एक मजहब, एक धरती, लगभग एक जैसा खानपान और तो और रवायतें भी एक जैसी मगर
जब एक आइने में इनकी दो तस्वीरें नज़र आऐं तो…तो क्या कीजिऐगा…
जी हां, आइना एक, शक्लें दो…ये हम पर है कि इंसानियत का कौन सा रूप है हमें देखना और दिखाना है ।
हम भारत में हैं तो बात पहले कश्मीर से शुरू करनी होगी। कश्मीर में कल मारे गए एक दहशतगर्द बुरहान वानी की मौत पर खून बहाने वाले कश्मीरी युवा, अलगाववादियों और आतंक के सरगनाओं द्वारा कश्मीर की हरी धरती को लाल करने की जिद ने मजहब का जो रंग व शक्ल दिखाई, वह उस शक्ल से एकदम अलग थी, एकदम विपरीत थी जो पाकिस्तान में आज समाजसेवी अब्दुल सत्तार ईधी के मरने के बाद दिखी। मजहब एक ही है मगर मकसद बदल जाने से उद्देश्य बदल गए और इसका इंसानियत से वास्ता भी बदल गया।
आइने का पहला एक रुख देखिए-
बीबीसी में वुसुतुल्लाह खान लिखते हैं- ”अब्दुल सत्तार ईधी के निधन की सूचना आने के बावजूद कराची के क़रीब तरीन इलाके खरादर के ईधी फाउंडेशन ट्रस्ट के कंट्रोल रूम में काम एक लम्हे के लिए भी नहीं रु का.
जहां-जहां से इमरजेंसी कॉल आ रही हैं, वहां-वहां एंबुलेंस ज़ख़्मी-बीमार लोगों को लेने आ-जा रही है.
अज़ीब लोग हैं जो शोक में तो डूबे हैं लेकिन एक मिनट भी अपना काम नहीं रोक पा रहे. कंट्रोल रूम का ऑपरेटर कॉलर्स को ये तक नहीं कह रहा है कि आज रहने दो, तुम्हारे मोहल्ले से कल लावारिस लाश उठा लेंगे. बस ईधी साहब का अंतिम संस्कार होते ही तुम्हारे बीमार के लिए एंबुलेंस रवाना कर देंगे.
कोई ये नहीं कह रहा कि आज कॉल मत करो, आज हम बंद हैं, सदमे से निढाल हैं. आज हमारे बाप का इंतकाल हो गया है.
पूरे पाकिस्तान के पौने चार सौ ईधी केंद्रों में कोई सरगर्मी एक पल के लिए भी नहीं रुकी, ऐसा लगता है ईधी साहब परलोक नहीं, बस कुछ दिनों के लिए विदेशी दौरे पर गए हैं.
इसे कहते हैं शो मस्ट गो ऑन.”
