शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

जवाब मांगती सोनागाछी

श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बराधरा शुचिरू।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

नवरात्रि के अंतिम दिन जब महागौरी की आराधना के लिए ये मंत्र उच्‍चारित किया जाता है तो शायद ही कोई इसके शब्‍दों में छिपे उस संदेश को देख पाता हो जो जीते जागते इंसान को सीख देता है। सीख देता है कि नौ दिनों तक आत्‍मशुद्धि के लिए किये गये व्रत से शुरू होकर कन्‍यापूजन पर आकर स्‍थगित हो जाने वाला यह अवसर मात्र एक त्‍यौहार मात्र नहीं, बल्‍कि अपने अंदर मानवता को जगाने का एक माध्‍यम है।
पूरे सालभर कभी गुप्‍त तो कभी प्रत्‍यक्ष रूप में आने वाली नवरात्रियां, यह भी देखने का माध्‍यम हैं कि सदियों से चली आ रही शक्‍ति जागरण की इस प्रक्रिया के बावजूद तमाम ऐसे प्रश्‍न अनुत्‍तरित रह जाते हैं, जिनके जवाब आज तक ढूंढे जा रहे हैं जैसे कि .....
स्‍त्री पुरुष एक जैसा जीवन जीते हुये भी एक जैसा अधिकार पाने के हकदार क्‍यों नहीं बन पाये ,
स्‍वशक्‍ति को पहचानने और जो सुप्‍त शक्‍तियां हैं- उन्‍हें जाग्रत करने के लिए निर्धारित दिनों को ही क्‍यों व्‍यक्‍ति यानि कन्‍या अथवा स्‍त्री पूजा से जोड़ दिया गया,
क्‍यों पुरुष को श्रेष्‍ठ और क्‍यों स्‍त्री को हीन माना जाये,
क्‍यों सिर्फ चंद दिन नियत हों कि बच्‍चियां स्‍वयं को देवी मानें,
क्‍यों सिर्फ अंतिम नवरात्रि को कुछ कन्‍याओं को भोजन कराकर ही 'देवी' को प्रसन्‍न करने का उपक्रम किया जाये,
क्‍या ये पूरे वर्ष या फिर पूरे जीवन भर जारी नहीं रखा जा सकता,
क्‍या औरत को दो ही श्रेणियों में रखना नियंताओं को ज्‍यादा आसान लगा कि या तो वह देवी हो अन्‍यथा भोग्‍या, सवाल तो ढेर सारे हैं मगर जवाब अभी भी नहीं मिले। इन दोनों स्‍थितियों के अलावा ''स्‍त्री का स्‍व'' कहीं विलुप्‍त हो गया है।
कहने को पूरे नौ दिन तक समाचारपत्रों से लेकर गली के नुक्‍कड़ों, पंडालों, मंदिरों में नारी-शक्‍ति का गुणगान करने की प्रतियोगिता सी लगी होती है। चौतरफा ऐसा माहौल ''प्रतीत'' होता है मानो अब देश में नारीवादियों को बेरोजगार करने की होड़ लग पड़ी हो मगर नौ दिनों का ये उत्‍सवी स्‍वप्‍न तब अपनी हकीकत हमारे सामने रख देता है जब कुछ खबरें इन पर पानी फेरती नज़र आती हैं। जैसे आज ही खबर पढी कि कोलकाता की सोनागाछी के रेडलाइट एरिया में इस बार देवी प्रतिमा की स्‍थापना की गई है और इतना ही नहीं पूरे आठ दिन ठीक वैसे ही उत्‍सव जारी रहा जैसे आम ज़िदगी में आम लोगों में मनाया जाता है, गौर करने वाली बात यह रही कि इस दौरान व्रत रखकर सभी सेक्‍सवर्कर्स ने अपने 'प्रोफेशन' को कतई नज़रंदाज नहीं किया। उनके लिए आत्‍मगर्वित करने वाली है ये बात कि पूजा का अधिकार भी उन्‍होंने हासिल कर लिया और कर्तव्‍य भी अनदेखी भी नहीं की।
ऐसा कोर्ट के आर्डर पर संभव हो सका वरना आसपास की कथित सोसाइटीज ने तो इसका विरोध जमकर किया था। अब ये ''एक खबर'' पूरे उत्‍सव के औचित्‍य पर ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने को काफी है। हो सकता है अतिधार्मिक लोग मेरे इन प्रश्‍नों से सहमत न हों मगर इससे कौन इंकार कर सकता है कि ''सोनागाछी'' जैसी बाड़ियों को जन्‍म इन्‍हीं वजहों से हुआ। खैर उन्‍हें अब जाकर ये अहसास तो हो गया कि वे अपने आंगन की मिट्टी जब दुर्गापूजा में दे सकती हैं तो भला स्‍वयं समाज के द्वारा त्‍याज्‍य क्‍यों हैं...बस बहुत हुआ...खुद ही करेंगे अपनी जंग की समीक्षा और...नतीजा ये कि आज वे अपनी बाड़ी में दुर्गापूजा करेंगीं।
बहरहाल सनातन धर्म में 'स्‍व' को जगाने, 'स्‍व' की शक्‍तियों को पहचानने और 'स्‍व' के ही उत्‍थान को जितने विस्‍तृत उपाय व मार्ग बताये गये हैं वे सभी के सभी आत्‍मउत्‍थान के लिए काफी हैं मगर इनका अपभ्रंशित रूप इनके औचित्‍य को स्‍वयं ही कठघरे में खड़ा किये दे रहा है तभी तो ..... आज इन भक्‍तों पर श्रद्धा नहीं उमड़ती...तभी तो....स्‍त्री के भोग्‍या रूप को देखकर उन नारीवादियों के षडयंत्र पर रहम आता है कि उनके द्वारा औरत को जिसतरह भुनाया जा रहा है वह भी मंज़ूर नहीं होना चाहिये...यहां भी स्‍त्री के स्‍व का प्रश्‍न हमारे सामने है कि जो स्‍त्री खुद को ही ना समझे उसे भला कोई और समझेगा भी क्‍यों...।
- अलकनंदा सिंह

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