मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

अरे...प्रेम क्‍या कोई कमोडिटी है ?

आज उत्‍तर भारत की विवाहिताओं के लिए खास दिन है अपने दांपत्‍य को सुखमय बनाने का। उनके लिए  इस दिन का खास महत्‍व 'माना' जाता है। 'माना' जाना शब्‍द इसलिए मैंने प्रयोग किया कि अच्‍छी खासी  वैज्ञानिक आधार वाली हमारी प्राचीन भारतीय खोजों को, उनके सिद्धांतों को कब मात्र कुछ रूढ़िवादी परंपराओं  में ढाल दिया गया, यह तब जाकर पता चलता है जब किसी परंपरा के पीछे उसे मनाने के कारण खोजे जाते  हैं। स्‍त्रियों ने इस रूढ़िवाद को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभाई है। हर बदलाव को जस का तस स्‍वीकार  करने की 'स्‍त्री-प्रवृत्‍ति' ने ही न केवल स्‍वयं उसकी महत्‍ता को कम किया बल्‍कि जिन वैज्ञानिक खोजों का  वो स्‍वयं केंद्रबिंदु रहीं, उन्‍हें भी रूढ़िवाद और परंपराओं की भेंट चढ़ा दिया।
नतीजा यह कि गांव-गिरांव की बात तो छोड़ ही दीजिए, आज अधिकांश अच्‍छी खासी शिक्षित युवतियां भी  'दांपत्‍य की संपूर्णता' के इस महोत्‍सव को महज गिफ्ट पाने, साजो-श्रृंगार के लिए पहले ब्‍यूटीपार्लर्स और फिर  गहनों व कपड़ों पर लार टपकाते देखी जा सकती हैं। बाजार की वस्‍तु बनने में उन्‍होंने ही स्‍वयं को अर्पित  किया है...आज वे टारगेट हैं ..कमोडिटी हैं..वो सब-कुछ हैं...बस वो स्‍त्री नजर नहीं आतीं, जो ऋषियों की  खोज का आधार बनी थी।
अच्‍छा लगता है ये देखकर कि इन सारी स्‍थितियों के बावजूद अब कुछ युवा सामने आ रहे हैं उन   जिज्ञासाओं को लेकर जो प्राचीन भारतीय खोजों और दर्शनों पर आधारित हैं। देर से ही सही, इस युवा पीढ़ी  में बढ़ती जिज्ञासाओं को धन्‍यवाद देना चाहिए कि वे समय-समय पर उभर तो रही हैं...कम से कम हमसे  प्रश्‍न तो कर रही हैं...हमें बाध्‍य तो कर रही हैं कि हमने जिन बुनियादों पर अपनी रूढ़ियों की अमरबेल  चढ़ाई है, आखिर उनकी वास्‍तविकता क्‍या रही होगी?
तभी तो आज हम अपनी परंपराओं को निभाने के पीछे के कारण जानने पर विवश हैं। चाहे अनचाहे ही सही,  हम उत्‍तर खोजते-खोजते अपनी जड़ों की ओर देख तो पा रहे हैं कि जंगलों में रहने वाले ऋषि मुनियों ने  कितने कम संसाधनों में वो सिद्धांत और वैज्ञानिक विश्‍लेषण हमें सौंप दिये जो जीवन के लिए आवश्‍यक थे  और जिनके लिए आज प्रयत्‍न करने पर भी अपेक्षित परिणाम हमें नहीं मिल पाते।
मैं आज की यानि करवा चौथ जैसे दांपत्‍य को समर्पित खास पर्व की नींव की बात कर रही हूं कि प्राचीन  भारतीय शोधकर्ताओं को अच्‍छी तरह से मालूम था कि अच्‍छी सृष्‍टि की रचना तभी संभव है जब परस्‍पर  विरोधी प्रकृति व प्रवृति के होते हुए भी स्‍त्री व पुरुष एक दूसरे को लेकर सकारात्‍मक सोचें, सहिष्‍णु बनें, प्रेम  की उत्‍पत्‍ति शांत मन के साथ हो, प्रेम में उद्वेग से क्रोध और क्रोध से उत्‍पन्‍न संतान सृष्‍टि के लिए घातक  हो सकती है। इन दुष्‍परिणामों से बचने के लिए ही उन्‍होंने चंद्रमा की किरणों में प्रेम की उत्‍पत्‍ति को  सर्वोतम बताया और सिद्धांत बनाये स्‍त्री व पुरुष अपनी अपनी विपरीत ऊर्जाओं का इस्‍तेमाल करके जिस  संतति को आगे बढ़ायें वह दोनों का 'सुयोग' हो यानि सकारात्‍मक सोच वाली संतान के माध्‍यम से स्‍त्री-पुरुष  न केवल अपना, बल्‍कि विश्‍व का कल्‍याण करने के काम आयें।
इन्‍हीं खोजों में चंद्रमा की शीतलता और उसकी किरणों में कामना बढ़ाने वाले गुणों का पूरी तरह उपयोग  किया गया अर्थात् स्‍त्री-पुरुष दोनों में मौजूद ऊर्जा को सकारात्‍मक दिशा में बढ़ाने के लिए ही इस तरह  प्रयोग किया गया कि विरोधी ऊर्जाओं को धनात्‍मक ऊर्जा में बदल भी दिया जाये और प्रेम को आम  जनजीवन का स्‍थाई भाव बनाया जा सके।
खैर, आज हमें मिट्टी के करवों और खांड के करवे से अपने दांपत्‍य को समेटने के बारे में फिर से सोचना  चाहिए कि क्‍या प्रेम सिर्फ एक दिन का उत्‍सव है...इसकी निरंतरता बनी रहनी चाहिए मगर रूढ़िवाद और  इसे भुनाते बाजार के सहारे हम भला क्‍यों अपने प्रेम को सौंपें...बचना होगा इससे हरहाल में वरना इसके  सुरसा वाले मुंह ने हमें लिव इन रिलेशन तक तो पहुंचा दिया है, आगे की सोच कर मन चक्‍करघिन्‍नी हुये  जा रहा है।
Goodluck For Karwachauth
- अलकनंदा सिंह

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