उक्त लफ्जों से उस एक अदना से दिखने वाले मगर पाकिस्तान जैसे उथल पुथल वाले देश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ईधी फाउंडेशन के अध्यक्ष समाज सेवी अब्दुल सत्तार ईधी को श्रद्धांजलि दी जा रही है।
वहीं अब आइने का दूसरा रुख देखिए-
कश्मीर में बुरहान वानी के मरने के बाद सबसे पहले तो कश्मीर के ही पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ट्वीट करते हैं कि बुरहान ने जीते जी जो तबाही नहीं मचाई, वह उसकी मौत के बाद मचेगी… इसका अर्थ क्या लगाया जाए कि जिस देश का नमक खा रहे हैं कश्मीरी अलगाववादी, जिस देश के आमजन का टैक्स हजम किए जा रहे हैं कश्मीरी आतंकवादी, उसी देश के खिलाफ हथियार उठा रहे हैं और उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि समस्या राजनीतिक है, बुरहान जैसों का मरना कोई जलजला ले आएगा। नमक हलाली ना करने वालों को क्या कहते हैं, क्या ये भी बताना पड़ेगा। बुरहान जैसे गद्दारों और देश तोड़ने वालों के लिए जो लोग अपने आंसू जाया कर रहे हैं, क्या उन्हें उन पुलिसकर्मियों और सेना के जवानों की शहादत दिखाई नहीं देती जो एक कश्मीर को बचाने के लिए अपना खून बहा रहे हैं। आतंकियों की मौत को शहादत कहने वाले क्या अब भी नहीं समझ रहे कि आईएसआईएस भी अपने लड़ाकों को शहीद कहता है।
निश्चित जानिए कि भस्मासुरों की जमात चाहे कितना भी कहर बरपा ले मगर वो उस ओहदे को कभी हासिल नहीं कर सकती जो ओहदा इंसानियत की सेवा करने से हासिल होता है। इसीलिए आज भले ही बुरहान वानी के सरमाएदारों ने जूलूस निकाल कर कश्मीर में खूनी प्रदर्शन किया और उसे अलगाववादियों का समर्थन भी मिल रहा हो मगर वह वो इज्जत वो श्रद्धा कभी हासिल नहीं कर सकते जो अब्दुल सत्तार साहब ने बिना किसी की मदद के अपनी सेवा से हासिल की।
बहरहाल, अब ये तो हमें ही तय करना होगा कि समाज को बचाने वालों को ज्यादा अहमियत देनी है या उन बददिमागों को जो खून बहाने पर आमादा हैं।
सच तो यह है कि कश्मीर आज जिस मुकाम पर खड़ा है वहां से उसकी वापसी तभी संभव है जब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कुछ कठोर निर्णय लिए जाएं और आतंकवादियों के साथ-साथ अलगाववादियों को भी अब तक के उनके किए की माकूल सजा दिलाई जाए अन्यथा पाकिस्तान में तो ईधी जैसे किसी शख्स की शक्ल में आइने के दो पहलू नजर भी आ रहे हैं, कश्मीर में आने वाली नश्लें उसके लिए भी तरस जाएंगी।
–Alaknanda singh
जी हां, आइना एक, शक्लें दो…ये हम पर है कि इंसानियत का कौन सा रूप है हमें देखना और दिखाना है ।
हम भारत में हैं तो बात पहले कश्मीर से शुरू करनी होगी। कश्मीर में कल मारे गए एक दहशतगर्द बुरहान वानी की मौत पर खून बहाने वाले कश्मीरी युवा, अलगाववादियों और आतंक के सरगनाओं द्वारा कश्मीर की हरी धरती को लाल करने की जिद ने मजहब का जो रंग व शक्ल दिखाई, वह उस शक्ल से एकदम अलग थी, एकदम विपरीत थी जो पाकिस्तान में आज समाजसेवी अब्दुल सत्तार ईधी के मरने के बाद दिखी। मजहब एक ही है मगर मकसद बदल जाने से उद्देश्य बदल गए और इसका इंसानियत से वास्ता भी बदल गया।
आइने का पहला एक रुख देखिए-
बीबीसी में वुसुतुल्लाह खान लिखते हैं- ”अब्दुल सत्तार ईधी के निधन की सूचना आने के बावजूद कराची के क़रीब तरीन इलाके खरादर के ईधी फाउंडेशन ट्रस्ट के कंट्रोल रूम में काम एक लम्हे के लिए भी नहीं रु का.
जहां-जहां से इमरजेंसी कॉल आ रही हैं, वहां-वहां एंबुलेंस ज़ख़्मी-बीमार लोगों को लेने आ-जा रही है.
अज़ीब लोग हैं जो शोक में तो डूबे हैं लेकिन एक मिनट भी अपना काम नहीं रोक पा रहे. कंट्रोल रूम का ऑपरेटर कॉलर्स को ये तक नहीं कह रहा है कि आज रहने दो, तुम्हारे मोहल्ले से कल लावारिस लाश उठा लेंगे. बस ईधी साहब का अंतिम संस्कार होते ही तुम्हारे बीमार के लिए एंबुलेंस रवाना कर देंगे.
