गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

निशा की गली में तिमिर राह भूले....


कवि गोपालदास नीरज ने भी दीवाली के दीयों पर क्‍या खूब कहा है-
''जलाओ दिये, पर रहे ध्‍यान इतना
अंधेरा धरा पर, कहीं रह ना जाये....
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाये, निशा आ ना पाये |''
इसके अलावा उन्‍हीं की एक और कविता है ...
''अंधियारा जिससे शरमाये,
उजियारा जिसको ललचाये,
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये ''
इन दोनों ही कविताओं में नीरज ने 'दिये' को अपने भीतर का अंधेरा दूर करने के लिए एक प्रेरणा के तौर पर प्रयुक्‍त किया है, मगर इन्‍हें लिखते समय नीरज को ये तो पता नहीं ही रहा होगा कि दिए जलाने के लिए जो हौसला चाहिए, वह कहां मिलेगा ।
बाजारवाद ने उत्‍सव मनाने के हौसलों को अपना ग्रास बना लिया इसीलिए आज धरा के जितने भी अंधेरे हैं वे स्‍वयं हमारे ही नहीं, बल्‍कि 'दिए' की अपनी रोशनी के भी दिये हुये हैं।
वर्तमान में समाज के आर्थिक हालात अतिवाद से घिरे हुये हैं, समाज का अति विपन्‍न और अति सम्‍पन्‍न में कुछ इस तरह वर्गीकरण हो गया है कि दीवाली में दीओं को जलाने की औपचारिकता निभाते प्रतीत होते हैं या यूं कहें कि नाटक सा करते हैं। संभवत: यही वजह है कि जिस तनावभरी जीवनशैली पर हम आज के भारतीय गर्व करते नहीं अघाते, उसी के चलते मात्र 'एक दिए' को खरीदने की भी हिम्‍मत करनी पड़ती है।  बिजली की रौशनी व चकाचौंध में अंतस का अंधेरा भी बौखलाया हुआ है, तभी तो समाज में जिन उद्देश्‍यों को लेकर दीपावली मनाई जाती रही, आज वे ही मौजूद नहीं हैं ।
भारतीय जनमानस के उत्‍सवधर्मी होने के कारण दीपोत्‍सव मनाने के उदाहरणों से हमारा पौराणिक व ऐतिहासिक काल भरा हुआ है। जैसे कि श्रीराम के वन से लौटने पर, श्रीकृष्‍ण द्वारा नरकासुर का वध कर बंदी राजकुमारियों को आजाद कराने व उनसे विवाह की खुशी पर, राजा बलि के दान व इससे खुश होकर विष्‍णु द्वारा पृथ्‍वीवासियों को दीपोत्‍सव मनाने का आदेश आदि। इनके अलावा स्‍वामी शंकराचार्य द्वारा कामशास्‍त्र सीखने के लिए किए गये परकाया प्रवेश की घटना को भी दीपावली से ही जोड़ा जाता है। इसी दिन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्‍वती का निर्वाण हुआ था। जैन  धर्म के 24वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी ने भी इसी दिन शरीर त्यागा था। गुरु हर गोविन्द ने दीपावली के ही दिन ग्वालियर के किले से मुक्ति पाई थी। वेदों में पारंगत श्री रामतीर्थ का जन्म और निर्वाण दिवस इसी दिन पड़ता है।
दीओं द्वारा सुख-शांति की अपेक्षाओं को जगाने और किसी भी कलुष को दूर करने वाले इस पंचदिवसीय उत्‍सव पर अब हमें ही अपने भीतर झांककर होगा कि हमें 'दिओं का रूप' किसके अनुरूप चाहिए... यह बाजार पर टिका हो या अपने अंतस की खुशी पर...। क्‍योंकि दिओं की जगमगाहट तभी प्रभावित करती है जब मन के किसी कोने में भी दीओं की श्रृंखला जली हो और उससे अपना ही नहीं समाज का अंतस भी रोशन करने की अभिलाषा बाकी हो।
दीपोत्‍सव पर विशेष-
- अलकनंदा सिंह





सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

योगियों के जटिल पहलुओं की प्रदर्शनी

शुरुआती दौर के योगी केवल आकर्षक योग मुद्राएं ही नहीं बनाते थे बल्कि भीषण लड़ाइयों में शिरकत भी करते थे. वॉशिंगटन में आयोजित एक प्रदर्शनी में योगियों के जीवन से जुड़े जटिल पहलुओं को दिखाया गया है. आप कैसा योग पसंद करेंगे- ताकतवर या हॉट? हो सकता है कि आप निर्वस्त्र अभ्यास करना चाहें या ताज़ा-तरीन लाइक्रा को आजमाएं. क्या आप बीकेएस आयंगर के अनुयायी हैं या आप विन्यास या अष्टांग योग को तरजीह देंगे?
आप जो भी चाहें, अमरीका में योग पांच अरब डॉलर पौने चार हज़ार करोड़ का रुपयों के बराबर की इंडस्ट्री है, लाखों लोग फ़िज़िकल फ़िटनेस, स्वास्थ्य को बेहतर रखने या आध्यात्मिक ज्ञान के लिए इसका अभ्यास करते हैं. आमतौर पर सभी जिम इसकी एक कक्षा की पेशकश करते हैं और ख़ास तरह की चाय और शांत संगीत इसके अनुभव को और बढ़ा सकता है.
भारतीय सरकार योग के व्यवसायीकरण को लेकर इस कदर चिंतित रही है कि हाल के वर्षों में उसने इसकी सैकड़ों मुद्राओं को पेटेंट कराने का अभियान शुरू कर दिया है ताकि उन्हें पश्चिमी कंपनियों द्वारा हथियाए जाने से बचाया जा सके.
योग को खंगालने वाली प्रदर्शनी
विश्व की ये पहली प्रदर्शनी है जो तस्वीरों के ज़रिए योग को खंगालती है. वो इसकी प्राचीन परंपराओं के उन पहलुओं को भी सामने लाती है जिससे बहुत से शुद्धतावादियों को मुश्किल हो सकती है.
इसके 2500 वर्षों के ज्ञात इतिहास में योग का कोई एक सर्वमान्य तरीका रहा हो, ऐसा नहीं है.
स्मिथसोनियन सैकलर गैलरी ऑफ़ एशियन आर्ट में लगी प्रदर्शनी 'योग: द आर्ट ऑफ ट्रांसफॉर्मेशन' के क्यूरेटर डेब्रा डायमंड कहती हैं, ''पांच साल पहले मैंने सोचा था कि मैं योग की अकेली परंपरा के बारे में जान लूंगी.''
वह कहती हैं, ''योग लगातार पूरी तरह से बदलता और समय के साथ विकसित होता रहा हालांकि उसके कई मुख्य लक्ष्य रहे हैं, ऐसा कुछ नहीं जिसे एक तरीके से बताया जा सके.''
उनके अनुसार, ''कुछ परंपराओं में ये अत्यधिक चैतन्यता की स्थिति है जिसके जरिए जन्म, मृत्यु और फिर जन्म के पीड़ादायक चक्र से छूटा जा सकता है लेकिन योग की कुछ अन्य परंपराओं में इसके कुछ लक्ष्य अलौकिक शक्तियों और दूसरों पर नियंत्रण की क्षमता हासिल करना थे.''
प्रदर्शनी में दुनियाभर के 25 संग्रहालयों और व्यक्तिगत संग्रहों से लाई गई 130 चीजों को दिखाया गया है. जिनमें कुछ का प्रदर्शन कभी सार्वजनिक तौर पर नहीं हुआ तो कुछ को उत्कृष्ट कृति के तौर पर जाना जाता है.
इसमें एक हज़ार साल से ज्यादा पुराना एक चित्र भयंकर योगिनियों के समूह का है. तांत्रिक योग के अभ्यास से दैवत्व को प्राप्त कर चुकी ये उड़ती हुई देवियां हैं, जो पैने दांत फाड़े निडर मुद्रा में बैठी हैं, खुले बालों के साथ ये प्रचंड लगती हैं.
सांपों के साथ ये शोभा बढ़ा रही हैं, कुछ ने अपनी ऊंगलियां मुंह में डाली हुई हैं, ये बेखटके युद्ध की दुदुंभि बजाते आकाश मार्ग से जा रही हैं.
डॉयमंड बताते हैं कि वो ग्यारहवीं शताब्दी की उपद्रवी शिशु हैं.
प्रदर्शनी की विषय वस्तु लगातार 'योद्धा योगी' के तौर पर दिखती है, इसमें वाटरकलर चित्रों के जरिए उत्तर भारत के एक पवित्र स्थान थानेश्वर में योगियों को लड़ते-मरते दिखाया गया है.
सशस्त्र योगियों के झुंड बहते खून के साथ भयंकर तरीके से विरोधियों की मार-काट में लगे हैं और त्योहार पर नहाने के अधिकार को लेकर लड़ रहे हैं.
संस्कृत विशेषज्ञ और प्रदर्शनी सलाहकारों में एक सर जेम्स मेलिसन कहते हैं कि इसके बाद जो कुछ हुआ उससे अगर तुलना करें तो ये अपेक्षाकृत हल्की-फुल्की झड़प थी.
18वीं सदी में ताकतवर
सर जेम्स मेलिसन बताते हैं, ''18वीं शताब्दी तक योगी वर्ग इतना ताकतवर था और ये इतनी बड़ी तादाद में था कि हमारे पास इन त्योहारों पर बड़ी लड़ाइयों की रिपोर्ट है, जहां हज़ारों-हज़ार योगी मार दिए जाते थे.''
पेंटिंग शुरुआत में योगियों के बीच लड़ाई के बारे में बताती है जिन्हें भाड़े पर मुगल शासकों द्वारा रखा जाता था.
सर जेम्स खुद भी योगी हैं और भारत में रहने और योगा का अध्ययन करने में कई साल गुजार चुके हैं. वह पहले ऐसे पश्चिमी शख्स हैं जिन्होंने प्रधान योगियों के वर्ग में जगह बनाई और विधिवत महंत बनाए गए. उन्हें खुद का दल बनाने का अधिकार मिला हुआ है.
वह शांति की तलाश में आध्यात्मिक प्रबोधन के लिए योग और इसके कहीं हिंसात्मक प्रदर्शन में कोई टकराव नहीं देखते.
वह कहते हैं, ''आज भी इसमें कोई विरोधाभास नहीं है. वह योग समझते हैं और उसके अन्य अभ्यास एक तरह की आंतरिक ताकत पैदा करते हैं, जिसका इस्तेमाल वो एकदम अलग तरीकों से कर सकते हैं, चाहे आशीर्वाद या शाप देने में या फिर वास्तव में लडाइयों में.
योगियों का खूनी इतिहास देखते हुए अजीब सा लगता है कि अमरीका में इसका अभ्यास बड़े पैमाने पर महिलाएं तनाव दूर करने के लिए करती हैं. इस ट्रेंड ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में तब जोर पकड़ा, जब महिलाओं के बीच लचक के लिए अभ्यास पर जोर दिया जाने लगा.
वॉशिंगटन में यूनिटी वुड्स योग सेंटर के डायरेक्टर जॉन शुमाकर कहते हैं कि लोगों के लिए एक्सरसाइज़ खेल और प्रतिस्पर्धा है, ऐसा ही योग के बारे में भी माना जाता है लेकिन असलियत ये नहीं है. पुरुष नहीं जानते कि योग क्या है. शुमाकर कुछ उन चंद अमरीकी योग शिक्षकों में हैं जिनकी दीक्षा आयंगर के हाथों हुई.
वह कहते हैं, "वो खासियतें, जिनसे कोई शीर्ष एथलीट बनता है, वैसी ही खासियतें योग में उत्कृष्ट बनने के लिए आवश्यक हैं- ये केवल शारीरिक लचक, क्षमता और ताकत नहीं है बल्कि ध्यान की समग्र खासियतें हैं. जो ध्यान केंद्रीत करने और स्पष्टता से युक्त होती हैं."
धारणा बदली
ये प्रदर्शनी यह भी खंगालती है कि संस्कृतियों और महाद्वीपों को पार करने के बाद योग को लेकर लोगों की धारणा बदलती चली गई.
डेब्रा डायमंड कहती हैं, ''ये बहुत जटिल और पेचीदा वर्ग है क्योंकि हम अक्सर यूरोपीय आकांक्षाओं के साथ वो छवि बनाते हैं जो आमतौर पर यूरोपीय लोग भारत और योगियों के बारे में सोचते आए हैं.''
वह कहती हैं, ''योगियों को डरावने और संदिग्ध लोगों के तौर पर देखा जाता था. वो अलौकिक ताकतों से लैस होने का दावा करते थे. वो कम कपड़े पहनते थे या नग्न रहते थे, जो 19वीं सदी की संवेदनशीलता को झटका देने वाली थी, वो हमेशा घूमते रहते थे और अक्सर नशा करते थे. वो भारत की नकारात्मक तरह के छवि के प्रतीक बन गए.''
लेकिन इस अवधारणा को तोड़ने वाली प्रदर्शनी ये दिखाती है कि योग खुद को बदल कर फिर नई पहचान और ताकत हासिल कर रहा है. हालांकि 11वीं शताब्दी की योगिनियां 21वीं सदी की बहनों को शायद ही पहचान पाएं. क्या वो ऐसा कर पाएंगी?

शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

घरों में पलते गुलाम

मानव तस्करी सुन कर लगता है कोई ऐसी बात है जो हमसे बहुत दूर की और सिर्फ पुलिस खुफिया एजेंसियों के मतलब की है. भारत के लोग यह देख ही नहीं पा रहे कि इस अपराध के शिकार उनके पास पड़ोस या खुद उनके घर में रह रहे हैं. दिल्ली के एक अस्पताल में बिस्तर पर लेटी 18 साल की लड़की के सिर पर बंधी मोटी पट्टी उन जुल्मों की कहानी बता रही है जो उसने चार महीनों में अपनी मालकिन के घर में सहे. होश में आई तो बोली, "वो मेरे बाल उखाड़ देंगी, मेरे सिर पर जोर से मारेंगी...हर वक्त वो मुझसे नाराज ही रहती हैं." इस लड़की का कहना है कि अकसर उसे बेल्ट, झाड़ू और जंजीरों से पीटा जाता है और उस घर में कैद कर रखा गया है जहां वह घर के काम करने आई थी. इस लड़की की बायीं गाल और सीने पर जख्मों के निशान हैं और उसका कहना है, "वो मुझे मेरा पैसा नहीं देंगी, मुझे फोन नहीं करने देतीं, किसी से मिलने नहीं देतीं, मेरे सारे दस्तावेज फाड़ डाले और वो कागज भी जिसमें रिश्तेदारों के नंबर थे."

इसी महीने पुलिस और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उसे मालकिन की कैद से छु़ड़ा कर अस्पताल में भर्ती कराया. यह कहानी सिर्फ इसी लड़की की नहीं, दुनिया में गुलामों की तरह जी रहे आधे से ज्यादा लोग भारत में रहते हैं. दुनिया के गुलामों पर रिपोर्ट तैयार करने वाले संगठन वाक फ्री फाउंडेशन के प्रमुख निको ग्रोनो का कहना है, "लोगों को हिंसा के जरिए काबू में किया जाता है. वो छलावे से या फिर जबर्दस्ती इस तरह की हालत में डाले जाते हैं जहां उनका आर्थिक शोषण किया जा सके. उन्हें पैसा नहीं मिलता या मिलता भी है तो बहुत मामूली और उनके पास काम छोड़ने की आजादी नहीं होती."
जुल्म का शिकार हुई झारखंड की यह लड़की महज तीन साल स्कूल गई, काम से पैसा कमाकर घर भेजने का लक्ष्य लेकर दिल्ली आई थी. नौकर मुहैया कराने वाली एजेंसी के संपर्क में आने से पहले उसने कई घरों में काम किया. लड़की का नाम कानूनी वजहों से नहीं दिया जा सकता. इसी एजेंसी ने उसे इस घर में काम के लिए रखवाया. घर के मालिक को गिरफ्तार भी किया गया लेकिन वो आरोपों से इनकार करते हैं. मामला अभी अदालत में है. उसकी मां उसे वापस घर ले जा कर स्कूल में डालने की बात कह रही है.
 हर तरह का शोषण

भारत में प्रमुख रूप से महिलाओं को घरेलू कामों से लेकर वेश्यावृत्ति या जबरन विवाह के लिए मानव तस्करी और धोखे से या फिर डरा धमका कर इस काम में धकेला जाता है. जानकारों का कहना है कि निराश और परेशान मां बाप अपने बच्चों को बेच देते हैं जहां से उन्हें जबर्दस्ती भीख मांगने, यौन शोषण या फिर कोयले की खदानों में मजदूरी जैसे कामों में लगा दिया जाता है. संयुक्त राष्ट्र के नशीली दवाओं और अपराध से जुड़े विभाग यूएनडीओसी के मुताबिक अब भी इस तरह के जुल्मों के शिकार पहले दिल्ली लाए जाते हैं. यूएनडीओसी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के साथ नेपाल और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देश से तस्करी के जरिए लाए गए लोगों की "दिल्ली मंजिल है और वहां से आगे जाने का केंद्र भी." इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि खासतौर से राजधानी में मानव तस्करी का यह धंधा बुरी शक्ल ले चुका है. आपराधिक गैंग अपने काम बढ़ाने के लिए प्लेसमेंट एजेंसी और मसाज पार्लर के रूप में कारोबार की तरह इसे चला रहे हैं.
 अपनों की तलाश

पश्चिम बंगाल की राबिया बीबी अपनी सबसे छोटी बेटी 17 साल की रानू के साथ खाने का सामान खरीदने बाजार गई थीं. वहां से उनकी बेटी को अगवा कर लिया गया. अब वो उसे ढूंढने दिल्ली आईं. कभी गांव से बाहर नहीं गईं राबिया बीबी दिल्ली के बारे में ना तो कुछ जानती हैं, ना ही उनके पास पैसे हैं. कई हफ्तों से पुलिस ने उनके साथ जगह जगह छापे मारे. वो बताती हैं, "तीन मछुआरों ने मेरी बेटी को एक तेज भागती कार में चीखते देखा था." गरीब मजदूर नवीन हारू भी इसी तरह अपनी 13 साल की बेटी ज्योति मरियम को ढूंढने का फैसला कर दिल्ली आए. दिन के उजाले में उनकी बेटी को छत्तीसगढ़ में स्कूल से लौटते वक्त अगवा कर लिया गया. दोनों घटनाएं एक जैसी लग रही हैं, लेकिन लड़कियां अलग अलग हालत में मिलीं. रानू को एक होटल के कमरे में बंद कर रखा गया था जबकि मरियम प्लास्टिक में लिपटे शव के रूप में बरामद हुई. आधिकारिक रूप से मौत की वजह मलेरिया दर्ज की गई और पुलिस की इसके पीछे के अपराध को जानने समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है.
 भारत में अपराध की घटनाओं का लेखा जोखा रखने वाली एजेंसी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो ने बताया कि पिछले साल कुल 38,200 महिलाओं और बच्चों को अगवा किया गया. इससे पहले के साल में यह तादाद 35,500 थी. हालांकि सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि वास्तव में यह संख्या इससे बहुत ज्यादा है. मानव तस्करी रोकने के लिए नीतियां बनाने पर केंद्र सरकार के साथ मिल कर काम कर रही भामती कहती है, "अपराध का कोई क्षेत्र नहीं है, वह देशों या एक राज्य से दूसरे राज्य की सीमा नहीं जानता."

मानव तस्करी रोकने के लिए काम कर रहे गैर सरकारी संगठन शक्ति वाहिनी से जुड़े ऋषिकांत इन सबके पीछे आर्थिक विषमताओं को भी जिम्मेदार मानते हैं. उनका कहना है, "अमीर लोग अपने घरों में ऐसे नौकरों के लिए कोई भी पैसा देने को तैयार हैं जो उनके घर साफ करें और बचे हुए खाने पर जिंदा रहें. नौकर मुहैया कराने वाली अवैध एजेंसियां बड़ी संख्या में सभी बड़े शहरों में उग आई हैं.

रानू या वो लड़की तो किसी तरह बच कर वापस जा रही है लेकिन मरियम और उसकी जैसी हजारों या तो मारी जा रही हैं या मौत से मुश्किल जिंदगी जी रही हैं.



कला का सबसे महंगा कद्रदान क़तर

दोहा . कला के क्षेत्र में कतर तेजी से आगे बढ़ रहा है. भले ही कतर के कलाकार दुनिया भर में मशहूर नहीं हों लेकिन सबसे महंगी पेंटिंग्स खरीदने की ताकत कतर ही रखता है. कला की दुनिया में सबसे प्रभावशाली शख्सियतों में कतर के शासक की बहन को पहले नंबर पर शामिल किया गया है. ब्रिटेन की कला समीक्षा पत्रिका ने प्रभावशाली लोगों की सूची जारी की है. कतर संग्रहालय प्राधिकरण, क्यूएमए की प्रमुख होने के नाते शेख अल मयस्सा बिन्त हम्द बिन्त अल थानी के पास सालाना एक अरब डॉलर खर्च करने का बजट है. ये बजट न्यू यॉर्क के आधुनिक कला संग्रहालय से तीन गुना ज्यादा है. पत्रिका ने 'शक्ति 100' की सूची छापते हुए लिखा है, "कोई आश्चर्य नहीं है, तभी तो जब भी शेख अल मयस्सा शहर में होती हैं सरकार और प्रशासन के लोग उनके अभिवादन में कतार लगाते हैं."

दोहा में इस्लामी कला संग्रहालय

चीनी कलाकार अई वेई-वेई पिछले साल सूची में शीर्ष पर थे. 2013 के लिए वेई-वेई सर्वोच्च रैंकिंग कलाकार हैं. प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में वे नौवे स्थान पर हैं. जर्मनी में पैदा हुए कला के व्यापारी डेविड ज्वर्नर कला की दुनिया के प्रभावशाली लोगों में दूसरे नंबर पर आए हैं. डेविड की न्यूयॉर्क में चित्रशालाएं हैं. खाड़ी के सबसे अमीर देशों में शामिल कतर अपने आपको इस क्षेत्र के सांस्कृतिक केंद्र के तौर स्थापित करना चाहता है.

कला का गढ़ बनता कतर
कला समीक्षा पत्रिका के मुताबिक शेख अल मयस्सा इस बार सूची में पहले स्थान में सिर्फ अपनी खरीदारी की ताकत की वजह से हैं. क्यूएमए ने पिछले साल महान फ्रेंच चित्रकार पॉल सिजेन की उत्कृष्ट कृति ''कार्ड प्लेयर्स'' 25 करोड़ डॉलर में खरीदी थी. ये अब तक की सबसे महंगी बिकने वाली पेंटिंग है. कला समीक्षा पत्रिका के मुताबिक, "दोहा को जिस दिन यह अहसास हो गया कि उसने पर्याप्त खरीदारी कर ली है तो बाजार में ऐसा खालीपन आ जाएगा जिसे कोई भर नहीं सकेगा."
कतर में कई संग्रहालय और चित्रशाला हैं, इनके अलावा इस क्षेत्र का सबसे बड़ा इस्लामी कला संग्रहालय भी यहीं है. कला के क्षेत्र में कतर की दिलचस्पी के कारण ही भारत के महान कलाकार मकबूल फिदा हुसैन को वहां की नागरिकता मिली थी. एक जमाने में भारतीय चित्रकला के बेहद खास रहे हुसैन को अपने बनाए चित्रों के कारण भारत में गुस्सा झेलना पड़ा. 1970 के दशक में उनकी बनाई गई कुछ पेंटिंग्स पर खासा विवाद पैदा हुआ, जिसके बाद उनके खिलाफ केस भी दर्ज किए गए. अपने खिलाफ हो रहे विरोध के बाद हुसैन कतर चले गए थे. 2010 में उन्हें कतर की नागरिकता मिली.
- एजेंसी

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

अरे...प्रेम क्‍या कोई कमोडिटी है ?

आज उत्‍तर भारत की विवाहिताओं के लिए खास दिन है अपने दांपत्‍य को सुखमय बनाने का। उनके लिए  इस दिन का खास महत्‍व 'माना' जाता है। 'माना' जाना शब्‍द इसलिए मैंने प्रयोग किया कि अच्‍छी खासी  वैज्ञानिक आधार वाली हमारी प्राचीन भारतीय खोजों को, उनके सिद्धांतों को कब मात्र कुछ रूढ़िवादी परंपराओं  में ढाल दिया गया, यह तब जाकर पता चलता है जब किसी परंपरा के पीछे उसे मनाने के कारण खोजे जाते  हैं। स्‍त्रियों ने इस रूढ़िवाद को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभाई है। हर बदलाव को जस का तस स्‍वीकार  करने की 'स्‍त्री-प्रवृत्‍ति' ने ही न केवल स्‍वयं उसकी महत्‍ता को कम किया बल्‍कि जिन वैज्ञानिक खोजों का  वो स्‍वयं केंद्रबिंदु रहीं, उन्‍हें भी रूढ़िवाद और परंपराओं की भेंट चढ़ा दिया।
नतीजा यह कि गांव-गिरांव की बात तो छोड़ ही दीजिए, आज अधिकांश अच्‍छी खासी शिक्षित युवतियां भी  'दांपत्‍य की संपूर्णता' के इस महोत्‍सव को महज गिफ्ट पाने, साजो-श्रृंगार के लिए पहले ब्‍यूटीपार्लर्स और फिर  गहनों व कपड़ों पर लार टपकाते देखी जा सकती हैं। बाजार की वस्‍तु बनने में उन्‍होंने ही स्‍वयं को अर्पित  किया है...आज वे टारगेट हैं ..कमोडिटी हैं..वो सब-कुछ हैं...बस वो स्‍त्री नजर नहीं आतीं, जो ऋषियों की  खोज का आधार बनी थी।
अच्‍छा लगता है ये देखकर कि इन सारी स्‍थितियों के बावजूद अब कुछ युवा सामने आ रहे हैं उन   जिज्ञासाओं को लेकर जो प्राचीन भारतीय खोजों और दर्शनों पर आधारित हैं। देर से ही सही, इस युवा पीढ़ी  में बढ़ती जिज्ञासाओं को धन्‍यवाद देना चाहिए कि वे समय-समय पर उभर तो रही हैं...कम से कम हमसे  प्रश्‍न तो कर रही हैं...हमें बाध्‍य तो कर रही हैं कि हमने जिन बुनियादों पर अपनी रूढ़ियों की अमरबेल  चढ़ाई है, आखिर उनकी वास्‍तविकता क्‍या रही होगी?
तभी तो आज हम अपनी परंपराओं को निभाने के पीछे के कारण जानने पर विवश हैं। चाहे अनचाहे ही सही,  हम उत्‍तर खोजते-खोजते अपनी जड़ों की ओर देख तो पा रहे हैं कि जंगलों में रहने वाले ऋषि मुनियों ने  कितने कम संसाधनों में वो सिद्धांत और वैज्ञानिक विश्‍लेषण हमें सौंप दिये जो जीवन के लिए आवश्‍यक थे  और जिनके लिए आज प्रयत्‍न करने पर भी अपेक्षित परिणाम हमें नहीं मिल पाते।
मैं आज की यानि करवा चौथ जैसे दांपत्‍य को समर्पित खास पर्व की नींव की बात कर रही हूं कि प्राचीन  भारतीय शोधकर्ताओं को अच्‍छी तरह से मालूम था कि अच्‍छी सृष्‍टि की रचना तभी संभव है जब परस्‍पर  विरोधी प्रकृति व प्रवृति के होते हुए भी स्‍त्री व पुरुष एक दूसरे को लेकर सकारात्‍मक सोचें, सहिष्‍णु बनें, प्रेम  की उत्‍पत्‍ति शांत मन के साथ हो, प्रेम में उद्वेग से क्रोध और क्रोध से उत्‍पन्‍न संतान सृष्‍टि के लिए घातक  हो सकती है। इन दुष्‍परिणामों से बचने के लिए ही उन्‍होंने चंद्रमा की किरणों में प्रेम की उत्‍पत्‍ति को  सर्वोतम बताया और सिद्धांत बनाये स्‍त्री व पुरुष अपनी अपनी विपरीत ऊर्जाओं का इस्‍तेमाल करके जिस  संतति को आगे बढ़ायें वह दोनों का 'सुयोग' हो यानि सकारात्‍मक सोच वाली संतान के माध्‍यम से स्‍त्री-पुरुष  न केवल अपना, बल्‍कि विश्‍व का कल्‍याण करने के काम आयें।
इन्‍हीं खोजों में चंद्रमा की शीतलता और उसकी किरणों में कामना बढ़ाने वाले गुणों का पूरी तरह उपयोग  किया गया अर्थात् स्‍त्री-पुरुष दोनों में मौजूद ऊर्जा को सकारात्‍मक दिशा में बढ़ाने के लिए ही इस तरह  प्रयोग किया गया कि विरोधी ऊर्जाओं को धनात्‍मक ऊर्जा में बदल भी दिया जाये और प्रेम को आम  जनजीवन का स्‍थाई भाव बनाया जा सके।
खैर, आज हमें मिट्टी के करवों और खांड के करवे से अपने दांपत्‍य को समेटने के बारे में फिर से सोचना  चाहिए कि क्‍या प्रेम सिर्फ एक दिन का उत्‍सव है...इसकी निरंतरता बनी रहनी चाहिए मगर रूढ़िवाद और  इसे भुनाते बाजार के सहारे हम भला क्‍यों अपने प्रेम को सौंपें...बचना होगा इससे हरहाल में वरना इसके  सुरसा वाले मुंह ने हमें लिव इन रिलेशन तक तो पहुंचा दिया है, आगे की सोच कर मन चक्‍करघिन्‍नी हुये  जा रहा है।
Goodluck For Karwachauth
- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

कॉस्‍मिक इफेक्‍ट वाले रासाचारी

शारदीय दुर्गा नवरात्रि के समाप्‍त होते ही शरद ऋतु का स्‍वागत उत्‍सव यानि शरदोत्‍सव मनाने का क्रम शुरू हो चुका है।
शरद पूर्णिमा को उत्‍सव व परंपरा के रूप में ढालने वाले सबसे पहले थे कृष्‍ण, जिन्‍हें संभवत: तभी से एक और नाम मिल गया- रासाचारी कृष्‍ण का। आज  इस रासाचारी शब्‍द को भले ही अन्‍यथा संदर्भों में देखा जाता है परंतु द्वापर काल में कृष्‍ण ने जिस तरह से इस उत्‍सव को पूरे आनंद के साथ मनाने के लिए अपनी साथी गोपियों को भी बाध्‍य कर दिया और एक नई परंपरा की नींव डाली, वह सब सिर्फ कृष्‍ण के ही वश में था।
संभवत: इसीलिए महाभारत में शरद पूर्णिमा पर महारास को देखकर कृष्‍ण और राधा की आराधना में कहा गया है-
'तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीड़ामनुव्रतै।
स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्ध बाहुभिः।।'
श्‍लोक के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक दूसरे की बाँह में बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुना के किनारे पर भगवान ने अपनी रासक्रीड़ा प्रारंभ की। श्‍लोक स्पष्ट करता है कि सामान्य गोपियों से अलग एक गोपी भगवान की परम प्रेयसी भी थी। अनुमान है कि वह राधा के अलावा और कौन हो सकती है।
भागवत पुराण के अनुसार तो कृष्‍ण का महारास संपूर्ण प्रकृति के लिए एक ऐसी अनूठी घटना थी, जो न कभी घटी और न घटेगी। मगर आज इस पूरे प्रसंग को तार्किक कसौटी पर कसा जाने लगा है। संभवत: कृष्‍ण और उनकी सभी क्रियाओं को लेकर युवा पीढ़ी में एक कौतूहल है क्‍योंकि वह आंख बंद करके भरोसा करना नहीं चाहती।
यूं तो समाज के स्‍थापित नियमों को नया रूप देने में कृष्‍ण सदैव आगे ही रहे और इसीलिए कृष्‍ण तथा उनके उठाये हुये कदम हमेशा शोध का विषय बने। कृष्‍ण ने तत्‍कालीन समाज के स्‍थापित नियमों को इस तरह बदला कि वह गूढ़ होते हुए सहज बने रहे...स्‍वीकार्य रहे।
यहां यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि आखिर इतनी सहजता से इतना कुछ कैसे कर पाये...श्रीकृष्‍ण ।
आज के समाज में भी नियमों को बदलना और समाज के विरुद्ध जाना बहुत मुश्‍किल होता है, कई बार तो खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। फिर कृष्‍ण ने कैसे सबका मुकाबला किया होगा?
परंतु जीवन के हर क्षण को उत्‍सव बनाकर यदि स्‍वस्‍थ परंपराओं का प्रतिपादन किया जाये तो सामाजिक ताने-बाने की दृढ़ता निश्‍चित है। कृष्‍ण जानते थे कि बदलते समय की चुनौतियों का सामना करने की बजाय यदि उन्‍हें जिया जाये, उनका स्‍वागत किया जाये तो जीवन सहज व सरल हो जायेगा और सहजता के साथ जीवन का उत्‍सव ही तो था शरद पूर्णिमा पर किया गया महारास।
आज भी ये रहस्‍य ही बना हुआ है कि कृष्‍ण रासाचारी होते हुये भी ब्रह्मचारी क्‍यों कहलाये। हर गोपी को वे अपने साथ नृत्‍य करते दिखे और सिर्फ नृत्‍य ही नहीं, स्‍वयं में एकाकार होते भी दिखाई दिए। ऐसा कैसे संभव था कि एक ही समय में हर गोपी का अलग-अलग शैली व भंगिमा वाला नृत्‍य फिर भी कृष्‍ण उसके साथ उसी की नृत्‍य मुद्रा में नृत्‍य करते हैं, एकाकार हैं...क्‍या शारीरिक रूप से किसी व्‍यक्‍ति द्वारा ऐसा किया जाना संभव है? नहीं, परंतु वही सब कृष्‍ण के लिए संभव है। असंभव को संभव कर दिखाना और उसे प्रतिस्‍थापित करना ही तो कृष्‍ण के महारास का अभिप्राय है। इसका अर्थ है कि सहजता से जिया जाने वाला हर क्षण, रास है।  मेटाफिजिकली देखें तो 'रास' हर समय हमारे आसपास घटने वाले क्षण हैं जो सिर्फ और सिर्फ परस्‍पर विरोधी गुणों, रंगों और व्‍यवहारों के सम्‍मिश्रण से जन्‍म लेते हैं।
आधुनिक अर्थों में कहा जाये तो रास एक कॉस्‍मिक इफेक्‍ट है प्रकृति का... मनुष्‍य के ऊपर। इसे व्‍यक्‍तिवादी मानना भूल हो सकती है क्‍योंकि यह किसी एक पुरुष का अनेक स्‍त्रियों के साथ नृत्‍य मात्र नहीं हैं। प्रकृति और पुरुष तत्‍व के सम्‍मिलन का माध्‍यम बनता है नृत्‍य, और इस तरह गढ़ा जाता है महारास...नृत्‍य को भी माध्‍यम महज इसकी सर्वग्राह्यता के कारण  बनाया श्री कृष्‍ण ने। वे कृष्‍ण जो सब की सोचते हैं..सबको गुनते हैं और सब के हित साधते हैं। ऐसे ही हैं कृष्‍ण... और जैसे कृष्‍ण हैं वैसा ही है उनका महारास, एकदम पूर्ण... बिल्‍कुल शरद के स्‍वागत को अधीर सोलह कलाओं से पूर्ण चंद्रमा की भांति।
-अलकनंदा सिंह



बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

एलीनोर कैटन बनी सबसे युवा बुकर पुरस्कार विजेता

न्यूजीलैंड की 28 वर्षीय लेखिका एलिनोर कैटन अपने उपन्यास 'द लूमिनरीज़' के लिए सबसे कम उम्र में मैन बुकर पुरस्कार जीतने वाली लेखक बन गई हैं. भारतीय मूल की अमरीकी लेखिका झुंपा लाहिड़ी का उपन्यास 'दी लोलैंड' भी इस साल बुकर पुरस्कारों की होड़ में शामिल था.
बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में कैटन का 832 पेज का उपन्यास ये पुरस्कार जीतने वाली सबसे लंबी कृति भी बन गया है. उन्होंने ये उपन्यास उन्नीसवीं सदी की सोने की खानों पर लिखा है. कैटन ने यह उपन्यास 25 साल की उम्र में लिखना शुरू किया था.
लंदन के गिल्डहॉल में मंगलवार रात हुए एक समारोह में कैटन को विजेता घोषित किया गया. पुरस्कार के साथ पचास हज़ार पाउंड की इनामी राशि भी दी जाती है.
कैटन के उपन्यास की संरचना बेहद जटिल है. इसका हर हिस्सा पिछले हिस्से की तुलना में ठीक आधा लंबा है.
विजेता तय करने वाले जजों के चैयरमैन रॉबर्ट मैकफ़ारलेन ने कहा, "यह एक चमकदार कार्य है जो लंबा हुए बिना विशाल काम है." वे कहते हैं, "आप इसे पढ़ना शुरू करते हैं और आपको लगने लगता है कि आप एक दैत्य की पकड़ में हैं."
इस साल के पुरस्कार को डचेज़ ऑफ कार्नवेल कैमिला ने प्रस्तुत किया.
मैकफ़ारलेन ने बताया कि दो घंटे की बहस के बाद जजों ने कैटन को विजेता घोषित करने का फ़ैसला लिया.
कनाडा में जन्मी कैटन न्यूज़ीलैंड में पली-बढ़ी हैं और वे मैन बुकर पुरस्कार जीतने वाली न्यूज़ीलैंड की दूसरी लेखक हैं.
इस साल नोवॉयलेट बुलावायो, जिम क्रेस, झुंपा लाहिड़ी, रुथ ओज़ेकी और कॉल्म टोईबिन को बुकर पुरस्कार के लिए चयनित किया गया था.
विजेता कैटोन को पचास हज़ार पाउंड की इनामी राशि जबकि बाकी अन्य को ढाई हज़ार पाउंड दी गई.
यह बुकर पुरस्कारों का पैंतालीसवां साल था. पिछले साल हिलेरी मेंटेल ने 'ब्रिंग अप द बॉडीज़' के लिए यह पुरस्कार जीता था.
-एजेंसी

शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

जवाब मांगती सोनागाछी

श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बराधरा शुचिरू।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

नवरात्रि के अंतिम दिन जब महागौरी की आराधना के लिए ये मंत्र उच्‍चारित किया जाता है तो शायद ही कोई इसके शब्‍दों में छिपे उस संदेश को देख पाता हो जो जीते जागते इंसान को सीख देता है। सीख देता है कि नौ दिनों तक आत्‍मशुद्धि के लिए किये गये व्रत से शुरू होकर कन्‍यापूजन पर आकर स्‍थगित हो जाने वाला यह अवसर मात्र एक त्‍यौहार मात्र नहीं, बल्‍कि अपने अंदर मानवता को जगाने का एक माध्‍यम है।
पूरे सालभर कभी गुप्‍त तो कभी प्रत्‍यक्ष रूप में आने वाली नवरात्रियां, यह भी देखने का माध्‍यम हैं कि सदियों से चली आ रही शक्‍ति जागरण की इस प्रक्रिया के बावजूद तमाम ऐसे प्रश्‍न अनुत्‍तरित रह जाते हैं, जिनके जवाब आज तक ढूंढे जा रहे हैं जैसे कि .....
स्‍त्री पुरुष एक जैसा जीवन जीते हुये भी एक जैसा अधिकार पाने के हकदार क्‍यों नहीं बन पाये ,
स्‍वशक्‍ति को पहचानने और जो सुप्‍त शक्‍तियां हैं- उन्‍हें जाग्रत करने के लिए निर्धारित दिनों को ही क्‍यों व्‍यक्‍ति यानि कन्‍या अथवा स्‍त्री पूजा से जोड़ दिया गया,
क्‍यों पुरुष को श्रेष्‍ठ और क्‍यों स्‍त्री को हीन माना जाये,
क्‍यों सिर्फ चंद दिन नियत हों कि बच्‍चियां स्‍वयं को देवी मानें,
क्‍यों सिर्फ अंतिम नवरात्रि को कुछ कन्‍याओं को भोजन कराकर ही 'देवी' को प्रसन्‍न करने का उपक्रम किया जाये,
क्‍या ये पूरे वर्ष या फिर पूरे जीवन भर जारी नहीं रखा जा सकता,
क्‍या औरत को दो ही श्रेणियों में रखना नियंताओं को ज्‍यादा आसान लगा कि या तो वह देवी हो अन्‍यथा भोग्‍या, सवाल तो ढेर सारे हैं मगर जवाब अभी भी नहीं मिले। इन दोनों स्‍थितियों के अलावा ''स्‍त्री का स्‍व'' कहीं विलुप्‍त हो गया है।
कहने को पूरे नौ दिन तक समाचारपत्रों से लेकर गली के नुक्‍कड़ों, पंडालों, मंदिरों में नारी-शक्‍ति का गुणगान करने की प्रतियोगिता सी लगी होती है। चौतरफा ऐसा माहौल ''प्रतीत'' होता है मानो अब देश में नारीवादियों को बेरोजगार करने की होड़ लग पड़ी हो मगर नौ दिनों का ये उत्‍सवी स्‍वप्‍न तब अपनी हकीकत हमारे सामने रख देता है जब कुछ खबरें इन पर पानी फेरती नज़र आती हैं। जैसे आज ही खबर पढी कि कोलकाता की सोनागाछी के रेडलाइट एरिया में इस बार देवी प्रतिमा की स्‍थापना की गई है और इतना ही नहीं पूरे आठ दिन ठीक वैसे ही उत्‍सव जारी रहा जैसे आम ज़िदगी में आम लोगों में मनाया जाता है, गौर करने वाली बात यह रही कि इस दौरान व्रत रखकर सभी सेक्‍सवर्कर्स ने अपने 'प्रोफेशन' को कतई नज़रंदाज नहीं किया। उनके लिए आत्‍मगर्वित करने वाली है ये बात कि पूजा का अधिकार भी उन्‍होंने हासिल कर लिया और कर्तव्‍य भी अनदेखी भी नहीं की।
ऐसा कोर्ट के आर्डर पर संभव हो सका वरना आसपास की कथित सोसाइटीज ने तो इसका विरोध जमकर किया था। अब ये ''एक खबर'' पूरे उत्‍सव के औचित्‍य पर ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने को काफी है। हो सकता है अतिधार्मिक लोग मेरे इन प्रश्‍नों से सहमत न हों मगर इससे कौन इंकार कर सकता है कि ''सोनागाछी'' जैसी बाड़ियों को जन्‍म इन्‍हीं वजहों से हुआ। खैर उन्‍हें अब जाकर ये अहसास तो हो गया कि वे अपने आंगन की मिट्टी जब दुर्गापूजा में दे सकती हैं तो भला स्‍वयं समाज के द्वारा त्‍याज्‍य क्‍यों हैं...बस बहुत हुआ...खुद ही करेंगे अपनी जंग की समीक्षा और...नतीजा ये कि आज वे अपनी बाड़ी में दुर्गापूजा करेंगीं।
बहरहाल सनातन धर्म में 'स्‍व' को जगाने, 'स्‍व' की शक्‍तियों को पहचानने और 'स्‍व' के ही उत्‍थान को जितने विस्‍तृत उपाय व मार्ग बताये गये हैं वे सभी के सभी आत्‍मउत्‍थान के लिए काफी हैं मगर इनका अपभ्रंशित रूप इनके औचित्‍य को स्‍वयं ही कठघरे में खड़ा किये दे रहा है तभी तो ..... आज इन भक्‍तों पर श्रद्धा नहीं उमड़ती...तभी तो....स्‍त्री के भोग्‍या रूप को देखकर उन नारीवादियों के षडयंत्र पर रहम आता है कि उनके द्वारा औरत को जिसतरह भुनाया जा रहा है वह भी मंज़ूर नहीं होना चाहिये...यहां भी स्‍त्री के स्‍व का प्रश्‍न हमारे सामने है कि जो स्‍त्री खुद को ही ना समझे उसे भला कोई और समझेगा भी क्‍यों...।
- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

साहित्य का नोबेल एलिस मुनरो को

स्टॉकहोम 
कनाडा की लघुकथा लेखक एलिस मुनरो को साहित्य का नोबेल पुस्कार प्रदान किया गया है. 82 वर्षीय इस कथाकार को पुरस्कार देने की आज घोषणा की गयी और उन्हें एक महान लघुकथा लेखक बताया गया.
-एजेंसी

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

डॉक्‍टर तोगड़िया... प्‍लीज! ..आप तो समझ ही सकते हैं

 
कभी आपने यदि गीता पढ़ी हो तो ये भी अवश्‍य पढ़ा होगा कि
''कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते मा फलेषु कदाचन्'' से कर्म करने की प्रेरणा देने वाले श्रीकृष्‍ण ने गीता के  18वें अध्‍याय में
''सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।'
अहंत्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
कहकर अपना उपदेश समाप्‍त किया। गीता के उपदेश हर काल में जन-जीवन के लिए  प्रायोगिक तौर पर खरे उतरते रहे हैं, आज की दिशाहीन-गतिहीन राजनैतिक स्‍थितियों में यदि  कोई लीक-लीक चलने की बजाय कुछ नया करने का साहस दिखाता है तो उसे पोंगापंथियों  की चिल्‍लपों से दोचार होना ही पड़ता है।
उक्‍त श्‍लोकों की यात्रा हर क्षण यह बताती है कि हमें बस कर्म करना है, बाकी फल मिलने  के रास्‍ते तो समय अपने आप बनाता जाता है।
कल जब से नरेंद्र मोदी ने युवाओं के सामने अपनी बात रखी, तभी से हंगामा बरपा है। सब  अपने-अपने तरीके से समीक्षा कर रहे हैं।
मोदी ने कहा, 'मैं एक हिंदुत्ववादी नेता के रूप में जाना जाता हूं। मेरी छवि मुझे ऐसा कहने  की इज़ाज़त नहीं देती, लेकिन मैं ऐसा कहने का 'साहस' कर रहा हूं। मेरा वास्तविक विचार है  यह है कि पहले शौचालय, फिर देवालय। हमारे देश में बहुत देवालय हैं अगर इतने ही  शौचालय हों तो लोगों को बाहर शौच करने की जरुरत नहीं होगी।'
अब इस पर कट्टर हिंदूवादियों का खून खौल रहा है कि मोदी, देवालय से पहले शौचालय क्‍यों  ले आए। ये लोग 'हिंदू' शब्‍दभ्रम के जाल में इस कदर फंसे हुए हैं कि हमारी सनातनी सोच  को भी भुला बैठे हैं । इन्‍हें ज़मीन पर रहने वाले वो लोग दिखाई नहीं देते जिन्‍हें नित्‍यकर्म के  लिए अपनी ही नज़रों से दिन भर में कम से कम एक बार तो गिरना ही पड़ता है। सरेआम  उनको यानि गरीबों की बच्‍चियों व महिलाओं को इस शर्मिंदगी से दो-चार होते शायद ये  तथाकथित हिंदूवादी अपने अपमान से जोड़कर नहीं देखते।
..तो प्रवीण तोगड़िया जी, राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से लेकर पूरे देश के हर शहर व गांव से  गुजरने वाली वो रेलवे पटरियां तो आपने भी देखीं होंगी, जिनके किनारे तमाम औरत-मर्दों को  बैठना पड़ता है। कृपया आप ये बतायेंगे कि इन्‍हें लेकर कभी आपको किसी प्रकार की शर्मिंदगी  का अहसास हुआ है या नहीं..।
और ये भी बतायें कि जीवन की मूलभूत आवश्‍यकता को पूरा करना ज्‍यादा जरूरी है या घंटे  घड़ियाल बजा कर गरीबों की समस्‍याओं को हल करने का कोरा ढोल पीटना। समय बदल  चुका है.....जिन युवाओं की बात नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वो कोई युवाओं पर कृपा नहीं बरसा रहे,  ना ही उन्‍हें सर आंखों पर बैठा रहे हैं.....वो तो बस समय की मांग के अनुसार युवाओं की  आधुनिक सोच व क्रिएटिव कैपेबिलिटी का राजनैतिक संदर्भ में प्रयोग करने की राह बना रहे  हैं। मोदी की पूरी स्पीच में शौचालय और देवालय के सन्दर्भ में जो कहा गया है, उसमें ऐसा  कुछ नहीं है कि हिन्दू या हिंदुत्व को इतना धक्का लगे। सो इस पर इतनी हायतौबा मचाना  जरूरी नहीं है। यूं भी जो समय के अनुसार नहीं चलते, उन्‍हें इतिहास बनते देर भी नहीं  लगती। विरोधी पार्टियों की तो छोड़ें तोगड़िया जी, अपनी सोच को थोड़ा विस्‍तार दें और  श्रीकृष्‍ण के गीतासार को पढ़ें ताकि समझ सकें कि समय और जरूरत के अनुसार बनाई गई  रणनीति ही देश का भला कर सकती है। बेहतर होगा कि देवालयों से बाहर आकर भगवान को  भी ज़मीनी हकीकतों से रूबरू होने दें।
मोदी युवाओं की आवाज़ बनने की इस प्रक्रिया में कितने सफल होंगे, यह तो नहीं कहा जा  सकता मगर इतना अवश्‍य है कि देश का युवा भी ''कर्मण्‍यवाधिकारस्‍ते मा फलेषु कदाचन्'' की  व्‍याख्‍या करते हुए उन नेताओं का हश्र भी बखूबी देख रहा है, जिन्‍होंने अपनी कलाबाजियों से  जनता का मनोरंजन करके उसे ढंग से धोया-पोंछा और कंगाल होने को छोड़ दिया। बात  इतनी सी है कि श्रीकृष्‍ण के ''मामेकं शरणं व्रज'' की जरूरत आज हर उस राजनीतिज्ञ को है  जो 2014 की चुनौतियों को देख पा रहा है। आप भी मोदी से अपने मतभेदों को शौचालय की  आड़ लेकर सार्वजनिक न करें तो बेहतर है क्‍योंकि उनसे भी सड़क पर पड़े शौच जैसी ही  दुर्गंध आ रही है। हिंदू हित भी इसकी इजाजत नहीं देता कि इस नाजुक दौर में आप मोदी से  अपने मतभेदों को सार्वजनिक करके दूषित वातावरण पैदा करें।
-अलकनंदा सिंह 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

