पल पल बदलते घटनाक्रमों के बीच निहलानी का ये कदम हास्यास्पद ज्यादा लगता है। यूं भी पहलाज निहलानी और कंट्रोवर्सी लगभग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब से वे सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने हैं, तब से लगातार विवादों में हैं। फिल्मों में सेंसरशिप का लेकर उनका संकुचित नजरिया उन फिल्मकारों को पसंद नहीं आ रहा है जिनकी फिल्मों पर सिर्फ निहलानी की अड़ियल सोच के कारण अच्छी खासी कैंची चलाई जा रही है।
अभी कुछ दिन पहले की बात है जब जेम्स बॉन्ड पर निहलानी का कहर बरपा, जेम्स बॉन्ड सीरीज की नई फिल्म में चुंबन दृश्यों को काट दिये जाने के बाद ही वह प्रदर्शित की जा सकी। अब ज़रा सोचिए जेम्स बॉन्ड सीरीज की फिल्में चलती ही चुंबन दृश्यों से हैं, वे भी काट दिए जाऐं तो बचेगा क्या। अब तो भारतीय दर्शक टीवी पर भी इतने चुंबन दृश्य देख लेते हैं जितने जेम्स बॉन्ड में आते हैं।
बहरहाल जेम्स बॉन्ड प्रकरण के बाद शरारती सोशल मीडिया में निहलानी साहब उपहास के पात्र बन गए, और संस्कारी जेम्स बॉन्ड श्रृंखला के अनेक चुटकुले उन्हें केंद्र में रखकर रचे गए थे लेकिन उड़ता पंजाब फिल्म में 89 कट्स की बात के बाद अब मामला अधिक संगीन हो गया है।
”उड़ता पंजाब” फिल्म पंजाब में कुख्यात नशाखोरी की समस्या पर केंद्रित है। पंजाब में कुछ माह बाद ही चुनाव होने जा रहे हैं। पंजाब में नशाखोरी की समस्या के सर्वव्यापी हो जाने के लिए वहां सत्तारूढ़ भाजपा-अकाली दल गठबंधन सरकार को दोषी ठहराया जा रहा है और बताया जाता है कि इस फिल्म में भी सरकार को भी आड़े हाथों लिया गया है।
आईने को तोड़कर अपनी शक्ल नहीं सुधारी जा सकती, पंजाब देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में से एक है। इस सूबे के नौजवानों की बदहाली के लिए आखिर कौन जवाबदेह है। वहां ड्रग्स की लत और नशाखोरी का यह आलम है कि सीमावर्ती गांवों में जहां देखो, सुइयां और सीरिंज बिखरी हुई दिखाई देती हैं। नशे की लत से नौजवानों की यह हालत हो गई है कि वे अब काम करने की हालत में भी नहीं रह गए हैं। उनका पूरा वक्त अपनी लत पूरी करने की कोशिशों में ही जाया हो जाता है। पंजाब की सरहदें पाकिस्तान को छूती हैं। एक वक्त था, जब देश की सेनाओं में सर्वाधिक संख्या में भर्ती पंजाबी युवकों की ही होती थी। लेकिन आज वे ही युवक नशे से निढाल हैं। इसके पीछे किसी पाकिस्तानी साजिश से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
नशे की लत के शिकार अधिकतर नौजवान 15 से 35 वर्ष उम्र के हैं। जो पैसे वाले हैं, वे हेरोइन का नशा करते हैं। जो गरीब-गुरबे हैं, वे स्थानीय फार्मेसी से सिंथेटिक ड्रग्स खरीदते हैं। The Newyork times में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया था कि आज पंजाब के हर तीसरे कॉलेज छात्र में से एक नशे का आदी हो चुका है। पंजाब की लगभग 75 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में नशे का सेवन कर रही है। ये भयावह आंकड़े हैं।
अर्धसैनिक बलों में पहले जिन पंजाबी युवकों की भरमार होती थी, अब उनके लिए उन्हें अनफिट पाया जा रहा है। एक जमाना था, जब सेना में जाना हर पंजाबी युवक का सपना होता था और वह बचपन से ही इसकी तैयारी शुरू कर देता था। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मन की बात कार्यक्रम में इस समस्या को उठा चुके हैं। उन्होंने संकेत किया था कि सीमावर्ती पंजाब में पाकिस्तान से ड्रग्स की तस्करी की जाती है, जिसका मकसद भारतीय नौजवानों को भीतर से खोखला बना देना है। इसके पीछे ISI का भी हाथ हो सकता है, बावजूद इसके पंजाब की बादल सरकार द्वारा इस बारे में कुछ नहीं किया गया जबकि भाजपा उसकी सहयोगी पार्टी है।
