रिश्तों को लेकर हमारे कवियों- साहित्यकारों ने बड़ा काम किया है, पोथियों पर पोथियां गढ़ते गए परंतु इन्हें प्रभावित करने वाली लालची मानसिकता को वे नहीं पढ़ पाए और ना ही बदल पाए। आज जब लालच ने सबसे पहला प्रहार रिश्तों पर किया और सामूहिक दुष्कर्म के बढ़ते मामलों के रूप में इसका नतीज़ा अब हमारे सामने आ रहा है, तो एक एक केस की हकीकत भी समझ आ रही है। ये अलग बात है कि कभी राजनीति तो कभी कानूनी बहाने ‘सच’ को कहने-सुनने-देखने पर बंदिशें लगा रहे हैं परंतु कब तक, सच की यही खूबी है कि वह तो सामने आकर ही रहता है।
और सच ये है कि दुष्कर्म की ‘घृणा’ का मोल लगाकर जो मुआवज़ा बांटने की प्रथा चली है, उसने इसके ‘घटित होने’ पर प्रश्नचिन्ह लगाने शुरू कर दिए हैं। ऐसा नहीं है कि ये घटनायें होती ही नहीं हैं, निश्चित ही होती हैं परंतु भेड़िया आया… भेड़िया आया… की तर्ज़ पर दुखद घटनायें भी संशय के घेरे में तब आ जाती हैं जब इसके पीछे पीड़ित को न्याय दिलाने की अपेक्षा मुआवजे का लालच प्रगट होता है। हक़ीकत हम सभी जानते हैं कि समाज में सभी पुरुष ‘हरिश्चंद्र’ नहीं बैठे और ना ही सभी महिलायें ‘सावित्री’ हैं।
हाथरस कांड के बाद अब फतेहपुर में भी ऐसा ही मामला सामने आया है जहां मृतका के परिजन जाम लगाकर न्याय की मांग के साथ ही पुलिस के विरुद्ध नारे लगा रहे थे, अचानक सपा व कांग्रेस के नेता के पहुंचते ही एफआईआर में नामज़द किए गए एक आरोपी के साथ साथ ”तीन अन्य अज्ञात” का नाम भी जोड़ देते हैं और मामले को ‘ जघन्य व सामूहिक दुष्कर्म ‘ बताने लगते हैं। फिर एक और ट्विस्ट आता है कि 25 लाख मुआवजे की घोषणा होते ही वे पुलिस का विरोध भी छोड़ देते हैं और मृतका का अंतिम संस्कार भी फटाफट कर देते हैं।
बहरहाल ये और इस जैसे कई मामले हैं जहां मुआवज़ा ‘बांटा’ नहीं गया , बल्कि परिजनों पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। निर्भया केस के बाद जिस तरह से उसके घरवालों को दिल्ली में फ़्लैट, लाखों रुपये और भाईयों को नौकरी दी गई, उसके बाद से देशभर में न्याय की जगह ‘तुष्टीकरण’ की एक अजीब सी प्रथा शुरू हो गई जिसने लालच को ऐसा पनपाया कि अब वही गुनाहों को जन्म दे रहा है।
अगर बेटियों के रेप के बदले ज़मीन, लाखों रूपये और बेटों को सरकारी नौकरी मिलने लगेगी तो फिर समझ लो कि गरीब और मजबूर समाज को किस लालच के गर्त में ढकेला जा रहा है। ये बात तो अब कतई बेमानी हो गई है कि कोई भी माँ-बाप अपनी बेटियों के बलात्कार का झूठा मुक़द्दमा नहीं कर सकते। अदालतों से बड़ी संख्या में वापस लिए गए बलात्कार के आरोपों वाले केस इस बात की तस्दीक करते हैं । चूंकि बलात्कार के अपराध में प्रत्यक्ष साक्षी का अभाव होता है इसलिए इसका बेजां फायदा उठाकर मुआवज़ा प्रथा के लिए इस टूल को सब अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं ।
हसरत मोहानी का एक शेर और बात खत्म कि –
भड़क उठी है कैसी आतिश-ए-गुल
शरारे आशियाँ तक आ गए हैं।
- अलकनंदा सिंंह
बिल्कुल सत्य एवं सटीक लिखा है आपने🌻
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम जी
हटाएंसत्य वचन! दुखद पहलू यह है कि अभी तक दुनिया की महिलाएँ 'महिला'की अपनी पृथक और स्वतंत्र अस्तित्व को चिह्नित करते हुए एक संगठित समूह के रूप में नहीं उभर पायी हैं। समाज का एक 'सभ्य' वर्ग उनकी बोली भी लगा रहा है और उन्हें चरित्रहीन होने का भी तमग़ा दे रहा है, लेकिन महिलाओं की बोली बंद है! उनके लिए तो बस वही बात - 'ढाक के तीन पात' और 'न सूत, ना कपास!'
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विश्वमोहन जी, यहां बात महिलाओं के अस्तित्व की नहीं उस लालची प्रवृत्ति की भी है, जिसमें महिलायें स्वयं ही टूल बन रही हैं...अगर वे ही आवाज़ उठायें तो इस तरह बेलगाम उनकी सौदेबाजी नहीं हो सकेगी
हटाएंधन्यवाद यशोदा जी
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-10-2020) को "बिन आँखों के जग सूना है" (चर्चा अंक-3851) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जवाब देंहटाएंकैसी विडंबना कि सगे रिश्ते भी व्यापार का साधन बन गये.
जवाब देंहटाएंजी आपने सही कहा प्रतिभा जी, धन्यवाद
हटाएंआपने बिल्कुल सही लिखा है बहुत ही सटीक विश्लेषण
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजपुरोहित जी
हटाएंधन्यवाद ओंकार जी
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने ! भविष्य बहुत डरावना नजर आ रहा है
जवाब देंहटाएंडरने की आवश्यकता नहीं शर्मा जी, हम थोड़ी हिम्मत करते रहें और अपने प्रयास जारी रखेें कि सच बताते रहें खुद को भी औश्र औरों को भी तो बहुत कुछ किया जा सकता है ... स्वाथ्र्ज्ञ तो हमेशा रहा है इससे बस दूर रहने और चेतने की आवश्यकता है
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