2 अक्‍तूबर: कंपलीट नॉनसेंस

आज का दिन...यानि 2 अक्‍तूबर... यानि शांति के मसीहा-महात्‍मा गांधी का जन्‍मदिन... आज  के दिन सियासी गलियारों से लेकर सामाजिक चौखटों तक शांति का दिखावटी राग अलापा  जायेगा लेकिन लालबहादुर शास्‍त्री को शायद ही याद किया जाए जबकि आज शास्‍त्रीजी का भी  जन्‍मदिन है। दोनों की उन प्रतिमाओं को धोया संवारा भी जायेगा, जहां वर्षभर कबूतरों का  सुलभ शौचालय आबाद रहता है। राजघाट से लेकर पब्‍लिक स्‍कूलों-मांटसरियों में भी गांधी के  स्‍वदेशीपन को तरह-तरह से कैश किया जायेगा। कहीं उन्‍हें कांग्रेसी चश्‍मे से तो कहीं भाजपाई  चश्‍मे से नापा-तोला जायेगा, फिर कल से शुरू होगी इन पार्टियों द्वारा दिये गये बयानों की  उधेड़-बुनाई कि फलां ने ये कहा और फलां ने वो....बयानों के इतर इस बीच न गांधी बचेंगे न  उनके सिद्धांत।
खैर, ये तो रहे गांधी जयंती समारोह के आफ्टर इफेक्‍ट्स.. मगर कुछ सवाल जो 1947 में  अनुत्‍तरित रह गये थे, वो आज भी वहीं खड़े हैं। जैसेकि हिंदू-मुसलमानों को स्‍वयं महात्‍मा  गांधी अपनी दो आंखें कहा करते थे.. और कहते थे कि इनमें से किसी एक के बिछुड़ने से  भारत अपूर्ण रहेगा। आज उन्‍हीं के इस 'पूर्ण देश' में हिंदुओं की बात करने भर से माहौल  सांप्रदायिक हो जाता है और मुसलमानों को तो 'मुसलमान' कह कर संबोधित करने तक में  आपत्‍ति है। मुसलमानों के लिए एक शब्‍द ईज़ाद किया गया ''संप्रदाय विशेष''। देश में कहीं भी  यदि हिंदू-मुसलमान के बीच है कोई फसाद हो जाए तो मीडिया रिपोर्टिंग में कहा जाता है.. दो  संप्रदायों के बीच ये हुआ... दो संप्रदायों के बीच वो हुआ..आदि-आदि ।
हिंदू का नाम लिया जा सकता मगर मुसलमान का नहीं..क्‍यों ? क्‍या मुसलमान इस देश के  वाशिंदे नहीं हैं या उन्‍हें ऐसा 'संप्रदाय विशेष' कहकर ''छेक देने'' की प्रवृत्‍ति जान-बूझकर  पनपाई जा रही है ताकि जरूरत पड़ने पर उनका इस्‍तेमाल राजनीति के मोहरों बतौर किया जा  सके। कहीं भी दंगे हों तो सबसे पहले आवाज उठती है कि संप्रदाय विशेष को पाकिस्‍तान चले  जाना चाहिए। क्‍यों भाई..जिन देशों में अकेले मुस्‍लिम आबादी है तो क्‍या वहां मारकाट नहीं हो  रही। सच तो यह है कि सामाजिक हिंसा के सर्वाधिक मामले विश्‍व के उन देशों में दिखाई दे  रहे हैं जिन्‍हें इस्‍लामिक मुल्‍क कहा जाता है। वहां तो न कांग्रेस है ना बीजेपी.. ना दो  ''संप्रदाय'' और ''संप्रदाय विशेष'' जैसे शब्‍द।
आज गांधी को याद करने की और उनके शब्‍दों को दोहराने की रस्‍म अदायगी बखूबी निभाई  जायेगी मगर उनकी दोनों आंखों की सेहत और उनका मोल ये तथाकथित गांधीभक्‍त समझेंगे,  ऐसा फिलहाल तो नहीं लगता।
ये देश की कौन सी तस्‍वीर है हमारे सामने जिसमें राजनीति ने अपने पांसे कुछ इस कदर  फेंके हैं कि ना हिंदू, हिंदुस्‍तानी रह पा रहे हैं ना मुसलमान, भारतीय। भाषाएं तो कब की  विभाजित की जा चुकी हैं, अब लिबास भी सियासत के लिए विभाजित किया जा रहा है। तभी  तो जरूरतमंदों को साड़ी बांटते-बांटते अखिलेश सरकार सलवार सूट बांटने की बात करने लगी  है क्‍योंकि मुस्‍लिमों में साड़ी पहनने का रिवाज नहीं है।
सच तो यह है कि सांप्रदायिकता को लेकर सियासत के हमाम में सब नंगे हैं। कोई किसी से  कम नहीं।
रहा सवाल गांधी बाबा का.. तो उनका भी स्‍मरण सिर्फ और सिर्फ इसलिए किया जाता है  ताकि सांप्रदायिकता को लेकर की जा रही सियासत से उनके नाम को कैश किया जा सके।
चूंकि लालबहादुर शास्‍त्री इस फ्रेम में फिट नहीं बैठते और उनके नाम को सांप्रदायिकता के  लिए भुनाया नहीं जा सकता इसलिए वह आउटडेटेड मान लिए गए हैं। संभवत: इसलिए 2  अक्‍टूबर गांधी जी के नाम आरक्षित है।
 - अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

इंटरनेट पर भाषाओं का भविष्य

क्या इंटरनेट कभी भी अँगरेज़ी के अलावा किसी दूसरी भाषा के लिए उतना ही सहज हो पाएगा?
गूगल के लिए सर्च का मतलब हर भाषा में सर्च है मगर इसमें भारतीय भाषाएँ ख़ास तौर पर चुनौती पेश करती हैं क्योंकि उन भाषाओं में अभी कुल सामग्री बहुत कम है. इसलिए सबसे पहले ज़रूरी है कि उस भाषा में इंटरनेट पर सामग्री उपलब्ध कराई जाए.
मगर हाँ, हमने अनुवाद के मामले में काफ़ी प्रगति की है और जैसे-जैसे हम उसमें बेहतर होते जाएँगे वैसे-वैसे ये अन्य भाषाओं के लिए भी बेहतर होगा. किसी भी भाषा में भारत में ही सबसे कम सामग्री लिखित में उपलब्ध है जबकि अगर आप ये देखेंगे कि वो भाषा बोलने वाले कितने हैं तो पाएँगे कि वह संख्या काफ़ी बड़ी है.

इस कला पर है गांधी की छाप

 
नई दिल्ली 
महात्मा गांधी के ‘सर्वोदय’ और ‘स्वधर्म’ के सिद्धांतों ने एक कलाकार की कलाकृतियों में प्रेरणा के नए रंग भर दिए हैं। इस कलाकार ने महिलाओं द्वारा सिलाई किए गए खादी के कपड़े पर अजरख प्रिंट वाली कलाकृतियां तैयार करके इनका प्रदर्शन मल्टीमीडिया वाले काव्य पाठ के साथ किया।
शैली ज्योति की ‘सॉल्ट:द ग्रेट मार्च 2013’ नामक इस प्रदर्शनी का आयोजन इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स में किया जा रहा है। -एजेंसी