मोहन राकेश, हबीब तनवीर, बादल सरकार, महाश्वेता देवी...भारतीय रंगमंच के आधुनिक युग के नाटककारों की यह सूची पुरानी सी लगती है, इसमें नए नाम क्यों
 नहीं जुड़ते दिखते? राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक भी मानते हैं कि 
भारत में नए नाटककारों और नाटकों की ज़बर्दस्त कमी है. इस व़क्त दिल्ली में
 चल रहे भारत रंग महोत्सव के नाटकों में भी कुछ ही कहानियां नई हैं.
	और इन्हें लिखने वाले नए नाटककार नहीं बल्कि वो निदेशक हैं, जो रंगमंच से 
लंबे समय से जुड़े रहे हैं. मसलन बंगाल के ‘रंगकर्मी’ नाटक ग्रुप की निदेशक
 ऊषा गांगुली, दिल्ली के ‘थिएटरवाला’ नाटक ग्रुप के निदेशक राम जी बाली और 
बिहार के राजेश चन्द्र.
	रंगमंच पर इन सबका निजी सफ़र चाहे जितना अलग रहा हो, एक अनुभव साझा है– आम
 लोगों की ज़िंदगी से जुड़े सरोकारों पर नए नाटकों का अभाव, जिसे पूरा करने
 के लिए इन्होंने ख़ुद कलम उठा ली.
	‘बाज़ारवाद के सामने सिर्फ़ रंगमंच ही खड़ा है’
	ऊषा गांगुली का नाटक ‘हम मुख़्तारा’, पाकिस्तान की मुख़्तारन माई की सच्ची
 कहानी पर आधारित है. यौन हिंसा झेलने के बाद चुप रहने की जगह अपनी आवाज़ 
उठाने वाली मुख्तारन माई के ज़रिए वह सभी महिलाओं की बात रखना चाहती हैं.
	उन्होंने कहा, “मेरे मन में उलझन थी क्योंकि कुछ बदल नहीं रहा. कभी 
दिल्ली, कोलकाता और कभी मुंबई, यौन हिंसा का लगातार सिलसिला चला जा रहा है.
 इसलिए तय किया कि मुख़्तारन पर लिखी किताब को प्रेरणा बनाकर मैं लिखूं.”
	ऊषा के मुताबिक़ यौन हिंसा के बारे में भारत में ज़ोरदार साहित्य जिस पर 
नाटक बनाया जा सके, नहीं मिलेगा. हालांकि पश्चिमी देशों में इस मुद्दे पर 
बहुत नाटक मिलते हैं.
	वह कहती हैं कि पुराने नाटकों को 30-40 साल बाद भी परोसते रहना उबाऊ है और यह नए सरोकारों के साथ न्याय भी नहीं करता.
	भारत ही नहीं विश्व की बदलती परिस्थितियों में ऊषा के मुताबिक़, 
“बाज़ारवाद के सामने रंगमंच ही है जो अब भी झुका नहीं है, जो अब भी अपनी 
आवाज़ बुलंद कर सकता है और इसके लिए नए नाटक लिखा जाना बहुत ज़रूरी है.”
	‘नाटक उस आख़िरी आदमी की आवाज़ है’
	बिहार से आए ‘राग रेपरटरी’ का नाटक ‘जहाज़ी’ राजेश चन्द्र ने लिखा है. 
नाटक उन विस्थापित लोगों की कहानी है, जो विकास की बड़ी परियोजनाओं के चलते
 अपने घरबार छोड़ कहीं और बसने पर विवश हो जाते हैं, और वहां भी उनके साथ 
दुर्व्यवहार ही होता है.
	राजेश बताते हैं, “बिहार और बंगाल से जहाज़ के ज़रिए नौकरी के लिए विदेश 
जाने वाले लोगों को हमारे इलाक़े में जहाज़ी कहा जाता था, पर विस्थापन इस 
व़क्त पूरी दुनिया की एक बड़ी सच्चाई है. मैंने इसी से जुड़ी कठिनाइयों को 
उभारने की कोशिश की है.”
	इससे पहले राजेश दलितों के रोज़गार से जुड़ा नाटक लिख चुके हैं और कहते 
हैं कि उनका प्रयास अपने नाटकों को बहुत मौलिक रखने का होता है.
	उनके मुताबिक़, “नाटक उस आख़िरी व्यक्ति की आवाज़ है जिसकी कोई पूछ नहीं है, जिसके बारे में कोई बात नहीं करता.”
	राजेश बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में साहित्य कला परिषद की ओर से 
नाटकों में पारंपरिक संगीत और अभिनय पर बहुत ज़ोर दिया गया और ऐसे काम के 
लिए वित्तीय सहायता भी दी गई.
	पर राजेश के मुताबिक़ इससे बहुत अलग तरीक़े के नाटकों को प्रोत्साहन मिला 
और समकालीन मुद्दों पर वही रंगकर्मी काम करते रहे जो व्यक्तिगत स्तर पर 
इनसे विचलित थे.
	‘सभी कलाओं में अभाव’
	राम जी बाली का नाटक ‘कोई बात चले’ एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जिसकी उम्र बढ़ती जा रही है और शादी के लिए वधू नहीं मिल रही है.
	राम जी बताते हैं कि नाटक है तो प्रेम कहानी, लेकिन उसमें हर पात्र के 
ज़रिए समाज के दबाव, परंपराओं और आम मध्यमवर्गीय लोगों की शंकाओं को उभारा 
गया है.
	वह कहते हैं, “मेरे नाटक में एक संवाद में लड़की अग्रेज़ी में ही बात करती
 है और लड़का हिंदी बोलने पर आमादा रहता है, भाषा का ये द्वंद बहुत सामयिक 
है जो समाज में एक इंसान की अपनी पहचान बनाने की कोशिश को उभारता है.”
	राम जी के मुताबिक़ ऐसा बहुत सा अच्छा साहित्य है, जिस पर नाटक नहीं बनाए 
जा सकते क्योंकि वह नाटक का स्वरूप ज़ेहन में रखकर नहीं लिखा गया.
	वह आगे कहते हैं, “हर तरह के नाटक का अभाव है, और नाटक ही क्यों सभी कलाओं
 में, गायन और नृत्य में भी दूसरी लता मंगेशकर या दूसरे बिरजू महाराज नहीं 
सामने आए हैं.”
	राम जी को लगता है कि निर्देशन का उनका लंबा अनुभव उन्हें रंगमंच की ज़रूरतों के मुताबिक़ अच्छा नाटक लिखने में मदद करता है.
	-दिव्या आर्य