चित्र गूगल से साभार |
तूने अखबार में उड़ानों का इश्तिहार देकर
मेरे तराशे हुए बाजुओं का सच बेपरदा कर दिया।
परवीन मेरी पसंदीदा शायरों में से एक रही हैं, उन्होंने इन चंद लफ्ज़ों में बहुत कुछ कह दिया। यह शेर लाचारगी का पर्याय बनी विधवाओं से जुड़े आज के इस लेख पर बिल्कुल सही बैठता है।
दो दिन पहले दिल्ली के विज्ञान भवन में ''लूमबा फाउंडेशन'' ने अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। लॉर्ड राज लूमबा सीबीई द्वारा 1997 में स्थापित गया था। लूमबा फाउंडेशन के इस कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने कहा था- ''विधवाओं के प्रति मानसिकता बदली जानी चाहिए, अगर कोई पुरुष पुनर्विवाह कर सकता है तो महिला क्यों नहीं कर सकती? लोगों की मानसिकता एक बड़ी समस्या है, हमें इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है।''
तो नायडू जी! बात तो सारी मानसिकता पर ही आकर ठहर जाती है ना, हालांकि इसमें बहुत कुछ बदला भी है मगर अभी बहुत कुछ बाकी भी है।
निश्चित ही यहां उपराष्ट्रपति के वक्तव्य का अर्थ सिर्फ पुनर्विवाह से नहीं था, बल्कि इसके ज़रिए विधवाओं के जीवन में खुशहाली लाने से था। मगर मेरा मानना है कि विधवा की इच्छा पर पुनर्विवाह हो तो ठीक वरना महज इसलिए पुनर्विवाह कराया जाये कि पुनर्विवाह करके वह खुश रहेगी, यह ठीक नहीं है।
बेहतर हो कि विधवाओं को आत्मसम्मान से जीने के साधन उपलब्ध कराये जाएं ताकि उन्हें किसी पर ''आश्रित'' रहना ही ना पड़े। कोई भी किसी पर आश्रित रहकर खुशहाल जीवन कतई नहीं जी सकता।
आत्मसम्मान तो दूर की बात अभी तक तो स्थिति यह है कि जीवन की बेसिक आवश्यकताओं के लिए भी दूसरों पर उनकी निर्भरता विधवा महिलाओं की पूरी ज़िंदगी को नर्क बना रही है। अधिकांशत: देखा गया है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलायें जीवन को ज्यादा अच्छी तरह से जीती हैं बनिस्बत उनके जो अपने परिवारिक सदस्यों पर निर्भर रहती हैं। तो ऐसे में पुनर्विवाह विधवाओं को खुशी देने की एक संभावना तो हो सकती है (हालांकि यह किसी विधवा की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करेगा) मगर ''संभावनाओं'' पर खुशियां तो नहीं ढूढ़ीं जा सकतीं न। यदि ऐसा होता तो इन्हीं ''संभावनाओं'' के कारण वे अपने परिवार में त्यक्त न कर दी जातीं।
यहां मैं वृंदावन में निवास कर रही परित्यक्ताओं और विधवाओं की बात करना चाहूंगी जिन्हें उनके परिवारीजनों द्वारा भगवद्भजन के नाम पर यहां ''छोड़'' दिया जाता है। ये महिलाएं कुछ समय पहले तक सिर्फ भीख मांगकर, मंदिरों में भजन गाकर या दान आदि के सहारे जीती थीं।
इनके लिए आत्मसम्मान से जीने की विधि सुलभ इंटरनेशनल और प्रशासन ने मिलकर निकाली। सुलभ के सहयोग से संचालित विधवा आश्रय स्थलों में ही अब प्रशासन ने मंदिरों से निकलने वाले फूलों से अगरबत्ती बनाने के साथ-साथ भगवान की पोशाक आदि बनाने का न केवल प्रशिक्षण दिलवाया बल्कि उन्हें आत्मसम्मान से जीने के अन्य साधन भी मुहैया कराये। हर आयुवर्ग की विधवायें और यहां रह रहीं परित्यक्तायें भी अब गोपाल जी की पोशाक व अन्य साजोसामान बनाती हैं। इस आमदनी से वे अपना जीवन अपने मुताबिक जी सकेंगी। वे यदि चाहें तो पुनर्विवाह कर सकती हैं मगर आत्मसम्मान से जीने की खुशी उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता से ही मिलेगी, यह निश्चित है।
बात सिर्फ पुनर्विवाह की नहीं है, नायडू जी ने सही कहा कि सामाजिक बदलाव से विधवाओं को सामान्य जीवन दिया जा सकता है। यह कटुसत्य है कि समाज में, स्वयं अपने परिवार में, अपने बच्चों के द्वारा भी विधवाओं को सिर्फ अपने अपने हिसाब से ''यूज'' किया जाता है, कभी इमोशनली तो कभी सोशली। उनके आत्मसम्मान की बात तो छोड़ ही दें सम्मान भी यदाकदा ही देखने-सुनने को मिलता है।
बहरहाल भारत में कुल 4.60 करोड़ विधवाएं हैं, जिन्हें आत्मनिर्भर बनाना आवश्यक है, इन कार्यक्रमों द्वारा हम 4.60 करोड़ चेहरों पर खुशी ला सकेंगे। चूं कि वर्तमान में खुशी व बदलाव सब आर्थिक उन्नति से जोड़कर देखा जाने लगा है तो विधवाओं के लिए भी सामाजिक स्तर पर बदलाव आर्थिक माध्यम से ही आएगा, यह वर्तमान समय का कटुसत्य है। वे ''विधवाविलाप'' जैसी उक्ति को भी बदलने का माध्यम बनेंगी,जहां सिर्फ लाचारगी ही होती थी।
जो भी हो मगर इतना तो अवश्य है कि अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस के बहाने उन ''सचों'' पर फिर से गौर किया गया जो विधवाओं के रास्ते का पत्थर थे, परवीन शाकिर के शब्दों में कहूं तो तराशे गए बाजुओं का सच, सामने तभी लाया जा सका है जब हमने उड़ानों का इश्तिहार दिया... कि अभी कितने चेहरे ऐसे हैं जो अपनी आकांक्षाओं को परिजनों के रहमोकरम पर मसलने को विवश हैं, हमें भी इन सचों को स्वीकारना होगा ताकि विधवायें भी ज़माने में अपनी आकांक्षाओं की उड़ान भर सकें।
-अलकनंदा सिंह
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