कोई ये नहीं कह रहा कि आज कॉल मत करो, आज हम बंद हैं, सदमे से निढाल हैं. आज हमारे बाप का इंतकाल हो गया है.
पूरे पाकिस्तान के पौने चार सौ ईधी केंद्रों में कोई सरगर्मी एक पल के लिए भी नहीं रुकी, ऐसा लगता है ईधी साहब परलोक नहीं, बस कुछ दिनों के लिए विदेशी दौरे पर गए हैं.
इसे कहते हैं शो मस्ट गो ऑन.”
उक्त लफ्जों से उस एक अदना से दिखने वाले मगर पाकिस्तान जैसे उथल पुथल वाले देश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ईधी फाउंडेशन के अध्यक्ष समाज सेवी अब्दुल सत्तार ईधी को श्रद्धांजलि दी जा रही है।
वहीं अब आइने का दूसरा रुख देखिए-
कश्मीर में बुरहान वानी के मरने के बाद सबसे पहले तो कश्मीर के ही पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ट्वीट करते हैं कि बुरहान ने जीते जी जो तबाही नहीं मचाई, वह उसकी मौत के बाद मचेगी… इसका अर्थ क्या लगाया जाए कि जिस देश का नमक खा रहे हैं कश्मीरी अलगाववादी, जिस देश के आमजन का टैक्स हजम किए जा रहे हैं कश्मीरी आतंकवादी, उसी देश के खिलाफ हथियार उठा रहे हैं और उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि समस्या राजनीतिक है, बुरहान जैसों का मरना कोई जलजला ले आएगा। नमक हलाली ना करने वालों को क्या कहते हैं, क्या ये भी बताना पड़ेगा। बुरहान जैसे गद्दारों और देश तोड़ने वालों के लिए जो लोग अपने आंसू जाया कर रहे हैं, क्या उन्हें उन पुलिसकर्मियों और सेना के जवानों की शहादत दिखाई नहीं देती जो एक कश्मीर को बचाने के लिए अपना खून बहा रहे हैं। आतंकियों की मौत को शहादत कहने वाले क्या अब भी नहीं समझ रहे कि आईएसआईएस भी अपने लड़ाकों को शहीद कहता है।
निश्चित जानिए कि भस्मासुरों की जमात चाहे कितना भी कहर बरपा ले मगर वो उस ओहदे को कभी हासिल नहीं कर सकती जो ओहदा इंसानियत की सेवा करने से हासिल होता है। इसीलिए आज भले ही बुरहान वानी के सरमाएदारों ने जूलूस निकाल कर कश्मीर में खूनी प्रदर्शन किया और उसे अलगाववादियों का समर्थन भी मिल रहा हो मगर वह वो इज्जत वो श्रद्धा कभी हासिल नहीं कर सकते जो अब्दुल सत्तार साहब ने बिना किसी की मदद के अपनी सेवा से हासिल की।
बहरहाल, अब ये तो हमें ही तय करना होगा कि समाज को बचाने वालों को ज्यादा अहमियत देनी है या उन बददिमागों को जो खून बहाने पर आमादा हैं।
सच तो यह है कि कश्मीर आज जिस मुकाम पर खड़ा है वहां से उसकी वापसी तभी संभव है जब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कुछ कठोर निर्णय लिए जाएं और आतंकवादियों के साथ-साथ अलगाववादियों को भी अब तक के उनके किए की माकूल सजा दिलाई जाए अन्यथा पाकिस्तान में तो ईधी जैसे किसी शख्स की शक्ल में आइने के दो पहलू नजर भी आ रहे हैं, कश्मीर में आने वाली नश्लें उसके लिए भी तरस जाएंगी।
–Alaknanda singh
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें