किसी पीड़ित को त्वरित राहत देने के लिए जब कभी भी मदद के नाम पर ''मुआवजे'' शब्द का ईजाद किया गया था तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये मदद रिश्तों पर कितनी भारी पड़ सकती है। पिछले कुछ समय से ध्रुवीकरण करने के नाम पर राजनीति कर रहे दलों ने इसे ''कैक्टस'' बना दिया, जहां फूल की तरह दिखने वाला पैसा... रिश्तों में कांटे बोकर उन्हें जख़्मी कर जाता है और इस तरह तार तार हुए रिश्ते समाज में राक्षसी प्रवृत्तिायों को जन्म देते नज़र आते हैं।
पहला उदाहरण है - फिरोजाबाद में सीएए-एनआरसी के खिलाफ हुए हिंसक विरोध प्रदर्शन में एक व्यक्ति मारा गया जिसकी पत्नी को मुआवजे के तौर पर उप्र राज्य सरकार के विपक्षी दल समाजवादी पार्टी की ओर से 5 लाख का चेक दिया गया, जिसे हथियाने को देवर ने अपनी ही बेटी की हत्या कर इसका आरोप उस विधवा पर लगा दिया। हालांकि मामला खुल गया और पुलिस ने उस राक्षस को गिरफ्तार भी कर लिया परंतु मुआवजे के लालच में रिश्ते...तो तार तार हो गए ना ?
दूसरा उदाहरण - रेप विक्टिम बताकर सरकार से मुआवजा हासिल करने वाले परिवार का है जिसने अपनी कई बेटियों को इसका माध्यम बनाया और कई बार कई लोगों यहां तक कि शासन-प्रशासन से भी मुआवजा झटका... हालांकि देर से ही सही इस मामले की भी पोल खुल गई... और इज्ज़त मानी जाने वाली बेटी ''ब्लैकमेलिंग कर मुआवजा हथियाने'' की कुंजी बन गई। बाप भाई... बाप भाई ना रहे और बेटी बेटी ना रही।
अब तीसरा उदाहरण मुआवजे के साथ साथ रंजिशन बदले का भी देखिए कि आपसी दुश्मनी में अपनी ही किशोर बेटियों को पहले मरवाया फिर सुबूत ऐसी ऐसी जगह छोड़े कि विरोधी फंस जाये, ऐसा हुआ भी। विपक्षियों ने हालचाल लेने के बहाने भारी मुआवजे की बरसात कर दी, सरकार को घेरा, हल्ला मचा, मीडिया ट्रायल चला... ये लंबा चलता भी परंतु ... परंतु पोल खुली मुआवजे के बंटवारे में। किशोर बेटियों के रिश्तेदार आपस में भिड़ गए और सारे के सारे '' आंसू बहाते - दहाड़ मार कर रोते'' रिश्तों का सच सामने आ गया।
चौथा उदाहरण शहीदों के परिवारों को मिलने वाले मुआवजे का है। शहीद सैनिकों के ऐसे कई परिवारों की पोल सरेआम खुली है, जो शहीद सैनिक के नाम पर बाकायदा धरने पर बैठे ताकि जहां से ज्यादा से ज्यादा पैसा मिल सके, इन शहीदों के परिजनों द्वारा ऐसा इमोशनल ड्रामा खेला जाता है कि कोई भी सरकारी संस्था बेबस हो जाती है। कीमती ज़मीन पर शहीद की मूर्ति लगवा कर उस ज़मीन को अपने अधिकार में ले लेने, शहीद के नाम पर सब्सिडी के साथ बिना सिक्यूरिटी जमा कराए पेट्रोल पंप लेने, सैन्य विभाग द्वारा दी गई सहायता के अलावा अनेक संस्थाओं से नकद धनराशि बटोरने के लिए कभी जाम लगाना, किसी बड़े नेता व अधिकारी के आ जाने पर ही शहीद का अंतिम संस्कर करना आदि दृश्य आमतौर पर देखे जा सकते हैं।
पुलवामा हमले में मारे गए सीआरपीएफ के एक जवान के परिवार में तो मुआवजा हासिल करने का मामला कोर्ट तक जा पहुंचा, ससुर ने बहू को धमकी दी तो बहू ने अपने मायके पक्ष से ससुर पर हमला करवा दिया... ऐसा क्यों ? क्योंकि सरकार, विपक्ष और सामाजिक संस्थाओं ने लगभग 3 करोड़ का मुआवजा अकेले इस परिवार पर '' बरसाया'' ... नतीजा क्या निकला...? रिश्तों की ऐसी तैसी तो हुई ही उस जवान की शहादत भी जाया गई।
कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं कि शहीद की पत्नी ने मुआवजा राशि लेकर अपनी दूसरी शादी तो ठाटबाट से कर ली और शहीद के बच्चों को दरबदर कर दिया ... और ये सब स्वयं उनकी सगी मां ने किया, तो कहीं इसके बंदरबांट में जेल तक जाने की नौबत आ गई, और तो और इसी राशि पर शहीदों के बच्चों ने क्राइम का रास्ता अख्तियार कर लिया।
हालांकि सभी शहीदों के परिवार ऐसे नहीं होते परंतु अब ऐसे मामलों की अधिकता शहादत का अपमान कर रही है। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि अब मुआवजा एक ऐसा हथियार बन गया है जो पीड़ित के ज़ख्मों पर तुरंत मरहम लगाता दिखता तो है परंतु एक मीठे ज़हर की भांति ये रिश्तों को तार तार भी किए दे रहा है। लाशों पर मुआवजा हासिल करने वालों ने हमारी मृत देह का सम्मान करने वाली परंपराओं, रिश्तों और फिर समाज के आधारों को छिन्न भिन्न कर दिया है, अब सोचने की बारी हमारी है कि इस मुआवजा- संस्कृति को कैसे रोका जाए, बात बात पर '' रहम की भीख '' देकर जिस मक्कारी को हमने यहां तक आने दिया, अब उस पर पुन: सोचें ताकि ''किसी भी मृतक'' के नामपर ना तो मुआवजा बंटे और ना ही इस मुआवजे के बंदरबांट पर रिश्तों से हम कंगाल हो जायें।
वन्दे .।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जोशी जी
हटाएंसमाज के चेहरे का एक यह भी कुरूप पक्ष है। कहाँ जा रही है यह दोपायी जाति!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विश्वमोहन जी, कुरूपता उजागर करके ही हम कुछ सफाई कर सकते हैं...इन पनपती कुरीतियों की ...आभार
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जवाब देंहटाएंओह ! धनलोलुपता से उत्पन्न हुआ समाज का स्याह पक्ष | बहुत दुःख हुआ सब पढ़कर |
जवाब देंहटाएंनमस्कार रेणु जी, कई बार हम ऐसे विषयों पर लिखने से कन्नी काटते रहते हैं और समाज के लिए बीमारी बनी से प्रवृत्तियां हमारी इसी '' चलो जाने दो'' प्रवृत्ति का लाभ उठाती रहती हैं...हालात बहुत बदतर हैं.. मैं तो कुछ नहीं लिख पाई इसके मुकाबले।
हटाएंसमाज को आइना दिखाता सुन्दर लेख।
जवाब देंहटाएंनमस्कार शास्त्री जी, बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंनमस्कार कामिनी जी , बहुत बहुत धन्यवाद
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