गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

राग दरबारी के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल का जन्मद‍िन आज


श्रीलाल शुक्ल हिंदी के प्रमुख साहित्यकारों में से एक थे ज‍िन्होंने ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता की परतें उघाड़ कर ल‍िखी थी राग दरबारी। श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसम्बर 1925 को लखनऊ के अतरौली गाँव में हुआ था। श्रीलाल शुक्ल को लखनऊ जनपद के समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे।

विख्यात हिन्दी साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध व्यंग्य रचना रागदरबारी के लिये उन्हें सन् 1970 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है।

‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई।

उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। ‘राग दरबारी’ सहित उनका समूचा साहित्य किसी न किसी रूप में उपन्यास, कहानी, व्यंग्य और आलोचना को अभिनव अन्त:दृष्टि प्रदान करता है। साहित्य को रूमानी मूर्खताओं से मुक्त करने में उनकी भूमिका की अब शायद ज्यादा याद आएगी।

श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपने आप में मिसाल था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। ‘कथाक्रम’ समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्रीलाल शुक्ल जी ने गरीबी झेली, संघर्ष किया, लेकिन उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है। वे नई पीढ़ी को सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक रहे।

श्रीलाल जी का लिखना और पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व बड़ा सहज था। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे। लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली ‘राग दरबारी’ जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी।

‘राग दरबारी’ एक ऐसा उपन्यास है जो गांव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। यह उपन्यास एक आदर्श स्टूडेंट की कहानी कहता है, जो सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों में अपने विश्वविद्यालय में मिली आदर्श शिक्षा के मूल्यों को स्थापित करने के लिए संघर्ष करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है। ‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अंतिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई।

‘राग दरबारी’ व्यंग्य-कथा नहीं है। इसमें श्रीलाल शुक्ल जी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ कर रख दिया है। ‘राग दरबारी’ की कथा भूमि एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे गाँव शिवपालगंज की है जहाँ की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आघातों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात वह राजनीतिक संस्कृति हैं जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही हैं।

- Alaknanda singh

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

सीहोर साहित्य सम्मान 2021: सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार की घोषणा


 नागपुर से संचालित साहित्यिक प्रकाशन, कथाकानन और साहित्य सदन सीहोर, हरियाणा के एक उनींदे गाँव सीहोर में पनप रहे साहित्य उपक्रम ने साथ जुट कर एक कहानी तथैव तीन कविताओं के लिए हिंदी साहित्य जगत में इस श्रेणी के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार की घोषणा की है।

इस पुरस्कार  कहानी खंड के लिए प्रविष्टियाँ स्वीकार करने की अवधि 1 जनवरी २०२१ से आरम्भ होगी, और १५ फरवरी २०२१ मध्यरात्रि को समाप्त होगी।  कहानी का प्रथम पुरस्कार  21000/ रुपये का होगा। मौलिक एवं अप्रकाशित होने के साथ साथ, यह अनिवार्य है कि कहानी की शब्द- संख्या न्यूनतम 700 शब्द तथा अधिकतम 3000 शब्द हो। द्वितीय और तृतीय पुरस्कार क्रमशः 11000/ एवम 5000/ रुपये के होंगे। इनके अतिरिक्त लघुसूची में प्रवेश पानेवाले हर कहानीकार को 500/ रुपये का प्रोत्साहन पुरस्कार प्राप्त होगा।
हिंदी साहित्य के तीन सुप्रसिद्ध उपन्यासकार/ कहानीकार इस प्रतियोगिता के कहानी- खंड के निर्णायक होंगे। जनसत्ता मुम्बई के भूतपूर्व फीचर संपादक और सहारा समय के भूतपूर्व संपादक धीरेंद्र अस्थाना जो कि एक स्थापित उपन्यासकार और कहानी लेखक भी हैं, तीन निर्णायकों में से एक निर्णायक तय हुए हैं। एक दर्जन के आसपास उनके उपन्यास और कहानी संग्रह छप चुके हैं, जिनमें ‘गुज़र क्यों नहीं जाता’ और ‘हलाहल’ उपन्यास तथा ‘खुल जा सिम सिम’ और ‘उस रात की गंध’ कहानी-संग्रह शामिल हैं। दूसरे निर्णायक हैं हिंदी कहानी जगत में अपनी अलग पहचान रखने वाले कहानीकार योगेंद्र आहूजा। योगेंद्र आहूजा के कहानी संग्रह ‘ अँधेरे में हँसी’ और ‘पाँच मिनट’ खूब चर्चा में रहे, और उन्हें मिले अनेक सम्मानों में ‘ कथा पुरस्कार’, ‘ परिवेश पुरस्कार’ और ‘ रमाकांत स्मृति पुरस्कार’ प्रमुख हैं। तीसरे निर्णायक के लिए एन डी टी वी के वरिष्ठ संपादक प्रियदर्शन को चुना गया है।  लोकप्रिय उपन्यास ‘ ज़िन्दगी लाइव’, तथा कहानी- संग्रह ‘ बारिश, धुआं और दोस्त’ तथा ‘ उसके हिस्से का जादू’ को मिलाकर प्रियदर्शन की 9 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  सलमान रश्दी,  अरुंधति राय, तथा अन्य लेखकों की सात कृतियों का वे हिंदी में अनुवाद कर चुके हैं। विजेताओं की घोषणा अप्रैल के प्रथम सप्ताह में की जायेगी।
बाबू गौतम, सीहोर साहित्य सम्मान के संस्थापक, और साहित्यिक प्रकाशन कथाकानन के प्रेता हैं और फिलहाल एफ डी सी एम एस्सेलवर्ल्ड गोरेवाड़ा ज़ू के व्यवस्थापक हैं। बाबू गौतम की हिंदी कहानियाँ हालाँकि भारतीय परंपराओं में उपजी होती हैं, पर कथ्य और शैली में हेमिंग्वे और रॉल्ड डाहल जैसे विश्वस्तरीय कहानीकारों के साथ रखी जा सकती हैं। उनकी अंग्रेजी कृतियों में उपन्यास ‘ डैडली इन्नोसेंट’ ( संक्षिप्त संस्करण एंडी लीलू) और कहानी- संग्रह ” मोहम्मद ए मेकैनिक एंड मैरी ए मेड” प्रमुख हैं। वे सीहोर गाँव के मूलनिवासी हैं।
बाबू गौतम का मानना है कि ‘हमारा भोजन हमें उतना हम नहीं बनाता है, जितना कि हमारा पठन। हम वही बनते हैं जो हम पढ़ते हैं।’ उन्होंने अपने संसाधनों को हिंदी साहित्य के उत्थान में यह सोच कर समर्पित किया है कि ‘अगर हमें अपने खोये हुए गौरव को हासिल करना है तो आर्थिक समृद्धि के साथ साथ साहित्यिक बुलंदियों को भी छूना होगा’।
कविता- खंड के लिए भी निर्णायकों का चयन कर लिया गया है, प्रविष्टियाँ 15 जनवरी से स्वीकार की जाएँगी। कविता- खंड का प्रथम पुरस्कार 11000/ रुपये का होगा, जिसका नाम आधुनिक हिंदी कविता के सिरमौर मंगलेश डबराल की स्मृति में ‘मंगलेश डबराल सम्मान’ होगा।
अधिक जानकारी के लिए व्हाट्सएप नंबर 9820506161पर संपर्क करें और अपनी रचनाएँ gautambl@yahoo.co.in इस
ईमेल पर रचनाएँ भेजें।
-Legend News

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

हाथरस कांड: वो सच जो कानून के दायरे से बाहर रह गए


 आख‍िरकार ज‍िसका अंदेशा था, वही हुआ। हाथरस कांड में सीबीआई ने अपनी चार्जशीट जमा कर दी और इस तरह जो स्क्र‍िप्ट घटना के 'चौथे द‍िन' से ल‍िखनी शुरू की गई थी, वह अब सीबीआई के ठप्पे के साथ कोर्ट में जमा हो गई है। 

अब चारों आरोप‍ितों के ख‍िलाफ 376 A , 376 D, 302 IPC व SCST Act के तहत मुकद्दमा चलेगा अर्थात् जो पटकथा का आधार घटना के चौथे द‍िन से बनाया गया , वह अब कोर्ट में ज‍िरहों के संग अपने भूत व भव‍िष्य को तय करेगा। 


धर्म, जात‍ि, संप्रदाय से अलग होकर हम सभी चाहते हैं क‍ि बेहतर समाज के ल‍िए 'वास्तव‍िक' अपराधी को सजा अवश्य म‍िले परंतु जब क‍िसी अपराध की पटकथा ''रच कर'' उसे साब‍ित कराने को हथकंडे अपनाए जायें, तो यह समाज की समरसता के ल‍िए पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। कुछ तो कानून और कुछ कोर्ट की सालों लंबी ख‍िंचती प्रक्र‍िया के कारण हमारी सोच कुछ इस तरह की हो चुकी है, क‍ि आरोपी को पहले द‍िन से अपराधी मान लेते हैं और इसी सोच ने अच्छे से अच्छे कानून के दुरुपयोगों को जन्म द‍िया। 

मह‍िलाओं से जुड़े कानूनों का सर्वाध‍िक दुरुपयोग हुआ और अब भी हो रहा है या यूं कहें क‍ि लगातार बढ़ ही रहा है। प्रेम‍िका प्रेमी की हत्या गला दबाकर कर देती है तो उसके पीछे वजहें खोजी जाती है ताक‍ि वह बेचारी साब‍ित की जा सके। इसी तरह हर बाल‍िग मह‍िला ''बहला फुसला'' ली जाती है और लड़के से घंटों घंटों मोबाइल पर फोन करने के बावजूद हर लड़की प्रेम के मामले में ''मासूम'' होती है। नाक में दम कर देने वाला हर दल‍ित '' बेचारा'' और हर व‍िवाह‍ित मह‍िला की मौत ''दहेज हत्या'' होती है।  

मरते हुए व्यक्त‍ि के बयान को सनातन सत्य और हर पीड़‍ित को न‍िर्दोष बताने वाली इस अवसरवादी व्याख्या का फायदा क‍िसी सच को स्थाप‍ित करने में नहीं बल्क‍ि झूठ की बुन‍ियाद को पुख्ता में हो रहा है। 

हाथरस कांड में घटना वाले द‍िन से लेकर अगले दो तीन द‍िन तक अलीगढ़ मेडीकल कॉलेज में एडम‍िट की गई पीड़‍िता का वीड‍ियो र‍िकॉर्डेड बयान एकदम अलग था तो कैसे वह बयान द‍िल्ली के अस्पताल तक जाते जाते पलट गया, वह भी व‍िपक्षी दल‍ित नेताओं के मजमे के बाद... इतना ही नहीं पीड़ि‍ता की मां का बयान भी उतनी ही बार पलटा ज‍ितनी बार क‍िसी नेता ने उससे मुलाकात की, सभी पर‍िजन  नार्को टेस्ट कराने से भी मुकर गए...क्या यह काफी नहीं है सच्चाई बयां करने को, यद‍ि अपराध सच में आरोप‍ियों ने ही क‍िया था तो नार्को से ये ( पीड़‍ित के पर‍िजन) क्यों मुकरे। सीबीआई तो वही र‍िपोर्ट करेगी ना जो उसे पीड़‍ित बतायेंगे और तो और ज‍िसके खेत में वारदात हुई वह चश्मदीद क‍िशोर 'छोटू' भी नार्को से क्यों मुकरा.. यह कोई ऐसी पहेली नहीं क‍ि ज‍िसे सब समझ ना रहे हों... परंतु...इस पूरे मामले में नार्को टेस्ट कराने की कानूनी बाध्यता ना होने का फायदा उन षडयंत्रकार‍ियों को म‍िलेगा जो तमाम तरह से '' लाभान्व‍ित '' हुए।  

ग्रामीण इलाकों में पीढ़ी दर पीढ़ी पलती रंज‍िशों के समाजशास्त्र में यह केस भी अपने भव‍िष्य के साथ आगे बढ़ रहा है। अन्याय के बाद जन्म लेने वाले अपराध से उपजी रंज‍िशें पीढ़‍ियों को न‍िगल जाती हैं , इस दल‍ित राजनीत‍ि का घ‍िनौना रूप गांव के चप्पे चप्पे पर जैसे च‍िपक कर रह गया है, हाथरस का ये गांव चंदपा अब ठाकुरों और दल‍ितों के खेमे में बंट गया है और कोई न्याय इसे पाट नहीं सकता।  

19 साल पहले इसी पीड़‍ित दल‍ित पर‍िवार ने SCSTAct में 'फर्जी केस' दर्ज कराकर जब 2 लाख रुपये लेकर इन्हीं ( वर्तमान आरोप‍ियों) से राजीनामा क‍िया था, रंज‍िश तो तभी से शुरू हो गई थी, इस दुश्मनी को गाढ़ा रंग म‍िला आरोपी एक लड़के से मृतका के प्रेम संबंधों के चलते। इत्त‍िफाक ऐसा क‍ि लड़की से संबंध रखने वाले का नाम संदीप और लड़की भाई का भी नाम संदीप... व‍िक्ट‍िम लड़की के सबसे पहले जो वीड‍ियो आए वे सारी कहानी बताते हैं परंतु व‍िक्ट‍िम के पर‍िवारीजन शुरू से ही संदेह के घेरे में रहे और इसकी तस्दीक उन्होंने नार्को टेस्ट से मना करके कर भी दी। तमाम अन्य कारणों को तो जाने ही दें। 

बहरहाल अब आगे की राजनीत‍ि के ल‍िए वोटों का कैश काउंटर खुल चुका है, ज‍िसमें व‍िपक्ष प्रदेश की योगी सरकार को कठघरे में लाता रहेगा और सीबीआई र‍िपोर्ट के आधार पर अपनी अपनी हांडी चढ़ाएगा, इस हांडी में प‍िसेगा तो पूरा का पूरा चंदपा गांव। 

- अलकनंदा स‍िंंह 

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

क‍िसान आंदोलन: परत दर परत खुल रहे हैं राज़


 ‘इंद‍िरा ठोक दी, मोदी क्या चीज़ है, मोदी को भी…’  के साथ खाल‍िस्तान की मांग वाले पोस्टर्स,  पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे, शाहीनबाग वाली दादी ब‍िल्क‍िस बानो, धारा 370 वापसी की मांग, नागर‍िकता संशोधन ब‍िल के व‍िरोधी, सरदार जी के वेश में नज़ीर की उपस्थ‍ित‍ि, मस्ज़‍िदों से पहुंचता खाना, हाथरस वाली भाभी की उपस्थ‍ित‍ि, जेएनयू की छात्राओं के गुट, क‍िसान नेता महेंद्र स‍िंह ट‍िकैत ज‍िस बेटे की हरकतें पसंद नहीं करते थे, वो राकेश ट‍िकैत, पीएफआई के साथ संबंध रखने वाला चंद्रशेखर और द‍िल्ली दंगों के आरोपी अमानतुल्ला खान, इंद‍िरा गांधी को म‍िटाया और अब मोदी को म‍िटाने की धमकी देने वाले तत्व, आंदोलन स्थल से पीछे की ओर अपनी आलीशान गाड़‍ियां खड़ी कर आईफोन से सेल्फी लेने वाले तथाकथ‍ित ”बेचारे गरीब क‍िसान” …..।

ये मजमा है उन लोगों का है जो केंद्र सरकार के व‍िरोध से ज्यादा स्वयं ”मोदी व‍िरोध” में स्वयं अपना ही चेहरा मैला क‍िये जा रहे हैं और क‍िसान ब‍िल के व‍िरोध की आड़ में कोरोना के बाद पटरी पर आती देश की अर्थव्यवस्था को तहस नहस करने पर आमादा हैं। यही वजह है क‍ि आंदोलन को अब हर खासोआम हिकारत की नजर से देखने लगा है।

आंदोलन का सच बताने में रही-सही कसर अवार्ड वापसी गैंग्स और उन ख‍िलाड़ि‍यों व कलाकारों ने पूरी कर दी जो कभी क‍िसान रहे ही नहीं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि जिन्होंने कायदे से गांव नहीं देखे, खेत से जिनका साबका नहीं पड़ा, फसल की निराई-गुड़ाई नहीं की, उपज की मड़ाई-कटाई नहीं की, जो नहीं जानते क‍ि घर पर खेतों से अनाज कैसे आता है, वे लोग किसानों के हमदर्द बनने चले हैं। और दावा यह भी कि ये तो “किसान आंदोलन” है, इसका राजनीति से कोई भी लेना-देना नहीं।

न‍िश्च‍ित रूप से इसका राजनीत‍ि से लेना देना नहीं है परंतु उन तत्वों से अवश्य लेना-देना है ज‍िनके एनजीओ को फंड‍िंग के लाले पड़े हैं। जो मंड‍ियों के ब‍िचौल‍िए थे, करोड़ों में खेलते थे और उनका एकाध‍िकार टूट रहा है। क‍िसान अपनी फसल क‍िसी को भी बेचे, यह कोई भी ब‍िचौल‍िया कैसे बर्दाश्त करेगा भला।

बेशक हम सोशल मीड‍िया को तमाम नकारात्मक गत‍िव‍िध‍ियों के ल‍िए गर‍ियाते रहते हैं परंतु यही मीड‍िया ‘इन जैसे’ तत्वों की पोल खोलने का माध्यम भी बना है, ठीक हाथरस कांड की तरह ज‍िसमें एक कांग्रेस नेता की पीएफआई के साथ सांठगांठ को दलि‍त अत्याचार के रूप में प्रचार‍ित क‍िया गया था।

इस कथ‍ित क‍िसान आंदोलन में मेधा पाटकर, चंद्रशेखर, जेएनयू छात्र, सीएए व‍िरोधी और खाल‍िस्तानी अलगाववाद‍ियों की उपस्थ‍ित‍ि के साथ साथ पाक‍िस्तानी मौलवी और कनाडा के पीएम के बयानों ने पूरा पैटर्न ही समझा दिया क‍ि आख‍िर आंदोलन का प्रोपेगंडा क्या है और क्यों पंजाब से ही इसकी अगुवाई की जा रही है।

दरअसल कश्मीर में अलगाववाद‍ियों को जेल, धारा 370 हटाने, स‍िख फॉर जस्ट‍िस, बब्बर खालसा जैसे तमाम एनजीओ’ज की फंड‍िंग बंद कर इन्हें बैन करने के बाद से तो ये सरकार व‍िरोधी भूचाल आना ही था, और बहाना बन गया कृषि कानून का अंधा विरोध, ज‍िसे पंजाब की कांग्रेस सरकार ने पूरा साथ दिया।

फ‍िलहाल ”पंजाब ही क्यों”… के सवाल उठने पर अब बाकायदा धन देकर उन गैर भाजपा शाष‍ित राज्यों से भी क‍िसान संगठनों को बुलाने की कोश‍िश हो रही है जो पहले ही एमएसपी पर फसल खरीद में बड़ा र‍िकॉर्ड बना चुके हैं परंतु बात तो खुल ही चुकी है… बस देखना यह है क‍ि ख‍िंचेगी कब तक ।

बहरहाल, देश को खंड-खंड करने और क‍िसान को गरीब बनाए रखने की मंशा पालने वाले ”कथ‍ित क‍िसानों” की चाल पर ”अब्दुल मन्नान तरज़ी” का शेर और बात खत्म क‍ि-

नालों ने ये बुलबुल के बड़ा काम किया है
अब आतिश-ए-गुल ही से चमन जलने लगा है।

-Alaknanda singh

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

इस्लामिक स्टेट की सुरंगें: जिन्‍होंने बताई क़ुरान की कट्टरपंथी व्याख्या

उत्तरी इराक़ के शहर मोसूूल में एक पहाड़ी है, जिसे नबी यूनुस कहते हैं. यहां पर सदियों से इबादत होती रही है. ईसाई धर्म के शुरुआती दिनों में यहां पर एक मठ भी बनाया गया था पर क़रीब 600 साल पहले इस ईसाई मठ को मुस्लिम इबादतगाह में तब्दील कर दिया गया. इस इबादतगाह को पैग़म्बर यूना को समर्पित किया गया.

जुलाई 2014 में इस मस्जिद को इस्लामिक स्टेट ने धमाके से उड़ा दिया.
मुस्लिम चरमपंथियों का दावा था कि नबी यूनुस अब इबादत का नहीं बल्कि विधर्मी गतिविधियों का अड्डा बन गई थी.
इस धमाके के वीडियो का प्रसारण पूरी दुनिया में दिखाया गया था. इस्लामिक स्टेट का संदेश साफ़ था: भले ही कोई जगह कितनी भी पवित्र हो, कितनी भी पूजनीय क्यों न हो, वो इस्लामिक स्टेट की क़ुरान की कट्टरपंथी व्याख्या की ज़द से परे नहीं थी.
लेकिन, नबी यूनुस की बर्बादी से इस प्राचीन और पवित्र माने जाने वाले टीले की कहानी ख़त्म नहीं हुई. इसके बजाय इस तबाही ने बड़े दिलचस्प सवाल को जन्म दिया कि आख़िर उस मस्जिद की संग-ए-बुनियाद के नीचे आख़िर क्या है?
2018 के बसंत के मौसम में बीबीसी अरबी सर्विस की तरफ़ से एक टीम को नबी यूनुस भेजी गई. हाल ही में वहां पर पहाड़ी के अंदर कुछ सुरंगें मिली थीं. बीबीसी की टीम वहां ये पता लगाने गई कि आख़िर इस घुमावदार, पेचीदा और धूल भरी सुरंगों की हक़ीक़त क्या है.

बीबीसी की टीम ने नबी यूनुस के उस पहाड़ी इलाक़े की हाई रिज़ॉल्यूशन वाली तस्वीरें खींचीं. इन तस्वीरों को उतारने के लिए फोटोग्रामेटरी नाम की तकनीक का इस्तेमाल किया गया. बीबीसी की टीम ने नबी यूनुस के रहस्य और उन अनसुलझे सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की, जो इस मस्जिद की तबाही के बाद से उठ रहे हैं मगर जिनके जवाब अब तक नहीं मिले हैं.
नबी यूनुस की पहाड़ी एक दौर में असीरियाई साम्राज्य की राजधानी और अपने दौर के मशहूर शहर निनेवेह के क़रीब हुआ करती थी. पैग़म्बर यूना को अरबी ज़बान में नबी यूनुस कहा जाता है. पैग़म्बर यूना या यूनुस का ज़िक्र क़ुरान में भी मिलता है और हिब्रू भाषा में लिखी गई बाइबिल में भी.
दोनों ही पवित्र किताबों में यूनुसया योना के निनेवेह शहर जाने और वहां के बाशिंदों को ये चेतावनी देने का ज़िक्र है कि शहर के लोग अपने पापों का प्रायश्चित कर लें, अपनी हरकतें सुधार लें वरना निनेवेह शहर की तबाही तय है.
बहुत से मुसलमान मानते हैं कि पैग़म्बर यूनुस की हड्डियां, नबी यूनुस में रखी हुई थीं. बाद में वहां पर एक दरगाह भी बना दी गई. मान्यता है कि यहां पर उस व्हेल का दांत भी रखा हुआ था, जो लोक कथाओं के मुताबिक़ हज़रत यूनुस को पेट में लेकर तीन दिनों तक तैरती रही थी.
मोसूल यूनिवर्सिटी में असीरियन स्टडीज़के निदेशक अली या अल-जुबूरी बताते हैं, “नबी यूनुस हमेशा से हमारी सबसे अहम धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का ठिकाना रहा. जब लोग इस पहाड़ी पर जाते थे, तो वहां से वो पुराने और नए मोसूल शहर को बहुत अच्छे से देख पाते थे.”
तबाही
24 जुलाई 2014 को इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने नबी यूनुस की मस्जिद की भीतरी और बाहरी दीवारों के पास विस्फोटक रख दिए. इसके बाद चरमपंथियों ने वहां इबादत करने आए लोगों से जाने को कहा. स्थानीय लोगों को मस्जिद से पांच सौ मीटर दूर खड़े होने को कहा गया.
विस्फोटकों में धमाके के कुछ ही सेकेंड बाद, नबी यूनुस की मस्जिद मलबे के ढेर में तब्दील हो गई थी. इस्लामिक स्टेट ने शहर में आबाद ईसाइयों को वहां से भगा दिया. इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा था कि मोसूल शहर को सिर्फ़ एक दीन के मानने वालों से आबाद करने की कोशिश हो रही थी.
नबी यूनुस मस्जिद को उड़ाया जाना मोसूल शहर के पवित्र ठिकानों और ऐतिहासिक प्रतीकों की तबाही के सिलसिले की एक कड़ी भर था.
कभी प्राचीन शहर निनेवेह में दाख़िल होने के लिए इस्तेमाल होने वाले, नबी यूनुस के पास के ही नेरगल दरवाज़े के क़रीब ही लोक कथाओं के किरदार लमासू काबुत था. इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने लमासू के बुत की शक़्ल बिगाड़ दी थी. एक दौर में ये बुत असीरियाई राजमहलों की निगहबानी करता था. बाद में चरमपंथियों ने नेरगल दरवाज़े को ही उड़ा दिया था.
इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने एकड्रिलिंग मशीन से मुस्कुराते हुए लमासू की शक़्ल में ही छेद कर डाला था.
इस्लामिक स्टेट ने नबी यूनुस की मस्जिद उड़ाने को ये कह कर जायज़ ठहराने की कोशिश की कि ये इबादतगाह थी ही नहीं. इस्लामिक स्टेट के एक लड़ाके ने बीबीसी को बताया, “ये तो ईसाइयों के पादरी का क़ब्रिस्तान था. किसी भी फ़र्ज़ी इबादतगाह के ऊपर मस्जिद तामीर करने की सख़्त मनाही है.”
अकादमिक रिसर्च से ये बात साफ़ हो चुकी है कि नबी यूनुस मूसल की पहाड़ी पर नहीं दफ़नाए गए थे. लोग तो ये मानते हैं कि पैग़म्बर यूनुस की क़ब्रें तो पूरी दुनिया में हैं.
अमरीका की ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और पंद्रहवीं सदी के इराक़ में ईसाईयत पर किताब लिखने वाले डॉक्टर थॉमस ए कार्लसन कहते हैं, “मध्य युग में लंबी दूरी पर स्थित लोगों से मिलना-जुलना और संपर्क करना बहुत मुश्किल होता था. सो, प्राचीन काल की बहुत सी मशहूर हस्तियों ने अलग-अलग जगहों पर अपनी कई क़ब्रें बनवाईं.”
सच तो ये है कि जिन हड्डियों को नबी यूनुस का बताया जाता है, वो दरअसल ईसाई धर्म के पादरी हेनानिशो प्रथम की हैं. हेनानिशो का ताल्लुक़ चर्च ऑफ़ ईस्ट से था. हेनानिशो को इस मठ में 701 ईस्वी में दफ़नाया गया था.
पुरातत्वविद अभी ये नहीं बता पा रहे हैं कि इस्लामिक स्टेट के किए धमाके में हेनानिशो की अस्थियां तबाह होने से बचीं या नहीं लेकिन विस्फोट के बाद उन्हें उस दौर की कई कलाकृतियां मिली हैं, जो हज़ारों सालों से इंसानों की आंखों से ओझल थीं.
दफ़्न राजमहल
नबी यूनुस की पहाड़ी में एक राजमहल दबा हुआ था. ये किसी दौर में असीरियाई बादशाहों का राजमहल हुआ करता था. यहां पर असीरियाई फौज का अड्डा भी था. ये ईसा से भी कम से कम 700 साल पुराना राजमहल है.
नबी यूनुस की पहाड़ी के नीचे एक राजमहल होने के संकेत पहली बार उन्नीसवीं सदी के मध्य में मिले थे. तब यानी 1850 के दशक में पुरातत्वविद् ऑस्टन हेनरी लेयार्ड और उनके मूसल के सहयोगी होरमुज़्द रस्साम यहां खुदाई कर रहे थे.
लेयार्ड और रस्साम उस वक़्त फ़रात नदी के उस पार खुदाई कर रहे थे. जब उन्हें नदी के किनारे कोऊनजिक नाम की जगह पर एक महल के खंडहर मिले तो उनका ध्यान नबी यूनुस की तरफ़ गया मगर ये जगह बहुत पवित्र मानी जाती थी इसलिए इसकी खुदाई करना मुश्किल था.
ऑस्टेन लेयार्ड ने लिखा था, “मूसल के लोगों के पूर्वाग्रह की वजह से हम उस पवित्र माने जाने वाले ठिकाने कीआगे खुदाई नहीं कर पाए वरना उसकी पवित्रता भंग होने का ख़तरा था.”
बाद में इराक़ी सरकार ने 1989 से1990 के बीच यहां खुदाई कराई. लेकिन उस वक़्त भी मस्जिद की नींव को नुक़सान पहुंचने के डर से नबी यूनुस के टीले की ज़्यादा खुदाई नहीं की जा सकी. 1850 के दशक की ही तरह मस्जिद के इमाम ने चेताया कि खुदाई से मस्जिद को नुक़सान हो सकता है.
लेकिन जब 2017 में पूर्वी मूसल शहर को इस्लामिक स्टेट के क़ब्ज़े से आज़ाद कराया गया, तो पुरातत्वविदों को मस्जिद के मलबे के नीचे अजीबो-ग़रीब चीज़ें मिलीं. मलबे के नीचे ऐसी कई सुरंगें मिलीं, जिनका पहले ज़िक्र नहीं हुआ था.
वहां पर 50 से ज़्यादा नई सुरंगें मिलीं. इनमें से कई तो महज़ कुछ मीटर लंबी थीं. पर, कुछ की लंबाई 20 मीटर से भी ज़्यादा थी.
इन सुरंगों के बारे में शुरुआती रिसर्च करने वाले जर्मनी की हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर पीटर ए मिगलस कहते हैं कि मस्जिद के मलबे के नीचे की जगह में इतने सुराख़ हैं कि ये स्विस चीज़ जैसा लगती है.
“ऐसा लगता है कि ज़्यादातर सुरंगों को कुदाल से खोदा गया था मगर कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें बनाने में शायद खुरपी जैसे छोटे औज़ार का इस्तेमाल भी हुआ. सबसे बड़ी सुरंग क़रीब साढ़े तीन मीटर चौड़ी है. वहीं, सबसे छोटी सुरंग क़रीब एक मीटर चौड़ी.”
शुरुआती रिपोर्ट में बताया गया था कि इन सुरंगों को ख़ुद इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने खोदा था. लेकिन, पूर्वी मूसल शहर के रहने वालों ने बीबीसी को बताया कि इस्लामिक स्टेट ने इन सुरंगों को खोदने के लिए स्थानीय लोगों को मज़दूरी पर लिया था.
वो यहां छुपी असीरियाई साम्राज्य की कलाकृतियों को लूटना चाहते थे. तेल बेच कर कमाई के अलावा इस्लामिक स्टेट की आमदनी का दूसरा बड़ा ज़रिया प्राचीन कलाकृतियों की बिक्री थी.
लंदन स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़ के रिसर्चर डॉक्टर लामिया अल-गैलानी कहते हैं, “इन सुरंगों को देख कर लगता है कि इनका हाल भी मूसल शहर के म्यूज़ियम जैसा है.”
इस्लामिक स्टेट ने मूसल शहर पर क़ब्ज़ा करने के बाद वहां के म्यूज़ियम की कलाकृतियों को 2015 में लूट लिया था.
डॉक्टर लामिया कहते हैं, “ऐसा लगता है कि इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों ने नबी यूनुस की सुरंगों मे जो भी मिला उसे अपने क़ब्ज़े में ले लिया. फिर उसे उड़ा दिया. वो इन कलाकृतियों को बेचकर मोटा पैसा कमाने की तैयारी में थे.”
नबी यूनुस मस्जिद के नीचे की पहाड़ी में बड़े सलीक़े से लूट-पाट की गई. शायद इसका मक़सद लूट में मिले सामान को हिफ़ाज़त से रखना था. हालांकि कुछ ऐसी चीज़ें भी थीं, जो शायद इतनी बड़ी थीं कि चरमपंथी उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके.
यहां की कई बड़ी कलाकृतियों में से कई तो ऐसी थीं जिन्हें राजमहल की दीवारों में ही पैबस्त कर दिया गया था. इन्हें निकालने के लिए पहाड़ी पर सुरंग बनाने भर से काम नहीं चलने वाला था. इसके लिए और खुदाई करनी पड़ती. शायद इसीलिए इन्हें छोड़ दिया गया.
तीन देवियां
जब मार्च 2018 में बीबीसी के संवाददाता नबी यूनुस की सुरंगों की गहराई की पड़ताल के लिए उतरे, तो उन्होंने देखा कि पुरातत्वविदों जो नई चीज़ें खोजी थीं, उन्हें वहां से हटाया तक नहीं गया था.
चूने की दीवारों के टुकड़ों और छोटे मर्तबानों के अलावा चूने के पत्थर के 30 स्लैब वहां पड़े हुए थे.
इन टुकड़ों पर असीरियाई बादशाहों एसारहैडॉन और अशुर्बनिपाल के नाम खुदे हुए थे. वहां कुछ ख़िश्तें भी थीं. इन पर सेन्नाचेरिब नाम के राजा का नाम अंकित था.
मगर सुरंगों में जो सबसे चौंकाने वाली चीज़ मिली थी, वो एक नक़्क़ाशी थी, जिसमें क़तार से खड़ी महिलाएं उकेरी गई थीं.
ये एक ऐसी खोज है, जिसने सवालों के जवाब देने के बजाय नए सवाल पैदा कर दिए हैं.
ऑक्सफोर्ड के एश्मोलियन म्यूज़ियम ऑफ़आर्ट ऐंड आर्कियोलॉजी के मध्य-पूर्व विभाग का रख-रखाव करने वाले डॉक्टर पॉल कॉलिंस मानते हैं कि ये नक़्क़ाशियां अभूतपूर्व हैं.
असीरियाई दौर के राजमहलों में अब तक केवल मर्दों के बुत या नक़्क़ाशी की गई प्रतिकृतियां मिलती रही हैं. मिसाल के तौर पर एक शेर को भाला मारते हुए राजा की प्रतिमा और शिकार के बाद लौटती हुई फौज की एक टुकड़ी के बुत.
लेकिन उस दौर के अवशेषों में इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं की नक़्क़ाशीदार मूर्तियां मिलना असाधारण खोज है.
इससे पहले के अवशेषों में महिलाओं की जो नक़्क़ाशियां या बुत मिले हैं, वो उन्हें क़ैद में रखने या जंग के बाद लूटे गए माल के तौर पर दिखाई गई हैं. इस नई खोज में कमर तक की ऊंचाई वाले महिलाओं के बुत मिले हैं.
डॉक्टर पॉल कॉलिंस कहते हैं, “मुहरों और धातुओं की बनी चीज़ों के अलावा हमारे पास असीरियाई सभ्यता की कुछ ख़ास चीज़ें अब तक नहीं थीं. इनके अलावा हमारे पास उस दौर के सुबूत के तौर पर राजमहलों के खंडहर ही थे. इन में अक्सर किसी जंग में जीत को उकेरा गया था. उस दौर की ऐसी धार्मिक कृतियों में राजा के अल्लाह से संबंध को दिखाया जाता था. वो भी बहुत कम ही मिलती हैं.”
महिलाओं के इन बुतों के मिलने से जानकार इसलिए भी हैरान हैं कि असीरियाई सभ्यता के अवशेषों में ये पहली बार है जब महिलाओं की शक्लों वाले बुत मिले हैं. इससे पहले सिर्फ़ उनके होने का एहसास कराने वाली प्रतिकृतियां ही मिली थीं.
न्यूयॉर्क की सेंट जॉन्स यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉक्टर एमी गैन्सेल कहती हैं, “इन मूर्तियों का मिलना बेहद दिलचस्प और सनसनीख़ेज़ है.मैंने उस दौर के अवशेषों में ऐसी चीज़ें पहली बार देखी हैं.”
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि एक जैसी दिखने वाली ये प्रतिमाएं देवियों की हैं.
लेकिन डॉक्टर एमी गैन्सेल मानती हैं कि हक़ीक़त इसके उलट भी हो सकती है. इनके सिर पर सींग या ख़ास ताज नहीं हैं. असीरियाई सभ्यता के लोग अपने देवताओं की ऐसी ही कलाकृतियां बनाते थे. लेकिन, नई मिली मूर्तियों में ऐसा कुछ नहीं है. मतलब साफ़ है. ये आम असीरियाई महिलाओं के बुत हो सकते हैं.
डॉक्टर गैन्सेल मानती हैं कि महिलाओं की ये प्रतिमाएं शाही परिवार या सामंती ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने वाली हो सकती हैं. जिन्हें देवताओं को चढ़ावा ले जाते दिखाया गया है. शायद वो किसी धार्मिक आयोजन में हिस्सा लेने वाली महिलाओं की प्रतिमाएं हैं.
डॉक्टर एमी गैन्सेल ने बीबीसी को बताया, “ये बहुत ही ज़्यादा दिलचस्प है. इन मूर्तियों के मिलने से ये लगता है कि नबी यूनुस में शायद महिलाओं का भी कोई पूजा का ठिकाना था. ये असीरियाई साम्राज्य में महिलाओं के स्तर और समाज में उनके धार्मिक रोल को दर्शाता है. ये एकदम अनूठा है.”
अब तक इस बात पर कोई रिसर्च नहीं की गई है कि इन नक़्क़ाशीदार प्रतिमाओं का असल मतलब क्या है. यानी अभी इन्हें लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाज़ी होगी.
सुरंगों में मिले और भी सामानों को लेकर भी यही बात सही होगी कि हड़बड़ी में कोई फ़ैसला न किया जाए. असल में कई शिलालेख और नक़्क़ाशीदार बुत उलट-पुलट अवस्था में मिले थे.
इसका ये मतलब है कि उन्हें कहीं और से ले आया गया था.
बीबीसी अरबी सेवा की टीम ने जो तस्वीरें वहां की ली हैं, वो शानदार और चौंकाने वाली हैं.
लमासू
महिलाओं की नक़्क़ाशीवाली प्रतिमाओं के अलावा एक पौराणिक किरदार लमासू की उकेरी हुई नक़्क़ाशी भी नबी यूनुस में मिली है.
सुरंगों में लमासू के चार बुत साबुत मिले हैं जबकि एक के टुकड़े मिले हैं.
बड़े पत्थरों के ये लमासू असीरियाई राजमहलों के द्वार पर बनाए जाते थे, ताकि वहां तक पहुंचने वाले दुश्मन को डराया जा सके और बुरी आत्माओं को वहां से भगाया जा सके.
अक्कादियान भाषा में लमासू का मतलब ‘हिफ़ाज़त करनेवाली आत्मा’ होता है. उनका शरीर सांड़ जैसा होता है. बाज़ जैसे पंख होते हैं और इंसान जैसा सिर होता है.
लमासू के बुत इस तरह बनाए जाते थे कि वो सामने से आने वाले की निगाह में निगाह डाल कर देख रहे हों.
नबी यूनुस के नीचे खुदाई में लमासू के बुत मिलने का मतलब है कि वहां पर कुछ कमरे ऐसे थे जो दुश्मनों और ‘शैतानों’ से हिफ़ाज़त के तलबगार थे.
ये इसको और पुख़्ता करता है कि वहां मिले खंडहर या तो शाही परिवार से ताल्लुक़ रखते थे या फिर वहां कोई पवित्र ठिकाना था.
जिस तरह इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने फरवरी 2015 में लमासू के बुत की शक़्ल बिगाड़ी थी, वो कुछ हद तक प्राचीन काल के शहर निनेवेह की लूट-पाट से मिलता है.
जब दुश्मन की फौजों ने शहर को नेस्तनाबूद कर दिया था. बादशाह के बुत को खंड-खंड कर के ये संकेत दिया जाता था कि इतिहास के पन्नों से उसका नामो-निशान मिटा दिया गया.
लेकिन लमासू की मूर्ति को सरेआम छिन्न-भिन्न कर के भी इस्लामिक स्टेट अपने मक़सद में कामयाब नहीं हो सका.
नबी यूनुस से कुछ ही दूरी पर यूनुस के मकबरे के मलबे के नीचे लमासू की पत्थर की मूर्तियां इस्लामिक स्टेट की तबाही से अछूती रहीं. बच गईं.
इनमें से कई मूर्तियों पर तो इंसान ने हज़ारों सालों से निगाह नहीं डाली थी.
अब उनकी हालिया खोज इस बात का सबूत है कि नबी यूनुस के क़िस्से को तबाह करने की तमाम कोशिशों के बावजूद इस कहानी का कारवां आगे बढ़ता रहेगा.

साभार  -BBC

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

उदयभास्कर जी… आंकड़े ज़मीनी हक़ीकत बयां नहीं करते


 आज देवी अष्टमी है और आज के द‍िन यद‍ि कुछ ल‍िखा जाये और वह मह‍ि‍लाओं से संबंध‍ित ना हो , ऐसा हो नहीं सकता। यूं देखा जाये तो हम पत्रकार लोग अकसर ज्वलंत मुद्दों पर ही ल‍िखते हैं और आंकड़ों की बाजीगरी कम करते हैं, परंतु कुछ स्थाप‍ित लेखक और बड़े संस्थानों के '' बड़े च‍िंतक '' जब आंकड़ों पर आधार‍ित बात करके क‍िसी भी समस्या को कागजों पर ही तैराते हैं तो बड़ा दुख होता है क्योंक‍ि आंकड़े कभी ज़मीनी हक़ीकत नहीं बता पाते। 


ऐसा ही आज के समाचार पत्र में ''सोसायटी फॉर पॉल‍िसी स्टडीज''  के न‍िदेशक 'सी. उदय भास्कर' का एक लेख पढ़ा, जो क‍ि दुष्कर्म और मह‍िलाओं की स्थ‍ित‍ि पर ' समाज की ज‍िम्मेदारी' पर ल‍िखा  गया था, उन्होंने हाथरस के ज‍िस केस से शुरुआत की, वह बेहद हवा हवाई था, क्योंक‍ि इस केस से संबंध‍ित जांच एंजेंस‍ियों की अभी तक की प्रगति, राजनीत‍िक कुप्रचार और ग्रामीणों के हवाले से जो बातें छन कर आ रही हैं, वे सभी  जानकारी पूरे मीड‍िया में उपस्थ‍ित है परंतु उदयभास्कर जी ने इसे भी रटे रटाये अंदाज़ में प‍िछले एक दशक के आंकड़े पेश करते हुए मात्र ''दल‍ित उत्पीड़न और मह‍िलाओं पर अत्याचार''  के संदर्भ में देखा । जबक‍ि आज के संदर्भ में  पूरा का पूरा केस ही एकदम अलग एंग‍िल लेकर सामने आ रहा है...तमाम संदेह और सुबूत इशारा करते हैं क‍ि केस जो प्रचार‍ित क‍िया गया... वैसा है नहीं और इसे मैं पहले भी ल‍िख चुकी हूं। 


दरअसल SCSTAct में फर्जी केस दर्ज कराने और 2 लाख रुपये लेकर केस वापस लेने से पनपी 19 साल पहले की रंज‍िश और मृतका के प्रेम संबंधों के चलते दुश्मनी को गाढ़ा रंग म‍िला। इत्त‍िफाक ऐसा क‍ि लड़की से संबंध रखने वाले का नाम संदीप और लड़की भाई का भी नाम संदीप... व‍िक्ट‍िम लड़की के सबसे पहले जो वीड‍ियो आए वे सारी कहानी बताते हैं परंतु व‍िक्ट‍िम के पर‍िवारीजन शुरू से ही संदेह के घेरे में रहे और इसकी तस्दीक उन्होंने नार्को टेस्ट से मना करके कर भी दी। तमाम अन्य कारणों को तो जाने ही दें।


मैं आज इस केस पर नहीं ल‍िख रही बल्क‍ि आंकड़ों के ज़र‍िये मह‍िला अत्याचारों पर अब तक बनाए जाते रहे नैरेट‍िव पर ल‍िख रही हूं। क‍ि आख‍िर ये नैरेट‍िव क्यों बनाया जा रहा है, क्यों सी. उदयभास्कर सरीखे सभी बड़े पॉल‍िसी मेकर्स आज तक सरकारों, अध‍िकार‍ियों और राजनीत‍ि को दोषी बताते नहीं थक रहे और क्यों ये बुद्ध‍िजीवी सदैव ही मह‍िलाओं के ह‍ित बनने वाली नीत‍ियों को कमतर ठहराने का राग अलापते रहते हैं। वे यह क्यों हम भूल जाते हैं क‍ि हम ही उसके ल‍िए  सर्वाध‍िक ज‍िम्मेदार हैं। ''गांव की बेटी- सबकी बेटी'' के ध्वस्त हो चुके सामाज‍िक ढांचे के ल‍िए वे अपनी आवाज़ क्यों नहीं उठाते। जब SCSTAct में जात‍ि सुचक शब्द कहने पर सजा का प्राव‍िधान है तो मह‍िलाओं के नाम पर दी जाने वाली गाल‍ियों पर क्यों नहीं। 


समाज में अभीतक हमने ही तो जो फसल मह‍िलाओं की बेइज्जती कर- कर के बोई है अब वही तो काट रहे हैं फ‍िर ये हाय-हाय क्यों। 


नेता भी इसी समाज से आते हैं और अध‍िकारी भी... दुष्कर्मी भी कोई आसमान से नहीं टपकते, उन्हें हम ही तैयार करते रहे हैं...अपने घर की फैक्ट्री में और तो और अब भी ऐसा करने से बाज नहीं आ रहे। कभी हमने अपने पर‍िवारों में... अपने घरों में.. र‍िश्तेदार‍ियों...में देखा है क‍ि कोई पुरुष गाली देता है तो घर की मह‍िलायें उसे टोकती हों या अन्य बुजुर्ग अथवा पुरुष उस पर ऐतराज करते हों, जबक‍ि हम सभी जानते हैं भारतीय समाज में हर भाषा में सभी गाल‍ियां लगभग मह‍िलाओं पर यौन‍िक आत्याचार से ओतप्रोत होती हैं... हम फ‍िर भी उन्हें देते हुए सुनते हैं, कोई अपना क‍िसी को दे रहा हो तो खुश भी होते हैं , आत्मसंतुष्ट‍ि होती है ये देखकर फलां को नीचा द‍िखा द‍िया...।


तो ग‍िरेबां तो हमने मैला क‍िया हुआ है अपने समाज का और आशा करते हैं क‍ि पीढ़‍ियां सुधर जायें... ऐसा कैसे संभव है। कम से कम बढ़े लेखकों, पॉल‍िसी  मेकर संस्थानों के न‍िदेशक जैसे पदों पर बैठे लोगों को क‍िसी नैरेट‍िव पर ल‍िखते समय यह अवश्य सोचना चाह‍िये क‍ि वे यह सब अखबारों, वेबपोर्टल्स से मेहनताना पाने के ल‍िए नहीं ल‍िख रहे , वे समाज को आइना द‍िखाने और एक कदम आगे बढ़कर उसके ल‍िए ''कुछ पॉज‍िट‍िव'' करने के ल‍िए ल‍िख रहे हैं, शब्द सदैव जीव‍ित रहता है ... व‍ह क्रांत‍ि भी ला सकता है और तबाही भी। सोचना बुद्ध‍िजीव‍ियों को है क‍ि वे समाज में अपने शब्दों से कौन सी भुमश्िका न‍िबाहना चाहते है। 


आज बस इतना ही। 

- अलकनंदा स‍िंंह 

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

हे देवि!... मृजया रक्ष्यते को व‍िस्मृत करने पर हमें क्षमा करें


 

वेदों से लेकर उपन‍िषदों तक, शास्त्रों - पुराणों से लेकर सभी सनातनी ग्रंथों तक क‍ि सी पूजा से पहले स्वच्छता को प्रथम स्थान द‍िया गया है क्योंक‍ि यह शारीर‍िक शुद्धता के माध्यम से मानस‍िक बल व न‍िरोगी रहने की मूलभूत आवश्यकता होती है। कोई भी पूजा मन, वचन और कर्म की शुद्धि व स्‍वच्‍छता के बिना पूरी नहीं होती। 

आज से शारदीय नवरात्र देवी के आगमन का पर्व शुरू हो गया है। देवी उसी घर में वास करती है, जहां  आंतरिक और बाह्य शुद्धि हो। वह कहती भी हैं कि मृजया रक्ष्यते (स्‍वच्‍छता से रूप की  रक्षा होती है), स्‍वच्‍छता धर्म है इसीलिए यही पूजा में सर्वोपरि भी है। शरीर, वस्त्र,  पूजास्‍थल, आसन, वातावरण शुद्ध हो, कहीं गंदगी ना हो। यहां तक कि पूजा का प्रारंभ  ही इस मंत्र से होता है -''ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्‍थां गतोsपिवा।

यह स्वच्छता को धर्म में प्रमुखता देने के कारण ही तो पूरे देवीशास्‍त्र में 8 प्रकार की शुद्धियां बताई गई हैं- द्रव्‍य (धनादि की स्‍वच्‍छता अर्थात्  भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो), काया (शरीरिक स्‍वच्‍छता), क्षेत्र (निवास या कार्यक्षेत्र के आसपास  स्‍वच्‍छता), समय (बुरे विचार का त्‍याग अर्थात् वैचारिक स्‍वच्‍छता), आसन (जहां बैठें  उस स्‍थान की स्‍वच्‍छता), विनय (वाणी में कठोरता ना हो), मन (बुद्धि की स्‍वच्‍छता)  और वचन (अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल ना करें)। 

इन सभी स्‍वच्‍छताओं के लिए अलग  अलग मंत्र भी हैं इसलिए आपने देखा होगा कि पूजा से पहले तीन बार आचमन, न्‍यास,  आसन, पृथ्‍वी, दीप, दिशाओं आदि को स्‍वच्‍छ कर देवी का आह्वान किया जाता है।

विडंबना देखिए कि हमने इसी मृजया रक्ष्यते के सूत्र वाक्य को हमने भुला द‍िया है और आज हजारों करोड़ रुपये स‍िर्फ इस प्रचार पर 'जाया' करने पड़ रहे हैं क‍ि हम स्वच्छता के असली मायने ही भुला चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक कार्यकाल पूरा हो गया '' स्वच्छता का आव्हान करते करते '' इसी स्वच्छता अभ‍ियान के तहत उन्होंने खुले में शौच से मुक्त‍ि के ल‍िए पूरा का पूरा मंत्रालय जुटा द‍िया परंतु आज भी ग्रामीण क्षेत्रों की मह‍िलाओं व छोटी बच्च‍ियों के साथ आए द‍िन होने वाली रेप की घटनाओं के पीछे खेत में शौच के ल‍िए जाना भी एक कारण न‍िकल कर सामने आ रहा है। इतनी सहायता के बाद भी शत प्रत‍िशत सफलता क्यों नहीं म‍िली, क्योंक‍ि हमने उसे अपनाया नहीं बल्क‍ि ओढ़ ल‍िया। स्वच्छता दूतों ने प्रचार-प्रसार कर अपना मेहनताना सीधा क‍िया, जनप्रत‍िन‍िध‍ियों और सरकारी बाबुओं ने इसे स‍िर्फ 'नरेंद्र मोदी का काम' मान कर इत‍िश्री कर ली।   

ज‍िस सूत्रवाक्य को हमारे धर्म शास्त्रों में स्वयं देवी के मुख से कहलवाया गया ताक‍ि स्वच्छता संदेश का प्रभाव कुछ तो स्थायी रहे परंतु हम घरों के भीतर की स्वच्छता तक स‍िमट गये और मृजया रक्ष्यते का अहम संदेश त‍िरोह‍ित हो गया। तो क्या ज‍िस देवी का आह्वान स्वयं को बलवान बनाने के ल‍िए करते हैं, उसके संदेश हम जीवन में हीं उतार सकते, न‍िश्च‍ित ही उतार सकते हैं , इसके ल‍िए बहुत अध‍िक प्रयास की आवयकता नहीं है, थोड़ा सा प्रयास कीज‍िए फ‍िर देख‍िए क‍ि देवी का ''आव्हान'' करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, वे स्वयं आपके सन्न‍िकट होंगीं। 

- अलकनंदा स‍िंंह 


मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020

ब्रांडेड आभूषण कंपनी “तन‍िष्क” को द‍िखाया आइना… संघे शक्त‍ि कल‍ियुगे


 धर्म एक ऐसा स्तंभ है जो क‍िसी भी देश, उसके नागरि‍कों, उसकी संस्कृत‍ि को न केवल सहेजता है, बल्क‍ि उन्हें न‍ियमों के बंधन में बांधकर उच्छृंखल होने से बचाता है और एक पूरे के पूरे समाज की अनेक थात‍ियों को अगली तमाम पीढ़‍ियों तक प्रवाह‍ित करता है। सनातन धर्म ऐसा सद‍ियों से वही करता आ रहा है। सबसे पुरानी संस्कृत‍ि का संवाहक होने के नाते इसे ही अन्य अनेक धर्मों के आक्रमणकार‍ियों का न‍िशाना भी इसील‍िए बनना पड़ा।

युद्ध चाहे मैदानों में लड़े जाते रहे हों या आज की तरह मानस‍िक व वैचार‍िक रूप से किंतु सनातन धर्म पर आघात अब भी जारी हैं। हालांकि संघे शक्त‍ि कल‍ियुगे ने कल अपना छोटा सा नमूना तब पेश क‍िया जब लव ज‍िहाद को प्रमोट करने वाला एक व‍िज्ञापन टाटा कंपनी की ब्रांडेड आभूषण कंपनी ‘तन‍िष्क’ हटाने पर बाध्‍य हुई।

वैसे सनातन धर्म पर आघात का ही उदाहरण हैं आए द‍िन होने वाली संतों-पुजार‍ियों की हत्याएं, लव ज‍िहाद की घटनाएं और धर्म-पर‍िवर्तन के ल‍िए ब्रेनवॉश की सतत प्रक्र‍िया ज‍िसे मीड‍िया के माध्यम से बखूबी अंजाम द‍िया जा रहा है। अभी तक तथाकथ‍ित तौर पर ‘धर्मन‍िरपेक्षी होने की कीमत’ चुकाते आ रहे हम, अब इस मीठे ज़हर को ‘चुपचाप’ पीने के ल‍िए राजी नहीं… कतई नहीं ।

ज्वेलरी ब्रांड तन‍िष्क द्वारा लव ज‍िहाद को प्रमोट करने वाला एड प्रसार‍ित करने पर हंगामा यूं ही नहीं मचा। तनिष्क ने अपने नये विज्ञापन में एक गर्भवती हिन्दू महिला को मुस्लिम के घर की बहू बताकर ये जताने का प्रयास किया है कि किसी मुस्लिम से निकाह करने वाली हिन्दू महिला को मुस्लिम घर में क‍ितना प्यार म‍िलता है और उसे ”ब‍िट‍िया की खुशी” मनाने का र‍िवाज़ बताकर प्रोत्साह‍ित क‍िया जाता है।

इस विज्ञापन के आते ही सोशल मीडिया में तनिष्क के प्रति लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। इसके बाद सामूहिक रूप से तनिष्क के बहिष्कार की मुहिम ट्विटर पर चलाते हुए #BoycottTanishq अभियान छेड़ द‍िया गया। अंतत: तन‍िष्क को अपना एड हटाना पड़ा। कुछ समय पहले ही सर्फ एक्सेल ब्रांड ने भी इसी मानसिकता पर अपने विज्ञापन को प्रचारित किया था, उसका भारी विरोध हुआ था परंतु तब व‍िरोध की तीव्रता शायद कम रह गई थी।

व्यक्त‍िगत आज़ादी और कानूनी तौर पर क‍िसी मुस्ल‍िम से ह‍िंदू लड़की की शादी को सही ही माना जाएगा और होना भी यही चाह‍िए क्योंक‍ि ये व्यक्त‍िगत फैसला है परंतु बड़ा सवाल ये है क‍ि हमेशा ”ह‍िंदू लड़की ही क्यों”, और धर्मन‍िरपेक्षता की इतनी बड़ी कीमत हमेशा ह‍िंदू ही क्यों चुकाए क‍ि उनकी बेट‍ियों को न‍िशाना बनाया जाता रहे, कभी बरगलाकर तो कभी धमकाकर, और वह अब भी चुप रहे जबक‍ि इसके पीछे की सच्चाई NIA जैसी सर्वोच्च जांच एजेंसी भी बता चुकी हैं, क‍ि इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। ये स‍िर्फ शादी नहीं होती, इसके पीछे धर्मपर‍िवर्तन और परोक्ष रूप से लड़की के पर‍िवार व उससे पैदा हुए बच्चे तक एक लंबी श्रृंखला है ज‍िसे सुन‍ियोज‍ित तरीके से चलाया जा रहा है।

बहरहाल, अब जो थोड़ी चेतना स‍िर से ऊपर जाते पानी को रोकने के ल‍िए जागृत हुई है, वह बनी रहनी चाह‍िए। प्रश्न ये है क‍ि आख‍िर ह‍िंदू को ही क्यों सहनशील बनने की नसीहत देते हुए ये एड प्रसार‍ित क‍िये जा रहे हैं। अरे… ह‍िंदू तो दुन‍ियाभर में पहले से ही सहनशील माने जाते हैं, अब और क‍ितना। अब चेतने का समय है क्योंक‍ि अब उनकी न‍िगाहें हमारी बेट‍ियों पर आ गड़ी हैं।

अभी तक ज‍िस धर्मन‍िरपेक्षी चश्मे को हमारी आंखों पर चढ़ाकर हमें ”भाई भाई और सहनशीलता” का पाठ पढ़ाया गया, अब वही आत्मघाती होता जा रहा है। देश में सत्तापर‍िवर्तन के बाद इस चेतना को बल म‍िला तो उन ”घात‍ियों” को सहन नहीं हो रहा।
न‍िश्च‍ित रूप से व्यापार का कोई मत या मजहब नहीं होता परंतु अब जो कुछ भी दिख रहा है, वह लोगों को एक बार सोचने पर मजबूर कर रहा है कि क्या सच में अब व्यापार भी धर्म देखने लगा है, वह भी लव ज‍िहाद को प्रमोट करके। इस आघात की शिकार अब तक हजारों लड़कियाँ हो चुकी हैं और इस से भी ज्यादा अभी इस जाल में फंसी हुई हैं। कहते हैं ना क‍ि संघे शक्त‍ि कल‍ियुगे, तो अब एकता का प्रमाण ट्व‍िटर ट्रेंड में ही नहीं, समाज के व‍िध्वंसक तत्वों तक भी पहुंचना चाह‍िए जो हमारी बेट‍ियों को बरगलाने में लगे हैं।

– अलकनंदा स‍िंंह 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

हाथरस को ‘हाथरस’ बनाने के बाद…की कहानी


 र‍िश्तों को लेकर हमारे कव‍ियों- साह‍ित्यकारों ने बड़ा काम क‍िया है, पोथ‍ियों पर पोथ‍ियां गढ़ते गए परंतु इन्हें प्रभाव‍ित करने वाली लालची मानस‍िकता को वे नहीं पढ़ पाए और ना ही बदल पाए। आज जब लालच ने सबसे पहला प्रहार र‍िश्तों पर क‍िया और सामूह‍िक दुष्कर्म के बढ़ते मामलों के रूप में इसका नतीज़ा अब हमारे सामने आ रहा है, तो एक एक केस की हकीकत भी समझ आ रही है। ये अलग बात है क‍ि कभी राजनीति तो कभी कानूनी बहाने ‘सच’ को कहने-सुनने-देखने पर बंद‍िशें लगा रहे हैं परंतु कब तक, सच की यही खूबी है क‍ि वह तो सामने आकर ही रहता है।

और सच ये है क‍ि दुष्कर्म की ‘घृणा’ का मोल लगाकर जो मुआवज़ा बांटने की प्रथा चली है, उसने इसके ‘घट‍ित होने’ पर प्रश्नच‍िन्ह लगाने शुरू कर द‍िए हैं। ऐसा नहीं है क‍ि ये घटनायें होती ही नहीं हैं, न‍िश्च‍ित ही होती हैं परंतु भेड़‍िया आया… भेड़‍िया आया… की तर्ज़ पर दुखद घटनायें भी संशय के घेरे में तब आ जाती हैं जब इसके पीछे पीड़‍ित को न्याय द‍िलाने की अपेक्षा मुआवजे का लालच प्रगट होता है। हक़ीकत हम सभी जानते हैं क‍ि समाज में सभी पुरुष ‘हर‍िश्चंद्र’ नहीं बैठे और ना ही सभी मह‍िलायें ‘साव‍ित्री’ हैं।

हाथरस कांड के बाद अब फतेहपुर में भी ऐसा ही मामला सामने आया है जहां मृतका के पर‍िजन जाम लगाकर न्याय की मांग के साथ ही पुल‍िस के व‍िरुद्ध नारे लगा रहे थे, अचानक सपा व कांग्रेस के नेता के पहुंचते ही एफआईआर में नामज़द क‍िए गए एक आरोपी के साथ साथ ”तीन अन्य अज्ञात” का नाम भी जोड़ देते हैं और मामले को ‘ जघन्य व सामूह‍िक दुष्कर्म ‘ बताने लगते हैं। फ‍िर एक और ट्व‍िस्ट आता है क‍ि 25 लाख मुआवजे की घोषणा होते ही वे पुल‍िस का व‍िरोध भी छोड़ देते हैं और मृतका का अंत‍िम संस्कार भी फटाफट कर देते हैं।

बहरहाल ये और इस जैसे कई मामले हैं जहां मुआवज़ा ‘बांटा’ नहीं गया , बल्क‍ि पर‍िजनों पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। निर्भया केस के बाद जिस तरह से उसके घरवालों को दिल्ली में फ़्लैट, लाखों रुपये और भाईयों को नौकरी दी गई, उसके बाद से देशभर में न्याय की जगह ‘तुष्टीकरण’ की एक अजीब सी प्रथा शुरू हो गई ज‍िसने लालच को ऐसा पनपाया क‍ि अब वही गुनाहों को जन्म दे रहा है।

अगर बेटियों के रेप के बदले ज़मीन, लाखों रूपये और बेटों को सरकारी नौकरी मिलने लगेगी तो फिर समझ लो कि गरीब और मजबूर समाज को किस लालच के गर्त में ढकेला जा रहा है। ये बात तो अब कतई बेमानी हो गई है कि कोई भी माँ-बाप अपनी बेटियों के बलात्कार का झूठा मुक़द्दमा नहीं कर सकते। अदालतों से बड़ी संख्या में वापस ल‍िए गए बलात्कार के आरोपों वाले केस इस बात की तस्दीक करते हैं । चूंक‍ि बलात्कार के अपराध में प्रत्यक्ष साक्षी का अभाव होता है इसल‍िए इसका बेजां फायदा उठाकर मुआवज़ा प्रथा के ल‍िए इस टूल को सब अपने-अपने ह‍िसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं ।

हसरत मोहानी का एक शेर और बात खत्म क‍ि –

भड़क उठी है कैसी आतिश-ए-गुल
शरारे आशियाँ तक आ गए हैं।

- अलकनंदा स‍िंंह 

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

हाथरस केस का वो ”ग्रे” फैक्टर जो आधे अधूरे सच पर गढ़ा गया

समाज में कानून का राज होना चाह‍िए… मगर यहां कानून की धज्ज‍ियां उड़ाई जा रही हैं…दल‍ितों को सताया जा रहा है… दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ गई हैं… बेट‍ियां सुरक्ष‍ित नहीं हैं… फलां नेता के शासन में ‘जंगल राज’ है…. फ‍िलहाल हाथरस मामले में ऐसा ही कुछ सुनने को मिल रहा है मगर कभी सोचा है क‍ि ऐसा क्यों है।

वोट बैंक, जात‍ि और ल‍िंग आधार‍ित भावनाओं के ज्वार में आकर यदि कोई कानून बना द‍िया जाएगा तो उससे क‍िसी पीड़‍ित को न्याय म‍िलने की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है। दहेज हत्याएं हुईं तो इसके ल‍िए कानून, दुष्कर्म हुए तो इसके ल‍िए कानून, दल‍ित सताये गए तो इसके ल‍िए कानून, यहां तक मह‍िलाओं का यौन शोषण रोकने के लिए अलग-अलग कानून बना द‍िये गये, वो भी ब‍िना ये सोचे समझे क‍ि इनका दुरुपयोग करने वाले अध‍िक ही होंगे… कम नहीं।

प्राकृत‍िक न‍ियम है क‍ि शोष‍ित होने की थ्योरी हमेशा काम नहीं करती, सच सामने आ ही जाता है परंतु मीड‍िया आए द‍िन क‍िसी भी एक घटना को ज‍िस तरह आधा-अधूरा सच द‍िखाकर ‘आपाधापी वाली वाहवाही’ बटोरने में जुट जाता है वह ‘ सच ‘ की तह तक पहुंचने में बाधा ही बनता है जबक‍ि होना यह चाह‍िए क‍ि जो काम पुल‍िस नहीं कर सकती वह ‘खोजबीन’ न‍िष्पक्ष होकर मीड‍िया द्वारा की जानी चाह‍िए परंतु ना तो सच बोलने का जोख‍िम उठाना चाहती है और ना ही प्रोपेगंडा की धारा में बहने की सहजता खोना चाहती है।

ठीक यही हुआ है हाथरस की घटना में। पूरा बुलगढ़ी गांव जानता है क‍ि वाल्म‍िकी जाति की मृतका का प्रथम आरोपी संदीप से प्रेमसंबंध था, परंतु 19 साल की खानदानी रंज‍िश और वाल्म‍िकी-ठाकुर का गैप, दोनों के घर वालों को पसंद नहीं था, इसी के चलते भाई द्वारा मृतका को अकसर मारापीटा जाता था। एकबार दोनों घर में ही एकसाथ पकड़े गए, प्रधान के द्वारा गांव में पंचायत हुई, दोनों की शादी का प्रस्ताव पंचायत ने रखा परंतु पर‍िवारों ने नहीं माना, लड़के को लड़की से दूर रहने की ह‍िदायत के साथ गांव से दूर भेज द‍िया गया।

प्रत्यक्षदर्शी ग्रामीणों के अनुसार 14 स‍ितंबर को घटना से एक द‍िन पहले ही वह गांव वापस आया था। घरवालों की कड़ी पहरेदारी के बीच वो खेत पर मां के साथ घास काटने गई लड़की (मृतका) से म‍िलने पहुंच गया, मात्र 10-15 मीटर दूरी पर घास काट रही मां ने उसे लड़की से बात करते देख ल‍िया और शोर मचाते हुए अपने बेटे यान‍ि मृतका के भाई को आवाज़ दी, भाई के आते ही कथ‍ित दोषी (संदीप) भाग गया और मृतका के भाई ने बहन का गला दबा कर मारते हुए उसे अधमरा कर द‍िया। वो पहले भी लड़की को इसी तरह मारता रहा है परंतु इस बार बहन की हड्डी टूट गई, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा, बहन के प्रेमी को जेल भेजने के ल‍िए ये सारा प्रपंच रचा गया।

मीड‍ियाकर्मी अगर थाने में ल‍िखी गई पहली तहरीर को ही खंगाल लेते तो सारा माजरा समझ में आ जाता मगर इसे दबा द‍िया गया। SCSTAct के तहत मारपीट में दर्ज की गई एफआईआर को क्रमश: पहले रेप, फ‍िर गैंगरेप में तब्दील कराया गया, और ये प्रपंच क‍िसी व‍िरोधी पार्टी या क‍िसी दबंग ने नहीं बल्क‍ि भाजपा के ही दल‍ित सांसद ने लड़की के भाई के संग म‍िलकर रचा ताक‍ि ”दल‍ित बेटी का दबंगों द्वारा गैंगरेप ” कहकर मामले को तूल द‍िया जा सके।

घटना की जांच करने वाले एसएचओ डीके वर्मा जो कि खुद दलित वर्ग से हैं, ने पाया कि लड़के के अलावा ज‍िन तीन अन्य को नामज़द कराया जा रहा है, वे वही लोग हैं ज‍िनके द्वारा लड़के के पर‍िवार की पैरवी की जा सकती थी। इनमें से एक तो उस समय क‍िसी आइस फैक्ट्री में काम कर रहा था (ज‍िसकी तस्दीक उस आइस फैक्ट्री के माल‍िक ने भी की) और एक वो पास के ही खेत से भागकर आया व भाई के चंगुल से लड़की को बचाया, पानी प‍िलाया।

फ‍िलहाल मीडिया के दबाव में एसएचओ डीके वर्मा लाइन हाज़िर हैं और मृतका के भाई व प‍िता राजनीत‍ि व मीड‍िया के टूल बने अभी तक आधा दर्जन बार बयान बदल चुके हैं। आगे गांव में उनके ल‍िए पनप रही नफरत क्या गुल ख‍िलाएगी, कहा नहीं जा सकता।

14 स‍ितंबर से 22 स‍ितंबर और कल के राजनैत‍िक ड्रामे के बाद इतना तो न‍िश्च‍ित ही कहा जा सकता है क‍ि यह एक साधारण सी प्रेम कहानी का वीभत्स अंत था जो हॉरर क‍िल‍िंग का ही एक रूप है। इसमें ज‍ितना दोष मृतका के भाई और सांसद का है, उतना ही दोष पुल‍िस का भी है ज‍िसने असंवेदनशीलता से सारे मामले को हैंड‍िल क‍िया और रात्र‍ि में ही मृतका का दाह संस्कार कर द‍िया।

बहरहाल पूरे मामले में हाथरस केस का वो ”ग्रे” फैक्टर जो आधे अधूरे सच पर गढ़ा गया और कानून को ज‍िस तरह अपने अपने ह‍ित में प्रयोग क‍िया गया वह उन र‍िश्तों के ल‍िए घृण‍ा बो गया जो गांवों की थाती हुआ करते थे। न‍िश्च‍ित ही इस पूरे प्रकरण ने संशयों का ऐसा पहाड़ खड़ा कर द‍िया है जो वास्तव‍िक अपराध‍ियों को बचाने का ही काम करेगा।

– अलकनंदा स‍िंह

सोमवार, 28 सितंबर 2020

‘कौवा कान ले गया’ जैसा है क‍िसान आंदोलन का सच

 

अनियंत्रित अभ‍िव्यक्त‍ि की स्वतंत्रता के दुष्‍परिणाम: 
कुछ नासूर ऐसे होते हैं जो क‍िसी एक व्यक्त‍ि नहीं बल्क‍ि पूरे समाज को अराजक स्थ‍ित‍ि में झोंक देते हैं, ऐसा ही एक नासूर है अभ‍िव्यक्त‍ि की स्वतंत्रता और लोकतंत्र बचाने के नाम पर ''आंदोलन'' की बात करना, फि‍र चाहे इसके ल‍िए कोई भी अराजक तरीका क्यों ना अपनाया जाये। हाल ही में क‍िया जा रहा क‍िसान आंदोलन इसी अराजकता और भ्रम की पर‍िणत‍ि है। ''क‍िसानों के नाम पर'' क‍िये जाने वाले इस आंदोलन के कर्ताधर्ता दरअसल भयभीत हैं क‍ि उनकी सूदखोर लॉबी के हाथ से न‍िकल कर क‍िसान अपनी उपज का खुद माल‍िक बन जायेगा। 

आंदोलन का जोर हर‍ियाणा, पंजाब में ज्यादा रहा क्योंक‍ि इन दोनों ही प्रदेशों में मंडी कारोबारी हों या कोल्ड स्टोरोज चेन के माल‍िक सभी नेता हैं। हर‍ियाणा में देवीलाल के पोते दुष्यंत चौटाला या पंजाब के अकाली दल की बादल फैम‍िली का करोबारी ह‍ित इससे प्रभाव‍ित हो रहा है। ठीक यही स्थ‍िति महाराष्ट्र में एनसीपी के पवार फैम‍िली की भी है, तभी तो अज‍ित पवार ने कहा क‍ि वे कानून को महाराष्ट्र में लागू नहीं होने देंगे।  पश्च‍िमी उत्तरप्रदेश में भी भाक‍ियू ने प्रदर्शन क‍िये, इसमें भाग लेने वाले ''क‍िसान'' दरअसल मंडी में कमीशन एजेंटों  व आढ़त‍ियों के वे गुर्गे ही न‍िकले परंतु यहां उनकी '' नेताग‍िरी'' की सारी हवा पढ़े ल‍िखे क‍िसानों ने ही न‍िकाल दी।  

संसद में भी आपराध‍िक पृष्ठभूम‍ि वालों ने तो भरपूर अराजकता फैलाने की कोश‍िश की, संसद के बाहर धरना द‍िया, राष्ट्रपत‍ि से जाकर भी म‍िले क‍ि व‍िधेयकों को पास न क‍िया जा सके और कहीं से भी प्राणवायु म‍िल सके परंतु अब यह कानून ''कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020'' बन गया। इसमें  किसानों के हित में ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो कृषि उत्पाद बाजार की खामियों को दूर करेंगे। अब किसानों को अपना उत्पाद बेचने के लिए एपीएमसी यानी कृषि मंडियों तक सीमित रहने के लिए मजबूर नहीं होना होगा। कानून बनने के बाद राज्य की मंडियां या व्यापारी किसी प्रकार की फीस या लेवी नहीं ले पाएंगे। ज‍िस एमएसपी को लेकर संशय पैदा क‍िया जा रहा है , केंद्र सरकार ने अगले ही कदम में रबी की फसलों का एमएसपी बड़ा कर ये शंका भी न‍िर्मूल साब‍ित‍ कर दी। अब...? अब ये क्या करें .. कहने को कुछ नहीं ..बचा तो कुलम‍िलाकर ये कौआ कान ले गया जैसी कहावत को ही चर‍ितार्थ कर रहे हैं जहां ना कौआ है ना ही कान गायब है ..है तो बस स‍िर्फ हंगामा ..वो भी बेवजह। 

वर्ष 1967 में बना कृषि बाजार उत्पाद समिति यानी एपएमसी एक्ट और वर्ष 1991 के बाद आर्थ‍िक सुधारों के बाद भी बिचौलियों के कारण कृषि उत्पाद बाजारों की उपेक्षा, किसानों का शोषण के ल‍िए सरकारी लाइसेंस ने स्थ‍ित‍ि औश्र ब‍िगाड़ी ही। हालांक‍ि 2001 में शंकरलाल गुरु समिति ने कृषि उत्पाद बाजार के संवर्द्धन एवं विकास के लिए 2,600 अरब रुपये के निवेश का सुझाव दिया, लेकिन उस पर चुप्पी साध ली गई। ऐसे में जाह‍िर है क‍ि  इस कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020 कानून से उस वर्ग को तो खीझ होगी ही जो अब तक कृषि उत्पाद बाजार से अरबपत‍ि बन गए। कृषि मंडियां ज‍िनके ल‍िए कमाई का अहम ज़रिया रहीं, कृषि मंडियों की खामियों व उनके परिसर में संचालित होने वाले उत्पादक संघों से कौन सा क‍िसान आज‍िज़ नहीं होगा।   

इस सारे कथ‍ित आंदोलन से एक बात तो साफ हो गई क‍ि जिन्होंने कायदे से गांव नहीं देखे, खेत से जिनका साबका नहीं पड़ा, फसल की निराई-गुड़ाई नहीं की, उपज की मड़ाई-कटाई नहीं की, घर पर खेतों से अनाज कैसे आता है, जो नहीं जानते, वे लोग किसानों के हमदर्द बनने का दावा कर रहे हैं। दरअसल ऐसे लोगों की कोशिश अपनी राजनीति चमकाना है, इसीलिए वे राज्यसभा में अध्यक्ष की पीठ के सामने मेज पर चढ़ जाते हैं...हंगामा करते हैं और इसके बावजूद खुद को संसदीय आचरण के संवाहक मानते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज की जनता सूचनाओं के बहुस्रोतों के उपयोग की आदी हो गई है। वह भी सच और झूठ समझने लगी है। उसकी समझ ही मौजूदा राजनीति को जवाब देगी। 

- अलकनंदा स‍िंंह