कवि गोपालदास नीरज ने भी दीवाली के दीयों पर क्या खूब कहा है-
''जलाओ दिये, पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर, कहीं रह ना जाये....
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाये, निशा आ ना पाये |''
इसके अलावा उन्हीं की एक और कविता है ...
''अंधियारा जिससे शरमाये,
उजियारा जिसको ललचाये,
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये ''
इन दोनों ही कविताओं में नीरज ने 'दिये' को अपने भीतर का अंधेरा दूर करने के लिए एक प्रेरणा के तौर पर प्रयुक्त किया है, मगर इन्हें लिखते समय नीरज को ये तो पता नहीं ही रहा होगा कि दिए जलाने के लिए जो हौसला चाहिए, वह कहां मिलेगा ।
बाजारवाद ने उत्सव मनाने के हौसलों को अपना ग्रास बना लिया इसीलिए आज धरा के जितने भी अंधेरे हैं वे स्वयं हमारे ही नहीं, बल्कि 'दिए' की अपनी रोशनी के भी दिये हुये हैं।
वर्तमान में समाज के आर्थिक हालात अतिवाद से घिरे हुये हैं, समाज का अति विपन्न और अति सम्पन्न में कुछ इस तरह वर्गीकरण हो गया है कि दीवाली में दीओं को जलाने की औपचारिकता निभाते प्रतीत होते हैं या यूं कहें कि नाटक सा करते हैं। संभवत: यही वजह है कि जिस तनावभरी जीवनशैली पर हम आज के भारतीय गर्व करते नहीं अघाते, उसी के चलते मात्र 'एक दिए' को खरीदने की भी हिम्मत करनी पड़ती है। बिजली की रौशनी व चकाचौंध में अंतस का अंधेरा भी बौखलाया हुआ है, तभी तो समाज में जिन उद्देश्यों को लेकर दीपावली मनाई जाती रही, आज वे ही मौजूद नहीं हैं ।
भारतीय जनमानस के उत्सवधर्मी होने के कारण दीपोत्सव मनाने के उदाहरणों से हमारा पौराणिक व ऐतिहासिक काल भरा हुआ है। जैसे कि श्रीराम के वन से लौटने पर, श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध कर बंदी राजकुमारियों को आजाद कराने व उनसे विवाह की खुशी पर, राजा बलि के दान व इससे खुश होकर विष्णु द्वारा पृथ्वीवासियों को दीपोत्सव मनाने का आदेश आदि। इनके अलावा स्वामी शंकराचार्य द्वारा कामशास्त्र सीखने के लिए किए गये परकाया प्रवेश की घटना को भी दीपावली से ही जोड़ा जाता है। इसी दिन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती का निर्वाण हुआ था। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी ने भी इसी दिन शरीर त्यागा था। गुरु हर गोविन्द ने दीपावली के ही दिन ग्वालियर के किले से मुक्ति पाई थी। वेदों में पारंगत श्री रामतीर्थ का जन्म और निर्वाण दिवस इसी दिन पड़ता है।
दीओं द्वारा सुख-शांति की अपेक्षाओं को जगाने और किसी भी कलुष को दूर करने वाले इस पंचदिवसीय उत्सव पर अब हमें ही अपने भीतर झांककर होगा कि हमें 'दिओं का रूप' किसके अनुरूप चाहिए... यह बाजार पर टिका हो या अपने अंतस की खुशी पर...। क्योंकि दिओं की जगमगाहट तभी प्रभावित करती है जब मन के किसी कोने में भी दीओं की श्रृंखला जली हो और उससे अपना ही नहीं समाज का अंतस भी रोशन करने की अभिलाषा बाकी हो।
दीपोत्सव पर विशेष-
- अलकनंदा सिंह
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