जब इस नशाखोरी की ज्वलंत समस्या पर एक फिल्म बनाई जाती है तो खुद को प्रधानमंत्री का विश्वस्त बताने वाले पहलाज निहलानी आखिर उस पर कैंची चलाने को क्यों आमादा हो जाते हैं? क्या उन्हें लगता है कि उड़ता पंजाब में 89 कट्स करके वे पंजाब की इस भीषण समस्या पर परदा डालने में कामयाब हो जाएंगे? यह बादल सरकार के प्रति पंजाबियों की घोर वितृष्णा का ही परिणाम था कि अरुण जेटली जैसे कद्दावर नेता अमृतसर से लोकसभा चुनाव हार गए थे और पंजाब में ”आप” के चार प्रत्याशी चुनाव जीत गए थे।
अनुराग कश्यप की फिल्म पर कैंची चलाकर मतदाताओं के असंतोष को और भड़काया ही जा सकता है, कम नहीं किया जा सकता। फिल्म उड़ता पंजाब में से उसके शीर्षक सहित तमाम स्थानों से पंजाब का संदर्भ हटा देने का आदेश सेंसर बोर्ड ने दिया है। यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण है। निहलानी यह भी कह रहे हैं कि कश्यप की इस फिल्म को आम आदमी पार्टी सरकार का वित्तीय समर्थन प्राप्त है। अगर ऐसा है तो अरविंद केजरीवाल अपनी रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं। ना केवल फिल्म को प्रचार मिल रहा है, बल्कि निहलानी की बातों से सरकार की भी बदनामी हो रही है।
जो भी हो बॉलीवुड बनाम सेंसर बोर्ड की ऊपर से नजर आने वाली लड़ाई के पीछे अनेक राजनीतिक पहलू हैं, जो कि धीरे-धीरे उभरकर सामने आते रहेंगे।
एक बात तो साफ हो गई कि अब फिल्म अपने अनकट्स के साथ इंटरनेट पर ढूढ़ी जाएगी और वह देखी भी जाएगी। निहलानी, राज्य सरकार और केंद्र सरकार विवाद को उलझाकर ये ही बता रहे हैं कि ये सभी उन नौजवानों की ओर से कितने बेपरवाह हैं जो शाम को अपने घर गली गली झूमते गिरते पड़ते बमुश्किल पहुंच पाते हैं। जो पंजाब कभी गबरू नौजवानों के लिए प्रसिद्ध था, वह आज इसलिए जाना जा रहा है कि उसके बच्चे नशे की भेंट चढ़ाए जा रहे हैं, वह भी राज्य सरकार की नीतियों के चलते और अब तो सेंसर बोर्ड भी इस सच को छुपाने का गुनहगार माना जाएगा।
चलिए इसी बात पर ”शाद आरफी” का ये शेर कि –
कहीं फ़ितरत के तक़ाज़े भी बदल सकते हैं
घास पर शेर जो पालोगे तो पल जाएगा।
राजनीति इसी शै का नाम है जो समाज को, नौजवानों को, पंजाब को खोखला किए दे रही है और हम देख रहे हैं कि शेरों को घास पर भी नहीं नशे पर पाला जा रहा है।
– अलकनंदा सिंह
फिल्म ”उड़ता पंजाब” की रिलीज आप पार्टी और बीजेपी व अकाली दल में बंट गई। पहलाज निहलानी द्वारा अपनी सफाई में बहस का रुख इतनी सफाई से मोड़ा गया कि जिस समस्या पर फिल्म बनी थी, अब उस पर तो कोई बात नहीं कर रहा अलबत्ता राजनीतिक फायदे और नुकसान पर बात होने लगी।
पंजाब में नशे का ज़हर जिस तरह नेताओं ने बोया और पूरा पंजाब इसकी गिरफ्त में आ गया, इसी सच को छिपाने के लिए जानबूझकर फिल्म ”उड़ता पंजाब” को राजनीति में धकेला गया।
मैंने अनुराग कश्यप की मुबई ब्लास्ट पर ”ब्लैक फ्राई डे” देखी है, सच कहने में उन्हें कभी कोई गुरेज नहीं हुआ। उनकी गैंग्स ऑफ वासेपुर भी देखी है, उसमें भी क्या झूठ दिखाया गया था कि कोल माफिया और अपराध किस तरह गुंथे हुए हैं। आज बिहार स्वयं अपनी जुबानी वही सच बोल रहा है। फिर ”उड़ता पंजाब” पर हम सच को क्यों नहीं देख पा रहे , वह तो डायरेक्टर अभिषेक चौबे की फिल्म है, अनुराग कश्यप फिल्म के सिर्फ प्रोड्यूसर हैं।
सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष इस राजनीति का सूत्रधार हो तो उसके पद पर बने रहना ‘समाज का सच’ दिखाने वालों पर भारी पड़ सकता है। ये बिल्कुल उसी तरह से है जैसे कि किसी घर का मुखिया सच को लेकर दोहरे मापदंड रखता हो, खुद जो कहे वही सच बाकी सब झूठ…। पहलाज निहलानी का रवैया भी यही है, उनकी मसाला फिल्मों में क्या क्या नहीं दिखाया गया, सब जानते हैं। फिर दर्शक तो अब इतने समझदार हो गए हैं कि उन्हें क्या देखना , कितना देखना है, कब और कहां देखना है आदि का फैसला वे स्वयं कर लेते हैं। उन्हें तो फिल्म की रिलीज से पहले भी फिलम देखने को मिल ही जाएगी, तो भी अड़ंगा क्यों।
सोशल मीडिया के पल पल बदलते घटनाक्रमों के बीच निहलानी का ये कदम हास्यास्पद ज्यादा लगता है। यूं भी पहलाज निहलानी और कंट्रोवर्सी लगभग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब से वे सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने हैं, तब से लगातार विवादों में हैं। फिल्मों में सेंसरशिप का लेकर उनका संकुचित नजरिया उन फिल्मकारों को पसंद नहीं आ रहा है जिनकी फिल्मों पर सिर्फ निहलानी की अड़ियल सोच के कारण अच्छी खासी कैंची चलाई जा रही है।
अभी कुछ दिन पहले की बात है जब जेम्स बॉन्ड पर निहलानी का कहर बरपा, जेम्स बॉन्ड सीरीज की नई फिल्म में चुंबन दृश्यों को काट दिये जाने के बाद ही वह प्रदर्शित की जा सकी। अब ज़रा सोचिए जेम्स बॉन्ड सीरीज की फिल्में चलती ही चुंबन दृश्यों से हैं, वे भी काट दिए जाऐं तो बचेगा क्या। अब तो भारतीय दर्शक टीवी पर भी इतने चुंबन दृश्य देख लेते हैं जितने जेम्स बॉन्ड में आते हैं।
बहरहाल जेम्स बॉन्ड प्रकरण के बाद शरारती सोशल मीडिया में निहलानी साहब उपहास के पात्र बन गए, और संस्कारी जेम्स बॉन्ड श्रृंखला के अनेक चुटकुले उन्हें केंद्र में रखकर रचे गए थे लेकिन उड़ता पंजाब फिल्म में 89 कट्स की बात के बाद अब मामला अधिक संगीन हो गया है।
”उड़ता पंजाब” फिल्म पंजाब में कुख्यात नशाखोरी की समस्या पर केंद्रित है। पंजाब में कुछ माह बाद ही चुनाव होने जा रहे हैं। पंजाब में नशाखोरी की समस्या के सर्वव्यापी हो जाने के लिए वहां सत्तारूढ़ भाजपा-अकाली दल गठबंधन सरकार को दोषी ठहराया जा रहा है और बताया जाता है कि इस फिल्म में भी सरकार को भी आड़े हाथों लिया गया है।
आईने को तोड़कर अपनी शक्ल नहीं सुधारी जा सकती, पंजाब देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में से एक है। इस सूबे के नौजवानों की बदहाली के लिए आखिर कौन जवाबदेह है। वहां ड्रग्स की लत और नशाखोरी का यह आलम है कि सीमावर्ती गांवों में जहां देखो, सुइयां और सीरिंज बिखरी हुई दिखाई देती हैं। नशे की लत से नौजवानों की यह हालत हो गई है कि वे अब काम करने की हालत में भी नहीं रह गए हैं। उनका पूरा वक्त अपनी लत पूरी करने की कोशिशों में ही जाया हो जाता है। पंजाब की सरहदें पाकिस्तान को छूती हैं। एक वक्त था, जब देश की सेनाओं में सर्वाधिक संख्या में भर्ती पंजाबी युवकों की ही होती थी। लेकिन आज वे ही युवक नशे से निढाल हैं। इसके पीछे किसी पाकिस्तानी साजिश से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
नशे की लत के शिकार अधिकतर नौजवान 15 से 35 वर्ष उम्र के हैं। जो पैसे वाले हैं, वे हेरोइन का नशा करते हैं। जो गरीब-गुरबे हैं, वे स्थानीय फार्मेसी से सिंथेटिक ड्रग्स खरीदते हैं। The Newyork times में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया था कि आज पंजाब के हर तीसरे कॉलेज छात्र में से एक नशे का आदी हो चुका है। पंजाब की लगभग 75 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में नशे का सेवन कर रही है। ये भयावह आंकड़े हैं।
अर्धसैनिक बलों में पहले जिन पंजाबी युवकों की भरमार होती थी, अब उनके लिए उन्हें अनफिट पाया जा रहा है। एक जमाना था, जब सेना में जाना हर पंजाबी युवक का सपना होता था और वह बचपन से ही इसकी तैयारी शुरू कर देता था। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मन की बात कार्यक्रम में इस समस्या को उठा चुके हैं। उन्होंने संकेत किया था कि सीमावर्ती पंजाब में पाकिस्तान से ड्रग्स की तस्करी की जाती है, जिसका मकसद भारतीय नौजवानों को भीतर से खोखला बना देना है। इसके पीछे ISI का भी हाथ हो सकता है, बावजूद इसके पंजाब की बादल सरकार द्वारा इस बारे में कुछ नहीं किया गया जबकि भाजपा उसकी सहयोगी पार्टी है।
जब इस नशाखोरी की ज्वलंत समस्या पर एक फिल्म बनाई जाती है तो खुद को प्रधानमंत्री का विश्वस्त बताने वाले पहलाज निहलानी आखिर उस पर कैंची चलाने को क्यों आमादा हो जाते हैं? क्या उन्हें लगता है कि उड़ता पंजाब में 89 कट्स करके वे पंजाब की इस भीषण समस्या पर परदा डालने में कामयाब हो जाएंगे? यह बादल सरकार के प्रति पंजाबियों की घोर वितृष्णा का ही परिणाम था कि अरुण जेटली जैसे कद्दावर नेता अमृतसर से लोकसभा चुनाव हार गए थे और पंजाब में ”आप” के चार प्रत्याशी चुनाव जीत गए थे।
अनुराग कश्यप की फिल्म पर कैंची चलाकर मतदाताओं के असंतोष को और भड़काया ही जा सकता है, कम नहीं किया जा सकता। फिल्म उड़ता पंजाब में से उसके शीर्षक सहित तमाम स्थानों से पंजाब का संदर्भ हटा देने का आदेश सेंसर बोर्ड ने दिया है। यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण है। निहलानी यह भी कह रहे हैं कि कश्यप की इस फिल्म को आम आदमी पार्टी सरकार का वित्तीय समर्थन प्राप्त है। अगर ऐसा है तो अरविंद केजरीवाल अपनी रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं। ना केवल फिल्म को प्रचार मिल रहा है, बल्कि निहलानी की बातों से सरकार की भी बदनामी हो रही है।
जो भी हो बॉलीवुड बनाम सेंसर बोर्ड की ऊपर से नजर आने वाली लड़ाई के पीछे अनेक राजनीतिक पहलू हैं, जो कि धीरे-धीरे उभरकर सामने आते रहेंगे।
एक बात तो साफ हो गई कि अब फिल्म अपने अनकट्स के साथ इंटरनेट पर ढूढ़ी जाएगी और वह देखी भी जाएगी। निहलानी, राज्य सरकार और केंद्र सरकार विवाद को उलझाकर ये ही बता रहे हैं कि ये सभी उन नौजवानों की ओर से कितने बेपरवाह हैं जो शाम को अपने घर गली गली झूमते गिरते पड़ते बमुश्किल पहुंच पाते हैं। जो पंजाब कभी गबरू नौजवानों के लिए प्रसिद्ध था, वह आज इसलिए जाना जा रहा है कि उसके बच्चे नशे की भेंट चढ़ाए जा रहे हैं, वह भी राज्य सरकार की नीतियों के चलते और अब तो सेंसर बोर्ड भी इस सच को छुपाने का गुनहगार माना जाएगा।
चलिए इसी बात पर ”शाद आरफी” का ये शेर कि –
कहीं फ़ितरत के तक़ाज़े भी बदल सकते हैं
घास पर शेर जो पालोगे तो पल जाएगा।
राजनीति इसी शै का नाम है जो समाज को, नौजवानों को, पंजाब को खोखला किए दे रही है और हम देख रहे हैं कि शेरों को घास पर भी नहीं नशे पर पाला जा रहा है।
– अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें