गुरुवार, 21 जुलाई 2016

Tribute: दो महान शख्स‍ियतों का यूं चले जाना

दो महान शख्स‍ियतों का यूं चले जाना नदी में सिर्फ पानी का बहते जाना ही तो नहीं है , कई सवाल, कई आशाऐं- अपेक्षाओं का दफन होने जैसा है। आज दो महान शख्स‍ियत इस दुनिया से कूच कर गई। एक अयोध्या के बाबरी मस्जिद की पैरवी करने वाले हाशमि अंसारी और दूसरे हॉकी का आख‍िरी ओलंपिक पदक दिलाने वाले मोहम्मद शाहिद ।
96 वर्षीय हाश‍िम अंसारी और मोहम्मद शाहिद दोनों ही गंगा जमुनी तहजीब के रहनुमा। अफसोस होता है जब ऐसी शख्स‍ियतें दुनिया से विदा होती हैं।
कभी हाश‍िम अंसारी ने बाबरी मस्जिद विवाद निपटने में बार बार आ रहे अड़ंगों से आजिज आकर अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी...लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ." यह उस विडंबना की बानगी है जो हमारी न्याय व्यवस्था हमें दिखाती रही है।
मुकद्दमों की बेतहाशा तादाद पर यूं तो कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर ने इमोशनल होते हुए चिंता व्यक्त की थी और इन्हें द्रुत गति से निपटाने में सरकार से न्यायाधीशों कम संख्या का रोना भी रोया था।
हमको उनका इमोशनल चेहरा, पोंछते आंसू याद रह गये और वो अपनी इसी चिंता के मुखौटे के पीछे विदेशों में भारी भरमक खर्च के साथ पूरी गर्म‍ियों की छुट्टियों के मजे लेते रहे। ये तो तब था जब वो स्वयं आंसू पोंछते हुए गर्म‍ियों की छुट्टियों में कोर्ट केसेस निबटाने का वादा कर रहे थे।
हाश‍िम अंसारी जैसे सीधे सच्चे लोग, हमारे और आप जैसे लोग अपनी उम्र के ना जाने कितने दशक कोर्ट की फाइलों, वकीलों के बिस्तरों- केबिनों और पेशकार की झिड़कियों में काट देने को विवश होते रहते हैं।
तभी तो एक बार कोर्ट में मामला जाने पर 96 की उम्र तक लड़ते रहे हाश‍िम चचा। निराशा की पराकाष्ठा में ही उन्होंने कहा था कि "मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी...लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ. कुछ मायूसी है, हालात को देखते हुए. जो मुखालिफ़ पार्टियां चैलेंज कर रही हैं, उससे मायूसी है और हुकूमत कोई एक्शन नहीं लेती."
छह दशकों से ज़्यादा समय तक बाबरी मस्जिद की क़ानूनी लड़ाई लड़ने वाले हाशिम अंसारी का आज बुधवार को अयोध्या में अपने घर पर निधन हो गया।
हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे जो दशकों तक अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और क़ानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ते रहे ।
स्थानीय हिंदू साधु-संतों से उनके रिश्ते कभी ख़राब नहीं हुए और वे चचा के संबोधन को संवारते रहे उसे और गहराई देते रहे। मेरी तरह आपको भी साल रहा होगा हाश‍िम चचा का जाना।
इसी तरह पूर्व हॉकी कप्तान मोहम्मद शाहिद का जाना।
1980, 84 और 88 के लगातार तीन ओलंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम की कमान संभाल चुके एक विजेता का जाना।
हॉकी की दुनिया में ड्रिब्लिंग के बादशाह का जाना।
शाहिद लीवर और किडनी की समस्या से जूझ रहे थे और उनकी उम्र 56 वर्ष थी और 29 जून से मेदांता अस्पताल में भर्ती थे।
भारतीय खेल में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। मॉस्को ओलंपिक 1980 में आखिरी बार गोल्ड मेडल जीतने वाली टीम की कमान शाहिद के ही हाथों में थी। वह मूल रूप उत्तर प्रदेश के वाराणसी के निवासी थे। उन्हें 1981 में अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। 1982 और 1986 एशियाड खेलों में सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल दिलाने में इस खिलाड़ी की अहम भूमिका रही थी।
कुछ दिन पहले बीमारी के दौरान उनके निधन की खबरें वायरल हो गई थीं, तब उनकी बेटी ने सफाई दी थी कि शाहिद का अभी इलाज चल रहा है। उनका निधन भारतीय हॉकी के लिए एक बड़ी क्षति है कम से कम उस समय जब हॉकी इंडिया अपनी वापसी करती दिख रही है।
बहरहाल दोनों शख्स‍ियतों का जाना आज हमें कुछ संकल्पों के प्रति गंभीरता से सोचने के लिए और इन्हें लेकर प्रतिबद्धता बनाए रखने को प्रेरित कर रहा है ।
हाश‍िम चचा और शाहिद भाई को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

- Alaknanda

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